एक हिंदी अध्यापक की मस्टर पर हस्ताक्षर को लेकर विभागीय जांच चल रही थी.उनपर यह आरोप लगाया गया था कि उन्होंने किसी दिन के हस्ताक्षर दूसरे दिन किए.अब यह कितना गंभीर मामला था पता नहीं? पर इसे नैतिक अधःपतन एवं ग़ैरव्यवहार के रूप में देखा गया था.प्रतिपक्ष के वकील प्रायः कुछ इस तरह से पैरवी कर रहे थें जैसे यह उनका निजी मामला हो.उनका बस चले तो वे अध्यापक पर बलात्कार का भी आरोप लगा सकते थे और यह माँग भी कर सकते थे कि अध्यापक को फांसी की सजा दे दी जाए.वकील का हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रति दृष्टिकोण भी काफी पूर्वाग्रह से युक्त था.केवल उनका ही नहीं बल्कि बहुसंख्यक लोगों का हिंदी के प्रति यह पूर्वाग्रह है और इसे मैंने भी लगातार अपने बीस वर्ष की अध्यापकी में अनुभव किया है.इसका मुझे काफी दुःख है.अब जबकि हिंदी राजभाषा दिवस निकट आ रहा है अतः इस विषय को स्पर्श करने की मेरी इच्छा हुई.हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रति अधिकतम लोग यह सोचते हैं कि यह प्रेम के विषयों से युक्त साहित्य है और इसमें स्त्री-पुरुष प्रेम से जुड़ी कथाएँ,उपन्यास,प्रेमगीत, ग़ज़ल एवं शेरो-शायरी की प्रधानता होती है.हिंदी के रचनाकार प्रायः रसिक प्रवृत्ति के और रंगीले होते हैं जो अपने ही मिजाज में रहते हैं.यह जो लेबल या थप्पा हिंदी साहित्य पर लगा है इसने हिंदी को काफी क्षति पहुँचायी है.वकील प्रायः उस अध्यापक से यह प्रश्न कर रहे थे कि आप हिंदी में प्रेम के विषयों से युक्त उपन्यास और कविताएँ छात्रों को पढ़ाते है? अध्यापक बार-बार यह बताते कि हिंदी में सब कुछ प्रेम के विषय नहीं होते.प्रेमचंद को पढ़े तो वहाँ आपको अधिकांश सामाजिक विषय ही मिलेंगे.सामाजिक दुर्दशा,आर्थिक अभाव,शोषण, उत्पीड़न,भ्रष्टाचार, अस्पृश्यता आदि.वकील का यह प्रयास था कि किसी तरह अध्यापक को रंगीन मिजाज के व्यक्ति के रूप में साबित कर दिया जाए.पर अध्यापक वैसे नहीं थे.वे विज्ञान एवं इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद हिंदी साहित्य की और आकर्षित हुए थे और प्रमाणिकता से अध्यापकी में भी सफल हुए थे.वे दुरुस्त वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त अध्यापक थे.अहिंदी भाषी क्षेत्र में हिंदी का अध्यापन करते हुए भी उनका हिंदी बोलने का स्वर(टच)यूपी-बिहार वालों के नकल का नहीं था.वे स्टीरियोटाइप हिंदी नहीं बोलते थे.उनका हिंदी बोलना हिंदी की स्थानीय बोलियों से प्रभावित नहीं था और इस तरह वे कृत्रिम या बनावटी हिंदी नहीं बोलते थे.उन्हें तब इसका बड़ा आश्चर्य हुआ कि उन्हें वकील ऐसा क्यों पूछ रहे है? जब उनके कुछ समझ में आया तो उन्होंने हिंदी साहित्य का बारीकी से निरीक्षण किया.