बाबू जगदंबा प्रसाद कानपुर कोर्ट के दीवानी के नामी वकील हैं। कानपुर के शीर्ष पांच नामी वकीलों में उनका नाम सबसे ऊपर है। उनके पास मुकदमों की भरमार हुआ करती है। लोग उन्हें जीत की कुँजी कहा करते हैं। समय बड़ा मजे से कट रहा है। घर में किसी चीज की कमीं नहीं है। उनके तीन लड़के और दो बेटियाँ हैं। दो बेटे नितिन और प्रखर उनके साथ वकालत करते हैं, छोटा रमेश पी.सी.एस.(जे) करने के बाद बलिया में जज है, रमा और श्रेया दो बेटियाँ हैं वह बी.ए. और एम.ए. में पढ़ती हैं। जगदंबा प्रसाद का नंबर आज भी शीर्ष वकीलों में है उनके पास मुकदमों की भी कोई कमी नहीं है, उनके पास घर-मकान, गाड़ी-घोड़ा और जमीन-जायदाद की कोई कमीं नहीं है। लोवर कोर्ट में जाना वह अपनी तौहीन समझते हैं।
मेरे मोहल्ले के लाला रघुवंश सहाय भी कानपुर के नामी-गिरामी वकीलों में से थे। पंद्रह-बीस उनके सहायक वकील होते थे। हर नया वकील सहाय साहब की शार्गिदी में ही वकालत शुरू करना चाहता था। जज तक उनका लोहा मानते थे। अभी तक किसी मुकदमें की हार उनके हिस्से में नहीं आई। अब तो वह हाईकोर्ट के मुकदमें भी लेने लगे थे। दीवानी और क्रिमिनल पर उनका समान अधिकार था। ऐसे में उनके साथियों की उनके प्रति जलन होना स्वाभाविक ही थी। लाला रघुवंश सहाय अपनी ईमानदारी और कार्य-कुशलता के लिए मशहूर थे। कई मौके उनके जज बनने के आए पर उन्होंने वकालत न छोड़ने का फैसला लिया था।
लाला जी की उम्र होगई थी, उनका एक मात्र बेटा सुहास सहाय एल.एल.एम. करने के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपने मामा रघुपति सहाय के अंडर वकालत सीख रहा था। सुहास एल.एल.डी. करके किसी लाॅ काॅलेज में अध्यापन करना चाहता था, पर मामा के समझाने पर हाईकोर्ट में प्रेक्टिस करने की सोची। वह भी अपने पिता की ही तरह बहुत मेहनती और लगनशील था। उसके मामा जी उसकी काबिलियत से बड़े प्रभावित थे और अपने बहनोई से उसकी तारीफ किया करते थे। लाला जी की उम्र भी होगई थी, शारिरिक थकान भी होने लगी थी, इस कारण वह वकालत को छोड़ना चाहते थे। पर उनके मुअक्किल उन्हें छोड़ने के लिए तैय्यार नहीं थे। इसी बीच उनकी तबियत खराब हुई तो रघुपति सहाय और सुहास उन्हें देखने आए। लाला जी के मन में बहुत दिन से चल रहा था कि सुहास अब कानपुर आजाए और यहीं वकालत करे। उनकी बीमारी का समाचार पाकर उनके एक मुवक्किल ठा.बलवंत सिंह उनसे मिलने आए। ठाकुर साहब बड़े जमींदार थे और उनके सारे मुकदमें अभी तक लाला जी के पास थे। काफी मुकदमों के फैसले हो चुके थे कई का फैसला होना था। बातों-बातों में जब ठाकुर साहब को मालूम हुआ कि लाला जी वकालत छोड़ना चाहते हैं तो वह परेशान हुए, उन्होंने लालाजी से पूछा,‘लाला जी मेरे मुकदमों का क्या होगा?’
‘ठाकुर साहब परेशान क्यों होते हैं, कानपुर में और भी वकील हैं।’
‘देखिए लाला जी, मैं आप के सिवा किसी दूसरे को नहीं जानता हूँ , एक बात बताइए आपका सुहास भी तो वकील है उससे कहें वह मेरे केस देखे।’
‘अरे ठाकुर साहब माल के मुकदमों में कितनी पेचीदिगियां होती हैं, सुहास अभी नया लड़का है कहीं ऊँच-नींच हो गया तो?’
‘मेरे पिता जी बता रहे थे कि उनका केस भी आपका पहला केस था।’
‘सही है।’
‘फिर सुहास की शुरुआत मेरे केस से होने दीजिए।’
‘आपका केस बड़ा है, सुहास अभी बच्चा है।’
‘कभी आप भी बच्चे थे लाला जी, आप चिंता मत कीजिए सुहास को मेरी जिम्मेवारी पर केस लड़ने दीजिए।’
‘जैसी आपकी मर्जी।’
उन्होंने सुहास को आवाज दी, वह आया, उससे लाला जी ने पूछा,‘तुम ठाकुर साहब को जानते हो?’
‘हाँ-हाँ।’
‘यह तुम्हारे ऊपर एक बड़ा दांव लगा रहे हैं।’
‘कैसा दांव?’
‘ठाकुर साहब चाहते हैं कि तुम अपनी वकालत की शुरुआत इनके मुकदमें से करो, एक बात सोच लेना मुकदमा बड़ा पेचीदा है,फाइल देख के बताओ तुमसे यह हो पाएगा?’
‘फाइल देखने में कुछ समय लगेगा।’
‘ठीक है मंै ठाकुर साहब को एक हफ्ते बाद बुला लूँ?’
‘हाँ ठीक रहेगा।’
‘देखो बेटा मैं अब बूढ़ा होगया हूँ ,मुझे अब रिटायरमेंट भी चाहिए, हाँ यह बात दूसरी है कि जब तुम कोई राय मांगोगे तो मैं जरूर दे दूँगा। एक बात और अब तुम्हें मेरे पास कानपुर में ही रहना है और मेरी विरासत सम्हालना है। ठाकुर साहब अकेले तुम्हारे मुअक्किल ही नहीं तुम्हारे चाचा जी हैं। जानते हो कोई बाहरी आदमी इतना बड़ा खतरा कैसे उठा सकता है।’
‘ठीक है पिता जी।‘
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सुहास ने गंभीरता से केस को पढ़ा, तीसरे दिन उसने लाला जी से कहा,‘पिता जी मैं चाचा जी के यहाँ जा रहा हूँ। मैं मुकदमें वाली जमीन का मौका मुआयना करना चाहता हूँ।’
‘मैं भी चलूँ?’
