1. (बहू, में बेटे का प्रतिरूप)
रेवती ने अपने पति सूरज से कहा–मैं तुम्हारे साथ रहने के लिए शहर चलने को तो चल सकती हूं सूरज लेकिन तुम जरा अपनी उस बूढ़ी मां के बारे में सोचो जिन्होंने तुम्हें अपने पांव पर चलने के लिए तुम्हारी अंगुलियां पकड़ी, तुम्हें अपनी हाथों का सहारा दिया आज तुम्हारी मां के वे हाथ बूढ़े हो गए हैं। अब उनकी बूढ़ी अंगुलियों को भी हमारे तुम्हारे हाथों के सहारे की जरूरत है.
फिर तुम अपनी मां के अकेले बेटे हो सूरज ऐसे में शहर की खुशी मां की खुशी के आगे बहुत छोटी खुशी है. फिर तुम घर और गांव से इतनी दूर भी नौकरी नहीं करते हो कि हफ्ते में एक-दो दिन मेरे और मां के पास आ ना सको. लेकिन सूरज यह कहां सुन रहा था. उसकी आंखें तो बस यह सोचकर बरस रही थी कि जिस मां की खुशी के बारे में वह बेटा होकर नहीं सोच पाया उसे रेवती ने बहू होकर सोच लिया. तभी सूरज ने रेवती से कहा कि, तुम केवल एक बहू ही नहीं रेवती बल्कि तुम बहू के रूप में एक बेटे का प्रतिरूप हो.
2. (कटी पतंग)
आकांक्षा आज बिल्कुल तन्हा उदास और, गुमसुम सी अपनी छत पर खड़ी तमाम उड़ती हुई पतंगों को एकटक देख रही थी. साथ ही वह यह भी सोच रही थी कि वह भी कभी इन्हीं उड़ती हुई पतंगों की तरह अपने आलोक के साथ कितनी खुश थी, लेकिन उन दिनों आकांक्षा को यह नहीं पता था कि पतंगों की नियति है एक दिन अपनी डोर से कट जाना.
अतः आकांक्षा भी एक दिन इन्हीं उड़ती पतंगों की तरह अपने–आलोक नाम के उस डोर से हमेशा-हमेशा के लिए कट गई जो उसकी जिंदगी था. अतः वह एक कटी पतंग की तरह लड़खड़ाती, इधर-उधर हवा के झोंके और थपेड़े खाती हुई दूर बहुत दूर एक गुमनाम सी दरख़्त की साख पर फटकर अपनी डोर की चाहत की याद में जार जार रो और तड़प रही.
आलोक ने अपनी आकांक्षा के प्यार को ऐसे भुला दिया, जैसे किसी पतंग उड़ाने वाले, ने अपनी पुरानी कटी पतंग की जगह एक नई पतंग अपनी डोर से बांध उस प्यारी पतंग को हमेशा के लिए भुला दिया हो जिसे-अभी तलक वह बहुत प्यार से उड़ा रहा था, लेकिन आकांक्षा ऐसा नहीं कर सकी, वह आज भी अपने आलोक को नहीं भूल पाई.
तभी एक अनजानी सी पतंग कही से कटकर आकांक्षा के छत पर गिरती है जिसकी गिरने की आवाज आकांक्षा को अपने और आलोक की यादों से बाहर खींच लाती है।
3. (किन्नर एक उपेक्षिता)
आज शिल्पा को किन्नरों की मौसी ने पहली बार लोगों के यहां नाचने-गाने के लिए जाने को कहा, तो शिल्पा की आंखों से मोटे-मोटे आसूं गिरने लगे, लेकिन मौसी ने कहा कि देख शिल्पा अब इस रोने-धोने से तेरा कुछ भी भला होने बाला नहीं, तू जितनी जल्दी इस बात को कबूल लेगी की तू एक किन्नर है, तो यह तुम्हारे लिए उतना ही बढ़िया होगा.
चल अच्छा, ठीक है आज तुम कही किसी के यहां नाचना-गाना मत लेकिन तू इन किन्नरों के साथ जा और यह देख कि किस तरह एक किन्नर अपने अंदर की पीड़ा और दर्द को भूलकर दुसरो की खुशी में शरीक होकर नाचती-गाती है. शिल्पा बड़े ही अनमने मन से दो किन्नरों के साथ चल पड़ी.
रास्ते में उसके साथ की किन्नरों ने शिल्पा से कहा कि, शिल्पा तू क्या सोचती है ? कि हमे तेरे अंदर की पीड़ा या दर्द का एहसास नहीं ,पगली! हमें पता है कि इस समय तेरे दिल पर और तुझ पर क्या बीत रही है.
हम भी जब पहली बार अपने घर-परिवार को छोड़कर इन किन्नरों के बीच रहने के लिए नई-नई आई थी तब हमारी भी हालत बिल्कुल तुम्हारी तरह थी. जी करता था कि सब कुछ छोड़कर घर चली जाऊ, लेकिन शिल्पा ये हर किन्नर की नियति है कि वे उम्र भर केवल इस समाज की त्याज और उपेक्षिता बनकर जिए क्योंकि वे किन्नर हैं इसलिए उसकी कोई खुशी नही.
4. (तलाक और एक कतरा रौशनी)
जुनैद और शाहिदा को निकाह किए हुए आठ साल हों गए थे, इस बीच शाहिदा जुनैद के दो बच्चों की अम्मी भी बन गई थी, लेकिन शाहिदा के चाल-चलन पर जुनैद को, निकाह के कुछ माह बाद ही शक करने का एक शैतानी फितूर घर कर गया था.
