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Lahak Digital > Blog > Literature > कृष्णकुमार नाज़ की ग़ज़लें
Literature

कृष्णकुमार नाज़ की ग़ज़लें

admin
Last updated: 2023/08/06 at 9:28 AM
admin
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13 Min Read
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ग़ज़ल

सँभलकर राह में चलना वही पत्थर सिखाता है
हमारे पाँव के आगे जो ठोकर बनके आता है

नहीं दीवार के ज़ख़्मों का कुछ अहसास इंसाँ को
जो कीलें गाड़ने के बाद तस्वीरें लगाता है

मैं जैसे वाचनालय में रखा अख़बार हूँ कोई
जो पढ़ता है, वो बेतरतीब अक्सर छोड़ जाता है

मुसव्विर प्यास की हद से गुज़रता है कोई जब भी
तभी तस्वीर काग़ज़ पर समंदर की बनाता है

ये सच है सीढ़ियाँ शुहरत की चढ़ जाने के बाद इंसाँ
सहारा देने वाली ही को अक्सर भूल जाता है

न ऐसे शख़्स को चौखट से ख़ाली हाथ लौटाओ
जो इक रोटी के बदले सौ दुआएँ देके जाता है

बहुत मुश्किल है ’नाज़’ अहसान का बदला चुका पाना
दिये को ख़ुद धुआँ उसका अकेला छोड़ जाता है

ग़ज़ल

बस गया हो ज़ह्न में जैसे कोई डर आजकल
सब इकट्ठा कर रहे हैं छत पे पत्थर आजकल

शहरभर की नालियाँ गिरती हैं जिस तालाब में
वो समझने लग गया ख़ुद को समंदर आजकल

फ़ाइलों का ढेर, वेतन में इज़ाफ़ा कुछ नहीं
हाँ, अगर बढ़ता है तो चश्मे का नंबर आजकल

कतरनें अख़बार की पढ़कर चले जाते हैं लोग
शायरी करने लगे मंचों पे हाकर आजकल

उग रही हैं सिर्फ़ नफ़रत की कटीली झाड़ियाँ
भाईचारे की ज़मीं कितनी है बंजर आजकल

‘नाज़’ मुझको हैं अँधेरे इसलिए बेहद अज़ीज़
अपनी परछाईं से लगता है बहुत डर आजकल

ग़ज़ल

जिस्म से मत पूछिए फिर बाद उसके क्या हुआ
रोटियों से भूख का जिस वक़्त समझौता हुआ

ओ परिंदे लौट आ, औक़ात अपनी भूल मत
कल्पना से भी अधिक आकाश है फैला हुआ

वर्ग, वृत्त, आयत, त्रिभुज, षटकोण कितने ही बने
बिंदुओं में जिस घड़ी अस्तित्व का झगड़ा हुआ

आदमी की भूख मकड़ी की तरह है दोस्तो!
और जीवन उसके जाले की तरह उलझा हुआ

चल नहीं पाती जब इंसाँ की ख़ुदा के सामने
तब वो कह देता है चलिए, ’जो हुआ अच्छा हुआ’

तू वो सुंदर और इक ऐसा सुगंधित शब्द है
जिसके अर्थों में मेरा अस्तित्व है सिमटा हुआ

तुझको शायद ही पता हो, मैं हूँ इक ऐसी किताब
हर वरक़ पर जिसके, तेरा नाम है लिक्खा हुआ