‘चाचा जी से मिलना हो तो चलिए।’
वह लोग ठाकुर के साहब के यहाँ पहुँचे, उन्होंने उन लोगों का स्वागत किया। सुहास ने जब बताया कि वह मुकदमें वाली जगह को देखना चाहता है तो ठाकुर साहब उनको अपने गाँव शिवराजपुर ले गए। सुहास ने वह सब जमीन देखी और अपने अनुसार उसका नक्शा तैय्यार किया। लाला जी सुहास की कार्यपद्धित को बड़े ध्यान से देख रहे थे। वहाँ से यह लोग लौट कर ठाकुर साहब के यहाँ आ गए। शाम हो रही थी, ठाकुर साहब ने लाला जी से कहा,‘लाला जी एक अर्से के बाद आप का आना हुआ है अब तो भोजन करने के बाद ही आप लोग जाएंगे।’
लाला जी के मन में न जाने क्या चल रहा था। उन्होंने सुहास से फिर कहा,‘ सुहास यह चीज ध्यान में रखना कि तुम्हारे सामने बाबू जगदंबा प्रसाद जैसा वकील है।’
सुहास कुछ बोले उसके पहले ठाकुर साहब बोले,‘लाला जी सुहास को डराना अब बंद कीजिए, बाबू जगदंबा ही हैं, कोई तोप नहीं है।’
‘वह आज तक कोई मुकदमा हारे नही हैं।’
‘तो अबकी बार हार जाएंगे, देखो सुहास बिल्कुल घबराना नहीं, तुम बस मुकदमा लड़ो। जगदंबा बाबू ढलान पर हैं तुम ऊँचाई पर जा रहे हो, देखना यह मुकदमा तुम्हें किस मुकाम पर ले जाता है। बस लाला जी अब सुहास से मुकदमें के बारे में कोई बात नहीं होगी।’
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आज सुहास का कानपुर कोर्ट में पहला दिन था। वह कोर्ट के बाहर ही था कि उसे बाबू जगदंबा प्रसाद आते दिखे, वह रुक गया जैसे ही वह उसके पास आए उसने उनके बढ़ कर पाँव छू लिए, बाबू जी ने चमत्कृत होते हुए उसे आशीर्वाद दिया। जगदंबा बाबू इस बात के लिए कतई तैय्यार नहीं थे। दोनों लोग कोर्ट के भीतर गए कोर्ट की कार्यवाही शुरू हुई। जगदंबा बाबू तो सुहास को हलुआ समझ रहे थे कि इसे तो थोड़ी देर में ही चुप कर लेंगे। उसके तर्क सुन-सुन कर उनको यह सोचना पड़ा कि इसके साथ सोच समझ कर बहस करनी पड़ेगी। तारीखों पर तारीखें पड़ती रहीं सुहास बड़े सुंदर ढंग से पैरवी करता रहा।
जगदंबा बाबू को सपने में भी यह उम्मीद नहीं थी कि वह मुकदमा हार जाएंगे, उसका एक कारण यह भी था कि वह आज तक कोई मुकदमा हारे नहीं थे लेकिन सुहास की बहस उन्हें बेचैन अवश्य करने लगी थी। उनके स्वभाव में कुछ चिड़चिड़ापन आगया था। उनके लड़के उन्हें कुछ समझाते तो वह उनको डांट देते। आखिर बहस समाप्त हुई और निर्णय का दिन आ गया। कोर्ट-रूम खचाखच भरा था, काफी सीनियर वकील फैसला सुनने पहुँचे थे, सुहास के पिता जी तो हर पेशी पर जाते थे आज भी गए थे,ठाकुर साहब को जाना ही था आज उनके साथ उनके बच्चे भी गए थे।
लंच के पहले जज साहब ने फैसला सुना दिया, सुहास मुकदमा जीत गया, उसने अपने पिता जी और ठाकुर साहब के पैर छुए, जगदंबा बाबू बगैर किसी से मिले चुपचाप चले गए। लाला जी को अभी तक विश्वास नहीं हो रहा था कि सुहास जीत गया। ठाकुर साहब ने उन्हें हिलाते हुए कहा,‘लाला जी ऐसे क्या देख रहे हैं, सुहास जीत गया।’
‘अयं! सुहास मुकदमा जीत गया?’
‘हाँ भई हाँ, सुहास मुकदमा जीत गया।’
‘जगदंबा बाबू हार गए?’
‘मैंने क्या कहा था? जगदंबा बाबू हार गए।’
जगदंबा बाबू आज पहली बार मुकदमा हारे हैं , पूरे कानपुर कोर्ट में इसकी चर्चा है। उनके लड़के नितिन ने जगदंबा बाबू से कहा,‘मैं आपसे कह रहा था कि यह मुकदमा मुझे लड़ने दीजिए, पर आप माने ही नहीं।’
‘क्या तुम अपने को मुझसे ज्यादा काबिल समझते हो?’
‘नहीं यह बात नहीं है, मैं हार जाता तो कोई बात नहीं थी, आपकी सफेदी में तो कालिख लग गई।’
नितिन की बात से जगदंबा बाबू झल्लाते हुए बोले,‘मुकदमें तुम्हारे नाम से नहीं मेरे नाम से आते हैं। मैंने सुहास को बहुत हल्के में लिया था, मानना पड़ेगा उसने बहुत अच्छी तैय्यारी की थी।’
‘आप सुहास की तारीफ कर रहे हैं।’
‘क्यों सही को सही कहना क्या गलत है?’
नितिन तो चुप रह गया पर, पर जगदंबा बाबू यह हार वह झेल नहीं पा रहे थे। रह-रह कर यही सोचते कि सुहास अपना पहला केश मुुुझसे जीत गया और मैं एक मामूली वकील से मुकदमा हार गया। वह सोच नहीं पा रहे थे कि कैसे सुहास से बदला लिया जाय। ऊपर से तो वह वह सामान्य दिखते थे पर अंदर-अंदर उनकी हार उनको चैन नहीं लेने देती थी। वह निरंतर सुहास को नीचा दिखाने के बारे सोचा करते थे। एक दिन उनके दिमाग में एक खतरनाक विचार कौंधा। उन्हांेने नितिन से गाड़ी निकालने के लिए कहा। उसने पूछा,‘कहाँ चलना है?’
‘रमा के लिए संबंध तय करने चलना है।’
‘ठीक है,ड्रायवर को बुला लें?’
ःनहीं, हम और तुम चलेंगे।’
रास्ते में जगदंबा बाबू ने फल, मिठाई वगैरह ली, अब नितिन ने पूछा,‘कहाँ चलना है?’
‘रघुवंश जी के यहाँ।’
‘क्या सुहास के साथ रमा का रिश्ता तय करेंगे?’
‘क्यों सुहास में कोई खराबी है क्या?’
