मेला
एक शहर से दूसरे, दूसरे से तीसरे और फिर पुस्तकों के महा मेले में पहुंचे प्रकाशक। उत्साह से लबरेज। प्रकाशन जगत के बड़े खिलाड़ियों के साथ ही नवोदित छुटभैये प्रकाशकों की शिरकत से लग रहा था कि पुस्तकें पढ़ना भले ही कम हो रहा हो कम से कम किताबी रौनक तो हो रही है। बिन खाये डकारना मना है क्या!
प्रांगण में मंच सजा था। दिन भर की कई- कई बुकिंग और बैनर बदलाई से प्राचीर लहू लुहान थी। माइक आलोचना को संप्रेषित करते-करते इन्फेक्टेड हो रहा था। नामी गिरामी प्रकाशन की दुकान में बड़े लेखक महोदय साहित्यिक वाणी विलास कर रहे थे। ‘… पुस्तकें खरीदी ही नहीं जानी चाहिए वरन पढ़ी भी जानी चाहिए।’ कुछ नवधा घेरे खड़े थे कुछ उनके स्वहस्त लेने को आतुर। कई कमेटियों, नहीं देश की लगभग सभी समितियों में उनके विचार, मंत्रणा के बाद ही साहित्य समृद्ध होता। शताधिक पुस्तकें, हजारों शोध लेख उनके नाम से बाजार में बिक रहे थे। अनमोल ज्ञान की अकूत संपदा के पुरोधा, आचार्य स्वामी दयाल। ईमानदारी से रहित मगर ईमानदारी को तरजीह देने वाले। यह उनके व्यक्तित्व के विपरीत उनकी विशेषता थी। इसी के चलते डॉ अच्युत को उनके निवास पर रात्रि भोज में सहभागिता का निमंत्रण मिला था। भव्य अध्ययन कक्ष। करीने से सजी देशी विदेशी बेहतरीन पुस्तकें। डॉ अच्युत ने अनुमति मांगी और किताबें देखने लगे। कवर पेज खोलते ही पता चल जाता था कि ज्यादातर किताबें उन्हें उपहार में प्राप्त हुई थीं। कई किताबों के पन्ने अंदर जुड़े हुए थे। पन्ने खोलने की जहमत कौन उठाए! डॉ अच्युत कभी आचार्य स्वामी दयाल को देखते तो कभी पुस्तकों की ओर। कुछ समय पहले के कहे उनके शब्द .. ‘पुस्तकें पढ़ी भी जानी चाहिए।’ डाइनिंग टेबल पर लजीज व्यंजन। अच्युत का कौर अटका, तुलसी याद आये..गुर सिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा।।
गुरु पूर्णिमा
आज प्राचार्य गौरी शंकर त्रिवेदी, संस्कृत के अध्यापक हरीराम मिश्र, भूगोल वेत्ता गोवर्धन त्रिपाठी जी, रसायन शास्त्री शिवचरण दीक्षित, अर्थशास्त्र के प्रवक्ता अंबिका शर्मा, भौतिकी के रामलाल यादव और हिंदी विशेषज्ञ गंगाप्रसाद सब एक कतार में। शिक्षक सम्मान समारोह में विराजमान हुए। गुरु महिमा के श्लोक मधुर आवाज में सारस्वत प्रांगण को दैवीय बना रहे थे।
सभी कार्यों हेतु अलग-अलग विद्यार्थियों को नामित किया गया था। किसी ने चंदन लगाया किसी ने पुष्पहार से गुरुवंदन किया। समापन बदरी परधान के पोते अंकुर को सभी गुरुजनों के चरण स्पर्श के साथ करना तय था।
प्राचार्य जी ने आशीर्वाद दिया। उपाचार्य ने सिर पर हाथ रखा। किसी ने दीर्घजीवी, और किसी ने सद्मनुष्य होने की शुभकामनाएं दीं। गंगाप्रसाद भावविभोर हो रहे थे। अश्रु पूरित नेत्रों से अंकुर को अशीषने के लिए शब्द अनुसंधान करने लगे। हाथ ऊपर किया…
अंकुर आगे बढ़ा, झुका कि पीछे से आवाज़ आई
..ssहंहं नमस्तेss नमस्ते करो…
उनके पैर नहीं छुए जाते।
श्लोक चल रहा था..
गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वर: …।
बुलाकी चाचा
‘आलता ले लो, लिपस्टिक ले लो, कांटा फीता कंगन-चूड़ी ले लो।’
बुलाकी की आवाज सुनते ही अजिया काकी धेरिया-बहुरिया उसे घेर लेतीं। बड़ा झउवा उसमें करीने से लगी इसनो, पवडर, मिस्सी, काजल, सुरमा, लाली, चिमटी- कांटा, फीता, कंगन-चूड़ी और तमाम सुहाग का सामान। किसी की अपनी पसंद नहीं; सब एक दूसरे से पसंद करवातीं। ‘देखो ना भौजी..’लजातीं। हंसउवा ठिल्लहाव और मोलतोल के बाद खरीदारी। बड़े बुजुर्ग ओट हो जाते।
‘मारु गोसइयां तोरिही आस।’ सुंदारा को दो-चार दिन के लिए छोटे बेटे शुभं के संग सावन में मायके जाने की मोहलत मिली थी। कल्पनाओं ने उड़ान भरी.. कोई सखी सहेली मिल ही जाए। देखो ना बिचारी बचपन में जितना हंसमुख थी ससुराल उतनी ही..?
