केनोपनिषद के तृतीय खंड में देवताओं का अभिमान तोड़ने के लिए ब्रह्म उनके समक्ष एक यक्ष के रूप में प्रकट होते हैं तथा एक तिनका लेकर उन्हें चुन्नौती देते हैं। उस तिनके को अग्निदेव नहीं जला पाते हैं और वायुदेव हिला तक नहीं पाते हैं। डरकर वे इंद्रदेव के पास आते हैं और अपनी हार तथा असमंजस के बारे में बताते हैं। फिर इंद्र स्वयं निकलते हैं यह पता करने के लिए कि अंततः वह यक्ष कौन है जिसके सामने उतने शक्तिशाली देवता असमर्थ रह गए थे। किंतु ब्रह्म इंद्र की प्रतीक्षा नहीं करते, वे जा चुके होते हैं तब तक। आश्चर्य में इंद्र इधर-उधर दृष्टि घुमाते हैं और अचानक भगवती उमा को देखते हैं, फिर उन्हीं से पूछते हैं कि वह यक्ष कौन था…
प्रथम दृष्टि से इस मिथक की सीख स्पष्ट सी है, देवताओं के ऊपर भी एक शक्ति होती है जो अहंकार उतारना अच्छे से जानती है। किंतु इंद्र-उमा का दृश्य असमंजस में भी डाल सकता है। ब्रह्म ने इंद्र की प्रतीक्षा क्यों नहीं की? क्या इंद्र को सीख नहीं मिलनी थी? और, सबसे बड़ी बात, उस अनजानी शक्ति को समझने की जिज्ञासा लेकर इंद्र उमा से ही क्यों उत्तर ढूंढते हैं? तब तो वे शिव की पत्नी महाशक्ति के रूप में भी नहीं जानी जाती थीं, इस कथा में उमा तो बस एक पहाड़ी युवती हैं। क्या वे पहले से ही सर्वज्ञ मानी गई थीं? मुझे नहीं लगता…
इस दृष्टांत की एक सुंदर सी और गहरी सी व्याख्या ओशो रजनीश के एक वचन में पढ़ा था। उन्होंने कहा था कि प्रत्येक मनुष्य को अवचेतन में यह आभास रहता है कि उससे बड़ी कोई शक्ति है जो इस संसार को चलाती है और उसी अवचेतन में उसको उस शक्ति को जान लेने की और उस में मिल जाने की तीव्र इच्छा भी रहती है जिसको सरल भाषा में कहते हैं जीवन का अर्थ समझने की या फिर सुख प्राप्त करने की इच्छा। एक साधारण व्यक्ति जो सचेत अध्यात्मिक खोज से नहीं जुड़ा है वह एक अज्ञात पूर्ति के प्रति इस अंदरूनी खिंचाव को अपने स्तर पर सुलझाने के प्रयास में उसको प्रेम-भाव में रूपांतरित करता है। इसीलिए पूरे जगत का साहित्य, सिनेमा, चित्रकला आदि विधाएँ स्त्री-पुरुष के प्रेम-संदर्भों से सर्वाधिक भरी हैं। सभी अन्य जीवों के लिए प्रजनन जीवन का बस एक भाग है, उतना ही महत्त्वपूर्ण जितना पोषण तथा सुरक्षा। केवल मनुष्य ने अपने जीवन-मूल्यों में तथा अपनी कला में स्त्री-पुरुष के संबंध को सर्वोच्च स्थान दिया है, जीवन-लक्ष्य के समान कर दिया है। आध्यात्मिक खोज के अवचेतन रूप का सरलीकरण करके मनुष्य ने उसको प्रेम का रूप दिया है। भोजन तथा सुरक्षा ही जैसी एक मूल आवश्यकता को जिसको जीव-विज्ञान में प्रजनन-वृत्ति बताया गया है मानव ने अत्यंत रूमानी तथा अलंकृत बना दिया है, उसको पूजने लगा है। ईश्वर के साथ एक हो लेने की अपनी अंदरूनी तृष्णा को पूर्णतः न समझकर मनुष्य ने एक दूसरे मनुष्य के साथ एक हो लेने में जीवन-लक्ष्य देखा है। अर्थात ब्रह्म को जानने की तृष्णा लेकर इंद्र उन्हें ढूंढने निकलते हैं किंतु न मिलने पर उसी तृष्णा और उसी जिज्ञासा को वे उमा की ओर निर्देशित करते हैं जो कि एक स्त्री हैं। और यहाँ इस बात का बिल्कुल कोई महत्त्व नहीं है कि मिथकों-पुराणों में इंद्र-उमा के किसी प्रेम-संदर्भ का कोई उल्लेख नहीं है। यह एक प्रतीकात्मक कथा है जिस में इंद्र-उमा बस नायक-नायिका हैं, इन दोनों के स्थान पर कोई भी दूसरे पात्र भी हो सकते थे, अर्थ वही होता…
अर्थात सहस्राब्दियों पहले उपनिषद रचनेवाले ऋषियों ने बड़ी बुद्धिमता, चतुरता एवं रहस्यमयता से मानव-जाति के होनेवाले आध्यात्मिक विकास की रूप-रेखा दिखाई थी। वही प्रेम-प्रसंग अब भरा रहता है सभी मुख्य कला-विधाओं तथा विचारधाराओं में और बहुत कम लोग समझते हैं कि वास्तव में यह केवल एक अवचेतन प्रयत्न है ईश्वरीय शक्ति में मिल जाने का, कि यह आध्यात्मिक प्राप्ति का बस शरीरिक स्तर है…