‘नहीं खराबी तो नहीं है,क्या बिरादरी में और कोई लड़का नहीं है?’
‘क्यों सुहास में कोई खराबी है?’
‘क्यों यह खराबी नही ंतो क्या है कि आप उससे मुकदमा हारे हैं, जब-जब आपके सामने पड़ेगा, उस समय क्या आप सामान्य रह पाएंगे?’
‘कोर्ट में हार-जीत तो लगी ही रहती है।’
जगदंबा बाबू अपने मन की बात किसी को भी नहीं बताना चाहते थे। उन्हें डर था कि यदि भेद खुल गया तो उनके मन का नहीं हो पाएगा। रमा ने सुहास को देखा था और वह उससे प्रभावित भी थी। उसे अपने पिता के प्लाॅन की रŸाी भर भी जानकारी नहीं थी। वह मन ही मन बहुत खुश थी कि उसे सुहास जैसा लड़का और रघुवंश जी के जैसा परिवार मिल रहा है।
जगदंबा बाबू जब रध्ुावंश यहाँ पहुँचे तो सुहास बाहर ही मिला, उसने उनके पैर छूकर उनका स्वागत किया और उनको बैठक में बैठा कर रघुवंश जी को उनके आने की सूचना दी। रघुवंश जी ने आकर उनका स्वागत किया और सुहास से नाश्ते-पानी के लिए इशारा भी किया। नितिन को फल और मिठाइयाँ लाते देख रघुवंश जी ने जगदंबा बाबू से कहा,‘अरे बाबू जी इस तकल्लुफ की क्या जरूरत थी?’
‘लाला जी कोई लड़की वाला कभी लड़के वाले के यहाँ खाली हाथ जाता है?’
‘मैं कुछ समझा नहीं।’
‘अरे मैं सुहास और रमा के रिश्ते की बात तय करने आया हूँ, अब आप ही बताएं ऐसे में कोई खाली हाथ कैसे आता?’
‘अरे रिश्ता करना तो कीजिए, इसमें तय करने जैसी बात कहाँ से आगई।’
‘अरे आपका अकेला बेटा है आपके और सुहास की माँ के भी कुछ अरमान होंगे।’
‘जी बिल्कुल हैं।’
अपने जाल मे फंसता देख जगदंबा बाबू ने कहा,‘वही सब मुझे सब बता दें, मुझे आपके अरमान पूरे करने में मुझे खुशी होगी।’
‘जो हम लोग चाहते हैं वह अपने आप पूरा हो रहा है।’
‘कैसे?’
‘देखिए, हर लड़के वाला चाहता कि लड़की वालों का खानदान और लड़की दोनों अच्छी हों,अब आप देखिए आप का जैसा खानदान और रमा जैसी बहू तो बड़े भाग्य वालों को मिलते हैं और वह दोनों मुझे अपने आप मिल रहे हैं और क्या चाहिए?’
‘वह तो ठीक है मैं दान-दहेज की बात कर रहा था।’
‘देखें बाबू जी,भगवान की कृपा से मुझे किसी चीज की कोई कमी नहीं है जो मुझे किसी से मांगना पड़े। मुझे संबंध करना है व्यापार नहीं।’
बड़े खुशगवार माहौल में रिश्ता तय हुआ, रघुवंश जी ने जगदंबा बाबू से भोजन करने की पेशकश की जिसे जगदंबा बाबू ने बड़ी विनम्रता पूर्वक मना कर दिया। जगदंबा बाबू के बाद ओंकारनाथ खरे आगए। कमरे में फल मिठाई देख कर उन्होंने रघुवंश से पूछा,‘कोई सुहास के संबंध वाले आए थे।’
‘हाँ, आपने ठीक सोचा।’
‘कौन थे?’
‘अपने जगदंबा बाबू आए थे।’
‘जगदंबा बाबू आए थे? रिश्ता तय होगया?’
‘हाँ, लेकिन आप ऐसे क्यों पूछ रहे हैं?’
‘मैं अपनी बेटी के लिए सोच रहा था, उसी के लिए आया था।’
‘यार कभी आपने जिक्र नहीं किया।’
‘आप अन्यथा न लेना, वह सुहास से हारने के बाद रिश्ते के लिए आए कहीं उसके मन में कुछ खोट तो नहीं है, जरा सावधान रहना।’
‘यार क्या कोई अपनी बेटी का जीवन खराब करना चाहेगा?’
‘बात तो आप ठीक कह रहे हैं, पर समाज में ऐसे अहंकारियों की कमी नहीं है जो अपने अहंकार की तुष्टि के लिए किसी हद तक जा सकते हैं, ऐसी घटनाएं तो हम लोगों ने देखी भी हैं।’
‘यार तुम्हारी बात में दम है, पर अब तो मैंने हाँ कर दी है,अब जो ईश्वर चाहेगा वही होगा।’
चलते समय खरे ने रघुवंश जी से कहा,‘लाला जी इसे अन्यथा न लेना, मैंने रिश्ता तोड़ने के लिए ऐसा नहीं कहा था, मेरे मन में जो आया आपको बता दिया।’
‘अरे नहीं नहीं खरे साहब मेरे जे़हन में कोई ऐसी बात नहीं है।’
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सुहास और रमा की बड़े धूम-धाम से शादी हुई। जगदंबा बाबू ने कानपुर क्लब से शादी की थी, शानदार व्यवस्था थी। वकील,मैस्ट्रिेट,जज और शहर के उच्चाधिकारी सब शामिल हुए थे। दोनों परिवार बहुत खुश थे। जगदंबा बाबू ने किसी भी तीज-त्यौहारों में उपहारों को भेजने में कोई कंजूसी नहीं की थी। रघुवंश को ओंकारनाथ खरे की बात झूठी लगने लगी थी।
दो वर्षों के उपरांत रघुवंश जी के यहाँ पोता आगया। उसका नाम रघुवंश जी नें प्रमोद रखा। उनकी की खुशी का कोई पारावार नहीं था। बड़ी शानदार दावत दी थी। समय अपनी गति से चल रहा था। अब तो रघुवंश जी और उनकी पत्नी का समय प्रमोद की देख-रेख में ही बीत रहा था। रमा भी रघुवंश जी के परिवार में पूरी तरह इस प्रकार रम गई थी कि वह मायके को भूल जैसे गई थी।
जगदंबा बाबू के दिमाग में बदला लेने की भावना मरी नहीं थी। उन्हें रघुवंश जी के परिवार को हंसते-खेलते देख कर बड़ी कुढ़न होती थी। उनका एक भतीजा रजत अमेंरिका में रहता था, संयोग से वह आया हुआ था, वह रमा से मिलने गया था उसने रमा से अमेरिका घुमाने की बात की, सुहास ने तो अपनी व्यस्तता के कारण मना कर दिया पर रमा को भेजने के लिए हाँ कर दी, तीन महीने के भीतर रमा का पासपोर्ट बन गया और रमा अमेरिका चली गई।
जगदंबा बाबू इसी अवसर की तलाश में थे, उन्होंने उस क्षेत्र के दरोगा को घूस देकर मिला लिया और एक लड़की लेकर थाने में अपनी लड़की की ओर से रघुवंश बाबू के परिवार पर दहेज और पारिवारिक हिंसा का मुकदमा कर दिया। रघुवंश के यहाँ जब पुलिस इंस्पेक्टर जाँच के लिए आया तो उनको मालूम हुआ,उनको काटो तो खून नहीं, वह एक तरह से सदमें मे आगए,यह तो कहिए कि उनके पुलिस अधिकारियों से अच्छे संबध थे उन्होंने एस.एस.पी. से बात कर के सारी बात बतायी,एस.एस.पी. ने इंस्पेक्टर को कुछ निर्देश दिए। रघुवंश ने ओंकारनाथ खरे को फोन करके बताया, वह फौरन रघुवंश जी के यहाँ पहुँचे, उन्होंने कहा,‘मुझे तो इसकी पहले से ही आशंका थी, आपकी बहू का क्या रुख है?’
