गुरु पूर्णिमा,ईश्वर और गुरु-तत्व विजय कुमार तिवारी ‘मनुष्य एक भटका हुआ देवता है,’ आचार्य श्रीराम शर्मा जी ने लिखा है। मनुष्य वह पहली सीढ़ी है जहाँ से प्रकृति के,पुरुषार्थ के या पतन के सारे रास्ते खुलते दिखाई देते हैं। सद्गुरु मिल गये तो समझो हमारा पुरुषार्थ जागने वाला है,हमारी सोयी हुई प्राण-चेतना स्पन्दित होने वाली है और कोई आलोक उभरने वाला है। सद्गुरु का सान्निध्य हमारे जीवन को जागृति की ओर ले जाता है। कुछ लोगों का कहना है,तुम्हारा गुरु तुम्हें खोजता हुआ आयेगा,तुम्हें बस प्रतीक्षा करनी है। यह सहज मार्ग है परन्तु लम्बी प्रतीक्षा का धैर्य होना चाहिए। दूसरा मत है,उठो,निकल पड़ो सद्गुरु की तलाश में। इसके अपने झमेले हैं। यह अंतहीन यात्रा है,इसमें भी धैर्य की आवश्यकता है। इसमें तुम्हें श्रम करना पड़ेगा,उद्यम करना पड़ेगा,दर-दर जाकर आवाज लगानी पड़ेगी, बहुतेरे अनुभवों से गुजरना पड़ेगा और हो सकता है,सफलता फिर भी कहीं दूर हो। ऐसे मे साधक,भक्त,गुरु प्रेमी क्या करे? लोग कहते हैं,कहीं मत जाओ,घर बैठे पुकारो, आवाज दो। ध्यान रखना है,हमारी आवाज में तड़प हो,बेचैनी हो और गुरु को पाने की जबरदस्त लालसा हो। यहाँ तुम्हारे चाहने से सब कुछ नहीं होगा,जो भी होगा उसके पीछे तुम्हारे संस्कार भी तो हैं। हमारे संस्कार मार्ग-दर्शन करते हैं,हमें बाध्य करते हैं और प्रभावित करते हैं। संस्कारों की प्रबलता तुम्हें ले जायेगी,वैसी ही प्रवृत्तियाँ जागेंगी और चाहे-अनचाहे तुम्हें जाना पड़ेगा। ऐसे में,हर व्यक्ति को अपना संस्कार सुधारने में लग जाना चाहिए। कम से कम आज से,बल्कि इसी क्षण से सावधान हो जाओ ताकि हमारा संस्कार बिगड़ने न पाए। पीछे के बिगड़े संस्कारों का प्रभाव झेलना पड़ेगा और हो सकता है,वे तुम्हें रह-रहकर उस दिशा में ले जाएं जो तुम्हारा अभीष्ट नहीं है। ऐसे में खूब सावधान रहो और धैर्य पूर्वक आगे बढ़ो। अपना विवेक जगाये रखो और ईश्वर की शरण में रहो। विश्वास रखो,ईश्वर की कृपा,उनकी सहायता मिलती है और तुम्हारा विवेक जागृत रहता है। विवेक तुम्हें अच्छे-बुरे की पहचान बताता है,करने योग्य और न करने योग्य की समझ देता है और जागृत विवेक हमें सही दिशा में ले जाता है। लोग बार-बार पूछते हैं–यह कैसे होगा? हम विवेक को कैसे जगाएंगे? ईश्वर को कैसे पुकारेंगे कि उस तक हमारी आवाज पहुँचेगी? यह कठिन नहीं है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कृष्ण ने सहज मार्ग बताया है,जो भी चाहते हो उसे शुरु करो,बार-बार करो और बार-बार करने का अभ्यास करो। बार-बार अभ्यास करने से चीजें सधने लगती हैं और हमारा अभीष्ट प्राप्त होने लगता है। हम संस्कार के अनुसार बहुत से बोझों के नीचे दबे रहते हैं,अनावश्यक कृत्यों में उलझे रहते हैं और वर्तमान के साथ भविष्य भी प्रभावित करते रहते हैं। यदि हम तनिक सावधान होते हैं,अच्छे-बुरे की पहचान कर लेते हैं तो बहुत बोझों से छुटकारा पाने लगते हैं। इसका भी अत्यन्त सहज मार्ग साधु-संतों ने बताया है। हमें जीवन में त्याग की भावना विकसित करनी चाहिए। शुरु में थोड़ा कठिन लगता है,असहज करता है परन्तु एक बार हमने त्याग करना सीख लिया तो समझिए,हमें