किंतु क्या स्त्री-पुरुष का प्रेम-संबंध एक सचेत अध्यात्मिक खोज की भी साधना हो सकता है? निश्चय ही हो सकता है। प्राचीन योगियों ने यह अनुभव किया था कि समाधि-अवस्था के लिए जो आनंदमय विचारहीन मनोस्थिति आवश्यक होती है उसी की एक झलक को एक साधारण मनुष्य भी जी लेता है संभोग की चरम बिंदु में। और यदि वही चरम बिंदु दोनों सचेत रूप से, ध्यान-साधना की भांति अनुभव करें तो फिर स्त्री-पुरुष का प्रेम भी आध्यात्मिक हो जाता है। इसी सिद्धांत पर तंत्र-विद्या विकसित हुई है, इसी का एक गहनतम प्रतीक है शिव-शक्ति का मिलन…
हिंदू परंपरा का प्रतीकवादी आयाम इसी बात पर बल देता है कि किसी भी दैविक छवि की सिद्धि के लिए उसमें पुरुष शक्ति तथा स्त्री शक्ति का प्रेम भरा मिल जाना और उन दोनों का एक दूसरे का पूरक बनना अत्यंत आवश्यक है, इसलिए आधिकतर देव-देवियाँ युगल में चित्रित होते हैं। ब्रह्मा-सरस्वती, विष्णु-लक्ष्मी, शिव-पार्वती, काम-रति, राम-सीता इत्यादी…
कृष्ण के साथ किंतु स्थिति थोड़ी जटिल है। कुंवारा देवता तो कदापि नहीं रहे हैं वे और यदि भक्तों से पूछा जाए कि कृष्ण की स्त्री-शक्ति कौन है तो अधिकतर लोग राधा का नाम बताएंगे। पर यह कितना सत्य है?
कृष्ण की राधा नाम की किसी सखी का कोई उल्लेख न महाभारत में मिलता है, न भागवत पुराण में, जो कि कृष्ण की जीवनी के दो प्रमुख ग्रंथ हैं। राधा का नाम पहली बार आता है बारहवीं शताब्दी के कवि जयदेव के गीतों में, फिर लोक-गीतों में तथा लोक-परंपरा में छा जाता है। अंततः कौन हैं राधा? क्या कृष्ण के जीवन-काल के सहस्राब्दियों पश्चात उभरे हुए इस लोक-सांस्कृतिक चरित्र को हम वास्तविक या ऐतिहासिक मान सकते हैं? क्या मात्र आस्था तथा भक्ति-भाव राधा-कृष्ण की युगल मूर्ती को सार्थक एवं पूज्य बना देते हैं?
राधा कौन है, यह समझने के लिए हमें सर्वप्रथम यह गहरे से समझना होगा कि कृष्ण कौन हैं…
कृष्ण का व्यक्तित्व ही प्रेम है। बचपन से ही प्रेम ने कृष्ण को उतना भर दिया कि उनकी चेतनावास्था ही प्रेमिल हो गई थी। समाज-वातावरण को हम वहीं दे पाते हैं जो हममें पहले से भरा होता है। कृष्ण फिर प्रेम बांटते गए। प्रत्येक स्तर पर। सभी सीमाओं के परे… वे पूरे अस्तित्व से प्रेम करते हैं, प्रकृति से, पशुओं से, मनुष्यों से… यह साधुओं के जैसा दूर से निहारनेवाला वैश्विक प्रेम नहीं, किंतु सक्रियता, सहजता, जिज्ञासा, चंचलता, आत्मीयता, खेल तथा भावनात्मक विविधता भरा व्यक्तिगत प्रेम है। युवावस्था में पहुंचकर तथा अंतःस्रावी विकास से जुड़कर वही प्रेम फिर रास-लीला का रूप लेता है। कृष्ण की अनेक प्रेमिकाएँ तथा आगे जाकर अनेक पत्नियाँ बनती हैं। प्रणय, शारीरिकता तथा कामवासना में भी वही सहजता, निर्दोष-भाव, पूर्णता एवं आध्यात्मिकता… महाभारत एवं भागवत-पुराण के रचे जाने से बहुत पश्चात कुछ नैतिक बदलावों के कारण हिंदू परंपरा में यह मान्यता फैल गई कि गोपियों के साथ कृष्ण की रास-लीलाएँ मात्र आध्यात्मिक स्तर पर घटित होती है और उन सब दृश्यों में कृष्ण को एक छोटा बच्चा भी बना दिया गया ताकि कोई सोच भी न सके कि उस प्रेम-मिलन में एक शारीरिक आयाम भी हो सकता था। वही राधा के नवरचित चरित्र पर भी कृष्ण के साथ एक “प्लेटोनिक” संबंध थोपा गया… जिस देश में कामसूत्र रचा गया था तथा पवित्र शास्त्रों की श्रेणी में रखा गया था, जिस देश में कामसूत्र के रचयिता वात्स्यायन को महार्षि माना गया था, वह किसी प्रकार कुछ बाहरी विचारधाराओं के प्रभाव में आकर अचानक शारीरिक प्रेम में दोष देखने लगा… मेरे नाटक “अंतिम लीला” में उसी विषय को लेकर कृष्ण का संवाद प्रिलेस्ता नाम की एक वैद्य महिला से होता है जो कृष्ण के भावी उपासकों के दृश्टिकोण में विकृतियों की भविष्यवाणी देती है –
“प्रिलेस्ता – किंतु सिखाएंगे वही कि परमेश्वर होकर वह करे कुछ भी, पर तुम रहो सीमाओं में, नहीं तो पाप लगेगा! और थोड़े बड़े होकर वे अधिक प्रश्न न उठाएँ इसलिए जो रास-लीलाएँ तुमने रचाईं गोपियों के साथ उनसे शारीरिकता हटवाएंगे, मधुर मिलन का मात्र आध्यात्मिक पक्ष ही प्रकाश में लाकर। संदेह न हो तो यह भी दावे से बताया जाएगा कि तुम छोटी आयु के थे उन सब घटनाओं के समय… अब सोचो जिस प्रेम-लीला से तुम्हारी राधा के मन-शरीर दोनों को ही आध्यात्म को प्राप्त होने का अनुभव मिला था, वह एक दस वर्षीय बालक की कैसे हो सकती है देन?