‘बहू मेरी ठीक है, पर वह इस समय अमेरिका में है, उसे सब बता दिया गया हैं वह अगले हफ्ते आ रही है।’
‘तब तक पुलिस को सम्हालना पड़ेगा।’
‘खरे साहब पुलिस को छोड़िए मैं समाज में कैसे मुँह दिखाऊँगा? लोग क्या सोचेंगे मेरे बारे में?’
‘लाला जी धीरज रखें, क्या आप के बारे में लोग जानते नहीं है।’
‘खरे साहब लोग ऐसे मौकों की तलाश में रहते हैं, मेरी तो समझ में कुछ नहीं आ रहा है, आप ही देखिए।’
‘आप बिल्कुल फिक्र न करें मैं सब देख लूँगा।’
सुहास ने रमा को फोन कर सारी बातें बताई। उसने कहा घबराना नहीं, आप मेरा वापसी का एयर टिकट करवा के मेरे वाट्सअप भेज दें, हो सकता कि रजत भी पिता जी से मिला हो और मेरा टिकट न करवाए। रमा ने अपने वापस जाने की बात को रजत को हवा तक नहीं लगने दी। संयोग से रजत आॅफिस में था वह टैक्सी लेकर एयरपोर्ट आगई। शाम को उसको जब मालूम हुआ तो उसने अपने चाचा को बताया। जगदंबा बाबू ने जब उससे पूछा,‘उसके टिकट तुमने कराए थे?’
‘लगता है टिकट सुहास ने कराए हैं।’
‘अब तो सारा खेल ही बिगड़ गया।’
कैसा खेल?’
जगदंबा बाबू ने बिना जवाब दिये फोन काट दिया।
रमा अपनी ससुराल पहुँच गई, वह अपनी सास और रघुवंश को देख कर रोने लगी, उसने अपनी सास से कहा,‘माता जी इसमें मेरा कोई हाथ नहीं है।’
उसकी सास ने उसे गले लगाते हुए कहा,‘बेटा मैं जानती हूँ,तू रो क्यों रही है,चुप हो जा।’
उसने प्रमोद को अपनी सास के पास छोड़ा, सुहास और रघुवंश जी को लेकर अपने मायके पहुँची। उसने जगदंबा बाबू से पूछा,‘यह आपने क्या किया? मेरे परिवार पर दहेज और घरेलू हिंसा का मुकदमा मेरी तरफ से कर दिया, कब मैंने आपसे कहा कि कि मेरे ससुराल वाले दहेज मांग रहे हैं या मुझे प्रताड़ित कर रहे है या मुझे मारते-पीटते हैं। पिता जी आप तो मेरे आदर्श थे पर आज मुझे अपने सोच पर शर्म आ रही है। आपको मुकदमा करते समय यह ख्याल नहीं आया की अपनी बेटी और नाती भविष्य का क्या होगा?’
जगदंबा बाबू की बोलती बंद,उनकी पत्नी, बेटे-बहू की समझ में नही आरहा था कि क्या हुआ? नितिन ने रमा से पूछा,‘रमा हुआ क्या है?’
‘अपने पिता जी से पूछो।’
‘ऐसे क्यों बोलती है,क्या यह तुम्हारे पिता नहीं हैं?’
‘अब तो सोचना पड़ेगा।’
‘ऐसी बातें बंद कर, बता हुआ क्या है?’
‘इन्होंने ने मेरे परिवार पर दहेज और घरेलू हिंसा का मुकदमा किया है। मैं अब थाने में इनके बिरुद्ध झूठा मुकदमा करने की रिपोर्ट करने जा रही हूँ, यह अब अपने बचाव का इंतजाम करलें।’
पूरा परिवार सन्नाटे में आगया, उनकी पत्नी ने भी कहा,‘आप कैसे बाप हैं, ऐसा करते आप को जरा सी भी शर्म नहीं आई?’
अभी तक सुहास और रघुवंश सहाय चुपचाप बैठे थे। रमा के द्वारा पुलिस में रिपोर्ट करने की बात सुन कर रघुवंश ने उससे कहा,‘रमा, यह क्या बचपना है? तुम ऐसा सोच कैसे सकती हो?’
‘इसमें सोचने जैसी बात क्या है,इन्होंने ऐसा क्यों किया? जब इनके मन में आप लोगों के प्रति इतना द्वेष था तो मेरा विवाह सुहास से क्यों करवाया, ऐसा काम तो नीच से नीच आदमी भी नहीं करेगा जो इन्होंने किया।’
‘जानती हो तुम्हारे ऐसा करने पर इनकी प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगी।’
‘इन्होंने मेरे परिवार की प्रतिष्ठा के बारे में एक बार भी सोचा?’
‘फिर भी यह तुम्हारे पिता हैं।’
उनकी पत्नी ने उनसे कहा,‘जरा आप लाला जी को देखिए जिन्हें आपके इतना बुरा करने बाद भी आपकी प्रतिष्ठा की चिंता है। आप अपना केश वापस लें। अन्यथा आप समाज को क्या मुँह दिखलाएंगे?’
