मेरे घर की खिड़की में चीड़-पेड़ों का उपवन दिखता है… उसी के पीछे से सूर्योदय होता है… किसी ने कहा है कि सूर्य कभी भेदभाव नहीं करता है, भलों-दुष्टों को बराबर प्रकाश देता है… सुर्योदय के उजाले में कोई नई आशाएँ देखता है तो कोई पुरानी स्मृतियाँ… दोनों का जुड़ाव भी दिख सकता है… स्मृतियाँ आशाओं को दुर्बल न बना दें तो… शाम को उपवन पर छाया सा पड़ता है जिससे स्मृतियाँ अधिक जीवंत और आशाएँ धुंधली लगने लगती हैं… विशेषकर आजकल के संकटों में… मैं हाथ में दारू की ग्लास लिए चीड़-पेड़ों को देख रहा हूँ… ऐसे ढलते अंधेरे को थोड़ा उज्ज्वल बनाने अचानक आती है स्मरण में उभरी हुई किसी की आँखों की कभी हार न माननेवाली चमक…
2005 का दौर था। भारत में पढ़ाई करके वापस यूक्रेन आया था तो काम की तलाश में था। विश्वविद्यालय में नौकरी छूट गई थी। पी.एच.डी. में प्रवेश मिला था पर वहाँ बहुत ही कम पैसे मिलते थे… पता नहीं तब किस लोक में यह षड्यंत्र रचा था कि मेरे अनुभव में रुचि हो गई थी तस्करों को…
“आपकी अनुशंसा मिली थी”, – फ़ोन में रूसी भाषी आवाज़ बोली. – “कि आपको अच्छी हिंदी आती है। हम भारत में नया कारोबार खोल रहे हैं, आपको काम दे सकते हैं। आधे साल के लिए। दवाइयाँ भारत से बाहर बेचने का काम। वेतन अच्छा मिलेगा, 500 डॉलर…”
तब यूक्रेन में यह काफ़ी बड़ी रक्म थी, विशेषकर मेरे जैसे संघर्ष करनेवाले के लिए।
“फिल्हाल तो पर्यटक-वीज़ा लगवाकर जाना होगा…”
“मतलब, काम ग़ैरकानूनी है?”
“भविष्य में सब कानूनी हो जाने की उम्मीद है…”
“क्षमा चाहता हूँ। भारत से मेरा पुराना नाता है, सम्मान करता हूँ इस देश का, कुछ अवैद्य नहीं करूँगा वहाँ…”
कुछ देर बाद फिर फ़ोन आया।
“700 डॉलर?”
“ठीक है…”
वास्तव में बात पैसे बढ़ने की नहीं थी। विचित्र विचार तब उभरने लगे थे मन में… अचानक एक संभावना सी दिखी। एकदम दूसरे आयाम में भारतीय वास्तविकता को जान लेने की… स्वयं को भी… हाँ, अपराध यदि दूसरे प्रकार का होता, हिंसा-शोषण से जुड़ा, तो कभी मैं तैयार नहीं हो जाता…
“हमारी कंपनी के दफ़्तर कई बड़े शहरों में हैं, आप मुंबई में काम करेंगे।“
ठीक है भाई, “कंपनी” और “दफ़्तर” ही बोलो, शब्दों में क्या रखा है…
अपने इंस्टीट्यूट आकर मैंने भी “अलंकारों की भाषा” का प्रयोग किया।
“मुझे एक अवसर मिल रहा है आधे वर्ष के लिए भारत जाकर अपना शोधकार्य उधर के पुस्तकालयों में बैठकर करने का। आशा है उससे पी.एच.डी. थोड़ी जल्दी हो जाए और अधिक सार्थक भी बने…”
किसी को आपति नहीं थी। वैसे “पुस्तकालायों” से आकर फिर निराश भी नहीं किया किसी को, पी.एच.डी. भी जल्दी ही पूरी हुई…
मुंबई में पहली बार आया… बड़े शहरों से उतना लगाव नहीं था कभी, इसीलिए पहले पढ़ाई के लिए ग्वालियर चुना था, आधुनिकिकरण से कम छुए हुए भारतीय समाज में जो रहना था। उधर भी शांति से नहीं रह सका था, काफ़ी लफ़ड़ों में पड़कर अपना ज्ञान बढ़ाया था। वास्तविक अनुभव तथा समझ दर्शन करने से नहीं, “सहृदय भागीदारी” से प्राप्त होते हैं… और मुंबई जैसे फ़िल्मी शहर की तो बात ही कुछ ऐसी है कि बिना कोई फ़िल्मी कहानी रचे यहाँ रहना समय गंवाने के बराबर है…
