“तुम्हें हुआ क्या है?” मालती करीब-करीब चीखते हुए बोली थी। “कुछ नहीं! बस ऐसे ही सोचने लग गया।” भुवन ने एक मुस्कान जबरन खींचकर जवाब दिया था।
पर मालती नज़रों से उनके चेहरे को नापते हुए रुंआसी हुई जा रही थी। भुवन ने फिर कहा, इस बार मालती के कंधें को हलके से छूकर……
“कुछ नहीं हुआ है। तुम ख़ामखा…… ”
“नहीं, मुझे बताओ कि किस बात ने तुम्हें ऐसा सोचने पर मजबूर किया।”
भुवन चुप रहे। चुप्पी ज्यादा देर तक बनी रही तो एक क्षण गौर से पत्नी को निहार कर बोले…..
“एक-एक कप और चाय पर बात करते हें।” मालती चाय बनाने उठ गई।
इस फ्लैट को भुवन-मालती ने बड़ी आर्थिक मुश्किलों से कठिन किस्तें भर-भरकर हासिल किया था और फिर बड़े मनोयोग से एक-एक कोने को सुशोभित करने योग्य चीजें जुटा-जुटाकर सजाया था। इसी बॉलकनी में गमले लगाने पर बस उनकी थोड़ी नोक-झोंक हुई थी, भुवन कहे कि इस छोटी बॉलकनी में इतने गमले कहां समा पायेंगे और मालती अड़ी रहीं कि चार फूल-पौधे न दिखें तो चिडि़या-चुग्गे न फटकें और इनके बिना इन्सान की जिंदगी में कोई रौनक नहीं।
और, जब गमलें सज गये तरतीब से, उनमें लगे फूल-पौधे सिर उठाने लगे, रोज ही रंग-बिरंगे चिडि़या-चुग्गे आकर मालती के रखे हुए अनाज के दाने इत्यादि खाने लगे तो भुवन को एहसास हुआ कि वाकई मालती सही कर रही थीं।
तबसे नियम बन गया था; सुबह-सुबह उनका वहीं बैठकर मालती के साथ चाय पीना, नौकरी के दिनों में तो पंद्रह-बीस मिनट ही पर रिटायर होने के बाद घण्टों-घण्टों तक। आज भी वे मालती के साथ बॉलकनी में बैठकर आराम से चाय पीते हुए बातें किये जा रहे थे कि मुंह से वह वाक्य निकल गया था।
वे सम्भवत: नर चिडि़या-मादा चिडि़या युगल थे, बिखेरे हुए दाने बड़े मगन भाव से सिर-चोंच पूरे लय-ताल में हिलाते हुए खाये जा रहे थे। मालती की तो पीठ उनकी तरफ थी पर भुवन की दृष्टि सीधे उनके क्रियाकलाप पर पड़ रही थी और वे इस निरीक्षण में एक अनिवर्चनीय आनंद पा रहे थे। अचानक ही उनके मुंह से निकल गया… “आपस में कितना भी प्रेम हो, एक दिन साथ छूटना ही है। जो पहले गया वो खुशनसीब, बाद में जाने वाला न जाने कितने तकलीफदेह अकेलेपन को झेलने के बाद ही जायेगा।”
और उससे पहले चल रही प्रेमपगी चाय पर चर्चा का खुमार झटके से उतर गया था, मालती बात के प्रकार पर चौंकते हुए भुवन से उतना सब कहकर रूआांसी हो गई थी।
चाय फिर लेकर लौटी मालती के चेहरे पर साफ़ दिख रहा था कि चाय बनाते हुए आंसू कई किस्तों में आंखों से निकलते रहे हैं। पर भुवन ने इसे नजरअंदाज किया और एक चुस्की लेकर बोले- “चाय क्या चीज है! कम से कम मुझे तो सुबह की चाय फुर्ती से भर देती है।” मालती की नजरों ने बस पति के चेहरे को छूकर निकलना चाहा और बोल फूटे- “तो फुर्ती से बता डालो कि सुबह-सुबह वो बात आई कैसे दिमाग में।” “कई महीनों से वो बात मेरे दिमाग में घूमती रही है, आज बस अचानक ही मुंह से निकल गई।” अब भुवन ने किंचित गम्भीरता से कहा।
“क्यों आई दिमाग में?”