कृष्ण (माथा सहलाते हुए) – समझ में नहीं आता है हँसूँ या रोऊँ… अब कुछ भी प्रतीकात्मक ढंग से देखा या समझाया जाए, कुछ तर्क तो होना चाहिए उस में! शारीरिकता से इतना बैर क्यों?!
प्रिलेस्ता – सब वस्तुओं-घटनाओं के मूल कारण मैं भी नहीं देख पाती हूँ… बस ये कई उदाहरण दिए हैं कि प्रकृति से होती जाती दूर मानव की चेतना में जीवन-विकास का सहज क्रम कितनी कृत्रिमता से समेटा जाएगा… इतना मैं कह सकती हूँ कि उन्ही यीशू तथा मुहम्मद की नई धारणाओं में अपना शरीर ही मानव का प्रथम शत्रु बनेगा… और ऐसा हो तो मानस कैसे स्वस्थ रहे! उस सब का छाप तुम्हारे अतिसुंदर भारतवर्ष पर भी पर्याप्त पड़ेगा… तुम, कृष्ण, भूले नहीं जाओगे किंतु लोगों के तुमको समझने-पहचानने में विकृतियाँ आ जाएंगी… (मुस्कुराकर) फिर भी उससे तुम्हारा यह चरित्र कम उज्ज्वल तथा आकर्षक नहीं बनेगा। इन सब विचित्र परिवर्तनों में भी तुम चेतना-पुनर्जन्म की एक संभावना बनकर लोगों को प्रेम और दिव्यता की ओर खींचते रहोगे, भला वह उनका अनुभव किया खिंचाव अचेत भी क्यों न हो!”
पाठक से मैं अभी से इस बात की क्षमा चाहूंगा कि इस आलेख में उद्धहरण शात्रीय ग्रंथों से नहीं किंतु अपनी ही एक रचना से निकालकर दूंगा जो कि कोई आधिकारिक स्त्रोत बिल्कुल नहीं है, किंतु यह कोई वैज्ञानिक निबंध नहीं, एक मुक्त विमर्श है जिसमें अपनी ही अनुभव की और लिखी बातों के सहारे अपने विचार व्यक्त करना मेरे लिए सरल होगा…
पश्चिमी साहित्य में कई ऐसे पुरुष चरित्र हैं जिन्हें महान “फ़्लर्ट” और महान प्रेमी माना गया है, जो अनेक यौन-संबंधों में रहकर लड़कियों-स्त्रियों को प्रेम में फंसाने की कुशलता के प्रतीक बन गए हैं, जैसे स्पेन के डॉन खृुआन या इटली के काज़ानोवा। किंतु उनमें से किसी भी को कभी भी भगवान नहीं माना गया है, किसी के नाम कोई मंदिर नहीं बनाया गया है। और कारण इतना ही नहीं है कि वे पात्र ईसाई धर्म के परिवेश में रहते थे जिसके परिपेक्ष्य में उनकी जीवन-शैली कदापि पवित्र नहीं मानी जा सकती थी, उलटा, महान प्रेमी के साथ साथ वे महापापी भी माने गए हैं। मुझे लगता हैं कि उन तथा कृष्ण में एक और, मूल अंतर है। उन नायकों ने प्रेम के क्षेत्र में जो कुछ कारनामे किए थे उन सब की जड़ में उनका पुरुष-अहंकार था, स्वाभिमान था, स्त्रियों पर अपना स्वामित्व स्थापित करने की चाह थी। अपनी प्रेमिकाओं के भावों की उन्हें नहीं पड़ी थी। प्रेम से अधिक उपयोग किया था उन्होंने। कृष्ण प्राारंभ से ही उनसे भिन्न हैं। वे जो कुछ करते हैं शुद्ध प्रेम-भाव से करते हैं बिना किसी स्वार्थ के। उनका प्रेम शारीरिक इच्छाओं को पूरा करने तक सीमित नहीं है, उलटा, हार्दिक लगाव, करुणा तथा ध्यान का ही एक पूरक होता है प्रेम की शारीरिक अभिव्यक्ति… उसी मेरे नाटक में कृष्ण स्वयं अपना यह स्वभाव अपने मित्र को समझाते हैं –
“प्रेम ही रहा है मेरा सार सदा से, उसी में मैं पला-बढ़ा हूँ, वही बांटता गया अपने प्रियजनों में……प्रेमिका की आँखों में आनंद की चमक देखने से बड़ा नहीं है कोई सुख… स्वयं को भूलकर जब जी भर देते हो प्रेम तो मानो जीवन देते हो, उतना नवीन और पूर्ण कि कोई भी शक्ति फिर उसकी आत्मा को बंदी नहीं बना सकती… जब प्रेम बंधन न होकर एक चेतनावस्था बनता है तो ध्यान-तपस्या में प्राप्त किए प्रबोधन से कदापि कम नहीं है वह… ऐसा ही मैंने प्रेम किया है, अहंकारहीन, स्वामित्व-भाव से मुक्त…”
आगे अपनी प्रथम पत्नी रुक्मिणी की कहानी बताते हुए वे कहते हैं –
