एक
गगन से आ रही अनुगूँज तेरी तो नहीं है।
हवा की पोटली में गंध तेरी तो नहीं है।।
अचानक स्फर्श परिचित सा मुझे कोई छुआ हेँ।
कि धड़कन काँपती सी कहीं तेरी तो नहीं है।।
हवा के मनचलेपन से जरा सा पूछना चाहा।
अबोली हँस पड़ी, यह हँसी तेरी तो नहीं है।।
तने से लटकते मधुलता के फूले भले झूले ।
झपकते पायलों की झनक तेरी तो नहीं है।।
किसी अमराई के आँगन कहीं स्वर -याग हो ऐसा।
कि गाती कोकिलों में कूक तेरी तो नहीं है।।
बहुत बीता समय संवाद के पन्ने खुले ही हैं।।
फुदकते पाखियों की चहक तेरी तो नहीं है।।
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दो
इस तरह बात अकारण न उछाला जाए।
हो सके तो तनिक आवेग सँभाला जाए।।
खूब फैलाना अँधेरा नहीं उचित होता।
कहीं तो छेद हो जिससे कि उजाला जाए।।
कोप का ताप अपने आप उच्च होता है।
लोक हित में न इसे और उजाला जाए ।।
काम की बात अगर हो तो अभी कर लेते।
हासिये पर न इसे चाह कर डाला जाए।।
आग तो आग है अपने या पराये से लगी ।
राख करती है इसे मन से निकाला जाए।।
सब तो अपने हैं यहाँ कौन पराया लगता।
एक मालिक है इसे खूब खँघाला जाए। ।
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तीन
पत्थरों के पास जाना चाहता हूँ अब नहीं।
नये सपनों का बहाना चाहता हूँ अब नहीं ।।
बहुत मुश्किल से मिला है एक सोता नीर का।
लोभ की खातिर गंवाना चाहता हूँ अब नहीं।।
एक कुनबे में सिमट कर धनद सारे रह गये।
कोठियाँ अपनी बनाना चाहता हूँ अब नहीं।।
पागलों के शोर योंं सोने नहींं देते मगर।
सुप्त को थोडा़ जगाना चाहता हूँ अब नहीं।।
पाँव अपने- स्वयं सीधे कर लिए, है दौड़ना।
स्वाभिमानी जिद हटाना चाहता हूँ अब नहीं।।
क्रंदनों के बीच धीमी सुलगती सी आग भर।
स्नेह वश सच -मुच बुझाना चाहता हूँ अब नहीं।।
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चार
दुख इसी बात का लड़ना मुझे आता नहीं ।
अनैतिक पथ में तनिक चलना मुझे आता नहीं।।
वे भले होंगे जिन्हें है लूट का सब गुर मिला।
लोभ बस दुष्कर्म में गिरना मुझे आता नहीं।।
कहाँ तक ले जाएगी इंसान को अंधी सडक।
अनुकरण की ढाल पर ढलना मुझे आता नहीं। ।
ल़ोग जीवन को तिजोरी मान कर इतरा रहे।
नश्य पर नि:शंक इतराना मुझे आता नहीं ।।
द्वेष ईष्र्या दंभ दुर्गुण रहे हैं संसार के ।
तुच्छ मिट्टी पर मचल जाना मुझे आता नहीं।।
बहुत विषयों की खरीदारी यहाँ होती रही।
भरे इस बाजार से मिलना मुझे आता नहीं ।।
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डॉ. रामकृष्ण, (गया), बिहार