मध्यवर्ग की सशक्त लेखिका हैं डॉ.कृष्णा श्रीवास्तव
***************************************
वरिष्ठ लेखिका कृष्णा श्रीवास्तव का नया कहानी संग्रह ‘ आकाशवाणी से प्रसारित कहानियां ‘ पढ़ते समय मुझे यह कत्तई एहसास नहीं हुआ कि मैं किसी ख़ास माध्यम के लिए लिखी गयी कहानियां पढ़ रहा हूँ .शायद किसी को भी यह अनुभूति नहीं होगी .यह प्रश्न बार- बार मन में उठाता है कि क्या ऐसी कहानियों को जो आकाशवाणी के लिखी गयी हों, उन्हें बिना किसी तर्क के उन्हें दोयम दर्जे का करार दिया जाय .यह उचित बिलकुल नहीं है .हाँ एक बंधन अवश्य होता है कि उनकी शब्द संख्या अवधि के अनुसार निर्धारित होती है, लेकिन कहानी के मिजाज़ में कोई परिवर्तन नहीं होता है .
डाक्टर कृष्णा श्रीवास्तव की सभी कहानियां अपने कहन ,शिल्प और मिजाज़ में कहीं भी फिसलती नहीं है. उनके पात्र माध्यम वर्ग के हैं .उसी वर्ग की सोच ,उनके संस्कार सब परम्परागत हैं .नए विचारों में भी उबके संस्कार ज्यों- के- त्यों है .,मैं उनकी कहानियों को इन्हीं मापदंडों के आधार पर सुनता और पढता हूँ .मुझे यह कहने में तनिक भी गुरेज नहीं है कि उनकी भाषा नदी के स्वच्छ जल जैसी पारदर्शी हैं .कहीं भाषा की जटिलता नहीं उत्पन्न करती हैं .
प्रस्तुत संकलन में कुल बयालीस कहानियां हैं .किसी कहानी के कथ्य में दोहराव नहीं है .सभी मध्य वर्ग की मानसिकता, उनकी सोच और परम्परा को साथ लेकर आगे बढ़ने वाली कहानियां हैं .
‘मुखौटे’ की सुजाता पिता के न रहने पर अपने कर्तव्यों के प्रति संवेदनशील है .वह अपने कर्तव्यों को पूरी निष्ठा और ईमानादारी से निर्वहन करती है, लेकिन उसे क्या मालूम कि उसकी मां ने एक मुखौटा धारण किया हुआ है. जब वह मुखौटा सुजाता को दिखाई देता है, तो वह भीतर से तिलमिला जाती है. एक दिन वह अपनी सहेली बिंदिया और दीपक के साथ लाल साडी और मांग में सिन्दूर के साथ कार से उतरती है .और दुखी मन से कहती है ,’ माँ जो काम आप को और पिता जी के हाथ से होना चाहिए था ,उसे मुझे इस तरह से करना पडा ,इसका मुझे आजीवन अफ़सोस रहेगा .संभवतः मैं आप के निश्छल प्यार के भ्रम में जीवन काट लेती, लेकिन सच्चाई जान लेने के बाद नहीं .” उसकी माँ को अपने किये पर अफ़सोस होता है .स्वार्थ , वह भी माँ का, ज्यादा कष्टकर होता है .
‘नायिका’ एक अतिमह्त्वाकांक्षी लडकी की कहानी है .फिल्मों में नायिका बनाने की इच्छुक इस लडकी की कहानी का अंत बहुत ही कष्टकारी होता है .हालांकि माँ का भी प्रोत्साहन इसे मिलता है .कुछ हद तक सफल भी हों जाती है और एक समय वह भी आता है, जब उसके पास माँ से भी बातें करने का समय नहीं है .लेकिन जब एक दिन वह लडखडाती हुई घर आती है, तो सब कुछ समझ में आता है .माँ की इच्छा उसे थप्पड़ लगाने का होता है, लेकिन माँ की आँखों में आंसू के सिवाय और कुछ नहीं होता. सही कहा गया है कि आदमी अपनी औलाद से ही हारता है .