ग़ज़ल

जो पेड़ सबको कड़ी धूप से बचाता है
वो सर्दियों में अलावों के काम आता है

यहाँ फरेब के काँटों की उग रही है फ़स्ल
तू ऐतबार की चादर कहाँ बिछाता है

भरोसा तुझ पे करूँ भी, तो किस तरह ऐ दोस्त!
तू बात-बात पे अहसान जो गिनाता है

तू मेरे पास है, इतना बहुत है मेरे लिए
तू मेरे साथ नहीं है, ये क्यों बताता है

मेरा मिज़ाज बदल दे मेरे ख़ुदा अब तो
जिसे भी देखो वही फ़ायदा उठाता है

मैं जीतकर भी कहाँ उससे जीत पाता हूँ
वो हारकर भी कहाँ मुझसे हार पाता है

वो राहज़न है मगर फिर भी जाने क्यों ऐ ’नाज़’
कोई-कोई तो उसे राहबर बताता है

ग़ज़ल

तरफ़दारी नहीं करते कभी हम उन मकानों की
छतें जिनकी हिमायत चाहती हों आसमानों की

ये कालोनी है या बाज़ार है बेरोज़गारों का
जिधर देखो क़तारें ही क़तारें हैं दुकानों की

मुरादाबाद में कारीगरी ढोता हुआ बचपन
लिए फिरता है साँसों में सियाही कारख़ानों की

उगा है फिर नया सूरज, दिशाएँ हो गईं रोशन
परिंदो! तुम भी अब तैयारियाँ कर लो उड़ानों की

तू जिस इंसाफ़ की देवी के आगे गिड़गिड़ाता है
वो तुझको न्याय क्या देगी, न आँखों की, न कानों की

तुम उसको बेवफ़ा ऐ ’नाज़’ साबित कर न पाओगे
बड़ी लंबी-सी इक फ़हरिस्त है उस पर बहानों की

ग़ज़ल

पेड़ जो खोखले पुराने हैं
अब परिंदों के आशियाने हैं

और बाक़ी कई तराने हैं
जो तेरे साथ गुनगुनाने हैं

क़र्ज़ कल के चुका रहा हूँ आज
आज के क़र्ज़ कल चुकाने हैं

इश्क़ है तिश्नगी का एक पड़ाव
उससे आगे शराबख़ाने हैं

ज़िंदगी और थोड़ी मोहलत दे
तेरे अहसान भी चुकाने हैं

आँसुओ! आज तो ठहर जाओ
आज कुछ क़हक़हे लगाने हैं

ज़िंदगी तेरे पास क्या है बता
मौत के पास तो बहाने हैं

ग़ज़ल

शाम का वक़्त है शाख़ों को हिलाता क्यों है
तू थके-माँदे परिंदों को उड़ाता क्यों है

स्वाद कैसा है पसीने का, ये मज़दूर से पूछ
छाँव में बैठ के अंदाज़ा लगाता क्यों है

मुझको सीने से लगाने में है तौहीन अगर
दोस्ती के लिए फिर हाथ बढ़ाता क्यों है

मुस्कराना है मेरे होंठों की आदत में शुमार
इसका मतलब मेरे सुख-दुख से लगाता क्यों है

भूल मत तेरी भी औलाद बड़ी होगी कभी
तू बुज़ुर्गों को खरी-खोटी सुनाता क्यों है

वक़्त को कौन भला रोक सका है पगले
सूइयाँ घड़ियों की तू पीछे घुमाता क्यों है

प्यार के रूप हैं सब, त्याग-तपस्या-पूजा
इनमें अंतर का कोई प्रश्न उठाता क्यों है

जिसने तुझको कभी अपना नहीं समझा ऐ ‘नाज़’
हर घड़ी उसके लिए अश्क बहाता क्यों है

ग़ज़ल

एक मछली जो मर्तबान में है
कोई दरिया भी उसके ध्यान में है

तेग़ जौहर दिखा के म्यान में है
जीत के जश्न की थकान में है

बादलों ने लिखी है नज़्म कोई
ये जो तस्वीर आसमान में है

टूटते देखे हैं सितारे भी
आदमी जाने किस गुमान में है

दुश्मनी भी तेरी अज़ीज़ है दोस्त
कोई रिश्ता तो दरमियान में है

यार छोड़ो अतीत की बातें
जो भी कुछ है, वो वर्तमान में है

‘नाज़’ अब भी रिवायतों की महक
‘नूरसाहब’* के ख़ानदान में है

* लोकप्रिय शायर श्री कृष्णबिहारी ‘नूर’

