1. बीज
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बीज की तरह
कवि
धरती में बो देता है -कविता
कविता
धरती का कर्ज है
धरती का कर्ज चुकाने के लिए
कवि को लिखनी होती है-कविता।
2. सत्ता
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मद में रहता है
चाकू
काटता है- सब्जी व फलों को
लेकिन उसे अहसास नहीं
एक दिन सब्जी की मुलायमियत भी
कर देती है धार कुंद
कटकर बार-बार
कुंद चाकू!
पड़ा रहता है
रसोई घर के किसी कोने में उपेक्षित ।
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3. लोकतंत्र
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उस लंगड़े घोड़े को
चाबुक मारने से
क्या फायदा
जिसकी चारो टांगें
घुड़सवार ने ही
तोड़ दी हो
घुड़सवार का मकसद तो सिर्फ
घोड़े पर सवार होना था
दरअसल उसे
कहीं जाना नहीं है।
4. काल-चक्र
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विकास और विनाश ने
मिला लिये हैं
आपस में हाथ
कर रहे हैं
प्रकृति का दोहन
दोनों हाथों से
सुना है –
हजार साल बाद
धरती
मनुष्यों के रहने लायक नहीं रहेगी
मनुष्य ही इसके विनाश के कारण बनेंगे
सभी जीव-जंतु
विलुप्त होने के कगार पर होंगे
तब भी राजनीतिक पार्टियाँ
बेशर्मी से चुनावी घोषणा-पत्र
जारी कर रहे होंगे
ताकतवर देशों का समूह
धरती को बचाने के नाम पर
कोई नया एजेंडा तय कर रहे होंगे
अभिशप्त हैं हम
जहां से चले थे
एक दिन
वहीं पहुंच जाने के लिए
शायद
हम फिर से जन्म लें
सृष्टि के प्रथम एककोशकीय जंतु
अमीबा में।
5. अशेष प्रेम
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सरसों में बनी
भापा इलिस माछ की खुशबू
अतीत के सात समुंदर पार कर
आज भी
नथुने में समा जाती है
लोडशेडिंग में
कपड़ों का झालर वाला पंखा झलते
अब भी तुम सामने नज़र आती हो
देखना तो
तुम्हारे अँचरा में जो हाथ पोछा था
हल्दी का दाग वैसा ही पड़ा है
या तुम धो दी हो?
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6. प्रेम
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तुम हो तो पृथ्वी
रहने की मुक्कमल जगह है
नहीं तो
उदास होकर कब का चला जाता
क्षितिज से दूर
किसी अंतहीन सफर में।
7. मोहपाश
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जीवन के केंद्र में
तुम हो
मोहवश ग्रह सी
घूम रही हूँ
तुम्हारी परिधि में
पर मेरी अपनी भी घूर्णन गति है
जिससे होती है
दिन से रात
रात से दिन
अहिर्निश
मगर ऋतुएँ तो बदलती है तुमसे
कभी पावस तो कभी फुहार
आकाशगंगा में हैं
और भी सौर मंडल
निहारती हूँ उन्हें
कभी-कभी
इच्छा होती है
निकल पडूँ भ्रमण पर
कम से कम एक बार
ओह प्रिय!
जानती हूँ
जब निकलूंगी तोड़कर
मोहपाश तुम्हारा
तो मेरी सृष्टि का ही
हो जायेगा अंत।
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8. घर
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पूरी दुनिया को बचाने की जिद में
वह अक्सर
‘घर’ को भूल जाता है
घर
धूप ,ताप, बारिश से ही
सिर्फ हमें नहीं बचाता
बल्कि हमारे स्वप्न
हमारे भविष्य को भी
जिलाए रखता है
एक बिजूका डाल कर
हो सके तो ‘घर’ को
बुरी नज़र से बचा लो।
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9.सराय
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वर्षो से
कलकत्ता में रह रहा हूँ
किसी के पूछने पर –
आप तो कलकत्ता में रहते हैं ना?
मैं ढूंढने लगता हूँ –
शहर कलकत्ता
अपने अंदर
आश्चर्य है –
“मैं भले ही कोलकाता में हूँ
पर कोलकाता शहर
मुझमें नहीं है।”
सराय
वर्षों रहने के बाद भी
कहाँ घर हो पाता है!
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10. छत और आसमान
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हम अक्सर
सर पर छत बनाये रखने की
जद्दोजहद में
इतने मशगूल हो जाते हैं कि
आसमां को
भूल जाते हैं
जीवन में
सर पर
छत और आसमां
दोनों की जरूरत है
एक बांधता है
तो दूसरा मुक्त करता है
दोनों के बीच
संतुलन ही जीवन है।
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11. असमाप्त प्रतीक्षा!
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गुम हो जाना चाहता हूँ
इन जंगलों में
हवाओं में अभी भी
तुम्हारी खुशबू है
देखो न देवदार के दरख़्त पर
हमारा नाम अभी भी खुदा हुआ है
कभी तो आओगी
तलाशनेे अतीत को
जानता हूँ तब तुम्हें
हम बहुत याद आएंगे
देखो न
देवस्थान के पेड़ की शाख पर
कबूलती के धागे
जो हम साथ-साथ बांधे थे
उसे नहीं खोला हूँ
तुम्हारे संग जो खोलना था
जानता हूँ –
कबूलती के ये धागे
पेड़ पर ऐसे हीं बंधे रह जायेंगे
समय भी अब
कितना कम बचा है।
12. अतीत
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अतीत का समुंदर
खंगालता हूँ-
बीते दिनों की यादें!
