यह मरण, वह मरण
एक कौआ मर गया
बिजली का नंगा तार
या कुखाद्य कोई आहार
जो भी मरण का कारण हो
पंजे ऊपर उठाये हुए
सड़क से पीठ सटाये हुए
वह निस्पंद होकर पड़ गया
एक कौआ मर गया
न जाने कहां से आकर
सैकड़ों कौए मंडराने लगे
मृत बंधु के ठीक ऊपर
गोल-गोल उड़ते हुए
‘कांव-कांव’ कर चिल्लाने लगे
कुछ उतर आये सड़क पर
चोंच अपनी हिला-हिलाकर
शायद शोक-गीत गाने लगे
बताते हुए बाकी संसार को
दुख में साथ है कौआ-समाज
एक आदमी भी मरा
अकेले-अकेले रहते हुए
अपने सुख में अकेले हंसते
अपने दुख में अकेले कलपते
मरा तो मरने की ख़बर
पहुंची बंद कमरे के बाहर
सड़ रही लाश से उठी बदबू से
तब भी पास कोई नहीं फटका
पुलिस ही आई पाकर ये ख़बर
ले गई लावारिस लाश को लादकर
हवाले करने चंद प्रशिक्षु-चिकित्सकों के
जिनके लिए बस बेनाम मुर्दा है वह
चीरफाड़ कर डिग्री कमाने का जरिया है वह।
आत्मा-परमात्मा
बहुत पुराना प्रश्न है ये
वैसे हमारे सांस्कृतिक इतिहास में
उद्दालक-पुत्र नचिकेता के नाम दर्ज
पर है ये प्रश्न उससे भी पुराना – – –
मृत्यु होने के बाद आत्मा का
अस्तित्व रहता है या नहीं रहता?
नचिकेता तो मुख़ातिब था साक्षात यम से
उनके लोभ-लपेटे लेक्चर के बावजूद
अपने प्रश्न की लाठी उनपर भांजता हुआ
मैं तो न नचिकेता की कोटि का निडर
न ही मेरी बुद्धि उसकी बुद्धि सी प्रखर
पर प्रश्न मेरे दिमाग़ में भी उठे हैं
बस मृत्यु के बाद वाली आत्मा ही नहीं
जीवित की आत्मा को लेकर भी उठे हैं
कहने को कह गये हैं उपनिषद
“अंगुष्ठमात्र: पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति – -”
पर वह पुरुष-परमात्मा कहां बैठा था
जब उसके ही किसी नाम के नारे पर
अबोध बच्चियां मसली-कुचली जा रही थीं?
कहां, आख़िर कहां सटक लिया वह
जब उसका ही काम अंजाम देना बताकर
निर्दोष-निहत्थे मारे-काटे जा रहे थे?
मारे-काटे-मसले जा रहे की जीवात्मा पर
मेहरबान आख़िर क्यों नहीं हुआ परमात्मा?
मार-काट-मसल रहे की कोई जीवात्मा
हो भी सकती है क्या, होती तो यूं
परमात्मा से बिलकुल बेलगाम क्यों होती?