‘मम्मी बिल्कुल ठीक कह रही हैं ,आप मुकदमा वापस लें। जब मेरे मना करने के बाद भी आप रमा का विवाह सुहास से तय कर रहे थे तब मैंने सोचा था कि शायद आप सुहास की काबिलियत से प्रभावित होकर संबंध कर रहे हैं, अब मेरी समझ में आया कि रमा की शादी सुहास के साथ करने के पीछे आपकी यह घिनौनी साजिश थी, बोलिए पिता जी आप अपने अहंकार की तुष्टि के लिए इस हद तक चले गए।’ नितिन नें कहा।
जगदंबा बाबू को पूरा यकीन था कि रमा और उनका परिवार उनका साथ देगा पर जब सब तरफ से उन्हें तिरस्कार मिलने लगा तो उनकी स्थिति सांप छछंूदर की होगई। वह आत्मग्लानि में पूरी तरह डूब गए थे, वह भी यही सोच रहे थे कि कैसे वह अपने परिवार और समाज का सामना करेंगे, सब लोग उनकी तरफ देख रहे थे, वह बिल्कुल गुम-सुम निर्जीव काठ की तरह बैठे थे, उनको गुम-सुम देख कर नितिन ने जैसे ही उन्हें हिलाया वह एक तरफ लुढ़क गए और घर में कोहराम मच गया।
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लाला जी की उम्र होगई थी, उनका एक मात्र बेटा सुहास सहाय एल.एल.एम. करने के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपने मामा रघुपति सहाय के अंडर वकालत सीख रहा था। सुहास एल.एल.डी. करके किसी लाॅ काॅलेज में अध्यापन करना चाहता था, पर मामा के समझाने पर हाईकोर्ट में प्रेक्टिस करने की सोची। वह भी अपने पिता की ही तरह बहुत मेहनती और लगनशील था। उसके मामा जी उसकी काबिलियत से बड़े प्रभावित थे और अपने बहनोई से उसकी तारीफ किया करते थे। लाला जी की उम्र भी होगई थी, शारिरिक थकान भी होने लगी थी, इस कारण वह वकालत को छोड़ना चाहते थे। पर उनके मुअक्किल उन्हें छोड़ने के लिए तैय्यार नहीं थे। इसी बीच उनकी तबियत खराब हुई तो रघुपति सहाय और सुहास उन्हें देखने आए। लाला जी के मन में बहुत दिन से चल रहा था कि सुहास अब कानपुर आजाए और यहीं वकालत करे। उनकी बीमारी का समाचार पाकर उनके एक मुवक्किल ठा.बलवंत सिंह उनसे मिलने आए। ठाकुर साहब बड़े जमींदार थे और उनके सारे मुकदमें अभी तक लाला जी के पास थे। काफी मुकदमों के फैसले हो चुके थे कई का फैसला होना था। बातों-बातों में जब ठाकुर साहब को मालूम हुआ कि लाला जी वकालत छोड़ना चाहते हैं तो वह परेशान हुए, उन्होंने लालाजी से पूछा,‘लाला जी मेरे मुकदमों का क्या होगा?’
‘ठाकुर साहब परेशान क्यों होते हैं, कानपुर में और भी वकील हैं।’
‘देखिए लाला जी, मैं आप के सिवा किसी दूसरे को नहीं जानता हूँ , एक बात बताइए आपका सुहास भी तो वकील है उससे कहें वह मेरे केस देखे।’
‘अरे ठाकुर साहब माल के मुकदमों में कितनी पेचीदिगियां होती हैं, सुहास अभी नया लड़का है कहीं ऊँच-नींच हो गया तो?’
‘मेरे पिता जी बता रहे थे कि उनका केस भी आपका पहला केस था।’
‘सही है।’
‘फिर सुहास की शुरुआत मेरे केस से होने दीजिए।’
‘आपका केस बड़ा है, सुहास अभी बच्चा है।’
‘कभी आप भी बच्चे थे लाला जी, आप चिंता मत कीजिए सुहास को मेरी जिम्मेवारी पर केस लड़ने दीजिए।’
‘जैसी आपकी मर्जी।’
उन्होंने सुहास को आवाज दी, वह आया, उससे लाला जी ने पूछा,‘तुम ठाकुर साहब को जानते हो?’
‘हाँ-हाँ।’
‘यह तुम्हारे ऊपर एक बड़ा दांव लगा रहे हैं।’
‘कैसा दांव?’
‘ठाकुर साहब चाहते हैं कि तुम अपनी वकालत की शुरुआत इनके मुकदमें से करो, एक बात सोच लेना मुकदमा बड़ा पेचीदा है,फाइल देख के बताओ तुमसे यह हो पाएगा?’
‘फाइल देखने में कुछ समय लगेगा।’
‘ठीक है मंै ठाकुर साहब को एक हफ्ते बाद बुला लूँ?’
‘हाँ ठीक रहेगा।’
‘देखो बेटा मैं अब बूढ़ा होगया हूँ ,मुझे अब रिटायरमेंट भी चाहिए, हाँ यह बात दूसरी है कि जब तुम कोई राय मांगोगे तो मैं जरूर दे दूँगा। एक बात और अब तुम्हें मेरे पास कानपुर में ही रहना है और मेरी विरासत सम्हालना है। ठाकुर साहब अकेले तुम्हारे मुअक्किल ही नहीं तुम्हारे चाचा जी हैं। जानते हो कोई बाहरी आदमी इतना बड़ा खतरा कैसे उठा सकता है।’
‘ठीक है पिता जी।‘
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सुहास ने गंभीरता से केस को पढ़ा, तीसरे दिन उसने लाला जी से कहा,‘पिता जी मैं चाचा जी के यहाँ जा रहा हूँ। मैं मुकदमें वाली जमीन का मौका मुआयना करना चाहता हूँ।’
‘मैं भी चलूँ?’