अहिन्दी भाषी क्षेत्रो में हिंदी पढने को लेकर यह एक बड़ी समस्या है.हिंदी भाषी क्षेत्रों के विषय में वे लोग कुछ बता सकते हैं.हिंदी फिल्मों के गीतों और कहानियों ने क्या वास्तव में हिंदी भाषा के विकास में सहायता की है?क्या ऐसा नहीं लगता कि हिंदी की इस तरह की एक रंगीन छवि गढ़ने में हिंदी का बहुत कुछ भला नहीं हुआ है.हिंदी आज भी अपने प्रयोजनमूलक भाषा के अस्तित्व को बनाने में पर्याप्त सफल नहीं हुई है।
अपने देश में कई पढ़े-लिखे लोगों का हिंदी साहित्य के विषय में ऐसा सोचना क्या चिंतित करनेवाला मसला नहीं है?अंग्रेजी भाषा एवं साहित्य में भी प्रेम के विषय होते हैं परंतु उन भाषाओं की तो ऐसी छवि नहीं बनी है? जब कथाओं,उपन्यासों में स्त्री-पुरुष प्रेम के प्रसंग उपस्थित होते हैं तो अध्यापकों को छात्रों के सामने संकोच तो होता ही है।कोई कुछ भी कहे पर हम हिंदी साहित्य के इस पक्ष को अनदेखा नहीं कर सकते.अच्छा,हिंदी साहित्य का और प्रेम करने का कोई विशेष अंतर्संबंध तो है नहीं.क्या अधिकांश प्रेम करनेवाले लोग हिंदी साहित्य का अध्ययन करनेपर ही प्रेम करने में निपुण होते हैं? मुझे नहीं लगता ऐसा कुछ है.अनेक विद्यालयों,महाविद्यालयों,विश्वविद्यालयों में छात्राओं एवं अध्यापिकाओं के लैंगिक शोषण एवं दुर्व्यवहार के मामलों में हिंदी साहित्येतर यानी एनी विषयों एवं अनुशासनों के अध्यापकों की संख्या अधिक मिलती हैं.अतः ऐसे मामलों में हम यह तर्क नहीं लगा सकते कि हिंदी साहित्य में चित्रित प्रेम के विषय अध्यापकों एवं छात्रों को प्रेम करने हेतु उत्तेजित करते हैं और न ही ऐसा कुछ व्यक्तित्व हिंदी साहित्यकारों एवं अध्यापकों का होता है।
हिंदी की एक प्रसिद्ध फ़िल्म का गीत है–“तू किसीकी हो न जाना,कुछ भी कर जाएगा यह दीवाना”.अब यह दीवाना,पागल,सनम आदि विशेषण हिंदी के तो है नहीं. हम ऐसे गीत न पढ़ा सकते हैं और न खुलकर गा सकते हैं.पर यह लोगों के जबानपर बसे हुए गीत हैं.अत्यंत लोकप्रिय.अब हम दूसरी ओर यदि यह कहते हैं कि और फिल्मों की ऐसी कथाओं और गानों से हिंदी का विकास हुआ है तो यह अत्यंत मूर्खतापूर्ण निष्कर्ष है.ऐसे गाने गानेवालों को मैंने देखा है कि उन्हें सचमुच हिंदी नहीं आती.यह हिंदी का दीवानापन नहीं है.प्रेम के विषयों को लेकर हिंदी साहित्य कितना परिपकता से युक्त है यह शोध का विषय है.पर रीतिकाल से लेकर स्त्री-पुरुष प्रेम का विषय हिंदी का प्रधान विषय रहा है.उसे आप संयोग-श्रृंगार के भीतर रखकर साहित्यिक गरिमा तो प्रदान कर सकते है पर उन लोगों की दृष्टि को कैसे बदले? हम हिंदी की इस बनी हुई छवि से कब और कैसे मुक्ति पा सकते हैं.