कुछ लोग कवि की उम्र का मुंह देखकर उसकी कविता पर विचार करते हैं या उसे दरकिनार करते हैं। कविता की तरफ कविता का मुंह देखने नहीं जाते, उसका शीलसौन्दर्य देखने नहीं जाते। वे उसकी क्षिप्रता, तेजस्विता पर नहीं जाते। यहां तक कि उसकी मनस्विता पर भी नहीं जाते। वे साहित्य में भी उम्र से पैदा जवानी को किसी कामी की वासना से कम वासनालिप्त होकर नहीं ग्रहण करते। वे कविता को परखने की एक कसौटी उसके कवि के उम्र की कमतरी भी रखते हैं। वे कवि की उम्र की बढ़ोतरी को नकारात्मक मूल्य देते हैं। अनुभव-समृद्धि और शब्द-सिद्धि उनके लिए दो कौड़ी की चीज है। ऐसा रवैया वे इसलिए अपनाते हैं कि वे साहित्य में खुशामद और चापलूसी की हेय समाजवृत्ति का प्रसार कर सकें। वे चाहते हैं कि चर्चित हो रहे और चर्चित हो चुके रचनाकारों के बीच उन्हें खड़े होने भर की थोड़ी जगह मिल सके। उनकी कायर समझ और प्रवृत्ति को भी, फूटी हुई दृष्टि को भी, डूबती हुई नियति को भी नाव का तो क्या तिनके का सहारा मिल सके। ऐसे लोग कमसिनों के साथ कुछ उम्रदराज कवियों की मिलावट कर दयनीय कवि-सूची का खस्ताहाल गुलदस्ता तैयार करते हैं और उसे पाठक समाज के हाथों में नहीं देते बल्कि उसके मुंह पर दे मारते हैं। पाठक समाज का प्रबुद्ध हिस्सा तो ऐसी हरकत पर उड़ती निगाह डालना भी गॅंवारा नहीं करता किन्तु उसका बौद्धिक रूप से अवयस्क तबका सरसरी तौर पर रीझता भी है यानी कोई धारणा भी बनाता है। पर वह गुलदस्ता तो चलते ही बिखर जाता है। उसकी हुलिया इतनी बिगड़ जाती है कि तमाशा भी नहीं बन पाती। ऐसे नकली लोग इतने पाजी होते हैं कि चल निकले नयों में जहां कुछ भी नया नहीं होता वहां नया देखते हैं और स्थापित हो चुके पुरानों में उनकी रचनात्मक उपलब्धि का अपने तईं न तो मूल्यांकन करने की क्षमता रखते हैं न ही उसके रूपविन्यास के सौन्दर्य को बूझने और उसमें निहित खोट-पै को दिखाने का दमखम रखते हैं। वे पूर्ववर्तियों की परख-दृष्टि के द्वारा निकाले गये नतीजों के अंधभक्त होते हैं। वे बड़ों की नामख्याति से हदसकर उनके नाम का अपनी तरफ से भी जय बोलते हैं कि जयकारा लगानेवालों में पैताने ही सही उनका नाम भी दर्ज हो। साहित्य में नापतौल का यह घालमेल चलता रहता है कारण कि छिछले और छिछोरे किस्म के, शौकीन और निलज्ज ढंग के, फूहड़ और मतलबपरस्त प्रकार के सूचीकार समीक्षक पैदा होते रहते हैं। बॅंधी-जबदी हुई किसी वासना के कारण वे शलभ के मानिन्द साहित्य की कभी अपना न होने वाली शिखा पर राख होने निछावर होते रहते हैं। उनके आत्मोत्सर्ग की बड़ाई भी करते नहीं बनती कि उनका दिल साफ नहीं होता। कि वे सत्य और तथ्य के प्रति भारी कोताही बरतते हैं। वे नामियों का नाम लेते तो अघाते नहीं किन्तु नामी उन्हें मुंह लगाने से विरत रहते हैं। नये उनको पूरा पतियाते नहीं कि कोई उनका नामलेवा नहीं होता।