‘मन की आँखें’ एक संयुक्त परिवार की कहानी है .बहु का लिखना- पढ़ना घर की बुजुर्ग अम्मा को नहीं सुहाता है ..लेकिन अम्मा ऐसी भी नहीं हैं .इस कहानी का कथ्य बहुत सशक्त है .लेखिका अपनी कहानियों को मुहावरे और कहावतों का उपयोग कर कहन को बल प्रदान करती हैं .कहावतों का ख़ास मिजाज़ यह होता है कि वह कहन के विस्तार को थाम कर कम शब्दों में ज्यादा अर्थ प्रदान करते हैं..अम्मां के सब अपने हैं, कोई उनके सोच से पृथक नहीं है .सबके ऊपर उनका अधिकार है .लेखिका ने घर मुखिया को महत्व देकर संयुक्त परिवार को ज़रूरी बताया है, जो अब शनै: शनै; एकल परिवार में निरर्थक माना जाने लगा है .
अम्मा को खीर पसंद है .बीमार अम्मा को डाक्टर ने दो दिन बाद घर जाने को कहता है, अम्मा खुश है .अम्मा के पसंद की खीर बनी है, लेकिन अम्मा घर नहीं चिरस्थान को प्रस्थान कर जाती हैं. सारा घर अम्मा –दादी की जीवन्तता को सभी याद करते हैं .तब यह मालूम होता है कि संयुक्त परिवार से किसी बुजुर्ग का उठ जाना कितना खलता है .
‘दस्तक’ ,परम्परागत सोच से अलग एक ऐसी कहानी है, जो एक लडकी के उहापोह को दर्शाती है .दीपक उससे उम्र में काफी छोटा है ,लेकिन वह उसके स्वभाव और व्यवहार से काफी प्रभावित होती है .मन के भीतर उसे पाने की ललक भी है, परन्तु उम्र का फासला उसे किसी निर्णय पर स्थिर करने में हिचकोले पैदा करता है . ट्रेन में दीपक जब उसे बैठा कर चला जाता है, तो वह मात्र उसे के बारे में सोचती है .उसके साथ जुड़ने में बार बार सोचती है लेकिन किसी मुकम्मल सोच नहीं रख पाती .
माँ जब पूछती है कि ‘लड़का कैसा है ?’
‘अच्छा है .’
‘तुम्हें पसंद है ?’
‘पसंद तो था, लेकिन उम्र में बहुत छोटा है .’
‘कोई खराबी दिखी ?’
‘नहीं तो .’
‘फिर तुम पागल मत बनो .’
अम्मा ने दीपक को लिखा गया पत्र फाड़ देती है ‘ देखो जब भाग्य दस्तक दे , तो दौड़ कर दरवाजा खोलना चाहिए .माँ ने स्वयं रूढ़ियों को तोड़ दिया .
‘क्रास बीड’ कहानी का पूरा मर्म मात्र इन पंक्तियों से पूरी स्पष्ट हो जाती है “ हाँ मैं क्रास बीड हूँ .मुझे स्वीकारने में कोई शर्म नहीं ,क्योंकि क्रास बीड होने का दोषी मैं नहीं .न ही मैं ज़िम्मेदार हूँ .मैं तो केवल प्परिनाम हूँ उनके कृत्यों का .आदमी हूँ अथवा कुत्ता ?क्या फर्क पड़ता है ? क्रास बीड होने का अपमान और अवहेलना तो मनुष्य के द्वारा भोगनी पड़ती है ..”
कथ्य की सशक्तता के साथ ही इसका ट्रीटमेंट भी अन्य दूसरी कहानियों से अलग है इसे पढ़ते समय पाठक की संवेदनाएं स्वतः जुड़ जाती हैं …. ओह! मैं भटक गया .कहाँ- का- कहाँ .मानव जाती की मानव जाने .दूसरे के फटे में पैर घुसाने की मेरी बिलकुल आदत नहीं है .मैं तो मनुष्य द्वारा अपने प्रति भेदभाव की बात करना और समझना चाहता हूँ ….’