हाथ आती है –
मोती के बजाय
एक मुट्ठी सूखी रेत
बह जाती है
उंगलियों के पोरों से
धीरे -धीरे
रह जाती है-
मुट्ठी फिर
खाली की खाली।
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13. पता दूधिया हँसी का
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नीले शहर में
बस खानाबदोश बने
तुम्हें ढूंढता रहा
मेरे पास पता था तुम्हारा
सिर्फ दूधिया हँसी का
शहर चाँद तारे
सबसे पूछा
तुम्हारे बारे में
पर किसी ने जहमत नहीं कि
तुम्हारे बारे में बताने की
गली कूँचे बाजार
सभी जगह ढूंढा
कई कई बार
पर तुम्हें खोज नहीं पाया
बैठा हूँ चौराहे पर
थकहार कि
कभी तो नज़र पड़ेगी
तुम्हारी या मेरी
पर नसीब में बदा है
इंतजार
और इंतजार…
चाँद तारे शहर
सभी पुनर्नवा हो जी रहे हैं
अपने-अपने अपने वर्तमान के संग
सभी ने कहा –
हो सके तो ढूंढ लो वह चेहरा
नहीं तो लौट जाओ
कुछ समय गुजार कर
स्मृतियाँ के खंडहर में
पर ध्यान रहे-
नदी का जल
कभी लौटता नहीँ वापस
अपने उदगम में
पीछे मुड़कर देखना चाहा
उदगम को
नहीं दिखा
क्योंकि कई-कई मोड़ मुड़ गयी थी
जिंदगी
फिर भी दूधिया हँसी का पता लिए
मैं नीले शहर में
खानाबदोश हो तुम्हें
ढूंढ रहा था कि
शायद मिल जाओ
देखना चाहता था जो तुम्हें
जी भर कर एक बार
हो सकता है कि
तुम मिली भी हो
उदासी की चादर ओढ़े
मैं तुम्हें पहचान नहीं पाया
क्योकि मेरे पास तो पता था तुम्हारी
सिर्फ दूधिया हंसी का!
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14. सोना ‘सोना’ है!
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आधी रात को जग जाना
अपने विचारों में उलझे
बिस्तर पर करवटें बदलना
पौ फटने की प्रतीक्षा करना
कितनी थका देने वाली प्रक्रिया है
जग जाने पर
काश! हम अपने दादा जी की तरह
भजन ही कर पाते
मुँह अंधेरे
पूजा का फूल चुनने निकल जाते
हम तो बस
एक कप चाय की प्रतीक्षा करते हैं
जो सुबह होने की ऐलान पर
दस्तखत कर सके
सुबह जगना
कितना सार्थक होता है
सूरज के किरणों के साथ
फूल की पंखुड़ियों की तरह
धीरे-धीरे खिलना
रात भर जगे रहना
जागे-जगे थक जाना
कितना निरर्थक है
खुशनसीब हैं वे
जिन्हें रात भर नींद आती है
सच में
सोना
‘सोना’ है!
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15. सुख-दुःख
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सुख और दुःख
दोनों जुड़वां हैं
दुःख
छिपा होता है
सुख के ठीक पीछे
कंधा पकड़े
बदन सिकोड़े
सुख के लिए
यदि कोई मनुष्य
जतन नहीं करे तो दुःख
सुख को ठेलकर
जीवन के घर-आंगन में
अंधेरा सा पसर जाता है।
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16. महामाया
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जन्म और मृत्यु के बीच
फैला है
जीवन
इस जीवन के लिए
कितने झूठ-सच रचे जातें हैं
मान-अपमान,दुख-सुख,उपलब्धि
यश अहंकार कितना कुछ है
जीवन जीने के लिए
मरते दम तक
उसी में उलझे रहते हैं
जीवन
शून्य से शुरू होता है
धीरे-धीरे एक दिन
महाशून्य में
विलीन हो जाता है
सार्थक लगने वाला जीवन
कितना निरर्थक प्रतीत होने लगता है
धीरे – धीरे
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17. महबूब शहर
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स्मृतियों में एक शहर बसा है-
जो कभी माँ बनकर
लोरियाँ सुनाता है
तो कभी पिता बनकर
माथे पर हाथ फेरता है
कभी दोस्त बनकर
चट्टान की तरह पीछे खड़ा रहता है
तो कभी महबूब बनकर
प्यार लुटाता है
साँस की तरह
आता और जाता है
दिल की तरह
हमेशा धड़कता है
जीवन से कहाँ कभी
अलग हो पाता है।
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कवि परिचय
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नाम- राज्यवर्द्धन
जन्म- 30.6.1960, जमालपुर(बिहार)
रचनाएं प्रकाशित-
हिंदुस्तान के चर्चित पत्र पत्रिकाओं में फीचर्स, लेख,अग्रलेख, रिपोतार्ज, समीक्षाएं व कविताएं प्रकाशित।
सम्पादन-1..स्वर-एकादश’(समकालीन ग्यारह कवियोंके कविताओं का संग्रह)का संपादन,बोधि- प्रकाशन,जयपुर से2013 में प्रकाशित।
2. जमालपुर (बिहार) से प्रकाशित विचार पत्रिका का संपादन
स्तम्भ लेखन-1. जनसत्ता(कोलकाता संस्करण) में1995 से2010 तक चित्रकला पर स्तंभ -लेखन,
2 . नवभारत टाइम्स(पटना संस्करण) में कई वर्षों तक सांस्कृतिक संवाददाता ।
3. दैनिक जागरण(कोलकाता) व प्रभात खबर( कोलकाता) में भी कला पर स्तंभ लेखन
4. कविता संग्रह-कबीर अब रात में नहीं रोता, प्रकाशाधीन
संपर्क-राज्यवर्द्धन, एकता हाईट्स,ब्लॉक-2/11ई,56-राजा एस.सी.मल्लिक रोड, कोलकाता-700032
मोबाइल: 8777806852
ईमेल : rajyabardhan123@gmail.com