कहानी तो पहले से ही काफ़ी फ़िल्मी लग रही थी। मेरे सहकर्मियों को, बेलारूस से पर्यटकों के भेष में आए तकरीबन मेरी उम्र के गुंडे लड़कों को, न तो भारत का कोई ज्ञान था न ही उसे प्राप्त करने की जिज्ञासा। था बस ग़ैरकानूनी कामों का अनुभव (किसी को जेल का भी) और पैसे कमाने का लालच। दारू-पार्टी करने और गंदी गालियाँ देने की आदत भी। और सबसे खराब था तो उनकी स्थानीय लोगों के प्रति रवैया… एक अजीब सी महफ़िल में ख़ुद को पाया इस शिक्षक और शोधकर्ता ने… वे लोग ज़्यादातर घर बैठे तस्करी का काम संभालते थे, मेरा काम था बाहर जाकर हिंदीभाषी दुनिया से संवाद रखना। ज़रूरत पर झूठ भी बोलना हिंदी में… हाँ, सब से खतरे वाला काम, माल को डाकघर पहुंचाने का, वह भी मेरा ही था। मतलब बाहर मेरा ही चेहरा सबको पहचाना था, संदेह होने पर पकड़ा जाना भी सबसे पहले मुझीको होता…
पहले सप्ताह जब मुंबई में रहने के लिए मकान ढूँढ रहे थे तब वह मिली… जया… एक ब्रोकर बनकर हमें अलग अलग मकान दिखाने ले गई। लगभग मेरी उम्र की “मध्य वर्ग” की मराठी महिला, शादीशुदा, दो छोटी बेटियों की माँ… सहज, हँमुख, बतूनी, छोटी पर मज़बूत बनावट की, अत्यंत सुंदर आँखोंवाली…
“वैसे मैं बॉलीवुड में काम करती हूँ, – अपनी सहज, ख़ुशमिज़ाज वाले अंदाज़ से बोली. – डिकोरेटर हूँ। शूटिंग के लिए कमरे, हॉल वग़ैरह की सजावट होती है नक़्ली फूलों की मालाओं से, वही बनाती हूँ। काग़ज़ के फूल वग़ैरह बनाने की एक छोटी सी कंपनी है मेरी… कई बड़ी बड़ी फ़िल्मों में काम किया है!”
थोड़ा बाद में पता चलेगा कि “कंपनी” होने का मतलब है उसी के छोटे से घर में कई ग़रीब लोगों का मिलकर काग़ज़ के फूल बनाना बॉलीवुड के किसी प्रॉजेक्ट के लिए।
“उतना अच्छा कारोबार है, तो फ़िरंगियों को मकान दिलवाने के चक्कर में शहर में यह दौड़-भाग करने की क्यूँ ज़रूरत पड़ी?” – मैंने पूछा।
“अरे, अच्छा कहाँ है! बहुत खराब चल रहा है आजकल तो। कम्पेटीशन बहुत बढ़ गई है, ऑर्डर ही आने बंद हो गए हैं… ब्रोकर के काम से तो कोई कमीशन मिल सकती है। पैसों की बहुत दिक्कत हो रही थी तो महेंद्र से उधार मांगने आई थी, उसने बताया तुम लोगों के बारे में, तुमको मकान दिल्वाने का काम सौंपा…”
महेंद्र हमें होटल में मिला था जहाँ शुरू में रुके थे, ख़ुद को मुंबई के मुख्य मंत्री का इंदौर से आया हुआ भाई बता रहा था। उसीने हमें मकान खोजने में मदद देने के लिए अपना ब्रोकर भेजने का वादा किया था। निभाया भी काफ़ी सुंदर ढंग से… जया से तुरंत ही सहज सी दोस्ती का रिश्ता बना, हल्केपन और हँसी-मज़ाक से भरा। यहाँ तक कि मेरे गुंडे पार्टनर भी पसंद करने लगे उसको। पर बात वह तो मुझसे ही कर सकती थी, मेरे ही करीब होती गई…
“पर तुम्ही को यह सारा जुगाड़ क्यूँ सोचना पड़ता है? पति भी तो कुछ करता होगा?”
“अरे उसकी बात ही मत करो ! बेकार है वह, इधर-उधर निर्माण के काम में कुछ कमाता है, पर बच्चों को तो मुझे ही संभालना पड़ता है। उसने तो चुपके से दूसरी शादी भी की है…”
“वह कैसे? फिर तुम छोड़के नहीं गई?”