‘चाचा जी से मिलना हो तो चलिए।’
वह लोग ठाकुर के साहब के यहाँ पहुँचे, उन्होंने उन लोगों का स्वागत किया। सुहास ने जब बताया कि वह मुकदमें वाली जगह को देखना चाहता है तो ठाकुर साहब उनको अपने गाँव शिवराजपुर ले गए। सुहास ने वह सब जमीन देखी और अपने अनुसार उसका नक्शा तैय्यार किया। लाला जी सुहास की कार्यपद्धित को बड़े ध्यान से देख रहे थे। वहाँ से यह लोग लौट कर ठाकुर साहब के यहाँ आ गए। शाम हो रही थी, ठाकुर साहब ने लाला जी से कहा,‘लाला जी एक अर्से के बाद आप का आना हुआ है अब तो भोजन करने के बाद ही आप लोग जाएंगे।’
लाला जी के मन में न जाने क्या चल रहा था। उन्होंने सुहास से फिर कहा,‘ सुहास यह चीज ध्यान में रखना कि तुम्हारे सामने बाबू जगदंबा प्रसाद जैसा वकील है।’
सुहास कुछ बोले उसके पहले ठाकुर साहब बोले,‘लाला जी सुहास को डराना अब बंद कीजिए, बाबू जगदंबा ही हैं, कोई तोप नहीं है।’
‘वह आज तक कोई मुकदमा हारे नही हैं।’
‘तो अबकी बार हार जाएंगे, देखो सुहास बिल्कुल घबराना नहीं, तुम बस मुकदमा लड़ो। जगदंबा बाबू ढलान पर हैं तुम ऊँचाई पर जा रहे हो, देखना यह मुकदमा तुम्हें किस मुकाम पर ले जाता है। बस लाला जी अब सुहास से मुकदमें के बारे में कोई बात नहीं होगी।’
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आज सुहास का कानपुर कोर्ट में पहला दिन था। वह कोर्ट के बाहर ही था कि उसे बाबू जगदंबा प्रसाद आते दिखे, वह रुक गया जैसे ही वह उसके पास आए उसने उनके बढ़ कर पाँव छू लिए, बाबू जी ने चमत्कृत होते हुए उसे आशीर्वाद दिया। जगदंबा बाबू इस बात के लिए कतई तैय्यार नहीं थे। दोनों लोग कोर्ट के भीतर गए कोर्ट की कार्यवाही शुरू हुई। जगदंबा बाबू तो सुहास को हलुआ समझ रहे थे कि इसे तो थोड़ी देर में ही चुप कर लेंगे। उसके तर्क सुन-सुन कर उनको यह सोचना पड़ा कि इसके साथ सोच समझ कर बहस करनी पड़ेगी। तारीखों पर तारीखें पड़ती रहीं सुहास बड़े सुंदर ढंग से पैरवी करता रहा।
जगदंबा बाबू को सपने में भी यह उम्मीद नहीं थी कि वह मुकदमा हार जाएंगे, उसका एक कारण यह भी था कि वह आज तक कोई मुकदमा हारे नहीं थे लेकिन सुहास की बहस उन्हें बेचैन अवश्य करने लगी थी। उनके स्वभाव में कुछ चिड़चिड़ापन आगया था। उनके लड़के उन्हें कुछ समझाते तो वह उनको डांट देते। आखिर बहस समाप्त हुई और निर्णय का दिन आ गया। कोर्ट-रूम खचाखच भरा था, काफी सीनियर वकील फैसला सुनने पहुँचे थे, सुहास के पिता जी तो हर पेशी पर जाते थे आज भी गए थे,ठाकुर साहब को जाना ही था आज उनके साथ उनके बच्चे भी गए थे।
लंच के पहले जज साहब ने फैसला सुना दिया, सुहास मुकदमा जीत गया, उसने अपने पिता जी और ठाकुर साहब के पैर छुए, जगदंबा बाबू बगैर किसी से मिले चुपचाप चले गए। लाला जी को अभी तक विश्वास नहीं हो रहा था कि सुहास जीत गया। ठाकुर साहब ने उन्हें हिलाते हुए कहा,‘लाला जी ऐसे क्या देख रहे हैं, सुहास जीत गया।’
‘अयं! सुहास मुकदमा जीत गया?’
‘हाँ भई हाँ, सुहास मुकदमा जीत गया।’
‘जगदंबा बाबू हार गए?’
‘मैंने क्या कहा था? जगदंबा बाबू हार गए।’
जगदंबा बाबू आज पहली बार मुकदमा हारे हैं , पूरे कानपुर कोर्ट में इसकी चर्चा है। उनके लड़के नितिन ने जगदंबा बाबू से कहा,‘मैं आपसे कह रहा था कि यह मुकदमा मुझे लड़ने दीजिए, पर आप माने ही नहीं।’
‘क्या तुम अपने को मुझसे ज्यादा काबिल समझते हो?’
‘नहीं यह बात नहीं है, मैं हार जाता तो कोई बात नहीं थी, आपकी सफेदी में तो कालिख लग गई।’
नितिन की बात से जगदंबा बाबू झल्लाते हुए बोले,‘मुकदमें तुम्हारे नाम से नहीं मेरे नाम से आते हैं। मैंने सुहास को बहुत हल्के में लिया था, मानना पड़ेगा उसने बहुत अच्छी तैय्यारी की थी।’
‘आप सुहास की तारीफ कर रहे हैं।’
‘क्यों सही को सही कहना क्या गलत है?’
नितिन तो चुप रह गया पर, पर जगदंबा बाबू यह हार वह झेल नहीं पा रहे थे। रह-रह कर यही सोचते कि सुहास अपना पहला केश मुुुझसे जीत गया और मैं एक मामूली वकील से मुकदमा हार गया। वह सोच नहीं पा रहे थे कि कैसे सुहास से बदला लिया जाय। ऊपर से तो वह वह सामान्य दिखते थे पर अंदर-अंदर उनकी हार उनको चैन नहीं लेने देती थी। वह निरंतर सुहास को नीचा दिखाने के बारे सोचा करते थे। एक दिन उनके दिमाग में एक खतरनाक विचार कौंधा। उन्हांेने नितिन से गाड़ी निकालने के लिए कहा। उसने पूछा,‘कहाँ चलना है?’
‘रमा के लिए संबंध तय करने चलना है।’
‘ठीक है,ड्रायवर को बुला लें?’
ःनहीं, हम और तुम चलेंगे।’
रास्ते में जगदंबा बाबू ने फल, मिठाई वगैरह ली, अब नितिन ने पूछा,‘कहाँ चलना है?’
‘रघुवंश जी के यहाँ।’
‘क्या सुहास के साथ रमा का रिश्ता तय करेंगे?’
‘क्यों सुहास में कोई खराबी है क्या?’
‘नहीं खराबी तो नहीं है,क्या बिरादरी में और कोई लड़का नहीं है?’
‘क्यों सुहास में कोई खराबी है?’
‘क्यों यह खराबी नही ंतो क्या है कि आप उससे मुकदमा हारे हैं, जब-जब आपके सामने पड़ेगा, उस समय क्या आप सामान्य रह पाएंगे?’
‘कोर्ट में हार-जीत तो लगी ही रहती है।’
जगदंबा बाबू अपने मन की बात किसी को भी नहीं बताना चाहते थे। उन्हें डर था कि यदि भेद खुल गया तो उनके मन का नहीं हो पाएगा। रमा ने सुहास को देखा था और वह उससे प्रभावित भी थी। उसे अपने पिता के प्लाॅन की रŸाी भर भी जानकारी नहीं थी। वह मन ही मन बहुत खुश थी कि उसे सुहास जैसा लड़का और रघुवंश जी के जैसा परिवार मिल रहा है।
जगदंबा बाबू जब रध्ुावंश यहाँ पहुँचे तो सुहास बाहर ही मिला, उसने उनके पैर छूकर उनका स्वागत किया और उनको बैठक में बैठा कर रघुवंश जी को उनके आने की सूचना दी। रघुवंश जी ने आकर उनका स्वागत किया और सुहास से नाश्ते-पानी के लिए इशारा भी किया। नितिन को फल और मिठाइयाँ लाते देख रघुवंश जी ने जगदंबा बाबू से कहा,‘अरे बाबू जी इस तकल्लुफ की क्या जरूरत थी?’
