डॉ. संदीप अवस्थी
उसका आंचल पूरी कायनात को धक लेता है। दृष्टि इंद्रधनुष और हौले से सहलाती सी। कहीं प्रकृति के अनहद नाद में असर न पड़े। ….नदियों,झरनों,आकाश और जीवन के मधुर संगीत की मीठी,सुमधुर स्वर लहरियों के आरोह अवरोह में ही पूरी सृष्टि समाहित है।
आज की वैश्विक लेखिका और बेहतरीन कवयित्री पुष्पिता अवस्थी में आज भी काशी हिंदू विश्वविद्यालय की चालीस पैंतालिस वर्ष पूर्व की उत्सुकऔर प्रश्नों से भरी लड़की दिखाई पड़ती है। यह प्रकृति,मनुष्यता और हृदय की गहराई और आंखों की सूक्ष्मता से चीजों को समझने और फिर उनसे जुड़ाव से ही संभव है। यह कहने में संकोच नहीं कि उन्होंने अपने में भारतीयता की खुशबू,पानी की तरलता और राष्ट्रप्रेम की जोत जगाकर रखी है। तभी वह डच भाषी देश हॉलैंड में एक पूर्व में चर्च रहे भवन को खरीदती हैं और उसे शिव मंदिर,बाबा विश्वनाथ का सुंदर मंदिर बना देती हैं। सही अर्थों में बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय को परिभाषित करती हुई।
अभी अभी उनका वृहद कविता संचयन आया है हिंदी साहित्य जगत के सम्मुख। करीब अर्ध शताब्दी की कविता यात्रा इसमें दिखाई देती है। इसे कविता समग्र भी कह सकते हैं। मेरी जानकारी में हिंदी जगत में इतने सुव्यस्थित ढंग से कविता संचयन बहुत वर्षों से नहीं आया है।
तीनों खंडों में लेखिका की समग्र रचनाएं और आत्मकथा है।काव्य संग्रहों के संशोधित और त्रुटिरहित भाग कविताओं को पढ़ने में एक नया,अलौकिक आनंद भर देते हैं।
शोधार्थियों और सभी हिंदी प्रेमी पाठकों के लिए यह एक अनमोल और अनूठा प्रयास है। आराम से दस शोध प्रबंध इन तीनों खंडों के आधार पर लिखे जा सकते हैं। इतनी प्रचुर और बहुउपयोगी सामग्री इसमें है।
पुष्पिता जी उस तरह की लेखिका हैं जिन्हें पढ़ना,खूब पढ़ना और फिर चिंतन करना अच्छा लगता है। लिखने में वह मितव्यई हैं। कविता की खूबसूरती ही यह है कि वह कम शब्दों में अपनी बात कह दे। वह यहां दिखता है।व्यक्तिगत जीवन में भी वह शब्दों को कृपणता से उपयोग करती हैं।
बनारस हिंदू विश्विद्यालय के अपने अध्ययन के दौरान वह सभी बड़े साहित्यकारों महादेवी वर्मा,अज्ञेय,अमृत राय,अश्क आदि के सानिध्य में रहीं। फिर सम्मानित प्रोफेसर और विद्वान मनीषी विद्यानिवास मिश्र की पट्ट शिष्या भी रहीं। इनके कई कार्यक्रम अपने विद्यार्थी जीवन में आपने बीएचयू में आयोजित किए। उस दौरान सभी शीर्षस्थ साहित्यकारों के सानिध्य और विचारों से आपका व्यक्तित्व निखरा और बहुत सी परम्परागत,रूढ़िगत बातें छूटी भी।बाद में भी विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,नरेंद्र कोहली,मन्नू भंडारी,मृदुला सिन्हा,साहित्यकार और पूर्व राज्यपाल,लीलाधर मंडलोई,चित्रा मुद्गल,मालती जोशी ,सच्चिदानंद जोशी आदि से किताबों,श्रवण,मनन,विचार विनिमय की प्रक्रिया, निरंतर जारी रही।पढ़ाई पूरी होते ही महाविद्यालय विद्यापीठ में अध्यापन का अवसर मिला।
विदेशों में अध्ययन अध्यापन का भाग्य था तो सूरीनाम आ गईं कवयित्री पुष्पिता। कौतूहल भरे मन और बहुत सारे प्रश्नों के साथ। जो बेचैनी पैदा करते थे। यहां अलग अलग देशों में कार्य करने का अवसर मिला।यह महसूस किया कि पहाड़,जंगल,समुद्र,उजला आसमान,प्रकृति सभी जगह बराबर और भरपूर स्नेह,प्यार देती है। फिर कुछ जगह असमानता क्यों?