नचिकेता के प्रश्न पर खड़ा हुआ कठोपनिषद
वही क्यों, पढ़ा-गुना गया कोई भी उपनिषद
मेरे प्रश्नों के उत्तर मुझे नहीं दे पाता
या तो नचिकेता के समय के आत्मा-परमात्मा
हमारे समय में बिलकुल बेमानी हो चुके हैं
या हम इतनी तरक़्की कर गये हैं कि
अपने हिसाब से ढालते-गढ़ते रहते हैं आत्मा
और अपनी मनमर्जी खड़ा कर देते हैं परमात्मा।
देश का आदमी
देश में आदमी तो बहुत हैं
पर देश का आदमी कोई नहीं
कोई बस अपनी जाति का
कोई बस अपने धर्म का
कोई बस अपने प्रांत का
कोई बस अपने स्वार्थ का
देश में आदमी तो बहुत हैं
पर देश का आदमी कोई नहीं
देश में दिक़्कतें हैं बहुत-बहुत
देश में मुसीबतें हैं बहुत-बहुत
इन दिक़्कतों-मुसीबतों को लेकर
देश को कोसा जाता है बहुत
पर इन्हें दूर करने के लिए
आगे नहीं आता है आदमी कोई
देश में आदमी तो बहुत हैं
पर देश का आदमी कोई नहीं
ऐसा नहीं कि देश में दम नहीं
तमाम-तमाम बातों में ये देश
दुनिया के किसी देश से कम नहीं
पर देश के आदमियों से ही तो
ये दम आगे सलामत रह पायेगा
देश के आदमियों से ही आगे
ये देश एक देश जैसा रह पायेगा
पर देश का सारा दुख यही है
देश खोजता रह जाता है अपना आदमी
और देश का आदमी कहीं दिखता नहीं।
जीवन का मुख्य रंग
देखने चलता हूँ तो मैं क्या- क्या देखता हूँ
रोज ही देखता हूँ और क्या ख़ूब देखता हूँ
अजब ही कारीगर है, ये जो ऊपरवाला है
कैसे-कैसे नमूने रोज ही दुनिया में भेजे है
पहले उन नमूनों का अलग-अलग रंग देखता हूँ
फिर तमाम रंगों को जोड़नेवाला-जोड़कर रखनेवाला
वह रंगों का रंग, सारे रंगों में सबसे अहम रंग
बार-बार देखता हूँ, देख-देखकर हुलसता हूँ
देखने का कोई तय वक़्त नहीं, तय जगह नहीं
कोई तय तरीक़ा नहीं तय फ़लसफा भी नहीं
बस अपनी आँखें खुली रखिए, कान खड़े रखिए
घर हो या बाहर, ग़ौर से देखते-सुनते चलिये
महानगरीय कालोनी के सामने पति की साइकिल से
उतरकर झाड़ू-पोछा करने जा रही कामवाली हो
या सालों पहले सुदूर किसी गाँव में उसी समय
किसान-पति को कलेवा थमा रही वही घरवाली हो
विदा लेती-देती आँखों में आता-जाता रंग देखिए
फिर रंगों को जोड़नेवाला-जोड़कर रखनेवाला मुख्य रंग देखिए
कहना आपका दुरुस्त है, देखना दुखी करता है कभी-कभी
दुरुस्त है कि दुःख-सुख में फ़र्क करना मुश्किल है कभी-कभी
पर मैं ये कभी-कभी वाली बात तो कर ही नहीं रहा
मैं तो जीवन में रंग भरनेवाले मुख्य रंग पर नज़रें टिकाए हूँ
रंगों को जोड़नेवाले-जोड़कर रखनेवाले मुख्य रंग को साधे हूँ
न्यौता है आपको, आप भी मेरे साथ इसका संधान कीजिए
उस मुख्य रंग की जीवन मे अहमियत समझने साथ चलिए
यही तरीक़ा है इस छोटी सी ज़िन्दगी के बड़े मायने जानने का
यही तरीक़ा है अपने-आप को भी ढंग से जानने-समझने का।
एकं ब्रह्म इव अद्वितीयं
तुम उसे उस नाम से पुकारते हो
मैं उसे इस नाम से पुकारता हूँ
उसे नहीं फ़र्क पड़ता है कि कौन-कौन
उसे किस-किस नाम से पुकारता है
तुम कहते हो कि पूरी दुनिया उससे है
हम भी कहते हैं यही दुनिया के बारे में
पत्ता नहीं हिलता बिना उसकी मर्जी के
तुम ये कहते रहते हो, हम भी
तो फिर दुनिया में उसका ये नाम चलेगा
या फिर वो नाम चलेगा, कौन-कौन
ये वाला कहने पर दुनिया से बाहर होगा
या वो वाला कहने पर मार दिया जायेगा
तय करनेवाले हम या तुम कौन होते हैं?