‘लाला जी कोई लड़की वाला कभी लड़के वाले के यहाँ खाली हाथ जाता है?’
‘मैं कुछ समझा नहीं।’
‘अरे मैं सुहास और रमा के रिश्ते की बात तय करने आया हूँ, अब आप ही बताएं ऐसे में कोई खाली हाथ कैसे आता?’
‘अरे रिश्ता करना तो कीजिए, इसमें तय करने जैसी बात कहाँ से आगई।’
‘अरे आपका अकेला बेटा है आपके और सुहास की माँ के भी कुछ अरमान होंगे।’
‘जी बिल्कुल हैं।’
अपने जाल मे फंसता देख जगदंबा बाबू ने कहा,‘वही सब मुझे सब बता दें, मुझे आपके अरमान पूरे करने में मुझे खुशी होगी।’
‘जो हम लोग चाहते हैं वह अपने आप पूरा हो रहा है।’
‘कैसे?’
‘देखिए, हर लड़के वाला चाहता कि लड़की वालों का खानदान और लड़की दोनों अच्छी हों,अब आप देखिए आप का जैसा खानदान और रमा जैसी बहू तो बड़े भाग्य वालों को मिलते हैं और वह दोनों मुझे अपने आप मिल रहे हैं और क्या चाहिए?’
‘वह तो ठीक है मैं दान-दहेज की बात कर रहा था।’
‘देखें बाबू जी,भगवान की कृपा से मुझे किसी चीज की कोई कमी नहीं है जो मुझे किसी से मांगना पड़े। मुझे संबंध करना है व्यापार नहीं।’
बड़े खुशगवार माहौल में रिश्ता तय हुआ, रघुवंश जी ने जगदंबा बाबू से भोजन करने की पेशकश की जिसे जगदंबा बाबू ने बड़ी विनम्रता पूर्वक मना कर दिया। जगदंबा बाबू के बाद ओंकारनाथ खरे आगए। कमरे में फल मिठाई देख कर उन्होंने रघुवंश से पूछा,‘कोई सुहास के संबंध वाले आए थे।’
‘हाँ, आपने ठीक सोचा।’
‘कौन थे?’
‘अपने जगदंबा बाबू आए थे।’
‘जगदंबा बाबू आए थे? रिश्ता तय होगया?’
‘हाँ, लेकिन आप ऐसे क्यों पूछ रहे हैं?’
‘मैं अपनी बेटी के लिए सोच रहा था, उसी के लिए आया था।’
‘यार कभी आपने जिक्र नहीं किया।’
‘आप अन्यथा न लेना, वह सुहास से हारने के बाद रिश्ते के लिए आए कहीं उसके मन में कुछ खोट तो नहीं है, जरा सावधान रहना।’
‘यार क्या कोई अपनी बेटी का जीवन खराब करना चाहेगा?’
‘बात तो आप ठीक कह रहे हैं, पर समाज में ऐसे अहंकारियों की कमी नहीं है जो अपने अहंकार की तुष्टि के लिए किसी हद तक जा सकते हैं, ऐसी घटनाएं तो हम लोगों ने देखी भी हैं।’
‘यार तुम्हारी बात में दम है, पर अब तो मैंने हाँ कर दी है,अब जो ईश्वर चाहेगा वही होगा।’
चलते समय खरे ने रघुवंश जी से कहा,‘लाला जी इसे अन्यथा न लेना, मैंने रिश्ता तोड़ने के लिए ऐसा नहीं कहा था, मेरे मन में जो आया आपको बता दिया।’
‘अरे नहीं नहीं खरे साहब मेरे जे़हन में कोई ऐसी बात नहीं है।’
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सुहास और रमा की बड़े धूम-धाम से शादी हुई। जगदंबा बाबू ने कानपुर क्लब से शादी की थी, शानदार व्यवस्था थी। वकील,मैस्ट्रिेट,जज और शहर के उच्चाधिकारी सब शामिल हुए थे। दोनों परिवार बहुत खुश थे। जगदंबा बाबू ने किसी भी तीज-त्यौहारों में उपहारों को भेजने में कोई कंजूसी नहीं की थी। रघुवंश को ओंकारनाथ खरे की बात झूठी लगने लगी थी।
दो वर्षों के उपरांत रघुवंश जी के यहाँ पोता आगया। उसका नाम रघुवंश जी नें प्रमोद रखा। उनकी की खुशी का कोई पारावार नहीं था। बड़ी शानदार दावत दी थी। समय अपनी गति से चल रहा था। अब तो रघुवंश जी और उनकी पत्नी का समय प्रमोद की देख-रेख में ही बीत रहा था। रमा भी रघुवंश जी के परिवार में पूरी तरह इस प्रकार रम गई थी कि वह मायके को भूल जैसे गई थी।
जगदंबा बाबू के दिमाग में बदला लेने की भावना मरी नहीं थी। उन्हें रघुवंश जी के परिवार को हंसते-खेलते देख कर बड़ी कुढ़न होती थी। उनका एक भतीजा रजत अमेंरिका में रहता था, संयोग से वह आया हुआ था, वह रमा से मिलने गया था उसने रमा से अमेरिका घुमाने की बात की, सुहास ने तो अपनी व्यस्तता के कारण मना कर दिया पर रमा को भेजने के लिए हाँ कर दी, तीन महीने के भीतर रमा का पासपोर्ट बन गया और रमा अमेरिका चली गई।
जगदंबा बाबू इसी अवसर की तलाश में थे, उन्होंने उस क्षेत्र के दरोगा को घूस देकर मिला लिया और एक लड़की लेकर थाने में अपनी लड़की की ओर से रघुवंश बाबू के परिवार पर दहेज और पारिवारिक हिंसा का मुकदमा कर दिया। रघुवंश के यहाँ जब पुलिस इंस्पेक्टर जाँच के लिए आया तो उनको मालूम हुआ,उनको काटो तो खून नहीं, वह एक तरह से सदमें मे आगए,यह तो कहिए कि उनके पुलिस अधिकारियों से अच्छे संबध थे उन्होंने एस.एस.पी. से बात कर के सारी बात बतायी,एस.एस.पी. ने इंस्पेक्टर को कुछ निर्देश दिए। रघुवंश ने ओंकारनाथ खरे को फोन करके बताया, वह फौरन रघुवंश जी के यहाँ पहुँचे, उन्होंने कहा,‘मुझे तो इसकी पहले से ही आशंका थी, आपकी बहू का क्या रुख है?’
