आज़ादी
जिसका नाम लेकर जिस-तिस को गरिया रहे हो
जिसके नाम पर जहां-तहां आग लगाते फिर रहे हो
वो ‘आज़ादी’ मुफ्त में नहीं मिल गई है,
ऐ युवकों
कोई ‘आज़ाद’ भरी जवानी में लड़कर शहीद हुआ है
कोई ‘बिस्मिल’ बेशिकन चेहरे से फांसी पर चढ़ा है
किसी अशफ़ाक ने जिसे अपने मजहब से ऊपर रखा
वीर सुभाष जिसके नाम पर सेना बनाकर लड़ा
वो आज़ादी लाखों ने खून बहाकर हासिल की है
वो आज़ादी करोड़ों ने पसीने बहाकर सलामत रखी है
इस बुनियादी बात को वक़्त रहते समझ लो, ऐ युवकों
अपनी जिम्मेदारी का वक़्त रहते अहसास कर लो, ऐ युवकों
ये तुम्हें मोहरा बनाकर खेलनेवाले किनारे से खिसक जायेंगे
तुम्हें मीडिया-शीडिया में चमकानेवाले नज़र भी नहीं आयेंगे
तुम्हारे पैर के नीचे की ज़मीन सिखकेगी तो तुम ही गिरोगे
इस देश का भविष्य तुम्हारे हवाले है, तुम ही संवारोगे
अपने अनूठे ही रूप से आज़ाद देश की आज़ादी के नाम
हिन्दुस्तानी बच्चों, युवकों, अधेड़ों, बूढ़ों की आबादी के नाम
कबीर, मीर, ग़ालिब, निराला, सुब्रह्मण्य भारती का वारिस
मैं हिन्दुस्तान का एक कवि तुमसे यही गुज़ारिश करता हूं
बात आज़ादी की बहुत जिम्मेदारी से लेने को कहता हूं ।
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अधर में पड़े अधेड़
बहुत तरक़्की कर चुकी ही है दुनिया
और रोज़-रोज़ करती भी जा रही है
इस तरक़्की के साथ-साथ तरक़्की कर रहे
तमाम नौजवान तरह-तरह से बताते फिरते हैं
देखो! दुनिया में कुछ भी नहीं था पहले
मॉल नहीं, मेट्रो नहीं, मोबाइल तक नहीं
पता नहीं कैसे जिया करते थे लोग पहले
इन्टरनेट नहीं, फेसबुक नहीं, वॉट्सऐप नहीं
ज़िन्दगी ज़िन्दगी होती ही नहीं थी पहले
तरक्कीपसंद दुनिया में बचे रहे गये बुढ़ऊ लोग
सारी तरक़्की से अछूते ही रह गये बुढ़ऊ लोग
हाथ की लाठी पर माथा रखे बड़बड़ा रहे –
कुछ भी नहीं बचा दुनिया में, कुछ भी नहीं
स्वच्छ जल नहीं, स्वच्छ हवा तक नहीं
शर्म और हया नहीं, दीन और ईमान नहीं
उठा लो, ऊपरवाले! उठा लो इस दुनिया से
ज़िन्दगी को ज़िन्दगी बनाने वाली उन तमाम
बुनियादी बातों से महरूम हो रखी दुनिया से
अपने खिचड़ी बातों जैसा खिचड़ी भाव रखते
कभी बुढ़वों को तो कभी नौजवानों को तकते
अधेड़ अभी हर तरह से भ्रम में पड़े हैं
तरक़्की कर रखी दुनिया की सहूलियतें जीमते हुए
दिल में बुढ़ऊ लोगों की बात के साथ रहते हैं
और दिमाग़ से नौजवानों के साथ चलते हैं
बुढ़वों का क्या, अब चलाचली की वेला है
अधर में पड़े इन अधेड़ों का क्या होगा?
नौजवान तो ‘क्या होगा?’ से परे पहुंच चुके
पहुंच पाये तो बुढ़ौती में अधेड़ों का क्या होगा?