मन की बात
अति विचित्र है ये मन और मन का मामला
एक मन से दूसरा मन मिल जाने का मामला
एक मन से दूसरे मन के बिदक जाने का मामला
मन मिलने पर आते हैं तो एक ही दिन में
बर्लिन की मज़बूत दीवार का नामोनिशान मिट जाता है
मन और मन बिदकने पर ही तुल जायें तो
एक हिंदुस्तान से हिंदुस्तान और पाकिस्तान हो जाता है
कब, कैसे और कहाँ मिलता या बिदकता है मन
पता नहीं कितनी-कितनी परतों में छिपाये रखता है मन
कवि-लोग दावा करते हैं कि वे मन पढ़ लेते हैं
और मन पढ़-पढ़ाकर ही कविताएं लिखा करते हैं
पर पाठकों-श्रोताओं की शिकायत तो बिलकुल वाजिब है
आज की कविताओं को लेकर शिकायत बिलकुल वाजिब है
कि कवि-लोगों के पास जन का मन पढ़ने का वक्त कहाँ
वे तो अलाने-फलाने-ढेकाने महंत का मन ताड़ने में लगे हैं
किस तरह की और किस बुनावट में कविता महंत-मन भायेगी
उनके ही मन भाने के रास्ते पत्रं-पुष्पम् जल्दी लेकर आयेगी
अब उधर ही मुंडी घुमा-घुमाकर लिखते रहेंगे कवि तो
क्या पढ़ेंगे जन का मन और क्या खाकर लिख पायेंगे
कविता जो पैठ-पैठकर पढ़ती दिखे जन का मन
अरे ओ कवि कहलाये जाने को आतुर हुए लोगो
कविताई को लेकर बड़े-बड़े दावे करने में चातुर हुए लोगो
ज़रा मन लगाकर पाठकों-श्रोताओं की बात भी सुनते जाओ
वे उतने बेवकूफ नहीं हैं जितना तुम उन्हें समझ रहे हो
वो समझ उनकी ज़िंदा है जिसके मरने को कोसते रहते हो
ये महंत-शहंत तो हवा हैं, हवा में ही बिला जायेंगे
उनके सर्टिफिकेट-वर्टिफिकेट तुम्हारे वारिस कबाड़ी को देते जायेंगे
जन के मन को पढ़कर मन से कविता रचनेवाले ही आगे जायेंगे।
कभी न की गई प्रार्थना
उम्र के इस मुकाम से पहले
मैं हर दिन ही प्रार्थना करता रहा
अपने लिए नहीं, अपनों के लिए
बल्कि अपने दुःख का दर्द दबाकर
हमेशा अपनों के सुख के लिए
कभी पत्नी के व्याधि से उबर कर
बाकी ज़िंदगी नीरोग रहने के लिए
कभी भाई-बहन की मुश्किलें सुन
उन मुश्किलों के दूर हो जाने के लिए
कभी बेटे की अच्छी पढ़ाई के लिए
कभी बेटी की पढ़ाई के साथ ही
उसके अच्छे घर बस जाने के लिए
इस लम्बे चले प्रार्थना-सिलसिले के बाद
उम्र की ढलान पर अब इस वक़्त
मेरी तमाम प्रार्थनाओं के केंद्र में रहे
वही-वही लोग एक के बाद एक
शिकायतें सुनाते हुए आ-जा रहे हैं
आपने हमारे लिए आज तक किया ही क्या!
बल्कि उनमें से कुछ तो उग्र हो-होकर
मेरी तरफ उंगली उठा-उठाकर कहते हैं
ये आदमी हमेशा अपने लिए ही जिया!
किसी से भी मुझे कुछ कहना नहीं है
अपनी तमाम प्रार्थनाओं का कोई भी हिसाब
किसी को भी मुझे देना ही नहीं है
हाँ, बस एक बात कहूँगा अपने-आप से
काश! बस एक प्रार्थना अपने लिए की होती
कि ऊपरवाले! उम्र के इस मुकाम पर
दुःख का ऐसा संस्करण न दिखाना मुझे कभी।
मनहूसियत परे झटकने के तरीक़े
यूं आंखें फाड़-फाड़कर न देखो, तमाशबीनो
परेशान हो-होकर यूं न घूरो, घरवालो
दोस्तो, ये कोई ड्रामा-शामा बिलकुल नहीं है
यकीन करो, दिमाग़ मेरा बिलकुल सही है
ये जो राह चलते-चलते कहीं ठिठककर
मैं जो बिना बात के हंसने लग जाता हूं
घंटों घर में चुपचाप बैठे रहने के बाद
मेज़ पर तबला बजाकर जो गाने लग जाता हूं
महफिल में अहम और सजीदा बहस के बीच
जो चुटकियां बजाकर ताल देने लग जाता हूं
ये सब मेरे छोटे से दिमाग़ में उपजे
बस छोटे-छोटे से तरीक़े ही होते हैं
उस सदा सिर पर सवार मनहूसियत को
बस कुछ क्षणों के लिए परे झटकने के।
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