इसी पर “भारतवंशी भाषा और संस्कृति” पुस्तक दशक पूर्व आप सम्पूर्ण भारतीयता को देती हैं। जिनमें कई चौंकाने वाले तथ्यों की रोशनी में सच सामने आता है। भारतवंशी,सभी जगह कड़ी मेहनत,मेहनत और सिर्फ मेहनत से अपनी जगह बनाए हैं।इन पर अध्ययन और शोध किया तो कई परतें खुलती चली हैं। लगभग सभी दास बनाकर ही यहां,सूरीनाम,गुयाना,त्रिनिनाद,टोबेको, हॉलैंड जितने भी अंग्रेजों के उपनिवेश बस्तियां थी ,वहां भारतीयों को गुलामों की तरह लाया गया। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम अठारह सौ सत्तावन के तुरंत बाद ही चालाक और धूर्त अंग्रेजों ने बिहार,बंगाल, उत्तरप्रदेश के हजारों युवाओं और पुरुष महिलाओं को बड़े बड़े पानी के जहाजों में नौकरी और अच्छी जीवन प्रत्याशा का झूठा लालच देकर विदेश भेज दिया। देश से सैकड़ों मील दूर महीनों के पानी के सफर पर। उनके एजेंट कॉन्ट्रैक्ट दिखाते यहां फिर लुभाकर भेजते। उसे कहते अपभ्रंश में कंट्राकी और एग्रीमेंट हो गया गिरमिटिया। यह थे वह गिरमिटिया मजदूर हजारों हजार। जिनमें से कईयों की महीने भर से धरती नहीं दिखने से समुद्र में तबियत खराब हुई तो पानी के जहाज में कोई डॉक्टर नहीं ।बेचारों को तड़पते हुए जान गंवानी पड़ी।उन्हें पानी के जहाज से समुद्र में फेंक दिया गया अंग्रेजों द्वारा। इस क्रूरता और अमानवीयता की कोई सीमा है? कोई माफी है?जबकि हमारे एक वाम मित्र अपने अल्प ज्ञान से पहला गिरमिटिया महात्मा गांधी को मानकर उन पर उपन्यास लिखते हैं।विलासिता से। बाकी वाम लोग,जैसी इनकी आदत है,एक एक करके उसकी झूठी तारीफों के पुल बांधते हैं।कोई तथ्य नहीं,कोई शोध नहीं कोई ज्ञान नहीं की कानपुर भी अठारह सौ सत्तावन की क्रांति का एक केंद्र था।वहां और उसके आसपास से भी सैकड़ों शहीद हुए और सैकड़ों फिर ऐसे पानी के जहाजों से नौकरी का झांसा देकर गुलाम बनने भेज दिए गए। वह हजारों भारतवंशी थे गिरमिटिया, गांधी के जन्म से भी बारह वर्ष पूर्व।उनका दर्द,दुख जो कभी अपने परिवार से दुबारा नहीं मिल पाए।वह ठगे और छले जाने की पीड़ा। अंग्रेजों द्वारा भारत की पूरी रीढ़ की हड्डी,युवाओं और पुरुषों के मजबूत कंधों और हौसलों को इस तरह कुचल दिया गया।तभी उस वक्त से अगले पचास साल तक कोई आजादी के उल्लेखनीय संघर्ष नहीं दिखे। बाद में इन्ही के वंशजों से सुभाष,आजाद,भगतसिंह,सुखदेव,राजगुरु,मदनलाल जन्म लेते हैं और अपना हक अदा करते हैं।उन्हें भी आजादी की बाद की सरकारें दबाती रहीं।यह
इनकी पीड़ा और दुखों को पुष्पिता इन सभी देशों में जाकर वर्षों शोध ,मुलाकात करके मूल तस्वीरों और चित्रों के साथ अपनी पुस्तक कंट्रकी बागान और अन्य कहानियां, उपन्यास छिन्न मूल आदि में देती हैं।अलग अलग अध्यायों में वह कहानी बताती है कि किस तरह इन्हें एक रुपए से भी कम में महीनों चौदह चौदह घंटे मजदूरी करवाई गई। खेतों,फैक्ट्री सभी जगह और कोई भी हलचल पूरे विश्व में नहीं हुई। लेकिन हमारे कम्युनिस्ट भारतीय इसकी युवा मोहन दास गांधी ,जो लंदन से वकालत उस वक्त पास करके एक बढ़िया फर्म में नौकरी करने विदेश दक्षिण अफ्रीका गए को पहला गिरमिटिया,भारतीय मानते हैं?