जिसकी वजह से वह आए दिन शाहिदा को मारता पीटता व उसे गालियां भी देता था. लेकिन शाहिदा अपने इस दर्द को भूल जाती और यह सोचती कि शायद! किसी दिन उसका जुनैद उसकी पाकिजा मोहब्बत को पहचान ले.
लेकिन ऐसा नही हुआ.बल्कि जुनैद अब तलाक की जिद तक आ पहुंचा था और फिर वही हुआ जिसका शाहिदा को बहुत पहले से ही डर लगा रहता था. उस दिन जुनैद और दिनो की अपेक्षा काफ़ी गुस्से में घर आया था और उसी गुस्से के तहत उसने शाहिदा से कहा कि मैं तुम्हें आज और अभी से अपने पूरे होशो हवास में “तलाक देता हूं”.
इतना सुनते ही लगा कि जैसे जुनैद ने शाहिदा के कानों में पिघला हुआ शीशा उड़ेल दिया हो और शाहिदा या अल्लाह! कहकर वही जमीन पर बेहोश होकर गिर पड़ी. फिर कुछ देर बाद जब उसे कुछ होश आया तो वह तड़प के बोली ,– “मुझे तुम्हारे शक की इतनी बड़ी गाली कुबूल है जुनैद.” लेकिन मुझे इतना तो बता दो जुनैद कि,– आखिर! इन मासूम बच्चों का कुसूर क्या हैं? आख़िर इनकी परवरिश का कत्ल तुम क्यूं करना चाहते हों?
ठीक है. अगर तुम्हें किसी और से निकाह करना है तो मैं तुम्हें रोकूंगी नहीं, लेकिन इस दहलीज और चारदीवारी के बाहर मैं अपने इस बदन की लाश का क्या करूंगी ? लेकिन जुनैद के कानों पे मानो कोई जू तक नही रेंगी हों बल्कि वे वैसे ही फिर बोला,–”मैं तुम्हें तलाक देता हूं! तलाक देता हूं!” ये तीसरी बार उसकी होठ से निकला और फिर शाहिदा ने बिना जुनैद की तरफ़ देखे चुपचाप दोनों बच्चो को अपने साथ लिया और तलाक के दर्द के साथ चल पड़ी एक स्याह अंधेरे की तरफ ढूंढ़ने अपने बच्चो के लिए एक कतरा रौशनी.
5. (पांव रिक्शा)
मई की भयंकर चिलचिलाती धूप में राममनोहर अपना पांव रिक्शा तिराहे पर खड़ा कर किसी सवारी के आने का इंतज़ार कर रहा था, लेकिन जब काफी देर बाद भी कोई सवारी उसके पांव रिक्शे के पास नहीं आई तो वह काफी हताश होकर अपने पुराने गमछे से पसीने को पोछकर यह सोचने लगा कि, – एक समय वह था जब उसे दस मिनट भी ठीक से तिराहे पर खड़े हुए नहीं होता था कि कोई ना कोई सवारी आकर उसके रिक्शे पे बैठ जाया करती थी.
और एक समय यह हैं कि इतना इंतजार करने के बाद भी कोई सवारी उसके रिक्शे पे बैठने के लिए नहीं आ रही. यह सब समय का फेर है, वरना जो सवारी कभी रिक्शे पे बैठा करती थी, आज वही सवारी ई- रिक्शा पर बैठकर कही आ जा रही है. यह सब केवल शहर में ई–रिक्शा आ जानें की वजह से हुआ है. इसी की वजह से उसके सारे साथियों ने एक–एक कर अपना पांव रिक्शा बेच दिया और उसके बदले ई–रिक्शा खरीद लिए.
लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों और परेशानियों की वजह से राममनोहर ऐसा नहीं कर पाया. अब तो इस तिराहे पर ले देकर एकमात्र पांव रिक्शा केवल राममनोहर के पास ही बचा है. तभी उसके रिक्शे के पास दो महिला सवारी आई और उससे कहा कि,– ऐ रिक्शा भीतर कालोनी में चलोगे क्या? तो राममनोहर अपने ख्यालों से बाहर निकलकर बोला कि क्यों नही मेम साहब ! इतना कहने के साथ ही उसने गमछे से रिक्शे की सीट को साफ कर कहा,– आइए बैठिए ! तो उन दोनो महिलाओं ने पूछा कि, कितना किराया लोगे ? राममनोहर ने कहा आप तो जानती ही हैं मेम साहब ! कि वहा तक का कितना किराया होता हैं फिर भी आपकी समझ में जो भी किराया आए मुझे दे दीजिएगा.
यह बात राममनोहर ने इस डर से कही थी कि, कही यह सवारी भी उसके हाथ से ना निकल जाए. उन महिलाओं ने कहा ठीक है ,चलो ! जैसे ही वे दोनों राममनोहर के रिक्शे पर बैठी वैसे ही उसने उन महिलाओं को धूप से बचने के लिए अपने रिक्शे में लगे पर्दे को खींच दिया और फिर कड़ी धूप में रिक्शे को अपने पेट और सीने के बल खींचता हुआ उस कालोनी की तरफ़ चल पड़ा जहाँ उसे महिला सवारियों ने उसे छोड़ने के लिए कहा था.
लेखक-रंगनाथ द्विवेदी
जज कालोनी, मियापुर
जिला-जौनपुर 222002 (U P)
mo.no.7800824758