‘बहू मेरी ठीक है, पर वह इस समय अमेरिका में है, उसे सब बता दिया गया हैं वह अगले हफ्ते आ रही है।’
‘तब तक पुलिस को सम्हालना पड़ेगा।’
‘खरे साहब पुलिस को छोड़िए मैं समाज में कैसे मुँह दिखाऊँगा? लोग क्या सोचेंगे मेरे बारे में?’
‘लाला जी धीरज रखें, क्या आप के बारे में लोग जानते नहीं है।’
‘खरे साहब लोग ऐसे मौकों की तलाश में रहते हैं, मेरी तो समझ में कुछ नहीं आ रहा है, आप ही देखिए।’
‘आप बिल्कुल फिक्र न करें मैं सब देख लूँगा।’
सुहास ने रमा को फोन कर सारी बातें बताई। उसने कहा घबराना नहीं, आप मेरा वापसी का एयर टिकट करवा के मेरे वाट्सअप भेज दें, हो सकता कि रजत भी पिता जी से मिला हो और मेरा टिकट न करवाए। रमा ने अपने वापस जाने की बात को रजत को हवा तक नहीं लगने दी। संयोग से रजत आॅफिस में था वह टैक्सी लेकर एयरपोर्ट आगई। शाम को उसको जब मालूम हुआ तो उसने अपने चाचा को बताया। जगदंबा बाबू ने जब उससे पूछा,‘उसके टिकट तुमने कराए थे?’
‘लगता है टिकट सुहास ने कराए हैं।’
‘अब तो सारा खेल ही बिगड़ गया।’
कैसा खेल?’
जगदंबा बाबू ने बिना जवाब दिये फोन काट दिया।
रमा अपनी ससुराल पहुँच गई, वह अपनी सास और रघुवंश को देख कर रोने लगी, उसने अपनी सास से कहा,‘माता जी इसमें मेरा कोई हाथ नहीं है।’
उसकी सास ने उसे गले लगाते हुए कहा,‘बेटा मैं जानती हूँ,तू रो क्यों रही है,चुप हो जा।’
उसने प्रमोद को अपनी सास के पास छोड़ा, सुहास और रघुवंश जी को लेकर अपने मायके पहुँची। उसने जगदंबा बाबू से पूछा,‘यह आपने क्या किया? मेरे परिवार पर दहेज और घरेलू हिंसा का मुकदमा मेरी तरफ से कर दिया, कब मैंने आपसे कहा कि कि मेरे ससुराल वाले दहेज मांग रहे हैं या मुझे प्रताड़ित कर रहे है या मुझे मारते-पीटते हैं। पिता जी आप तो मेरे आदर्श थे पर आज मुझे अपने सोच पर शर्म आ रही है। आपको मुकदमा करते समय यह ख्याल नहीं आया की अपनी बेटी और नाती भविष्य का क्या होगा?’
जगदंबा बाबू की बोलती बंद,उनकी पत्नी, बेटे-बहू की समझ में नही आरहा था कि क्या हुआ? नितिन ने रमा से पूछा,‘रमा हुआ क्या है?’
‘अपने पिता जी से पूछो।’
‘ऐसे क्यों बोलती है,क्या यह तुम्हारे पिता नहीं हैं?’
‘अब तो सोचना पड़ेगा।’
‘ऐसी बातें बंद कर, बता हुआ क्या है?’
‘इन्होंने ने मेरे परिवार पर दहेज और घरेलू हिंसा का मुकदमा किया है। मैं अब थाने में इनके बिरुद्ध झूठा मुकदमा करने की रिपोर्ट करने जा रही हूँ, यह अब अपने बचाव का इंतजाम करलें।’
पूरा परिवार सन्नाटे में आगया, उनकी पत्नी ने भी कहा,‘आप कैसे बाप हैं, ऐसा करते आप को जरा सी भी शर्म नहीं आई?’
अभी तक सुहास और रघुवंश सहाय चुपचाप बैठे थे। रमा के द्वारा पुलिस में रिपोर्ट करने की बात सुन कर रघुवंश ने उससे कहा,‘रमा, यह क्या बचपना है? तुम ऐसा सोच कैसे सकती हो?’
‘इसमें सोचने जैसी बात क्या है,इन्होंने ऐसा क्यों किया? जब इनके मन में आप लोगों के प्रति इतना द्वेष था तो मेरा विवाह सुहास से क्यों करवाया, ऐसा काम तो नीच से नीच आदमी भी नहीं करेगा जो इन्होंने किया।’
‘जानती हो तुम्हारे ऐसा करने पर इनकी प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगी।’
‘इन्होंने मेरे परिवार की प्रतिष्ठा के बारे में एक बार भी सोचा?’
‘फिर भी यह तुम्हारे पिता हैं।’
उनकी पत्नी ने उनसे कहा,‘जरा आप लाला जी को देखिए जिन्हें आपके इतना बुरा करने बाद भी आपकी प्रतिष्ठा की चिंता है। आप अपना केश वापस लें। अन्यथा आप समाज को क्या मुँह दिखलाएंगे?’
‘मम्मी बिल्कुल ठीक कह रही हैं ,आप मुकदमा वापस लें। जब मेरे मना करने के बाद भी आप रमा का विवाह सुहास से तय कर रहे थे तब मैंने सोचा था कि शायद आप सुहास की काबिलियत से प्रभावित होकर संबंध कर रहे हैं, अब मेरी समझ में आया कि रमा की शादी सुहास के साथ करने के पीछे आपकी यह घिनौनी साजिश थी, बोलिए पिता जी आप अपने अहंकार की तुष्टि के लिए इस हद तक चले गए।’ नितिन नें कहा।
जगदंबा बाबू को पूरा यकीन था कि रमा और उनका परिवार उनका साथ देगा पर जब सब तरफ से उन्हें तिरस्कार मिलने लगा तो उनकी स्थिति सांप छछंूदर की होगई। वह आत्मग्लानि में पूरी तरह डूब गए थे, वह भी यही सोच रहे थे कि कैसे वह अपने परिवार और समाज का सामना करेंगे, सब लोग उनकी तरफ देख रहे थे, वह बिल्कुल गुम-सुम निर्जीव काठ की तरह बैठे थे, उनको गुम-सुम देख कर नितिन ने जैसे ही उन्हें हिलाया वह एक तरफ लुढ़क गए और घर में कोहराम मच गया।
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जयराम सिंह गौर
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