‘सुंदारा बिटिया कब आई?
कल सांझ को बुलाकी चाचा।’
छोटे,बड़े, हम उम्र सब बुलाकी को बुलाकी चाचा ही बुलाते। सत्तर साल से न जाति की बात हुई न कौम का सवाल। इस महीने चूड़ियां पहनना शुभ माना जाता। बुलाकी ने सुंदारा, सुंदरा की भौजी और पास-पड़ोस की औरतों को चूड़ियां पहनाईं, ज्वारा लाखा। चूड़ी पहनाते समय जो चूड़ी टूट गईं उन्हें बुलाकी ने हिसाब में न गिना। सबको एक-एक चूड़ी अपनी तरफ से दी जिसे उनका आशीर्वाद समझकर सबने माथे से लगा लिया। चूड़ी पहन कर सास जेठानी ननद का आशीर्वाद लिया गया। बुलाकी ने वहीं दहलीज में बैठकर कुछ पूरी पुवा खा लिये कुछ बच्चों के लिए रख लिये। खोंची भरी झउवा उठाया…
‘चूरिहार कौन होते हैं, मम्मी!’
काले बादल गरजे कउंधा लपका।
‘बुलाकी चाचा तुम्हारा समय हो गया है।’
हां बिटिया…!
…’आलता ले लो, लिपस्टिक ले लो..।
दहेज
शशि के होने वाले ससुर ने जब दहेज लेने से साफ इंकार कर दिया तो आगे के कार्यक्रम बरीक्षा, रिंग सेरेमनी, गोदभराई, तिलक के महूरत तय हो गये। पढा लिखा क्लास वन अफसर लड़का और बिना दहेज की शादी!
रिंग सेरेमनी में शामिल होने वाले कन्या पक्ष और वर पक्ष के मेहमान अतिथि गृह में पहुंच चुके थे। मंच पर दो सुंदर कुर्सियां सजी थीं। सामने मेहमानों के बैठने का इंतजाम। विद्या पंडित ने चौक पूरे और ‘कन्या को बुलाइए।’
अंदर माता पिता नजदीकी नाते रिश्तेदार सब हलकान समझ ही नहीं पा रहे थे कि श्रुति ने यह क्या रट लगा रखी है! मां ने दुलारा पुचकारा, ‘बेटी ये सब क्या है? नीचे लोग इंतजार कर रहे हैं।’
‘कुछ नहीं हुआ मम्मी। मैं तो बस्स..।’
सब एक दूसरे को देख रहे थे और शशि बोले जा रही थी, ‘बचपन से यही सुनते आई हूं कि कन्या जात पराया धन होती है। कन्या पराई होती है तो उसे जन्म ही क्यों दिया जाता है? और जन्म के बाद हर जगह दुरग्गा व्यवहार! बेटा है तो डाक्टर-इंजीनियर! और बेटी तो-कहां कलेक्टर बनना है, पढ़ लो कुछ भी। और वह भी इसलिए ताकि ठीक ठाक लड़के से शादी हो जाय…। मैं तो बस वही मांग रही हूं।’
‘हां बेटी तू सही..!’
चाह
कमल नीचे उतरे कपड़े पहने। निगाह घड़ी पर। ‘यह भी सुबह बहुत तेज चलती है। इसके साथ चलते चलते..। और यह है कि चले जा रही है।’ वह फ़्लैश बैक में चले गए। दसवीं का इम्तिहान, नक्षत्र देखकर परीक्षाएं देने जाना। मां पिता के साथ परिवार की परवरिश!
‘आज स्कूल नहीं जाना है क्या?’
हां हां ..।
पत्नी विभा के चेहरे पर सर्वाइकल और जिंदगी के स्याह दर्द। पीछे पड़पीड़न के गहरे जख्म। कुछ इंसानों के कुछ कुत्तों… के।
जौ की रोटियां और साग। ‘ये तुम्हारी दवा, ये टिफिन।’
कमल ने खाना शुरू किया।
विभा विभा..!
मां, बहन, बेटी,बहू और पत्नी। एक-एक पात्र दिखे।
सुनो ..।
कमल का यही संबोधन था विभा को।
नाश्ता कर लेना, कुत्तों के चक्कर में बीपी की दवा भूलना नहीं।
चाह रखी है।
डॉ. श्यामबाबू, शिलांग, (मेघालय)