“कमाल है। मैं अड़सठ साल का हो गया और तुम बासठ की, ये तो इस उम्र में स्वाभाविक रूप से ही दिमाग में आने वाली बात है।” भुवन आराम से बोले। मालती इसपर चुप रही, बल्कि देर तक चुप रही। उनकी चुप्पी पर चुपचाप सोचे जा रहे भुवन अतत: बोले-
“देखो, पहले तुम जाओ या ………” मालती ने पति का वाक्य पूरा होने से पहले ही, जैसे आसमान की ओर करके, जुड़े हुए हाथ उठाये। “वाह ह्! बड़ी स्वार्थी हो………” कहकर भुवन हल्के से हंस दिये पर मालती फिर भी कुछ नहीं बोली। भुवन बोलते गये….. “देखो, मैं फिर कहता हूं कि उम्र के इस पड़ाव पर ये सवाल दिमाग में उठना स्वाभाविक है। तुम क्यों इमोशनल हो जाती हो? ……..” मालती खाली हो गये चाय के कप उठाकर चुपचाप चल दी। भुवन कुछ देर सोच में डूबे रहे, फिर बड़बड़ा दिये ….. “वाह ह्! कबीर दास जी।”
“जो मरण सो जग डरे, मेरे मन आनंद कम मरि हौं कब भेटिहौ पूरण परमानंद” पर सब कोई आपके जैसा परमज्ञानी तो हो नहीं सकता, कबीर दास जी। आधे-पौन घण्टे बॉलकनी में अकेले ही बैठे रहने के बाद भुवन उठे और अंदर जाकर अपनी किताबों की आलमारी खोलकर वहीं एक स्टूल लेकर जम गये।
कई हफ्ते तक मालती सुबह की चाय बॉलकनी में पति के साथ तो पीती रही, पीते हुए कुछ बातचीत भी करती रही पर कभी-कभार एक चोर नजर डालकर पति के चेहरे का भाव पढ़ने की कोशिश भी करती। भुवन वैसे के वैसे थे, उस दिन की बात की तरह बात जरूर उन्होंने नहीं की थी। दो-तीन महीने बीत गये तो मालती को लगा कि वे बेवजह ही आशंकित हो गई थीं, भुवन हैं ही पढ़ने-लिखने वाले आदमी, कुछ पढ़-पढ़ाकर कोई ख्याल आ गया होगा और वैसे बोल दिये होंगे वर्ना बढ़ती उम्र के बावजूद दोनों को ही कोई बड़ी स्वास्थ्य-समस्या तो अब तक आई नहीं है। पर एक दिन दोपहर के खाने के बाद खुली हुई आलमारी के सामने स्टूल पर बैठकर किताबें ताकते लग रहे भुवन ने निंदियाई मालती को आवाज़ देकर बुलाया।
“देखो, मुझे तुम्हारी नींद में खलल डालने का कोई शौक नहीं है। पर बात बार-बार दिमाग़ में आ रही है तो कह डालना ही ठीक होगा।” कहकर भुवन ने पत्नी को पास ही पढ़े दूसरे स्टूल पर बैठने का इशारा किया। मालती चुपचाप बैठ गई तो भुवन बोले- “ये दाहिने कोने वाला खाना मैंने किताबों से खाली कर दिया है। इसमें अब बस एक रजिस्टर है और एक झोले में कुछ जरूरी सामान है…………..” इतना कहकर भुवन दो क्षण रूके और पत्नी के चेहरे पर एक गहरी नज़र डाली। फिर बोले- “देखो, इमोशनल होना अच्छी बात है पर प्रैक्टिकल होने की कीमत पर नहीं। तुम पहले गयीं तो मैं जानता हूं कि क्या करना है, कैसे करना है। पर मैं पहले गया तो आस्ट्रेलिया में बस गये बेटे को यहां आने में वक्त लगेगा और इसलिए रजिस्टर में उन लोगों के नाम-पते और फोन नम्बर हैं जिनको सूचित करना है और उनके भी जो अंतिम यात्रा में मदद कर सकते हैं, झोले में…………”
मालती की नींद में शायद हमेशा के लिए ही खलल पड़ गया था।
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