“नहीं जा सकती हूँ बच्चों को लेकर… समाज में ही तो रह रहे हैं फिर भी। वह मुझपर हाथ भी उठाता है। मैं पेट से जब थी तीसरे बच्चे के साथ तो उतना मारा था कि बच्चे ही को खो दिया मैंने…”
झटका सा लगा मुझे। दुख हुआ, ग़ुस्सा आया… हैरानी भी हुई इस बात पर कि वह यह सब कितनी सहजता से बता रही है, एक तरह के हलकेपन से भी…
“उस कमीने को तो अभी नहीं देख सकते हैं,” – मेरे गुंडे वाले “बॉस” ने कहा मुझसे. – “ऐसे भी अपनी स्थिति यहाँ नाज़ुक सी है, ऐसा कोई लफ़ड़ा नहीं चाहिए कि पुलीस भी शामिल हो जाए…”
उस कमीने से मिलना भी पड़ा फिर, मिलकर ख़ुद को शांत रखना पड़ा…
जया ने अच्छा मकान दिलवाया। चेंबुर में, प्रसिद्ध अभिनेता राज कपूर के पुश्तैनी बंग्ले के एकदम पास। वह भी काफ़ी सस्ते में। उसके पति ने ही अंदर की मरम्मत का काम संभाला… जया ने हर ज़रूरी चीज़ भी दिलवाई, रसोईघर भी सुंदर सा सजाया…
“एकदम अच्छी बीवी की तरह…” – मैं बोला मज़ाक में।
वैसे वह कम शर्माती थी, पर तब शर्मा गई थोड़ा…
“महेंद्र कह रहा था कि मैं तुम लोगों को कोई महंगा सा मकान दिलवाकर थोड़ी ज़्यादा कमीशन कमाऊँ… पर इतना अच्छा लगा तुम्हारे साथ ! तुम जैसे लोगों को नहीं ठग सकती… इससे अच्छा है तुम्ही कुछ काम दिलवा दो। क्या तुम्हारे साथ काम कर सकती हूँ ?”
“कर सकती हो, पर थोड़ा ख़तरा है…”
मैंने बता दिया। जया से कोई ख़तरा नहीं आनेवाला है, उतना तो मैं पक्का कह सकता था। वह सच में डर गई थोड़ा…
“देखो, मैं तुम्हारी हर ज़रूरत को पूरी करने में मदद करने को तैयार हूँ। पर किसी इल्लीगल काम में मत लगाना मुझे प्लीज़… तुम तो चले जाओगे और मैं…”
“ठीक है, मत करना मेरे साथ कुछ इल्लीगल। इम्मॉरल ही काफ़ी है…”
हँसी, हमेशा की तरह…
महेंद्र को कहीं से पता चला कि मकान दिलवाने के बाद भी जया मिलने आती है तो उसे शायद परेशानी हुई… जया ने बताया था कि वह पड़ा था उसके पीछे पहले से… अब उसको फ़ोन करके मेरे बारे में पूछने लगा, मुझें फ़ोन करके जया के बारे में… हम दोनों बात को घुमाते रहे… मेरे “बॉस” को फिर चिंता होने लगी।
“देखो, वह कोई मंत्री का भाई है, पहुंच काफ़ी ऊंची होगी उसकी। फालतू चक्कर में पड़कर हमें ख़तरे में डाल सकते हो… उस औरत में उतनी अक़्ल तो होगी नहीं कि समस्या खड़ी न हो जाए फिर…”
“अक़्ल नहीं होती तो समस्या खड़ी हो चुकी होती।“
“ठीक है। फिर भी, संभलके…”
जया ने बताया कि पहले उसका काग़ज़ के फूलों से फ़िल्मी मैदान सजाने का काम काफ़ी अच्छा चला था, बड़े बड़े फ़िल्मकारों-अभिनेताओं से जान-पहचान भी हुई थी। कइयों के साथ फ़ोटो भी दिखाई…
“पता है, अमिताभ बच्चन जी भी मुझे पहचानते हैं!”