सही जीवन जीने आ गया। लोग समझते हैं कि प्राप्ति में सुख है,ऐसा बिल्कुल नहीं है,बल्कि इसके विपरीत त्याग मे सुख है। तय हमें ही करना है,जीने के लिए,सुख-शांति के साथ जीने के लिए हमें कितना चाहिए,हमें क्या चाहिए। सचमुच की हमारी आवश्यकताएं बहुत कम हैं। यह रहस्य है,हम उस रहस्य को समझना ही नहीं चाहते,लगे रहते हैं अनावश्यक चीजों को बटोरने में,एकत्र करने में। अपनी ऊर्जा लगाते हैं,शक्ति लगाते हैं, उसके लिए जो आवश्यक नहीं है। तनिक रुककर विचार तो कर लो, यह वस्तु तुम्हें क्यों चाहिए। मेरा मानना है,हम सदैव अनावश्यक चीजों के लिए उलझे रहते हैं। जिस दिन मनुष्य अपनी प्राथमिकता तय करना सीख जायेगा,उसका जीवन सहज हो जायेगा। संतों ने इसका भी मार्ग बताया है। जिस चीज के बिना तुम्हारा काम चल जाए,उसे छोड़ दो या धीरे-धीरे छोड़ना शुरु कर दो। संसार और संसार की सारी वस्तुएं उलझाने वाली हैं,यह समझ लेना है और इस उलझन से निकलने की जरुरत है। हम संग्रह करते हैं,दुनिया को दिखाना चाहते हैं और विचित्र मनोवृत्ति में जीते हैं। यही हमारे बंधन का कारण है। जो रिश्ते मिले है,जो संसार मिला है,जो साधन-संसाधन मिले हैं,उसके साथ जीना सीख लो। रिश्ते लेन-देन के आधार पर मिलते हैं,सबके सब तुम्हारे साहूकार हैं। आज तुम्हारे जीवन में जो भी सम्बन्ध है,वह इसलिए है कि उनसे उऋण होने का समय आ गया है। उनका तुम्हें चुकता करना है। मन बना लो,जिसका जो भी ऋण है,दे दो। स्वेच्छा से तैयार रहो,मन से तत्पर रहो और देना शुरु करो। गाली मिलती है,गाली सुन लो,मार खा लो,हानि सह लो और स्थिर बुद्धि रखो। स्वेच्छा से नहीं दोगे तो तुमसे छिन लिया जायेगा। वसूली के समय ईश्वर तुम्हें सक्षम बनाये रखता है,तुम शरीर से,मन से, बुद्धि से और धन-दौलत से मजबूत होते हो। यह बड़ी शानदार व्यवस्था है ईश्वर की। बस इतना ही है रहस्य जीवन का। ईश्वर जन्म देते समय हमें कम से कम उतना जरुर देता है ताकि हम जीवित रह सकें। यह संसार कर्म-प्रधान है। हर प्राणी कर्म करता है और अपना जीवन सुखमय बनाता रहता है। हमारे मन-प्राण व शरीर में दिव्य चेतना,पुरुषार्थ और शक्ति है। हम उनका सदुपयोग करके श्रेष्ठ जीवन जी सकते हैं। मनुष्य को कभी दूसरे का मुँह नहीं देखना चाहिए,कभी भी मुफ्त का नहीं लेना चाहिए। अपना पुरुषार्थ जगाओ,श्रम करो,अपनी प्राण-चेतना की ताकत समझो,कुछ भी दुर्लभ नहीं है। हम ईश्वर की संतान हैं। उसने हमारे भीतर सम्पूर्ण शक्तियाँ दी हैं। जीवन में बुराइयों से बचना है,लोभ-लालच से बचना है। गुरु एक तत्व है,वह जागृति के लिए हर जीव के साथ जुड़ता है और हर किसी के जीवन को दिशा देता है। हम अपनी धुन में रहते हैं,किसी की नहीं सुनते,मनमाना करते हैं,हमारा गुरु दूर खड़ा देखता रहता है। वह हँसता-मुस्कराता रहता है और हमारे पुकार की प्रतीक्षा करता है। आज गुरु पूर्णिमा की पवित्र पावन तिथि है,बड़ी सुन्दर, दिव्य घड़ी है। हम गुरु-वंदना करें और स्वयं को गुरु-चरणों में समर्पित करें।
विजय कुमार तिवारी (कवि,लेखक,कहानीकार,उपन्यासकार,समीक्षक) टाटा अरियाना हाऊसिंग,टावर-4 फ्लैट-1002 पोस्ट-महालक्ष्मी विहार-751029 भुवनेश्वर,उडीसा,भारत मो०-9102939190