१. खरीदारी
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आया हूं बाजार में
खरीदारी करने
मुझे कुछ चीजें खरीदनी हैं।
एक केजी सुख
आधा केजी शांति
सौ ग्राम चैन
और एक मीटर संतुष्टि चाहिए।
इस यौवन का क्या भाव है?
हां, हां, तुम्हारी भाषा में जवानी
दे दो एक लीटर
और एक लीटर सौंदर्य भी।
दया, माया, ईमानदारी, सच्चाई
आदि समस्त छोटी-छोटी मानवीय चीजों को
एक साथ मिलाकर
एक किलो दे दो
छोटे-छोटे सौ पैकेट चाहिए
अच्छे विचारों के
और हां
एक बोतल प्रेम भी चाहिए मुझे।
हे दुकानदार !
पैसा खत्म है मेरा
पर एक चीज छूट गई
फ्री में
गिफ्ट के रूप में दोगे–
एक टुकड़ा जीवन?
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२. पूजा की साड़ी
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पूजा की साड़ी को
निहार रही थी मां
बार-बार
मानो अपने प्रवासी बेटे को निहार रही हो।
दो उंगलियों से
रगड़ रही थी साड़ी को
अपने प्रति अपनी पतोहू की
आस्था की मोटाई
नाप रही थी।
सूंघने लगी
सटाकर नाक
लेने लगी सुगंध
पोते-पोतियों के प्यार की।
दबाने लगी जोर से
अंगूठे से
देख ली मजबूती
मां-बेटे को जोड़ने वाले
नाभि-नाल की।
अब फेरने लगी हाथ
आहिस्ते-आहिस्ते
कि पूरे परिवार के सिर को सहलाकर
बरसाने लगी प्रेमाशीष।
तभी दो बूंद आंसू
टपक पड़े साड़ी पर
साड़ी हुई बदरंग
कांपने लगे होंठ।
बुदबुदाई मां–
क्यों आती है यह पूजा
हरेक साल?
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३. रोटी
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फूली हुई रोटी की
दोनों परतों को खोलता हूं
खाने के पहले
और देखता हूं गौर से
भीतर अंकित चित्रों को
पढ़ता हूं, कुछ नामों को
गुप्त लिपि में लिखे हुए।
सबसे पहले दीखता है–
हँसुआ का चित्र….
फिर एक हल….
एक जोड़ा बैल….
दो-तीन कुदाल….
और पसीने से गीली हुई मिट्टी।
एक धुंधलका चेहरा भी
उभरता है बार-बार
गौर करने पर
लगता है इंसान
घुटने के ऊपर धोती….
गमछी की पगड़ी….
नंगा बदन….
मस्तक पर चिंता की लकीरें….
और पीठ से सटा हुआ पेट….
लगता है —
कभी नहीं मिटी है भूख
कभी नहीं मिली है उसे
…..पेट भर रोटी।
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४. सच्चा डर
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बचपन में, मैं खूब डरता था
भूत से
दिन हो या रात
भूत का डर
पकड़ लेता था मुझे
अकेले में।
जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया
वह डर जाता रहा
और नए-नए डर
समाते रहे मेरे भीतर
बाघ, भालू और सियार का डर
कीड़े-मकोड़े, बिच्छू और साँप का डर
जीवाणु, विषाणु, कवक आदि का डर
इत्यादि का डर।
आज, वे सारे डर
काफूर हो गए हैं
मेरे भीतर से
पर एक डर
समा गया है
मेरे भीतर… गहराई में
कोई माने, न माने
पर मैंने समझा है
अपने अनुभव से कि
‘यह सच्चा डर है ‘
इसीलिए तो मैं डरता हूं
आदमी से,
केवल आदमी से।
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५. बेटी की विदाई
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बेटी जा रही है
दुल्हन बनकर
अलंकारों से लदी हुई
सज-धजकर
बाराती बहुत खुश है।
हो-हुल्लड़, गाना-बजाना
हंसना-खिलखिलाना
चारों तरफ खुशी का कोलाहल है।
परंतु मां…?
मां नीरव है
शांत है
आंखों-आंखों में
एक फिल्म देख रही है–
प्रसव वेदना…
दूध पिलाना…
उंगली पकड़कर चलाना…
नहलाना-धुलाना…
बड़ी होना…
बड़ी होना…
और बड़ी होना…
और
अश्रु धारा के साथ बह जाना…
बहा देना।
फिल्म चल रही है
एक मूक फिल्म
फिल्म देख रही है–
एक अकेली दर्शक !
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६. सर्वहारा
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तुम्हारा कुरेदना
बार-बार
सह लेता हूं मैं
आघात पर आघात
बर्दाश्त कर लेता हूं
एक पेट बारूद ठूंसकर भी
जिससे
उड़ा सकता हूं
इस छोटी-सी पृथ्वी को
मगर शांत हूं मैं !
तुम्हारा लूटना
युगो-युगो से
बनाया मुझे रिक्त- निस्व
अत्याचार, उत्पीड़न
अपमान पर अपमान से
भर गई है
मेरी धमनी, शिरा, उपशिरा में
घातक जहर
जिससे
निष्प्राण कर सकता हूं
इस छोटी-सी पृथ्वी को
मगर शांत हूं मैं !
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७. जूता मत बनो
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अगर जूता खाना पड़े
तो खाओ जूते
कोई बात नहीं
मगर बंधु !
किसी का जूता मत बनो।
झाड़ो, पोंछो, साफ करो
किसी के जूते
कोई बात नहीं
मगर बंधु !
किसी को जूता मत पहनाओ।
यदि मजबूर हो
तो किसी के जूते को
सिर पर ढोओ
ढोओ… ढोओ… ढोओ…
कोई बात नहीं
मगर बंधु !
किसी के जूते के आगे
सिर मत झुकाओ।
दबी हो गर्दन
किसी के जूते के नीचे
तो दबी रहे
रोओ… कराहो…
कोई बात नहीं
मगर बंधु !
उस जूते को मत सहलाओ।
जूता पहन कर जाना
जहां वर्जित हो
तुम्हारे लिए
वहां बिना जूते के जाओ
विरोध मत करो
कोई बात नहीं
मगर बंधु !
वहां जूते को छिपाकर मत जाओ।
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चित्तरंजन गोप ‘लुकाठी’
सेंट्रल पुल कॉलोनी (बेलचढ़ी)
पोस्ट+थाना– निरसा
जिला– धनबाद (झारखंड)
पिन– 828205
मो:- 9931544366