ग़ज़ल

ज़हन की आवारगी को इस क़दर प्यारा हूँ मैं
साथ चलती है मेरे, इक ऐसा बंजारा हूँ मैं

राख ने मेरी ही ढक रक्खा है मुझको आजकल
वरना तो ख़ुद में सुलगता एक अंगारा हूँ मैं

ज़िंदगी की कशमकश ने सोख ली सारी मिठास
मैं समंदर हूँ, मगर बेइंतिहा खारा हूँ मैं

अपनेपन के रेशमी धागे से मुझको बाँध ले
तू मेरा आकाश है, तेरा ही ध्रुवतारा हूँ मैं

आपकी साँसें मिलीं तो खिल उठा पूरा वजूद
वरना मेरा क्या है, इक छोटा-सा ग़ुब्बारा हूँ मैं

मैं वो बादल हूँ कि जिसके दम से ख़ुशहाली है ‘नाज़’
फिर भी ये इल्ज़ाम लगते हैं कि आवारा हूँ मैं

ग़ज़ल

शाम ढले घर लौट रहे हैं ख़ुद से ही उकताए लोग
अपनी नाकामी की गठरी कंधे पर लटकाए लोग

चिंता में हैं या चिंतन में, ये कह पाना मुश्किल है
दीवारों को ताक रहे हैं बिन पलकें झपकाए लोग

ख़स्ताहाल पुराने अल्बम की धुँधली तस्वीरों में
जाने कबसे ढूँढ रहे हैं ख़ुद को आँख गड़ाए लोग

अपने ख़ास किसी मक़सद से जो रस्ते वाबस्ता हैं
बेमतलब ही घूम रहे हैं उन पर भीड़ जमाए लोग

यादों के गुलशन में यूँ तो रंग-बिरंगे फूल भी हैं
लेकिन फिरते हैं काँटों को सीने से चिपकाए लोग

होंठों पर तो दरियाओं के क़िस्से हैं आबाद मगर
ज़ह्नों में फिरते हैं केवल अंगारे दहकाए लोग

सबके जज़्बे रुसवा करना कुछ लोगों का शग़्ल है ‘नाज़’
पोरों पर गिनने लायक़ हैं ये भटके-भटकाए लोग

ग़ज़ल

क्या हुआ तुमको अगर चेहरे बदलना आ गया
हमको भी हालात के साँचे में ढलना आ गया

रोशनी के वास्ते धागे को जलते देखकर
ली नसीहत मोम ने उसको पिघलना आ गया

शुक्रिया, बेहद तुम्हारा शुक्रिया, ऐ पत्थरो!
सर झुकाकर जो मुझे रस्ते पे चलना आ गया

सरफिरी आँधी से उसकी दोस्ती क्या हो गई
धूल को इंसान के सर तक उछलना आ गया

बिछ गए फिर ख़ुद-ब-ख़ुद रस्तों में कितने ही गुलाब
जब हमें काँटों पे नंगे पाँव चलना आ गया

चाँद को छूने की कोशिश में तो नाकामी मिली
हाँ मगर, नादान बच्चे को उछलना आ गया

पहले बचपन, फिर जवानी, फिर बुढ़ापे के निशान
उम्र को भी देखिए कपड़े बदलना आ गया

————

साहित्यकार-परिचय

नाम : डॉ. कृष्णकुमार ‘नाज़’
साहित्यिक गुरु : श्री कृष्णबिहारी ‘नूर’
पिता : श्री रामगोपाल वर्मा
जन्मतिथि : 10 जनवरी, 1961
जन्मस्थान : ग्राम कूरी रवाना, जि़ला मुरादाबाद (उ.प्र.)
शिक्षा : एम.ए. (समाजशास्त्र, उर्दू व हिंदी), बी.एड., पी-एच.डी. (हिंदी)
संप्रति : शासकीय सेवा से निवृत्त