सही कविता की पहचान करना और उनका साजसॅंभाल करना आलोचक की ईमानदारी से जुड़ा मुद्दा है। लेकिन ईमानदारी ऐसी चीज नहीं है कि निहित इरादे के अनुसार उसका इस्तेमाल किया जाए। वह स्वभाव का अंग होती है और किसी कृति के मूल्यांकन-प्रसंग में अशिथिल रूप से तत्पर रहती है। आलोचक का पक्षपात भी उस दशा में स्वीकार योग्य होता है जब किसी कवि के काव्यसौन्दर्य की समृद्धि इतनी प्रचुर हो कि वह अधिकांश जनों के सिर पर चढ़कर बोलती हो। यानी उसका व्यापक संप्रेषण होता हो, साधारणीकरण होता हो। अर्थात् वह इतनी लुभावनी हो कि वैयक्तिक रुचिविशेषों का अतिक्रमण कर जाती हो। कहने का मतलब यह कि साहित्य जगत् की सामूहिक सहृदयता उसे हाथोंहाथ लेने को उद्यत हो। कभी कभी आलोचक की प्रतिभा की ईमानदारी उस जगह भी पक्ष लेती हुई दिखाई पड़ती है जहां वह किसी उपेक्षित-अलक्षित कवि की ऐसी कविताएं या कृति खोज निकालता है जिसके सौन्दर्य की नवीनता और अर्थवत्ता की ओर किसी की दृष्टि पहले नहीं गयी थी। इस तरह के अन्वेषणों में खपी ऊर्जा, मेहनत और ईमानदारी की कद्र हमेशा साहित्य समाज में रही है और रहेगी। लेकिन समस्या अधकचरे समीक्षकों के बालवृत्तिग्रस्त अतिउत्साहीपन से खड़ी होती है जब वे बेईमानी से भरकर दिमागी फितूर के चलते अपना अष्टछाप या चौरासी वैष्णवन की वार्ता जारी करते हैं। तब प्रबुद्ध साहित्यिक सहृदय समाज में तिलमिलाहट पैदा होती है। नेकनीयती के तकाजे को चोट पहुंचती है। इस तरह के कारनामों से आलोचक के चित्त में पैठी नये किस्म की साम्प्रदायिक तरफदारी की बू आती है। तो जाहिर है विवेक-सम्पन्न लोग नाक भौं सिकोड़ेंगे ही। वास्तव में इस तरह के काम ठेस पहुंचाने के ठेठ इरादे से लैस होकर किये ही जाते हैं। यह प्रवृत्ति उस प्रवृत्ति से भिन्न है जहां चार-सात कवि मिलकर अपना संग्रह निकालते हैं। कभी कभी इस तरह के संग्रह ऐतिहासिक महत्त्व प्राप्त कर लेते हैं और ऐसी छाप छोड़ जाते हैं जो छुड़ाये नहीं छूटती। जैसे तार सप्तक। आलोचक यदि अपने दायित्व के प्रति गम्भीर नहीं है और जब-तब नंगा हो जाने के हौसले से भी बुलन्द है तो उसके हाथों जब-तब कायरतापूर्ण ढिठाई के काम भी होते रहेंगे। उसके जिम्मे यदि साहित्य का इतिहास लिखने का काम आ जाये या ऐसा करने के लिए उसका शौक चर्रा उठे तो कल्पना की जा सकती है कि वह क्या गुल खिलायेगा। उसके छिटपुट कविसूची-संग्रहों से ही जब उसके ईमान के उड़े परखच्चों के मंजर नजर आते हैं तो इतिहास लेखन में ऐसे लोग हाथ न डालें तो ही गनीमत है। कवियों की उम्र पर आंख रखनेवाले और किसी अच्छे या खराब कारण से चर्चित हो चुके कवियों से हदसे हुए आलोचकों से हिन्दी का पिण्ड छूट जाए और आइन्दा भी छूटा रहे तो सुकून भी हो। रचना और आलोचना के बीच के सामंजस्य और प्रतिपूरकता की प्रतिष्ठा को आंच न आये उसके लिए जरूरी है कि आलोचक के दिमागी घर के हार्दिक कक्ष में ईमानदारी की शिखा जलती रहे।