“एक प्रेम-चिट्ठी मिली एक राजकुमारी से जिससे मैं मिला भी नहीं था कभी… उसको किसी अप्रिय के साथ विवाह करने को विवश कर रहा था परिवार… एक प्रेम-विलाप था उस संदेश में, घोर निराशा… और भावों की उतनी गहराई थी कि क्षण भर भी नहीं लगा मुझे निर्णय लेने में… विवाह के दिन ही इकट्ठे हुए अतिथियों, सब राजा-राजकुमारों की आँखों के सामने उसका अपहरण करके निकल गया मैं… दांव पर प्राण लगाकर! स्तब्ध रह गए सब उस दुस्साहस से… अब तुम बताओ, भाई – जिसको बस खेलना होता है स्त्रियों के भावों से वह ऐसा कभी कर सकता है? या फिर तुम्हें भी उन सब पुरुषों की भांति यह लगता है कि उस दुस्साहस में स्वयं को उनसे अधिक योग्य वीर प्रमाणित करने की इच्छा थी मेरी, या “महान योद्धा एवं प्रेमी” की “अमर जीवनी” में एक “उज्ज्वल” अध्याय जोड़ने की मेरी चाह? नहीं… मेरी आँखों के सामने उस चिट्ठी में व्यक्त किए गए वे पीड़ा तथा प्रेम थे बस… सहज रूप से हृदय भरा था पूरा प्रेम से… उस प्रेम से जिसके वास्ते प्राण भी दे सकता हूँ निस्संकोच… जो प्रेम भरपूर दिया भी उसको ब्याह करके… ”
अतः हर प्रकार के प्रेम में पूर्ण तथा शुद्ध हृदय लगाने की अपनी अनोखी क्षमता के कारण ही कृष्ण को भगवान माना गया होगा प्राचीन भारतवर्ष में। और क्या पता, संभवतः कृष्ण की उस अखंड प्रेम-चेतना को ही एक सामान्यीकृत सत्री-छवि के रूप में चित्रित करके लोक परंपरा ने उसको राधा का नाम दिया होगा। दूसरे शब्दों में, कृष्ण के आध्यात्म का माधुर्य-आयाम का ही नाम राधा है…
किंतु क्या हम यह कह सकते हैं कि जिस पवित्र भाव से कृष्ण का असीम, “बहुपत्नीवादी” प्रेम दिया जाता था उसी भाव से वह प्रेम ग्रहण भी किया जाता था? क्या उनकी सखियाँ-पत्नियाँ हृदय-सोच से उतनी ही परिपक्व, अहंकारहीन तथा बंधन-मुक्त थीं कि उनमें भी स्वामित्व भाव न रहे तथा वह एक दूसरी से न जलें? भागवतम में यह उल्लेख मिलता है कि वृंदावन की सभी गोपियाँ कृष्ण की दीवानी होकर उनसे ब्याह करने के सपने देखती हैं तथा कृष्ण का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न करती हैं। वही आगे जाकर द्वारका के महल में कृष्ण की आठ पत्नियों के बीच यह विवाद भी छिड़ जाता है कि कृष्ण उनमें से किससे अधिक प्रेम करते हैं।अर्थात प्रतिस्पर्धा तथा ईर्ष्या के कुछ लक्षण हमें देखने को मिलते हैं। कृष्ण जैसे अपरिग्रही तथा मुक्त नायक के लिए प्रेम में पाई गई नकारात्मकता दुखद रही होगी। “अंतिम लीला” में वे कहते हैं –
“…मैं अनजान था इन सब बातों से और स्वयं को दूसरों से भिन्न सोच भी नहीं सकता था… जब मस्त यौवन की रास-लीला के चरम-बिंदु पर अचानक कुछ विचित्र-सा भाव छा गया प्रेमिका की मग्न आँखों में… जब बोले उसके होठ : “तुम केवल मेरे हो! मैं जी नहीं सकती बिना तुम्हारे! अब देखना, यदि तुमने हृदय तोड़ दिया, मर जाऊंगी!”… (फिर थोड़ी देर चुप रहकर, आह भरकर) यहाँ तुम लोग बड़े सुंदर, प्रतीकात्मक प्रकार से सूर्य को पूजते हो जीवन-उर्जा के स्रोत के रूप में… कोई इस ग्रह पर जी नहीं सकता उसके बिना… उस के प्रति कृतज्ञ होकर मैं भी प्रत्येक सूर्योदय का करता हूँ स्वागत बांसुरी की धुन से… उसकी किरणों में तृप्त रहता है मेरा मन… पर यह कितना विचित्र होता न, यदि मैं सोचूँ कि सूर्य देव का जीवनदायक यह उजाला मेरे लिए है बस!.. यदि चेहरा वह फेर भी ले पृथ्वी से और मृत्यु हो जाए मेरी भी , मर जाऊंगा मैं यह सुख लेकर कि उजाले-धूप का अनुभव मैं ने जिया है! उस पर आरोप लगाने की तो सोच कैसे सकता हूँ! “तुम्हारे बिना जी नहीं सकूँगी” – यह है प्रेम?! इंद्र भी तो जी नहीं सकता बिना सोमरस के… काली रक्त-बलिदान भर से जीवित रहती है… किंतु प्रेम?.. अब खाद्य-पेय पदार्थ से भी इसकी तुलना करें?? अब सूर्य को भी बांधके रखा जाए?! आशीष के रूप में दिया जाने पर प्रेम स्वयं में ही क्यों हो जाता है बंदी? प्रेम पाकर भी यह ईर्ष्या, डर और पीड़ा क्यों?? इस सब में विवश होकर प्रेम यदि स्वयं को ही खो बैठे तो?!.. प्रेम से स्वतंत्रता छीन लो और प्रेम रह जाए, यह एक भ्रम है! एक ही है दोनों!.. (फिर चुप रहकर आह भरता है) मेरी प्रेम-लीलाएँ प्रसिद्ध हुई हैं इसका मुझीको आश्चर्य हुआ सब से बड़ा… क्योंकि असीमता तथा मुक्ति के सिवा प्रेम का कोई अन्य रूप मेरी कल्पना को भी उपलब्ध नहीं था, यही लगता था फिर कि इसमें ऐसा क्या है जो अद्भुत लगता है!.. चेतनावस्था तथा प्रेमावस्था का एक ही होना अचानक क्यों दुर्लभ हुआ है इस संसार में!..”