किसीने उस अध्यापक से पूछा कि प्रेम को लेकर आपकी धारणा क्या है? तो उन्होंने तुरंत कहा कि मुझमें प्रेम में पागल हो जाने जैसी योग्यता नहीं है.मैं किसी भी स्त्री के प्रेम में पागल नहीं हो सकता.यद्यपि स्त्री का प्रेम आकर्षित तो करता है पर वह उतना भी महान नहीं हैं जैसे हिंदी साहित्य में उसे आत्मा-परमात्मा के संबंध के रूप में चित्रित किया गया हैं.संभवतः यह फारसी का प्रभाव है.उन्होंने यह भी कहा कि साहित्य में स्त्री-पुरुष संबंधों के अलौकिक चित्रण की अधिकता के कारण उसके प्रति ऐसी धारणा बनना स्वाभाविक है.अध्यापक ने यह भी कहा कि यदि प्रेम किसीको किसी से भी और कभी भी हो जाये तो वह प्रेम नहीं.जल्दी उसे छोड़ने का निर्णय कर ले और पूरी ताकत के साथ कहे कि तू किसी की भी हो जा,मैं न कुछ करूँगा न और न दीवाना बनूँगा.प्रेम के वास्तविक चित्रण करने के मामले में अब हिंदी साहित्य को करवट बदल लेनी चाहिए।
कुछ वर्षों पूर्व पटना विश्वविद्यालय के किसी कॉलेज के हिंदी के प्रोफ़ेसर मटुकनाथ चौधरी और उनकी छात्रा जुली के प्रेम-संबंध को लेकर काफी विवाद हुआ.इस अध्यापक और छात्रा के प्रेमसंबंधों को सामाजिक कलंक के साथ-साथ अध्यापकीय पेशे एवं गुरु-शिष्य संबंधों पर भी एक कलंक के रूप में स्वीकार किया गया.यह सही है कि इन दोनों प्रेमियों के कारण गुरु-शिष्य संबंधों की पवित्र प्रतिमा को धक्का लगा.इस विवाद में अकारण हिंदी साहित्य की भूमिका भी सामने आयी.ऐसा क्यों लोगों ने सोचा पता नहीं.गुरु और शिष्या के बीच प्रेम और फिर उस प्रेम के दांपत्य में बदलने के अनगिनत उदाहरण इस देश में मिलते हैं.ऐसे अध्यापकों और उनकी शिष्याओं में अन्य विषयों एवं अनुशासनों की संख्या हिंदी से कुछ अधिक ही है.पर इस तरह से कि केवल हिंदी में सब कुछ प्रेम ही सिखाया जाता है और लगभग सारा कथासाहित्य और कवितायें प्रेम की विषयवस्तुओं से भरी पड़ी है ऐसी मानसिकता बना लेना क्या अनुचित नहीं है? साहित्य मनुष्य जीवन का दर्पण है और प्रेम मनुष्य जीवन का एक अभिन्न अंग एवं महत्वपूर्ण पक्ष है.जब जीवन का चित्रण होगा तो इस पक्ष का भी अनायास होगा.ऐसी स्थितियों में साहित्य में प्रेम-चित्रण को लेकर एक परिपक्व सामाजिक दृष्टी का होना जरुरी है.वह सामाजिक दृष्टी यदि नहीं होगी तो ऐसी साहित्यिक रचनाओं को पाठ्यक्रमों में रखने का कोई औचित्य नहीं है.ऐसी रचनाओं को कक्षाओं में पढानें में अध्यापकों को संकोच होगा और वें असहज भी अनुभव करेंगे.ठीक यही स्थिति छात्र-छात्राओं की भी होगी.फिर तो इस प्रकार की रचनाएं केवल एकान्तिक पठन की रचनाएं ही होगी.मटुकनाथ और जूली ने कुछ दिनों बाद अपनी एक डायरी प्रकाशित की जो ‘मटुक-जूली की डायरी’ के नाम से प्रकाशित की जिसमें अपने इस प्रेम का समर्थन करते हुए इसके पहले प्रकरण ‘कहाँ हो प्रेम?’ में उन्होंने प्रेम को जीवन में इम्प्लीमेंट करने के बारे में लिखा,–“कार्ल मार्क्स ने कहा है—‘दार्शनिकों ने संसार की व्याख्या भिन्न-भिन्न ढंग से की है,किन्तु असली काम उसे बदलना है.’ इसी तर्ज पर मैं कहना चाहूँगा—‘दार्शनिकों ने प्रेम की व्याख्या भिन्न-भिन्न ढंग से की है,किन्तु असली काम उसे जीवन में उतारना है.प्रेम की अनंत व्याख्याओं का सागर मनुष्य के सामने लहरा रहा हैं और मनुष्य प्यासा है—पानी बिच मीन प्यासी! क्यों?इसलिए कि अवधारणाओं का सागर नहीं,जीवन में उतारा प्रेम का एक कतरा ही मनुष्य को तृप्त कर सकता है.इसलिए क्या यह आवश्यक नहीं कि प्रेम पर ऊँची-ऊँची बातें करने के बदले वह जीवन में कैसे उतर सकता है,इसी पर थोड़ा विचार कर ले.” यह कैसी बात मटुक और जूली कर रहे हैं? क्या वे यह भूल गए जो कबीर ने कहकर रखा है—‘प्रेम न बाड़ी उपजे,प्रेम न हाटी बिकाय’.ऐसा थोड़े ही प्रेम जीवन में उतरता है?क्या स्कूल,कॉलेज,विश्वविद्यालय आदि प्रेम को जीवन में उतारने की जगहें हैं? हालांकि वर्तमान में कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में ऐसा ही कुछ हो रहा हैं.घर से पढने के लिए निकली हुई लडकियाँ अपने प्रेमियों के साथ परस्पर रफूचक्कर हो रही हैं.यह भागनेवाली लडकियां केवल हिंदी साहित्य पढनेवाली तो है नहीं.बहुत सारी तो विज्ञान,वाणिज्य और अन्य शाखाओं में पढ़नेवाली है.ऐसी स्थितियों में हिंदी साहित्य पर प्रेम को उत्तेजित करनेवाला साहित्य का ठप्पा लगाना अनुचित है.इससे अधिक उत्तेजित करने काम तो हिंदी फ़िल्में और गीत करते हैं.फिर भी साहित्य को प्रेम का चित्रण करने और उसकी भिन्न-भिन्न तरीके से व्याख्याएं करने के बारें पुनर्विचार तो करना ही होगा.
मटुक और जूली अपने प्रेम को नैतिक स्थापित करते हुए उसकी परिभाषा जिस प्रकार करते है उसके लिए केवल उन्हें जिम्मेदार नहीं माना जा सकता.हिंदी के प्राचीन प्रबंधकाव्यों में जो अन्योक्ति या रूपक-काव्य के रूप में प्रेम का चित्रण हुआ है वह इस सन्दर्भ में चिंतनीय है.तुलसीदास का उदाहरण देते हुए मटुक-जूली कहते है,–“प्रेम का अक्षय स्त्रोत हमारा ह्रदय है.लेकिन उसका दरवाजा बंद है.उसपर संस्कारों,रुढियों और मूढ़ताओं के भारी पत्थर रखे हुए हैं.इन पत्थरों को हटाना पडेगा.तभी प्रेम का झरना फूटेगा.इन पत्थरों को हटाने का एक ही औजार है समझदारी.समझ आते ही यह पत्थर लुप्त हो जाते हैं.समझ को लाने का रास्ता है सत्संग.तुलसीदास कहते हैं—‘बिनु सत्संग बिबेक न होई’.सत्संग है क्या और वह कैसे प्राप्त होता है?सत्य या प्रेम पाये हुए मनुष्य के पास होना सत्संग है.प्रश्न है पाये हुए पुरुष को कहाँ पाऊ” तुलसी कहते हैं—‘राम कृपा बिनु सुलभ न सोई.