*जीवन फूलों-भरी लता है*
लोग थका-माँदा न समझ लें,
रखना कुछ तो वेग डगों में।
माना सड़कें हैं पत्थर की,
पर उनको हर कूच पता है।
है मालूम कंटकों को ही,
जीवन फूलों-भरी लता है।
दूर गये कुछ काँटे लगकर
सिय के भी सुकुमार पगों में।
ज्यों पंचांग फटा-सा कोई,
हैं अपूर्ण उतने ही हम क्या?
ले जायेगा छतें ज़हन की
तेज़ हवाओं का मौसम क्या?
क्या हम थे बेअक़्ल, रात भर
चमक ढूँढते रहे नगों में?
हैं उदास रश्मियाँ सूर्य की,
घेर रहा है हमें कुहासा।
तीर चलाने वालो! यह मन
है न किसी मृग से कम प्यासा।
इतने हावी थे बहेलिये,
अपनी गिनती हुई खगों में।
मन में जो परती जगहें हैं,
उन्हें हरा करने की सोचें।
इर्द-गिर्द हैं उम्मीदें जो,
हम क्यों पंखुड़ियों-सी नोचें?
तुम न लहू हो, किन्तु तुम्हें क्यों
ओ दुख! रखते लोग रगों में?
*तोड़ो अपना काँच खिड़कियो!*
कुछ तो कम हो उमस घरों की,
तोड़ो अपना काँच खिड़कियो!
हिलना भूल गये हैं परदे,
हुई बयार लापता जब से।
छत के फ़ानूसों से पूछो,
रोशन नहीं हुए वे कब से!
मुट्ठी से बाहर आओगी
कब पसीजती हुई उँगलियो!
लगते हैं सम्बन्ध पेड़ की
निकली हुई किसी जड़ जैसे।
बैठे हैं सब लोग सभा में
लोहे की ठंडी छड़ जैसे।
हर चेहरा पहचान सकें हम,
चमको सारी रात बिजलियो!
चिटके गमलों की क़तार ने
लिखीं गुलाबों की तक़दीरें।
उतर रही हैं दीवारों से
पीली हो-होकर तस्वीरें।
घबराना मत, इस आँधी में
अगर चटकना पड़े टहनियो!
*है अवाक् पतझर*
हमने ख़ुद को बुना नीड़-सा,
हमें माफ़ करना तिनको!
इस मन को आकार मिला है
छोटी-छोटी चीज़ों से।
तुम्हें रचा है ओ मुस्कानो!
हमने अपनी खीजों से।
जब हम थे उद्विग्न बया-से,
कैसे भूलें उस दिन को!
कैसे कहें कि किन लोगों ने
इस जीवन में राग भरे!
है अवाक् पतझर, क्यों अब तक
कभी न मन के पात झरे।
हरा-भरा रखती हैं सब कुछ,
ये ऋतुएँ सौंपू किनको?
बहते रहे शिलाओं पर हम
अपने रचे प्रपात लिए।
रोके हैं इस तरह अश्रु, ज्यों
फूल ओस की बूँद पिए।
हुआ न रिक्त कोश चोटों का,
क्या आभार कहूँ इनको?
उम्मीदों की नदी अहर्निश
लहरिल-लहरिल लगती है।
आस ज़िन्दगी के चेहरे का
सुन्दर-सा तिल लगती है।
होने थे मैदान उन्हीं के,
थीं पसन्द गेंदें जिनको।
*ये लमहे*
यारो! ये लमहे हैं शायद
ड्यौढ़ी-ड्यौढ़ी जाने के।
गाढ़ा हुआ अजनबीपन क्यों,
हुआ अपरिचय क्यों गहरा?
कभी पूछना ख़ुद से, मन में
यह विषाद कब से ठहरा!
हाँ, छोड़ो अब सभी बहाने
दुनिया से कतराने के।
ज्यों मुँडेर पर चिड़िया, वैसे
दिखे आँख में अपनापन।
किसी नदी से दूर न जायें
उसकी नावें, उसके घन।
आने दो क्षण आलिंगन से
दुनिया को चौंकाने के।
किरचों वाली सड़क न समझा
हमने कभी ज़माने को।
खोने को कुछ नहीं अगरचे
धरा पड़ी है पाने को।
अभी रात है, अभी न आये
पल क़ंदील बुझाने के।
*दुनिया को क्या देते हम*
अधभरी बाल्टियों-से ख़ुद थे,
इस दुनिया को क्या देते हम?
जब हमें पुकार रहे थे पथ,
हम बैठ गये सागौन तले।
पत्तों से छनी धूप से भी
हर पल झुलसे, हर घड़ी जले।
था भँवर सरीखा हर लमहा,
किस तरह किश्तियाँ खेते हम?
हाँ, मन की शाख़ों से होकर
झोंकों-सा गुज़रा है विषाद।
प्रेमातुर पक्षी क्या समझें,
क्यों छिपकर बैठा है निषाद!
मन-हिरना! पूछ न व्यर्थ कि क्यों
तीरों के रहे चहेते हम।
फुनगी से खेल रही चिड़िया,
यह दृश्य उम्र का रूपक हो।
अपनी मुस्कानों की चर्चा
दूरस्थ देवताओं तक हो।
देखो! छतरी-से जीवन पर
कितनी बौछारें लेते हम।
*आये बहेलिये*
आये झुण्डों में बहेलिये,
कहाँ परिन्दों का कुल जाये?
किस कोटर में छिपे कपोती,
जाकर कहाँ चकोर विलापे?
क्या विदेह हो जाये सुगना,
कहाँ सिमटकर चकवी काँपे?
बया सिहरकर किस प्रपात में
पलक झपकते ही घुल जाये?
तीतर की झिलमिल आँखों को
दिखे निशानेबाज़ हर कहीं।
सहमी-सहमी हर बटेर है,
कहाँ बत्तख़ें शोख़ अब रहीं!
ज्यों ही तने गुलेल, तुरत ही
मैना का डैना खुल जाये।
मासूमों की बेफ़िक्री के
दिन अब गिने-चुने लगते हैं।
रात हुई, सो गयीं मुँडेरें,
पर घर के तोते जगते हैं।
कुछ ऐसे हों बोल पिकी के,
सारी वीरानी धुल जाये।
सुनो टिटिहरी! दूर नहीं हैं
आसमान गिरने के दिन अब।
जग क्या समझेगा पंखों में
चोंच छिपाकर सोने का ढब?
किस कनेर पर श्यामा चहके,
किधर चुलबुली बुलबुल जाये ?
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*सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी*, लखनऊ, उत्तर प्रदेश।