संयम
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व्योम में घूमती एक बिंदु की तरह
धूप के नगीनों उससे ताल्लुक रखते हैं,
उसकी छाया में अरमान ढकेले जाते हैं
निर्जनता की गोद में छिपती है दिन भर,
और रात में चाँदनी से जगमगाती है !
कांच के दरवाजे़ के बाहर चमकती दुनिया
मन में छिपे बहुत से प्रश्नों के ढेर
मधुरता की आड़ में जीवन के
सभी रहस्यों को सुलझाती !
बुनी वक़्त की गहराई में
हर तरफ विचारों की खिड़कियाँ हैं,
संतोष की डोरी से बंधे ख्वाब
मन में उठते बुद्धिमान संकल्प!
और चेहरे पर सजी एक श्वेत मुस्कान
सारे उथल पुथल को संयमित करती सी!
भूख
एक अनुभव एक प्रक्रिया
क्षुधा शान्त करने की !
दो शक्लों में बँटी सी
“पहली ”
खाली दहाड़ती अंतड़ियों की आंतरिक क्षुधा
शरीर को खोखला करती सी!
“दूसरी”
सामाजिक ढोंग और विश्वासघात की
थाली परोसती मस्तिष्की क्षुधा
मस्तिष्क को छलती!
बड़े हैरानी की बात
मनुष्य शरीर के सर्वोचत्म अंग “मस्तिष्क” के “हाइपोथैलेमस”
द्वारा नियंत्रित होती है भूख
फिर भी ना जाने क्यूँ
अनियंत्रित सी है
मनुष्य की यह भूख ….
पृथ्वी
The Earth
The Earth
ब्रह्मांड का एक अंश
सौरमण्डल का सबसे बड़ा चट्टानी पिण्ड
सूर्य से 15 करोड़ किलोमीटर दूर एक ग्रह
जिस पर जीवन आश्रित सा है
उसका मूल तत्व है ‘मिट्टी’
जिससे पृथ्वी की सबसे बुद्धितम प्राणी
अपने शरीर को बनाये रखती है।
कुछ भी खाने का मतलब है
धरती के एक भाग से
मिट्टी के एक भाग को
अपने अंदर ग्रहित करना ।
रूप, रस, गन्ध और स्पर्श
गुणों से सुजज्जित पृथ्वी
हमारी मानसिक, भावनात्मक
और आध्यात्मिक खुशहाली के लिये
असीमित अनुदान करती है
साथ ही हमारी भौतिकता का
मूल भी तैयार करती है।
कहने का औचित्य है
जिस तरह का व्यवहार हम
धरती के साथ करते हैं
ठीक वैसा ही स्वयं के साथ भी करते हैं।
चीख़
शब्द का एक रूप
ध्वनि बन निकलती है
344 मीटर प्रति सेकंड की गति से !
समेटे आद्रता, घुटन ,बेबसी
और बिखर जाती है वायुमंडल में
अनंत काल के लिए !
सुना है
बड़े शहरों में चीखें होती है नियंत्रित
पैसों से खरीदे चीजों को तोड़कर!
मैं भी चीखना चाहती हूंँ
344 मीटर प्रति सेकंड की दुगनी गति से
पर आस-पास टूटने को कुछ भी नहीं है!
एक आजाद स्त्री
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एक आजाद स्त्री
सामान्य मानसिकता से परे
असाधारण और निर्भीक होती है
उसे फर्क नहीं पड़ता
जगहों और इंसानी बातों का
फर्क नहीं पड़ता उसे
किसी के अच्छे या बुरे होने का
वह स्वयं निर्धारित करती है अपने दायरे
स्थापित करती है अपने सोच
और दिशा देती है अपने वज़ूद को।
हर रोज़ सड़कों पर चलते
चुभती नज़रों से बेफिक्र
स्त्री सशक्तीकरण के लिए बनाए क़ानूनों की लम्बी फ़ेहरिस्त को फाड़ फेंक
निडर सी स्वावलंबी भविष्य के बीज बोती
सड़कों पर देर रात बेख़ौफ़
काम को फिरती है।
वह निर्भय होकर प्रेम करती है।
देवी और स्त्री की गरिमा के नाम
स्वयं पर थोपे गए समाज के तमाम
नैतिक निर्णयों पर हँसती
अघोषित अधिकारों का मनोबल तोड़
स्वयं के सामर्थ्य की ध्वस्त व्यवस्था को स्थापित करती है।
एक आजाद स्त्री
संभाल रही बखूबी
स्वाभिमान, व्यवहार कुशलता,और आत्मसम्मान
जीवन भूमि में दिखा कौशल
जीत रही हर जंग।
क्षमता और अद्भुत योग्यता का समन्वय सी
छुई-मुई नहीं ना ही ढेले कपूर की
उसने आपने अंदर के शोर को दे अंजाम
बढ़ रही अटल प्रतिपल
रच रही महा काव्य।
एक आज़ाद स्त्री
नारीवाद और पुरुषवाद से परे
स्वतंत्र, स्वच्छंद
अंध विश्वासों परे धकेल संस्कारो को समेट
दृढ़ मानसिकता से भरपूर
अधिकार, अपनत्व,जिम्मेदारियों से परिपूर्ण
आजादी के संदर्भ में
बुनती है स्वयं के समानता का इतिहास
एक आज़ाद स्त्री।
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नीता अनामिका
दमदम, मोतीझील, कोलकाता