अंत में लेखन का कौशल इसे और मार्मिक अभिव्यक्ति देता है … मैं अपनी सेवा से उन्हें मुक्त करने हेतु दुबक कर निकल गया हूँ …… सच मानिए परावलम्बी हो गया हूँ .कहाँ भिजन, कहाँ पानी मिलेगा ,पता नहीं मिलेगा भी कि नहीं .अब मैं इस लायक भी कहाँ ? देखिये क्या होता है ? पुनः हुक उठी है ,घर वालों के दुखी चेहरे आँख के सामने हैं .अब समय ही उनके लिए मलहम का काम करेगा …..और मैं सफर करता हूँ … यह कहानी निश्चित ही उद्वेलित करती है .साथ ही सहानुभूति भी अर्जित कर लेती है .
इस संकलन की एक और कहानी का जिक्र करना ज़रूरी समझता हूँ ,इसलिए कि इसमें आज की मनोवृति को बहुत ही बहुत बेबाकी से उजागर किया है .’ चमेली सयानी हो गयी ‘ में दो पात्र चमेली और फुलवा के साथ डिप्टी साहब तीसरे पात्र हैं .फुलवा और चमेली दोनों बहुत ही सीधी हैं. सवेरे- सवेरे फूल चुनने जाती हैं .डिप्टी साहब के घर में फूल का पेड़ है .चमेली फूल लेने जाती है .साहब देख लेते हैं. उनके भीतर गलत इरादे पनपते हैं .फुलवा डिप्टी साहब के घृणित इरादे को समझती है और वह चमेली को मना करती है – ‘ मना किया रहा न ? बड़े साहब के घर पाँव न धारियों .’ लेकिन पहले तो चमेली नहीं समझ पाती कि फुलवा क्यों मना कर रही है, जबकि साहब बहुत प्यार करते हैं. लेकिन, एक दिन जब चमेली के पैर में चोट लग जाती है, तब उसकी समझ में डिप्टी साहब की मंशा समझ में आती है और वह पास में अर्खी सांटी उठा कर डिप्टी साहब के हाथ पर मारती है ..चीख कर कहती है ‘ छिः छिः तुम बड़े गंदे हो साहब ‘ डिप्टी साहब तिलमिला कर रह जाते हैं .फुलवा आती है .हकीकत पता चलती है तो चमेली को लेकर घर जाते समय उसके चेहरे पर संतोष का भाव उभरता है .सच में चमेली अब सहयानी हो गयी थी .
ऐसी ही कई कहानियाँ है जो अच्छी तो है, लेकिन स्थानाभाव के कारण सबका उल्लेख करना संभव नहीं है .इस संकलन की सभी कहानियां एक अर्थ ,एक मेसेज लिए हुए हैं ,
भोगा हुआ सच .बसन्ती ,किरायेदार, रज्जी की बिटिया,आसन्न ,कस्तूरी गंध आदि कहानियां समाज की बिसंगातियों को लेखिका ने बहुत ही सशक्त प्रस्तुति दी है .डाक्टर कृष्णा श्रीवास्तव की पहचान उन कहानीकारों में हैं, जो बिना किसी विमर्श और आन्दोलन के बीच दाखिल हुए अपने कथ्य ,शिल्प और भाषा के कारण अपनी एक अलग पहचान और मौजूदगी दर्ज कराती हैं .
*** .
• सुनील श्रीवास्तव
( पुस्तक का नाम : आकाशवाणी से प्रसारित कहानियां ,लेखिका – डा. कृष्णा श्रीवास्तव .प्रकाशक : नमन प्रकाशन ,४२३१ / १ .अंसारी रोड दरियागंज ,नई दिल्ली ) . .
मध्यवर्ग की सशक्त लेखिका हैं डॉ. कृष्णा श्रीवास्तव : सुनील श्रीवास्तव
Leave a comment
Leave a comment