नवीनतम शोधों के अनुसार एकपति-एकपत्नी वाली सामाजिक प्रणाली मनुष्य की कोई जैविक विशेषता नहीं है, सुविधानुसार विकसित होती आई समाजिक प्रवृत्ति मात्र है। कई जनजातियों में, जिन को तथाकथित “सभ्य” समाज “पिछड़ी हुई” मानता है, संबंधों को लेकर कोई विवाद नहीं होते हैं, ना ही अनाथ बच्चे होते हैं, क्योंकि पहले से ही संबंधों में बिना किसी पाबंदियों के रहना तथा सभी संबंधों से जन्मे सभी बच्चों का पूरी जनजाति के द्वारा बराबर पालन-पोषण किया जाना उनमें मानक माना गया है। क्या पता मानवजाति के स्वर्ण-युग में वही समाज की प्रणाली प्राकृतिक तथा सहज रही होगी और उसी प्रणाली में मानव की सहज अखंड आदिचेतना भी संभव रही होगी। संभवतः कृष्ण की सत्य-युगिन चेतनावस्था मानव-मानसिकता तथा समाज में हो रहे परिवर्तनों से अग्रस्त रह पाई थी, तभी वे अपने समकालिन लोगों को उतने भिन्न तथा दिव्य भी लगते थे…
समाज की उत्पन्न हुई नई संपत्ति-स्वामित्व केंद्रित व्यवसथा ने मानव की सोच को भी अपने ढंग से तराशा, नए आदर्श प्रेम पर भी लागू होने लगे, परिवार का नया स्वरूप अस्तित्व में आया, बच्चों के परवारिश तथा उनके वैचारिक विकास पर भी प्रभाव पड़ा। नाटक के अंतिम भाग में शक्ति (काली) देवी कृष्ण को यह बात समझाती हैं –
“फिर वे सब गोपियाँ… तुम्हें तब क्यों लगा कि युवतियों के प्रेम में शुद्ध भक्ति के साथ जो पाए तुमने स्वामित्व-भाव तथा ईर्ष्या वह उनका कोई दोष था? तुम्हारा जो स्वभाव तुम्हें मिला था माओं के परिवेश से वह था अपने में परिपूर्ण, ईर्ष्या या स्वामित्व का कोई स्थान नहीं था उसमें! किंतु सभी का वह नहीं होता! तुम्हें अपने महत्व का पक्का हो अनुभव तभी न तुम कुछ पाकर भी नहीं डरोगे उसको खोने से! यदि किसी लड़की ने तुमसे प्रेम करके जताया तुम पर अधिकार, तो क्या, तुम्हें बस जलनेवाली प्रेमिका दिखी? असुरक्षित बच्ची नहीं?! (थोड़ा रुककर) इसके सिवा एक स्पष्ट सी बात तो यह भी है कि जिसको प्रकृति ने कोख में शिशु पालने का दायित्व सौंपा है, उसके लिए प्रेम-संबंधों में सावधान रहना और प्रेमी के टिकने का अनुमान लगाना स्वाभाविक ही है। और स्त्री के प्रेम की परमावस्था का यह एक मुख्य लक्षण है कि उस में माँ बनने की चाह जाग जाती है! रास-लीलाओं की नायिकाएँ तुमने देखी उनमें, किंतु उन्होंने तुम में एक पिता भी देखा… (रुककर) फिर भी, तुम न रुठो तो ध्यान भी सीख लिया उन्होंने, अपनी कल्पना की शक्ति से तुम्हें बसा लिया अपने ही अंदर… जिसको कहेंगे : कृष्ण बंट गया, हर गोपी का हुआ अपना-अपना…”
निश्चय ही, परिवार की आधुनिक सर्वप्रचलित अवधारना, जो कि एक दंपति पर केद्रित है, किसी सामाजिक या नैतिक पतन का लक्षण नहीं है, उल्टा यह सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था में परिवरितनों का एक उचित तथा सुंदर विकल्प है, ना ही इस अवधारना में आध्यात्म के माधुर्य-आयाम के विकास के लिए कम संभावना है। बस एक दंपति की स्थिति में आध्यात्मिक खोज की पूर्ति प्रेमी-प्रेमिका के एक दूसरे में ध्यानपूर्वक विलीन होने के द्वारा पाई जाती है, ना कि कृष्ण के प्रकार अपने चारों ओर प्रेम बरसाने के द्वारा। राधा-कृष्ण की असीम, बहुसूत्रीय प्रेमावस्था का स्थान शिव-शक्ति की स्वकेंद्रित तांत्रिक प्रेम-साधना ले लेती है… संभवतः कृष्ण का युग संबंधों की अवधारना बदलने का भी युग था, तभी तो उस समय भी कृष्ण का बहुआयामी प्रेम-व्यवहार समाज में पूर्णतः स्वीकार्य नहीं हो पाया था। इस प्रसंग में बहुत प्रतीकात्मक लगता है कृष्ण का अंतिम समय जब वे बहुतों के प्रेम-पात्र होने पर भी सभी से दूर जाकर वनीय एकांत में मृत्यु को प्राप्त होते हैं… “अंतिम लीला” में शक्ति देवी कृष्ण से कहती हैं –
“हाँ, शिव ने काम का वध किया है! किंतु अर्धनारीश्वर को भी तो वही प्रकट कर पाया, न?! और तुम?! तुमने तो प्रेम कभी नहीं ठुकराया, न? स्वयं को देखो! विस्थापित, श्रापित, विचलित, अकेले!..”