फैसला पढ़ने वाले आप खुद ही करें। क्यों इन लोगों की किसी भी बात पर यकीन नहीं करना चाहिए।
उलटबांसी इस देश में न जाने कितने दशकों से चली और चलती जाती यदि लोकतंत्र में जनता और इन पूर्वजों की आत्मा इस झूठ और फरेब से त्राहि त्राहि कर भारत में अब हालात नहीं बदलती।
लोगों के वंशजों से मिलकर,पुराने पत्र,डायरी आदि देखकर पुष्पिता अवस्थी ने दुखों,संताप और कभी भारत भूमि नहीं आ पाने के दुख को शब्दों से वेदना रची है। यह इनकी भारतवंशी,हम सभी को विश्वसनीय किताबों और तथ्यों के साथ एक ही स्थान पर दस पंद्रह देशों के भारतीयों श्रमिकों और गिरमिटिया लोगों का पूरा विवरण रोचकता सहित है। यह कार्य साहित्य की धरोहर है जिसे यकीनन भारत सरकार को संज्ञान लाकर उसे हर विद्यालय और विश्विद्यालय में हमारी युवा पीढ़ी के लिए पढ़ाया जाना चाहिए।
स्वाभिमानी और बेजोड़ लेखिका पुष्पिता जी को उपेक्षित किया गया। दशकों तक उनकी किताबें और विचार दबाए गए।वाम पंथ के तथाकथित साहित्यकारों का कब्जा हिंदी जगत पर रहा तो वह अपने ही गुट के लोगों,भले ही वह चार कदम चलकर साहित्य से बाहर हो जाए,को ही बढ़ावा देते रहे। सभी बड़ी जगह यही लोग थे तो एक दो को छोड़कर कोई भी बड़ा पुरस्कार इन्हें नहीं मिला अभी तक। न ही पूर्ववर्ती सरकार ने इनके कार्यों का मूल्यांकन किया। अब यह सारी किताबें और कार्य रेखांकित किए जाने की उम्मीद है।इनकी हर पुस्तक एक बेजोड़ आख्यान है। यह बात फिर सिद्ध होती है कि अच्छा और सच्चा भारतवंशी राष्ट्रीय संस्कृति,अस्मिता और गौरव के लिए वर्षों तक तपस्या और गुमनाम रहकर भी कार्य करता है।ऐसा कार्य जो हिंदी साहित्य जगत में बहुत कम हुआ है। इनकी किताबों से भारत वंशियों की सच्चाई,पीड़ा और उससे बढ़कर लोमहर्षक तकलीफें सामने आती हैं,जिनसे हम सभी अनजान थे। यह सामने लाने और इस पर दशकों तक कार्य करने का उद्देश्य उन लोगों के गांवों और कस्बों तक यह आवाज पहुंचना है , आपके ही अंश गुमनाम रहे कभी आ नहीं सके, अंग्रेजों के धोखे और फरेब का शिकार होकर।लेकिन वह अपने देश,उसकी मिट्टी और अपनों को निरंतर अपनी आंखों,शिराओं में बहते रक्त सा महसूस करते रहे।
मुझे विश्वास है इन्हें और अधिक वैश्विक परिदृश्य के साथ राष्ट्रीय फलक पर पढ़ा और विचार किया जाएगा।
कविताओं की कुछ पंक्तियों के साथ इसका समापन करता हूं।
“पतझर _ ढकी पृथ्वी
जैसे अगोरती है बसंत की आहट
और जीवनदायी कोमल स्पर्श
वैसे ही
बिल्कुल वैसे ही
मैं तुम्हें
देह में प्राण की तरह
करती हूं अंगीकार “(करती हूं अंगीकार पृष्ठ 105)
“सफेद और काले बादल
आकाश की नीली जमीन पर
रचते हैं दिन में कई बार इंद्रधनुष निराला की संध्या सुंदरी के कपोल रंग मनाते हैं रोज
कुछ गीला फाग
कुछ सुखी रंगीन होली
सूरीनामी बादलों में
होती है वसंती हवाएं परत दर परत”। (बादल और सूरज, पृष्ठ 190,ईश्वरशीष )
सूरीनाम कमोबेना नदी के सिरहाने भारतीय स्मृतियों में खोया
सपनों में बिछड़े स्वजन खोजता
धरती को रोज बनाता है
अगवानी के काबिल
और विहान से अगोड़ता है राह
एक अप्रवासी भारतीय
प्रवासी भारतीय की प्रतीक्षा में
राहों का अन्वेषी बन खड़ा है अटलांटिक महासागर के तट पर
सूरीनाम की वसुधा के लिए।”
(स्मृति_ कथा,पृष्ठ 207 ईश्वराशिश)
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(डॉ. संदीप अवस्थी, कथा, आलोचना की कुछ पुस्तकें, देश विदेश से पुरस्कृत।
संपर्क: मो – 7737407061 (राजस्थान )