प्रकाशित कृतियाँ-
1. इक्कीसवीं सदी के लिए (ग़ज़ल-संग्रह), गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद, 1998
2. गुनगुनी धूप (ग़ज़ल-संग्रह), गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद, 2002 व 2010
3. मन की सतह पर (गीत-संग्रह), गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद, 2003
4. जीवन के परिदृश्य (नाटक-संग्रह), गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद, 2010
5. उगा है फिर नया सूरज (ग़ज़ल-संग्रह), गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद, 2013
6. हिन्दी ग़ज़ल और कृष्णबिहारी ‘नूर’, गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद, 2014
7. व्याकरण ग़ज़ल का, गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद, 2016 व 2018
8. नई हवाएँ ;ग़ज़ल-संग्रहद्ध, किताबगंज प्रकाशन, गंगापुर सिटी (राजस्थान), 2018
9. साथ तुम्हारे ;गीत-संग्रहद्ध, गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद, 2022
10.दिये से दिया जलाते हुए (ग़ज़ल-संग्रह), गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद-2023
11. प्रश्न शब्दों के नगर में (साक्षात्कार-संग्रह), गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद-2023
12. क़ाफि़या (नये दृष्टिकोण के साथ तुकांत का प्रयोग), गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद-2023

संपादित कृतियाँ-
1. दोहों की चैपाल (2010), वाणी प्रकाशन, दिल्ली
2. रंग-रंग के फूल (2019), किताबगंज प्रकाशन, गंगापुर सिटी (राजस्थान)
3. नवगीत-मंथन (2019), किताबगंज प्रकाशन, गंगापुर सिटी (राजस्थान)
4. बालगीत-मंथन (2019), किताबगंज प्रकाशन, गंगापुर सिटी (राजस्थान)
5. दर्द अभी सोये हैं : डा. अजय अनुपम के चुनिंदा गीत, गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद-2022

अतिथि संपादन-
दि अंडरलाइन (मासिक हिंदी पत्रिका कानपुर) दिसंबर 2020 व सितंबर 2022 अंक

सह-संपादन : ग़ज़ल इंटरनेशनल (वार्षिक), मुरादाबाद।
लेखन विधाएँ : ग़ज़ल, गीत, दोहा, कविता, नाटक, निबंध आदि।
विशेष-
1. आकाशवाणी रामपुर द्वारा दर्जनभर ग़ज़लें व गीत विभिन्न गायकों से संगीतबद्ध कराकर प्रसारित किए गए। साथ ही चार नाटक भी तैयार कराकर प्रसारित कराए गए।
2. विभिन्न गायकों द्वारा गीत, ग़ज़लें व भजन स्वरबद्ध कर ऑडियो व वीडियो सी.डी. में संग्रहीत।
3. बरेली (उ.प्र.) की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था ‘निर्झरिणी’ द्वारा डा. कृष्णकुमार ‘नाज़’ पर केन्द्रित 12वाँ विशेषांक प्रकाशित-2018
4. मार्गदर्शक (हिंदी साप्ताहिक) झाँसी द्वारा व्यक्तित्व व कृतित्व पर लेखमाला प्रकाशित।

पुरस्कार/सम्मान-
1. राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान उ.प्र. लखनऊ द्वारा ग़ज़ल-संग्रह ‘उगा है फिर नया सूरज’ पर 51,000/- की सम्मान राशि सहित डा. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ पुरस्कार-2013-14
2. नारनौल (हरियाणा) की साहित्यिक संस्था बाबूजी का भारतमित्र द्वारा स्व. दमयंती यादव स्मृति सम्मान-2013
3. तुलसी साहित्य अकादमी भोपाल द्वारा तुलसी साहित्य सम्मान-2016
4. नज़ीर बनारसी सारस्वत सम्मान-2017
5. चेतना साहित्य परिषद लखनऊ द्वारा धर्मांश सम्मान-2017
6. बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन, पटना द्वारा लक्ष्मी नारायण सिंह ‘सुधांशु’ स्मृति सम्मान, 03 अप्रैल, 2022

संपर्क-
9/3 लक्ष्मीविहार, हिमगिरि कालोनी, काँठ रोड, मुरादाबाद-244001 (उ.प्र.)
मोबाइल : 99273-76877, 98083-15744
Email : kknaaz1@gmail.com

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