गांव में रहता हूँ
गांव में रहता हूँ
पूरा गांव घूमता हूँ
कस्बे में रहता हूँ
पूरे कस्बे में घूमता हूँ
शहर में रहता हूँ
पूरा शहर घूमता हूँ
एक देश में रहता हूँ
पूरा देश नहीं घूमा
विदेश जाने का मौका मिला
दुनिया घूमने की इच्छा है
वही हवा
वही खेत
वही सूर्य
वही चांद
वही पानी
वही तारों से भरा
खुला आकाश
वही लोग
बदलती भाषा में
बदलते कपड़ों में
बदलते वातावरण में
कहीं दरिया था
कहीं रेत ही रेत
कहीं बर्फ
कहीं समुद्र
कहीं पहाड़
नग्न, सब्ज़
व हिम के साथ
कहीं सभ्यताओं के अवशेष
कहीं आधुनिक सभ्यता का
पर्व
कहीं शरीर को फिर से
जीवित करने की चर्चा
कहीं पर किसी को वश में
करने की चर्चा
कहीं पृथ्वी को
छोड़ने की चर्चा
कहीं धरा से परे
कहीं ओर ब्रह्म में
बसने की चर्चा
कहीं सभी कुछ
त्यागने की चर्चा
कहीं एक में
समर्पित होने की चर्चा
कौन है जो रहता है
कौन है जो घूमता है
कौन है
जो चर्चाओं में शामिल होता है
गांव, कस्बा, शहर,
देश, विदेश, दुनिया,
धरा, ब्रह्माण्ड
परे से भी परे।
‘सभी आते हैं लंदन ब्रिज पर’
आकाश पर
बहुत से घने
सफेद बादलों के झुंड
बीच-बीच में
नीला गगन
और
ज़मीन पर चारों तरफ
हरियाली ही हरियाली
मुझे कुछ कहने ही नहीं देते-
देखता हूँ
यहां पर भी
मकड़ियों के
बहुत से जाले हैं-
ईंटों की दीवारों पर
टोकरियों में
विभिन्न रंगों के फूल,
कोस्टा काफ़ी पीते
खूबसूरत यादोँ को टटोलते
मानवों के अक्स-
समन्दर
मोम के मोह में नहीं था
उसे मालूम नहीं
कि कितने समय तक
किस-किस का
सृजन करना है-
रेत हल्की सी मुस्करा देती थी
समय के साथ
हाथ मिलाकर
जब भी
किसी का पांव
उससे स्पर्श करता था-
सभ्यताओं के पुराने कील
महलों के फुसफुसाते
षडयंत्र
आधुनिक टेक्नालॉजी का
अहंकारी अस्तित्व
सभी एक बाग़ में रखे
एक लकड़ी के बैन्च पर
बैठकर
अपने-अपने
युग की माया का
बखान कर रहे थे-
विश्व के लगभग
सभी उंचे ब्रांड
लंदन ब्रिज पर
अपना-अपना
विडियो बना रहे थे-
विशेष होता है
मानव की इन्द्रियों के लिए
यहां हर तरह का आकर्षण-
चलायमान
विचरना
बाहर भीतर
हर तरह के
विमोहन से
परे से परे है
घास के ईश्वर ।
सूक्ष्म भावनाओं को
हो सकता है
आकाश
सभी की
सूक्ष्म भावनाओं को
जानता व समझता हो
ऐसा इसलिए
कि हम सभी
आकाश में ही
विचरते हैं
समाधान भी चाहते हैं
और
समभाव का अमृत भी-
किसी ने तुम्हारे प्रति
यह भी कहा है
कि
आकाश
तुम्हारी प्रतीति तो होती है
मगर तुम कभी हुए नहीं-
तुम्हें
स्थापित किया जाता है
अंधेरे और भ्रम में
सर्प समझकर
रस्सी में-
अचरज में
आज भी हूँ
क्योंकि
चमकती धूप में
तैरते बादलों के साथ
नीले आकाश को
पेड़ों की पत्तियों में
दिखती जगह के साथ
संवाद
व अठखेलियां करते
अनुभव करता हूँ ।
जीवन का भ्रम
जब तक
जीवन का भ्रम है
तब तक
समस्याओं के बीज
उगते रहेंगे-
हर एक की
अपनी-अपनी
प्राथमिकताएं हैं
लकड़ी पत्थर नहीं हो सकती
और पत्थर लकड़ी नहीं,
लेकिन दोनों का क्षय
अवश्य है-
चित्त में निरन्तर
अनगिनत
संभावनाओं की
भीड़ भिनभिनाती रहती है-
चित्त विषयों से
स्पर्श नहीं कर सकता-
धूप में
अगरबत्ती को भी
अपना कार्य करने की
स्वतंत्रता होती है-
घर में
सभी पर्दों से
अपने कमरे को
अगर ढ़क भी लेते हैं
तो भी
भीतर के प्रश्न व दुख
कम नहीं होते
लेकिन
हल्की सी हवा
पर्दे को धीरे से हिलाकर
थोड़ी देर के लिए
आश्वस्त कर जाती है-
आपका ह्रदय मलिन नहीं
यह आपको भी मालूम है
लेकिन मंच पर
सभी नाटक कर रहे हैं,
थोड़ी देर किए
परिधानों को उतार कर
मेकअप साफ करके
अपने आप के
बीज से भी
मिलना व संवाद
करना होता है-
सहायता व सहयोग के लिए
धरा है
आकाश है
जल है
हवा है
अग्नि है
जिसे आप बना नहीं सकते
जिसका कारण
आप बन नहीं सकते-
श्रद्धा व समर्पण से
रोज़ मिलते रहिएगा,
ईश्वर
आसपास
सदैव रहता है। (यूके, 4.7.2024)
स्पर्श के बाद
1.