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एक दु:खनिवारक सलाह
ए भाई!, दु:खी प्रसाद जीS – – – – –
हां, हां – – – – आपसे ही मुख़ातिब हूं।
माफ़ कीजियेगा इस नाम से पुकारने के लिए
पर देर से मैं देख रहा हूं आपको
झींकते, कुढ़ते, कराहते, कलपते हुए
अपने दु:ख को चेहरे पर चिपका कर
उसके लिए अड़ोसी-पड़ोसी, बंधु-बांधव से लेकर
उस अदृश्य ऊपरवाले भगवान तक को कोसते हुए
नहीं, नहीं – – – मैं आपके दु:ख पर
कोई सवालिया निशान लगाने नहीं जा रहा
न ही उसके किसी कारण को नकारने जा रहा
मैं तो आपके इस दु:खमय हुलिये से ही
किंचित दु:खी होकर एक सलाह दे रहा हूं
आपके दु:ख को भले थोड़ा ही सही पर
कम करने में समर्थ एक सलाह दे रहा हूं
जरा अपने दु:ख के ठिकाने से हटकर
सौ मीटर दायें, फिर सौ मीटर बायें चलें
जो-जो लोग आपको दिखते-मिलते जायें उनसे
उनकी ज़िंदगी का थोड़ा हाल लेने की कोशिश करें
और फिर आपसे भी कहीं ज्यादा दु:खी होने का
कारण दर कारण होने के बावजूद कोई उनमें
दु:खी न होता दिखे तो उससे जीने का
सलीका सीखने की एक ईमानदार कोशिश करें
उम्मीद है कि इससे आपका दु:ख कम हो जायेगा
हमारी अगली मुलाकात में आपका चेहरा बेहतर नज़र आयेगा ।
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सज़ा
बस कुछ महीनों की बात है
मेरी खोपड़ी पर बचे चंद बाल
उड़ जाएँगे पहले ही उड़ चुके
पाले-सँवारे हुए सपनों की तरह
जैसे एक आख़िरी मुहर लगाते हुए
दुनिया बदलने के सपने देखने में
खोपड़ी खपाते रहने की सज़ा पर ।
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फन्डामेंटल फाल्टलाइन
हाँ तो मेहरबान-कद्रदान , आज मूड है आपको बताने का
ज़िन्दगी की फन्डामेंटल फाल्टलाइन के बारे में समझाने का
कि भारतवर्ष के विश्वप्रसिद्ध लोकतंत्र का केन्द्र आम आदमी
कि भारतवर्ष के लोकतंत्र का परचम बना हुआ आम आदमी
कि लोकतंत्र के महाकुंभ में दूल्हे जैसी पूछ वाला आम आदमी
कि नारों-भाषणों-घोषणापत्रों में चहुँओर छाया हुआ आम आदमी
कैसे केन्द्र से हाशिए पर धकियाए जाने को अभिशप्त है
कैसे परचम से चीथड़े में तबदील हो जाने को अभिशप्त है
कैसे , कैसे , कैसे ? सोचिए , जरा सोचिए मेहरबान-कद्रदान
इस फन्डामेंटल फाल्टलाइन की जड़ आपकी सोच में ही है
होता ये है कि पूछ होने पर आप खुशी से फूल जाते हैं
क्यों हो रही है पूछ , ये सोचना ही बिलकुल भूल जाते हैं
परचम बना नाम देखकर अपने को परचम समझ लेते हैं
पिछली बार का चीथड़े जैसा हश्र याद ही नहीं करते हैं
जो-जो ख़ास-ख़ास वक़्त वाले वादे थे , वे कहाँ गए
क्यों नहीं सोचा जब वही-वही वादे फिर किए गए
वादाफ़रोश आपके सामने खड़ा हुआ बेहयाई से हँसता रहा
और उसकी ठगी दर ठगी पर आपका मुँह बंद ही रहा
आपकी सोच की ये सारी फाल्टलाइन ही तो बनाती हैं
ज़िन्दगी की फाल्टलाइन जो आगे ज़िन्दगी को दूभर बनाती है
तो सोचिए मेहरबान-कद्रदान , इसपर फिर-फिर सोचिए
अपनी अगली पीढ़ियों के लिए ही सही , पर अब सोचिए ।
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चुनाव
मैं जो अपनी उम्र भर की मेहनत-मशक्क़त के बावजूद
लखपति तक न बन पाया अब तक , न सम्भावना है कोई
जा रहा हूँ तमाम करोड़पतियों-अरबपतियों में से
चुनने एक को जो मेरा प्रतिनिधि बनेगा बड़ी पंचायत में
कहते हैं कि कोई नोटा भी मौजूद है जिससे मैं
भड़ास निकाल सकता हूँ इन सबको नाक़ाबिल समझने की
पर उससे क्या होगा , बैठ ही जाएगा कोई प्रतिनिधि बनकर
भले मेरे भले की न कहे- न सोचे बैठकर बड़ी पंचायत में
ऐ ऊपरवाले ! तमाम प्रलोभन ठुकराते हुए , अपना ईमान ढोते हुए
चला जा रहा हूँ बूथ की ओर , अपना मत सीने में छुपाए हुए
कई गिरहकट गिड़गिड़ा-लपटिया रहे हैं मेरा मत जानने को
कई तो चाशनी में लपेटकर धमकिया रहे हैं देख लेने को
ऐ ऊपरवाले ! भजनों में भजे जा रहे मेरे पूज्य पालनहारे !
तुम्हें जो करना है मेरा कर ही रहे हो , करते ही रहे हो
मेरे अज्ञात-अबूझ कुकर्मों की सज़ा देते ही रहे हो
इस पंचवर्षीय प्रहसन की पीड़ा से तो अब बख़्श दो
देनी ही है सज़ा तो किसी नये ही तरीक़े से सज़ा दो ।
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