*शब्दों के चित्र*
कांच की खाली बोतल में
पहले भरे अलग-अलग
आकार-प्रकार के चिकने
रंगीन पत्थर
घुमा फिरा कर देखा
बोतल को
मन मुस्कुराया और आँखों ने
खोज ली कुछ बची-खुची रिक्तता
भर दी रेत हौले-होलै
बोतल को थपकाते हुए
फिर मन मुस्कुराया
आँखें भी मुस्कुराई
कौशल पर इतरा रही थीं
वाह ! सब भर दिया
अब बाकी था
बोतल का मुँह ढक्कन से
ऐंठ देना
और सजा देना ‘किसी सेल्फ़’ पर
जहाँ पड़ती रहे नज़र
आँखें मुस्कुराती रहें अपने कलात्मक
कौशल पर
सब भर दिया…रिक्तता छोड़ी नहीं
लेश मात्र भी
हवा की भी गुंजाइश नहीं
पर क्या
कांच की खाली बोतल होता है
इंसान…
कलात्मक कौशल के नाम पर
भरा जा सकता है क्या उसे
पत्थरों के टुकड़ों से
क्या भरा जा सकता है
हृदय गुहा का रीतापन रेत से
क्या इंसान किसी के सुख के लिए
सजावट का सामान बनाया जा सकता है
सोचने पर लगता है
कि
वो सब कुछ चाहता है
बिखरना भी,
भरना भी
सजना भी
रीत जाना भी
नहीं चाहता तो बस
मुहाने को ढक्कन से ऐंठ दिया जाना
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*बदलते_दृष्टिकोण*
चलते हैं सड़क पर
दो पैर…दो आँखें..एक मस्तिष्क…
और ‘अनेक दृष्टिकोण’
एक ही व्यक्तित्व में
जो हर दिन एक ही जगह
को नए रूप में देखते हैं,
जिस दिन चलो
उलझनों के साथ
उस दिन
धंसी सड़कें जूझती दिखती हैं
उन पर फेंके गए मलवे को
पाटने में,
हरे पेड़ से भी
दिखता है झांकता कोई सूखा दरख़्त
बिजली के तार लगते हैं
आसमान पर बिखरा जंजाल
यहाँ तक की
ठीक से काम कर रही
लाल-बत्तियों के बावजूद भी
ट्रैफ़िक लगता है
तितर-बितर
कभी चले जो
निर्विकार भाव संग
तो दिखता है
उसी पथ पर कितना कुछ
एक साथ चलता हुआ
और सब कुछ
अपनी अलमस्ताई धुन में
बिना किसी अवरोध के
बेरोक-टोक
गुज़रता हुआ
हर उबड़-खाबड़ को
चुनौती मान
टापकर आगे बढ़ता हुआ
चीखते बिलावजह हाॅर्न
अनसुना करता
बस चलता हुआ…
बढ़ता हुआ…
टापता हुआ…सम्भलता हुआ..
बिना झुंझलाए
बिना खिसियाए
दो आँखें बनाती चलती हैं
एक ही बिन्दु पर
दृष्टि के नए कोण
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लिली मित्रा
फरीदाबाद
हरियाणा