शायद शरद् आया द्वार।।
उफनाती नदियों का जोश हो गया ढीला
थमा -थमा – सा बादल राग।
पूरब की ललछौंही किरणों का मधुर स्नेह
वसुधा को दे रहा सुहाग।
रोमांचित अंग- अंग पुलकन भरती दूर्वा
कण- कण में जगा रही प्यार।।
मर्यादाएँ सारी नहा रहीं गंगा -तट
पूजन की थालियाँ सजीं,
भोर- भोर शोर हुआ कलरव के स्वर जागे
मंदिर की घंटियाँ बजीं।
भीगी -भीगी गातें लीन हुई भजनों में ं झरने लगे हरसिंगार।।
तरु की शाखाओं पर चाँदनी उतर आई
नीरव सब घोसले अभीत,
रुनझुन पायल कंपित वाँचने लगेगी फिर
परदेशी प्रीतम के गीत।
आँगन- आँगंन पूरे स्वस्ति – अल्पना मंगल
आँचल की रीत फिर सँवार। ।।
आओ चलेंं फिर हम अपने उस गाँव में।।
खेतो के आलों पर बौने अरहर पौधे
फलियाँ का बोझ अपने सिर पर लादे औंधे
खिल खिगला रहे होंगे यौवन के ताव में।।।
आहर के जल में भी शायद हो भेट फूल
कुछ तो खिले होंगे अपने औकात भूल
बाल धमा- छौकडी हो बरगद के छाँव में।।
शायद पुकार रहा मिठका कूआँ भाई
पुरबारी बगिया में सातो देवी माई ।
माझी मन डूब रहा भाव के बहंव में।।
चिपरी पर घृत महके डाक का चबूतरा
निर्मल जल धार और हवा खूब अखरा।
पथिक हेतु नीम गाछ नीरव ठहराव में ं।।
चुपके- चुपके उतरी
संध्या अनुरागिनी।।
आमोदक पल – छिन ले
अंजलि में , नव तृण ले
मगन- मगन धरती पर
चाँदनी पुकारती
विषुला मनभावनी। ।
घंटे घड़ियाल शंख बज उठे,
अगरु सुगंध
छितरा कर पसर गयी,
व्योम के कपाल तक
सुरभित प्रतिभागिनी।।
शाखाएँ चह चह कर
शांत हो रहीं मानो
नींद उतर आई हो
कोटर के द्वार पर
वेकल अभिसारिणी।।
अम्बर की थाल सजा
झिल मिल दीपक तारे
प्रकृति के मंदिर में
आरती उताश्रती।।
वस्तियाँ हैं, घर- घरौंदे, घंटियाँ बजतीं
वस्तियाँ हैं, घर- घरौंदे, घंटियाँ बजतीं
मंदिरों की सीढ़ियों पर चींटियाँ पलतीं।।
खेत हैं ,खलिहान है, चौपाल जमता है
धूप में, नम चाँदनी में मन विरमता है।।
भेट की मस्ती भली आहर हिलोरों में ं
उज्ज्वला रजनी यहाँ सौभाग्य है भरती।।
सहन शीला ललित ग्राम्या गीत मय आँगन
झूलता है शाखतरु पर सजल शुभ सावन।
मेच की छाया मनोरम मोर का नर्तन
कूकती काकली मृदु स्वर बाँसुरी लगती।।
स्नेह के पन्ने खुले के खुले रहते हैं
अलगनी से टँगे शुक संवाद गढ़ते है ं।
द्वार का खोई अपरिचित अतिथि होता है
शुद्ध चौके में अगिन की चाह जग उठती।।
ढूँढ रहा हूँ अपने घर में ही अपना घर।
ईंटों की दीवारों से ,छत से, आँगन से,
दरवाजे, खिड़कियों, गवाक्षों के आनन से।
मेरे श्रम का घरनामा जो यहाँ उगा था
दवा-दवा- सा ही कोने में हो अपना स्वर।।
आपना सब कर्तव्य बोध है जाग्रत रहता
संधि, समन्वय की धारा है गढ़ता रहता ।
भाषा का संदर्भ टूटने जैसा लगता
संवादों में खूब उछलता शब्दिक प्रस्तर।।
अनजाना- सा भूला -भूला- सा यह जीवन
एक कथा गढ़ रहा नयी चौखट पर उन्मन।
वर्तमान ही कहीं न बहुरे कल संभव है
कुछ अच्छा हो, शेष काल बन सके न अनुचर।।
नदी किनारे देख रहा हूँ
नदी किनारे देख रहा हूँ
सरिता की लहरें।
बहुत दिनों से सोच रहा था
मिलूँ किसी सरिता से
अज्ञानी -सा स्नेहिल हो संवाव
किसी वनिता से।
हवा तैरती आए उस पर
हम थोड़ा छहरेँ।।
अभिसारिका सरीखी लथपथ सी
दौड़ी जाती सी
लगती कुछ- कुछ कल -कल स्वर में
गुन-गुन सी गाती सी
खड़ा बुन रहा मैं प्रेमिल निर्वाक्
अमन ककहरे।।
चाहा हो संवाद हमारी भी
अल्हड़ सी इस नदिया से
या हाो फिर कूछ कूक रही कोकिल
रसाल की भी बगिया से।
आंखो मेंं तिरने आए हों फिर से
सपन सुनहरे।।
मैं प्रतीक्षा रत रहा हूँ।।
द्वार, वातायन खुले हैं,
दीप भीतर के जले हैं,
शान्त सी ठहरुी हवा है
पत्र शाखों पर हिले हैं।।
मैं अभीप्षावत रहा हूँ।।
छेड़ती अनुभूतियाँ भी,
राग और सुनीतियाँ भी
हिरण- लिप्सा मुग्ध करती
पूर्व प्रेम प्र्वृतियाँ भी।
अद्यतन अवगत रहा हूँ।।
कूकती जब काकली भी
प्रीति रस की बावली भी
गंध मय जीवन सुरक्षित
धरा पोषित श्यामली भी।
मैं कहाँ प्रतिहत रहा हूँ।।
——
गया, (बिहार)