फिर भी कृष्ण धन्य थे कि उनके युग के लोगों की आध्यात्मिक सोच उतनी भी भ्रष्ट नहीं थी कि उनकी प्रेमावस्था का दैविक सार न पहचान पाएं और उन्हें भगवान की उपाधि न दें। और सर्वप्रथम इसका श्रेय जाता है कृष्ण की सभी प्रेमिकाओं को, चाहें वे वृंदावन की गोपियाँ हों या द्वारका की रानियाँ। कभी कभी आपस में जलन होते हुए भी उनमें से कभी किसी ने कृष्ण के चरित्र को कलंकित करने का प्रयास नहीं किया, उनको निष्ठाहीन प्रेमी के रूप में नहीं दर्शाया, प्रेम में फंसाकर हृदय तोड़ने का आरोप नहीं लगाया… प्रेमिकाओं ने ही कृष्ण को पहचाना, उनके माधुर्य-भाव में जुड़कर उनकी प्रेमिल चेतना को दैविक प्रमाणित किया, स्वयं की भी चेतना को उस माधुर्य में खिलने दिया, कृष्ण को अपनाकर प्रेम की परस्पर आध्यात्मिक तृप्ति को जी लिया… अर्थात कृष्ण की प्रेम-सिद्धि का श्रेय सर्वप्रथम राधा को जाता है…
संभवतः किसी को यह भी लग सकता है कि कृष्ण की बहुदिशीय माधुर्य-अभिव्यक्ति में आध्यात्मिक अर्थ निकालने के पीछे कई पुरुषों भानेवाली बहुपत्नीत्व तथा अनेक प्रेम-संबंधों की विचारधारा को सही प्रमाणित करने का मात्र प्रयास है। यह एक प्रचलित मान्यता है कि अपने स्वभाव से, अपनी प्रकृति से पुरुष बहुपत्नीवादी होता है और केवल समाज उसे एकपत्नीवादी बनाता है, जब कि स्त्री अपने मूल स्वभाव से ही किसी एक के प्रति समर्पित होने का गुण रखती है। अब समाज के अनुसार पुरुष को स्वयं की इच्छाओं को न दबाना पड़े और इनको दिव्य भी घोषित किया जाए कृष्ण का उदाहरण देकर तो उससे बेहतर क्या हो सकता है! किंतु नहीं। एक तो, जैसे पहले कहा जा चुका है, कृष्ण जो भाव बांटते हैं वह शुद्ध प्रेम ही है, ना कि केवल यौन-सुख ढूंढती किसी अनुत्तरदायी तथा अपरिपक्व पौरुष्य की महत्वाकांक्षा। दूसरी बात यह है कि कृष्ण की सखियाँ स्वयं परिपक्व तथा मुक्त स्वभाव की थीं, कृष्ण को यदि पता होता कि वे अपनी प्रेम-अभिव्यक्ति से किसी को दुखा सकते हैं, चोट पहुंचा सकते हैं या हृदय तोड़ सकते हैं तो वे कदापि नहीं करते ऐसा व्यवहार। कृष्ण के प्रेम के मूल में स्नेह तथा मानवीयता हैं, उन्हीं के आधार पर माधुर्य-आयाम भी बन पाता है… आधुनिक समाज की मानसिकता तो बहुत बदली हुई है तथा मुझे लगता है कि यदि कृष्ण इन दिनों आते तो हमें वे रास-लीलाएँ नहीं देखने को मिलती, किसी को पीड़ा पहुंचाने से अच्छा कृष्ण अकेले ही रहना समझते, या फिर एक ही स्त्री में अपनी राधा को पाकर उसी में मस्त रहते… और तीसरी बात यह है कि कृष्ण की प्रेमिल चेतनावस्था पर कोई लैंगिक एकाधिकार नहीं है, किसी ने नहीं कहा है कि ऐसी दृष्टि तथा भाव का वाहक पुरुष ही हो सकता है। वास्तव में उसी महाभारत में हमें एक स्त्री-पात्र भी मिलती हैं जो कृष्ण की ही भांति प्रेम को एक मनोस्थिति के रूप में जी लेती हैं, ना कि किसी एक व्यक्ति से बंधन के रूप में। एक के बजाय उनके पांच पति हैं फिर भी कोई उन महिला के चरित्र पर प्रश्न नहीं उठाता है, वे सभी (कुछ शत्रुओं को छोड़कर) के गहनतम सम्मान तथा प्रेम की पात्र हैं। हाँ, मैं द्रौपदी की बात कर रहा हूँ। उनका दूसरा नाम था कृष्णा जो कि बहुत प्रतीकात्मक भी लगता है…