हाथों व पैरों के
स्पर्श के बाद
रोज़
बार-बार
मुड़ती
जुराबें
रखी जाती हैं
बूटों में बनी
खाली जगह में
या
किसी कोने में
या
कपड़े धोने की
बास्केट में,
तब तक
जब तक
घिसती नहीं
ज़िन्दगी की तरह
व
बंधी रहती हैं
एक ही धागे की
बुनाई में ।
2.
थकान
रोज़-रोज़
घर व दुकान के
फासलों से
निशब्द परिचित है
और
उसे ज्ञात है
जीवन में
हर पल
बनते मिटते
फासलों का भी-
बस पूछ ले
कोई प्यार से
या
नींद के बाग़ में
चुपचाप टहल ले-
ऐसे रिश्तों में
खिल उठती हैं
पंखुडियां
एहसास की।
3.
महंगे दामों का
सामान
सारी रात परेशान था
उसकी शीशे से
बनीं खिड़कियों से
दिखते
कुछ बच्चे
मुस्कुराते
हंसते
भूख-भूख
खेल रहे थे।
4.
धागा
घास
तिनका
कण
पानी की बूँद
संतुष्टि का
शुरू व आख़िरी
पड़ाव है
यहां अपने आप से
मिलने के लिए
किसी से भी
समय लेना नहीं पड़ता ।
‘यहीं से शुरू होती है’
आसान नहीं है
घर में खाना बनाना
फिर खिलाना-
घर की साफ-सफाई भी
और देखभाल भी
किसी भी स्त्री के लिए-
साधारण सी
गृहस्थी में भी
बड़े -बड़े ॠषि, मुनि,
साधु व भिक्षुक
भिक्षा के लिए निरन्तर आते थे-
आज वोट मांगने के लिए
आते व सिर झुकाते हैं-
आम व्यक्ति का
मेहनत व ईमानदारी से
कमाया अन्न व धन
सदियों से
सभी के लिए काम आ रहा है-
अभी -अभी
गुनगुनाती
हल्की सर्दी का मौसम शुरू हुआ है
कहीं कहीं उचाईयों पर
बसे पहाड़ों पर
बर्फबारी भी हुई है-
इसी परिवेश में
मन अनायास
हल्की धूप को देखकर सोचता है-
स्त्री जो निस्वार्थ
समर्पित होती है
प्यार के तंरगो में
समाज के कल्याण
व उत्थान के लिए,
पुरुष अपना
अंहकार छोड़कर
प्यार व सम्मान देने में
उसके प्रति
भावित व समर्पित
क्यों नहीं होता?
उगते व सूखते
पत्तों के बीच
गुज़रता
कोई भी मौसम
स्थायी नहीं रहता-
किसी न किसी
रूप में
भिक्षा मांगने
स्त्री से
उसके घर से
हर कोई आता है
व आता रहेगा-
देवी का
अद्भुत योग है,
पूर्णतया अलौकिक
अनुभूति
यहीं से शुरू होती है।
जुनून
1.
हूबहू
दूसरी दुनिया बनाने का
जुनून-
फिर से
पहली दुनिया से
परिचित करवाएगा-
सपने में
एक और
सपने से मिलकर
जागने में
जागने से परे
क्या जाग पाएगा।
2.
आजकल
तकरीबन
सभी की
इच्छा होती है
एक खूबसूरत
गाड़ी होनी चाहिए-
वसुधा का
गला घोंटने के लिए
फिर से
चन्द ठेकेदारों को
तारकोल की सड़कें
बनाने का ठेका
मिला है।
3.
प्यार
सुख
शान्ति
की दुकानें
आप भी
गूगल पर
खोज रहें होंगे-
क्या किसी ने
आपको बताया नहीं
कि
आपमें में ही
इसकी डिलीवरी
कब की हो चुकी है,
आपने अभी तक
अपने भीतर का
पार्सल खोला नहीं।
4.
जंगल के फूलों से
मैं मिलता नहीं-
पहाड़ों के पत्थरों को
कभी छूता नहीं-
दरिया में
अपने पैरों को
डूबोता नहीं-
जमी बर्फ में
अपने हिस्से के
पानी को देखता नहीं-
रेत के कणों में
जुड़ती बिखरती
क्षणभंगुरता को
महसूसता नहीं-
सारा आकाश
और उसके तारे
मेरे अपने हैं,
ऐसे खूबसूरत
सपनों से
कभी निकलता नहीं।
——–
विजय सराफ ‘मीनागी’ , (जम्मू)