एक समस्या हवाई आलोचना की है जिसके स्वैराचार की अलग ही रसीली कहानी है। कुछ आलोचकों की तयशुदा ऐसी भाषाशब्दावली होती है जिसे वे किसी भी कृति या कविता पर उठाकर रख देते हैं और उस नन्ही नाज़ुक जान रचना को इसतरह ढॅंक लेते हैं कि उसके अपने खांटी स्वरूप का अता-पता ही खो जाता है। रचना कुछ और बात कहती है। आलोचक उसे बाहों में भरे हुए किसी और दिशा में रावण की तरह अपहृत किये लिये चला जाता है। हिन्दी आलोचना में ऐसे निष्ठुर साथ ही करुण दृश्य बार-बार देखने में आते हैं। रचना पर पूरी तरह टिकी आलोचना कम ही देखने में आती है। कविता का मर्म उद्घाटित करने के बजाय समय के आसमान में उड़ते अन्य अनुशासनों के लिए बनी शब्दावली का प्रयोग कर कविता के चारों ओर एक हवाई आडम्बर खड़ा किया जाता है जिसे देखकर रचनाकार कवि भी दंग रह जाता है। लेकिन अपने को जैसे तैसे भी आगे बढ़ाया जाता देखकर खुश होने के कारण वह चुप रहता है। समय के फेर को समझने में वह जो पीछे रह गया है, आलोचक के द्वारा अपने को समय की नब्ज पहचानने वाले समझदारों की पंक्ति में बलात् ठेलकर अव्वल दिखाया जाता देखकर वह चूं न बोलने में ही खैरियत समझता है। ऐसे आलोचना-विकल वातावरण में कवि यदि अपनी कृतियों की ऐसे आलोचकों से आलोचना कराने की आतुरता दिखायें तो उसे उनकी लोलुपता कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। विडम्बना तो यह है, आलोचकीय अंधेरगर्दी तो यह है कि कविता या कविताओं के संग्रहों या प्रबंधात्मक कृतियों की ऐसी ऐसी विकराल दिग्गजाकार समीक्षात्मक पोथियां तैयार हुईं हैं कि उसमें मूल रचना की अपनी इयत्ता, अपना व्यक्तित्व, अपनी मनीषा, अपनी आत्मा का ही संहार हो गया है। ऐसी वृहदाकार आलोचनाएं रचना की जमीन पर खड़ी नहीं हैं वे आश्चर्यजनक ढंग से शून्य में, हवा में खड़ी हैं। इससे हुआ यह है कि अच्छी रचनाओं की उनकी अच्छाई के बराबर की आलोचना नहीं हुई है और उसी तरह बुरी रचनाओं की बुराई निकाल कर दिखाई नहीं गयी है। बेईमान आलोचक को इससे मतलब भी नहीं है। वह तो पिनक में आकर अपनी बात अपनी ही गन्ध से मतवाला होकर कहता चला गया है। आलोच्य कविता तो दूर कहीं पीछे छूट गयी है। लेकिन कविगण ऐसी आलोचनाओं पर मुग्ध होते हैं कि जो हो, नाम तो हुआ है। नाता नाम से है। काम के वास्तविक मूल्य को आलोचक न समझे तो घाटे में अपनी जेब का जाता क्या है। और रचना ही यदि भद्दी है तो ऐसी निराधार किन्तु ऊपर उठा देनेवाली मशीनी आलोचना पर कौन कवि बलि न जाए।
यह समझना चाहिए कि आलोचना कोई चलताऊ ढंग का या तात्कालिक काम नहीं है। यह स्थायी महत्त्व का वह काम है जो काल के तीनों आयामों को व्याप्त करता है काव्य या साहित्य के किसी एक पक्ष पर विशेष बल देते हुए भी। काव्य के प्रतिमानों में इजाफा तो होता है लेकिन घटोतरी नहीं होती। जिस दौर में प्रतिमानों में घटोतरी करने की मुहिम छिड़ती है वह दौर क्षीण होकर, अर्थगलित होकर, वृन्त-पतित होकर शीघ्र ही झर जाता है। टिकाऊ नहीं होता। परम्परा की वह अगली नयी कड़ी नहीं बन पाता जिसे ऐतिहासिक हस्तक्षेप कहा जा सके। जिसका तुलनात्मक दृष्टि से ऊंचा मूल्य लग सके। इस मुश्किल घड़ी में जब आलोचकीय निष्ठा और कर्तृत्व पर सवाल उठे हैं तब भी थोथा-लबार, सिफारिशी, खुशामदी या औचित्य-भंजक आलोचना के दिन लदेंगे और ईमानदार, समझदार आलोचना के दिन फिरेंगे, की उम्मीद की जा सकती है।
… रमाकांत नीलकंठ