अब कुछ लोग यह कह सकते हैं कि वे तो विवश थीं पांच पुरुषों के साथ रहने के लिए, यह उन स्वयं की इच्छा नहीं थी, कि उनका एक सच्चा प्रेम तो अर्जुन ही थे। एक तो यह भी लोकवादी बात फैल गई है कि उनका गुप्त प्रेम कर्ण थे, पांचो पतियों के बड़े भाई तथा शत्रु… समस्या यह है कि कई पौराणिक चरित्रों को लेकर हमारे विचार हम से ग्रहण की गई सामग्री के आधार पर बनते हैं। और कितने लोगों में मौलिक महाभारत पढ़ी है? हम जो कुछ जानते हैं वह अधिकतर आधुनिकता में बनाई हुई लोकप्रिय चलचित्र-श्रृंख्लाों से जानते हैं जिनके निर्माताओं ने जनता को उसकी आधुनिक आवश्यकता का रस दिलवाने के लिए मूल कथा-वस्तु को तोड़-मरोड़के रखा है।
वैसे मौलिक महाभारत तो मैंने भी नहीं पढ़ी है पूरी किंतु एक विद्वान का श्रोता रहा हूँ जिन्हों ने महाभारत की सभी उप्लब्ध पांडुलिपियों का गहरा अध्ययन करके इस प्राचीन इतिहास के मुख्य पात्रों से जुड़े बहुत नवकृत मिथकों की चर्चा की है। उनका नाम है अमी गणात्रा और उनकी लिखी पुस्तक का शीर्षक है “महाभारत अनावरण”। उनके अनुसार द्रौपदी बहुत ही आकर्षक तथा प्रभावशाली व्यक्तित्व की धनी थीं, आत्मविश्वास तथा राजकीयता उनके नस नस में थे, प्रत्येक स्थिति में वे अपना स्वाभिमान तथा गरिमा को बनाए रखती थीं। वे कोई उत्पीड़ित या उपेक्षित दासी कदापि नहीं थीं जिसे पांचों भाई मात्र अपनी इच्छा से या माँ के कहने पर आपस में बांट सकते थे। मौलिक रचना में यह बहुपतिवादी विवाह सभी के परस्पर समझौते से किया जाता है जिसमें द्रौपदी का भी अपना बराबर मत था। वे इतनी सुंदर तथा मोहक थीं कि पांचों भाइयों को उनसे अत्यंत प्रेम हो गया था, पांचों ने उन्हें अपनाना चाहा था। स्वयंवर में उन्होंने उर्जुन को चुना था किंतु फिर युधिष्ठिर को लगा था कि कहीं अर्जुन से ईर्ष्या करने के कारण भाइयों के बीच में कोई तनाव न उत्पन्न हो तो वे इस प्रकार के विवाह का सुझाव रखते हैं। सभी पांडव इसे स्वीकारते हैं तथा द्रौपदी भी अपनी अनुमति-सहमति देती हैं, यह उनका भी स्वेच्छा से किया चयन था! अब यह लग सकता है कि कौनसी स्त्री इस प्रकार का प्रस्ताव स्वीकार सकती है? आजकल तो बहुत प्रश्न उठते उसके चरित्र पर। किंतु उस काल में कृष्णा का वही अधिकार था जो आठ पत्नियों को रखनेवाले कृष्ण का भी था और इसमें कोई लैंगिक भेदभाव नहीं था! हाँ, कई लोगों को विचित्र लगा था तब भी पर स्वयं युधिष्ठिर द्रौपदी के पिता को मनाते हुए स्त्री के इस अधिकार पर बल देते हैं बहुपतित्व के कई ऐतिहासिक उदाहरण देकर। फिर सारे दरबारी वातावरण में भी इस विवाह को मान्यता मिलती है तथा कोई सोच भी नहीं सकता है पांचों की पत्नी को टेढी दृष्टि से देखने की। हाँ, जब पांडवों-कौरवों के बीच तनाव बढ़ता है तो द्रौपदी का अपमान भी होता है किंतु वह कौरवों के व्यक्तिगत द्वेष के कारण होता है, ना कि द्रौपदी के किसी चर्चित “ढीले” चरित्र के कारण। एक ही पात्र था पूरे महाभारत जिसने द्रौपदी को क्रोध में “वेश्या” बुलाया था। वे थे कर्ण। वे ही कर्ण जिनको भद्र, शूरवीर तथा सहानुभूति दिलानेवाला उपेक्षित पात्र बनाने में फिर चलचित्र-निर्माण लग गया। मौलिक महाभारत में कर्ण स्पष्ट रूप से एक खलनायक हैं और द्रौपदी के साथ उनके चर्चित किसी गुप्त प्रेम-संबंध का प्रश्न ही नहीं उठता है। और तो और, पांडवों के जुआं में हारने के पश्चात राजसभा में सब के सामने द्रौपदी को हिंसापूर्वक खींचकर लाने का तथा उनका चीरहरण करने का सुझाव भी कर्ण का ही था… अब हम देख सकते हैं कि धर्म-अधर्म को पहचानने की हमारी क्षमता को महाभारत पर बनी रूमानी चलचित्रों ने कितना विकृत किया है…