सत्संग के लिए राम कृपा चाहिए.राम कृपा क्या है और वह कैसे प्राप्त होगी? इसपर तुलसी मौन हैं,क्योंकि उन्हें राम कृपा सुलभ हो चुकी थी.” परंतु मटुक-जूली मौन नहीं है.वे कहते है कि अपने जीवन पर नजर डाले तो राम कृपा का स्त्रोत मिल जाएगा और वह स्त्रोत है—प्राणों की प्यास.प्यास बड़ी चीज है.यह हमें तडपाती है,भटकाती है.तडपन और भटकन जितनी तीव्र होती है,सत्संग उतना ही शीघ्र सुलभ हो जाता है.यह है हमारा हिंदी साहित्य का प्रेम.हिंदी का साहित्यकार और अध्यापक अपने आपको व्यक्त कर सकता है.व्यापार और वाणिज्य का प्रेम कैसे व्यक्त हो? प्रेम की प्यास तो वहां पर भी है.पर वह व्यक्त नहीं होता इसलिए बच जाता है और ढँका रह जाता है.हिंदी का प्रेम बोलता है,व्यक्त होता है वह अकारण खुलकर या अपनी आत्मस्वीकृतियों के कारण बदनाम हो जाता है.हिंदी के ऐसे कई साहित्यकार मिलेंगे जिन्होंने प्रेम के बारे में खूब लिखा पर न उन्होंने कभी किसीसे प्रेम किया न प्रेम उन्हें सहजता से सुलभ हो सका.यानी वें अपने जीवन में इस तरह का प्रेम उतार नहीं सकें जिसके बारे में मटुक-जूली कह रहे हैं.महादेवी अपने तज्जन्य असफल प्रेम को प्रकृति से जोड़ते हुए कहती हैं—“ मैं नीर भरी दुःख की बदली,कल उमड़ी थी और आज बरस पड़ी.” पंत भी अपने असफल प्रेम को ‘ग्रंथि’ में कुछ इसीप्रकार व्यक्त करते हैं,–हाय,मेरे सामने ही प्रणय का/ग्रंथिबंधन हो गया/वह नवमधुप-सा मेरा ह्रदय लेकर/किसी अन्य मानस का विभूषण हो गया/पाणि,कोमल पाणि/निज बंधूक की मृदु हथेली में/सरल मेरा ह्रदय भूल से यदि ले लिया था/तो मुझे क्यों न वह लौटा दिया तुमने पुनः?” बच्चन कहते हैं,–“इस पार,प्रिये मधु है तुम हो/उस पार न जाने क्या होगा”. और दूसरे स्थान पर कहते हैं,–“प्यार किसी को करना लेकिन/कहकर उसे बताना क्या/अपने को अर्पण करना पर/और को अपनाना क्या….ले लेना सुगंध सुमनों की/तोड़ उन्हें मुरझाना क्या/प्रेम हार पहनाना लेकिन/प्रेम पाश फैलाना क्या.”
हिंदी साहित्य में प्रेम का अबतक जितना स्वस्थ और पवित्र चित्रण हुआ है खूब हुआ है.अब इस परिधि से बाहर आने का या निकलने का समय आ गया है या फिर इसे और किसी एनी तरीकें से व्यक्त करें.प्रेम के अतिरिक्त अन्य विषयवस्तुओं की कोई कमी नहीं है.अपने जीवन के अनुभवों,विचारों एवं सिद्धांतों का समर्थन करने के हेतु से लिखना भी ठीक नहीं है.इस तरह अभी भी हिंदी में बहुत सन्नाटा है.
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कुबेर कुमावत,
‘यूथिका’ प्लाट नं.३८,१७६२/३,
केले नगर,अमलनेर-४२५४०१
महाराष्ट्र.
मो.नं. : 9823660903
प्रेम-चित्रण की छवि से बाहर निकले हिंदी साहित्य : कुबेर कुमावत
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