किंतु इस विमर्श का यह मुख्य विषय नहीं है, हम बात कर रहे हैं द्रौपदी की प्रेमावस्था की। वे स्वेच्छा से बहुपतित्व को अपनाती हैं तथा पांचों पतियों को यथासंभव प्रेम देती हैं बिना स्वयं को खंडित अनुभव किए। क्या यह कृष्ण की ही जैसी प्रेमिल चेतनावस्था नहीं है? और क्या यह मात्र संयोग है कि पांच पति होने के बवजूद द्रौपदी के घनिष्ठतम मित्र तथा निष्ठावान सहायक कृष्ण ही बनते हैं? कृष्णा के प्रत्येक संकट में कृष्ण ही उन्हें बचाने आते हैं। ओशो रजनीश का भी यही कहना है कि इन दो प्रेम से चमकती आत्माओं ने एक दूसरे को पहचान लिया था, उनके बीच कुछ ऐसा था जो न कृष्ण की सखियाँ पूर्णतः समझ सकती थीं, ना कृष्णा के पति…
“अंतिम लीला” में कृष्ण कहते हैं –
“अपनेपन की गहरी झलक एक देवी में मिली थी… उसके लिए भी बंधन होने के बजाय प्रेम शुद्ध मनोस्थिति ही थी… तभी वह हलके हृदय से पांच भाइयों की पत्नी बनकर उन में समा सकी बिना स्वयं को बांटे… पर उसके भाग्य में कहाँ था समझा जाना… उसके पति भी आपस में जलते रहे… हम दोनों को कोई संबंध बनाने की आवश्यकता नहीं थी, पहले से एक आयाम में जो जुड़े थे… एक दूसरे को पहचाना गहरे मौन में… बस आश्चर्यचकित होते रहे सब इस बात से कि जब भी कोई संकट उस पर आता था तो पतियों से शीघ्र मैं पहुंचता था उसकी सहायता करने… ”
युग बदलने के साथ पितृसत्ता बढ़ती गई, द्रौपदी का व्यक्तित्व विवादों का विषय होता गया, प्रेम में मुक्त तथा रसमय स्त्री के प्रति अपने अवचेतन मन में डर पालनेवाले पुरुषों के बनाए नैतिक सिद्धांत द्रौपदी का नाम लेकर घबरा जाते गए… नाटक के अंत में शक्ति देवी कृष्ण से कहती हैं –
“फिर वह श्रेष्ठ नायिका तुमहारी, जिसको देखकर तुम्हें दिखा अपना ही प्रतिबिंब… तुम्हारे ही जैसे जो लीन थी उच्च प्रेम-अवस्था में… सही पहचाना तुमने मुझको द्रौपदी में… भविष्य में फैलेगी अटपटी सी बात कि बस कुंती के बिना सोचे बोलने पर उसे बनना पड़ा पांच भाइयों की पतनी… किंतु वह दासी तो नहीं थी न, एक नवविवाहित राजकुमारी थी! और युग भी तब यह नहीं आया था की स्त्री-सम्मान की सुरक्षा न हो… कृष्णा थी वह… इसीलिए बिना कुछ बोले ही गूं जता रहा एक वाक्य बीच तुम दोनों के : हम दोनों का अभाव न हो संसार को, अपनाना होगा यह अभाव एक दूसरे का… (दुखपूर्वक मुस्कुराकर) किंतु प्रलय की गति देखो! अनेक प्रेम-संबंधों में उलझे पुरुष को “कन्हैया” कहा जाए तो शर्माकर भी फूलेगा गर्व-प्रसन्नता से, किंतु यदि “द्रौपदी” पुकारा जाए स्त्री को तो एक घोर अपमान!.. “कृष्णा” तो वह तुम्हारी होगी, कृष्ण… संसार के लिए रह गई वह बस “पांच पुरुषों की स्त्री”…”
कृष्ण के प्रकार कृष्णा का देहांत अकेले में तो नहीं होता, वे पतियों के साथ संयास लेकर हिमालय की ऊंचाई के मार्ग में उनके सामने ही संसार त्याग देती हैं, किंतु जब युधिष्ठिर ने इस पर कहा कि उनमें से द्रौपदी ही सबसे पहले चल बसी है क्योंकि उन्होंने अपने सभी पतियों को बराबर प्रेम नहीं दिया था अर्जुन से अधिक लगाव रखकर, तो धर्मपुत्र की इस आडंबर भरी सतही टिप्पणी से हम समझ सकते हैं कि संभवतः पतियों के साथ भी द्रौपदी सारा जीवन एकांत में ही रही होंगी, उनकी आत्मा की गहराई पांचों की समझ में नहीं जंच पाई होगी…
किंतु क्या होता यदि कृष्ण-कृष्णा ने उन सभी घटनाओं से पहले ही मिलकर एक जोड़ी बनाई होती? इतिहास में “यदि” में पड़ना उचित नहीं होता है किंतु थोड़ी सी कल्पना चलाकर मुझे लगता है कि फिर शिव-शक्ति की ही जैसी स्थिति होती, एक असीम प्रेम-चेतना… और संभवतः ऐसा न हो पाना भी कलजुग के प्रारंभ का एक संकेत रहा हो…
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लेखक हिंदी प्रेमी शिक्षक और यूक्रेनवासी हैं।