“ज़रूर पहचानते होंगे, तुम्हारा नाम ही कुछ ऐसा है…”
जया की हँसी उसकी आवाज़ की तरह थोड़ी खरखरी सी है, बोले तो “सेक्सी”, “रानी मुखर्जी” टाइप की…
प्यार नहीं था वह… एक जज़्बाती राहत सी थी बस… वास्तविकता को कुछ समय के लिए भूलने का एक अवसर… और ऐसा नहीं है कि किसी का होश खो गया था… निःस्वर्थ भी नहीं थी वह। शायद हो भी नहीं सकती थी अपनी हालात में… मैंने जितना हो सका मदद की, पैसों से भी… उसके छोटे से घर आता रहा बच्चों के लिए उपहार लेकर… सबको पता था कि विदेशियों की कंपनी के लिए काम करती है तो ज़्यादा कोई सवाल नहीं उठाता था। वह दुष्ट पति भी जिसको बस पैसों से ही मतलब था…
छः महीने “कारोबार” करके मुझे वापस घर जाना था… जया के साथ तो उससे पहले भी थोड़ी दूरी बन चुकी थी, कमाई की उसकी तलाश जारी थी तो ज़्यादा समय भी नहीं था मिलने के लिए। इसलिए कोई “सेंटी वाली सीन” नहीं, हलके भाव से बिछड़ गए, जैसे मिले थे, हँसते हुए…
वापस मुझे इस काम के लिए फिर नहीं बुलाया गया। बेलारूसी गुंडों से नहीं जमी थी मेरी। मेरे काम की कोई शिकायत नहीं थी, उल्टा, सराहते थे… पर मैं नहीं पीता था, भारतियों को गालियाँ नहीं देता था… वैसे मैं हैरान भी होता था कि ऐसा “नथु बैल” वाली रवैया लेकर ये लोग यहाँ कैसे आ सकते हैं! फिर कौनसे अच्छे अनुभव की अपेक्षा करते हैं ? तभी तो आकर इनकी हालत बुरी होती है, बीमार पड़ते हैं, पीते रहते हैं… मैं मस्त रहता था भारतीय माहौल में, उस बात की जलन भी होती थी इनको शायद… पर ठीक है, अगर मेरे बिना काम संभालना चाहते हैं तो देख लें ख़ुद… पता नहीं यह सब कितना टिकेगा…
भाग्य फिर पलट गया, मैं तस्करी छोड़कर फिर शिक्षा-क्षेत्र में आ गया नई पीढ़ी को ज्ञान बांटने…
जया से कोई संपर्क नहीं था। सोशल मीडिया में नहीं थी वह, फ़ोन करने का कोई मतलब नहीं था… पर उसका फ़ोन आ गया। अचानक, 10 साल बाद…
“यूरी, तुम सोच नहीं सकते हो कितनी मुश्किल से तुम्हारा नंबर मिला, कितना मैंने ढूँढा था इंटर्नेट में ! वह भी ख़ुद को नहीं आता है तो अपने नौकर से निकलवाया! बहुत याद आ रहे थे तुम! कितने अच्छे दोस्त थे, कितनी मदद की थी मेरी…”
मैं थोड़ा स्तब्ध रह गया… उतना गहरा कभी नहीं लगा था यह नाता कि उतने साल बाद उतने जज़्बातों के साथ उभर आए…
“पता है, यूरी, तुम्हारे जाने के बाद मेरा बीज़्नेस फिर बहुत बढ़ गया, बहुत ऑर्डर आए फूलों और सजावट के, बहुत फ़िल्मों और फ़न्क्शन्स के लिए काम किया, अब बढ़िया चल रहा है सब कुछ! तुमने मुश्किल वक्त पर मुझे सहारा दिया था… कभी भी आ जाओ मेहमान बनकर, दोस्तों को लेकर भी आना, मैं सारा ख़र्चा उठाऊँगी यहाँ घूमने का!”
उतनी भी कौनसी बड़ी मदद की थी मैंने… पैसों से ज़्यादा दिल का ही तो सहारा दिया था…
पर मैं गया फिर मिलने। तब यूक्रेनी दोस्तों और परिचितों के पर्यटक-दल बनाकर भारत घुमाने का भी काम करता था। तो अग्ली ऐसी यात्रा की योजना मुंबई से होकर बनाई। छः-सात लोग थे मेरे साथ। सोचा था कि जया से मिलेंगे बस, बात करेंगे, फिर अपना पर्यटन का काम देखूंगा। पर हुआ कुछ और… अब मिली वह पुरानी संघर्ष करनेवाली जया नहीं, मिली एक सफल कामकाजी महिला, जिसने पूरी औकात के साथ अपने दो ड्राइवरों की गाड़ियों में हमारी पूरी टोली को बिठाकर मुंबई घुमवा दिया। अपने नए बढ़िया फ़्लेट में सब को ले जाकर खाना खिलाया, बड़ी हुई पढ़ाई करनेवाली बेटियों से मिलाया… वह कमीना अभी भी कहने को पति था, पर साथ नहीं रहता था, जया के ही काम करता था नौकर की तरह… रात के लिए होटेल में रुकवाकर हमें एक रुप्या भी ख़र्च नहीं करने दिया जया ने, मेरे बहुत विरोध करने पर भी… देखने में तो ज़रूर थोड़ी बदल गई थी, पर वही हँसी, वही ऊर्जा… बातों में बार बार – “तुम सब छोड़कर इधर आ जाना मेरे साथ काम करने के लिए, मुझे किसी समझदार मेनेजर की बहुत ज़रूरत है, ख़ूब पैसे कमाएंगे मिलकर!”…
अगले दिन हमें विदा करने आई रेलवे स्टेशन, ख़ुद के बनाए ढेर सारे परांठे पकड़ा दिए रास्ते के लिए… एक अद्भुत सी तृप्ति रह गई मन में उसकी नई दिशा और पुरानी आत्मीयता से…
कई साल और बीत गए। फिर अचानक वीडियो कॉल आया। किसी होटेलवाले माहौल में बैठी बहुत ख़ुश लग रही थी, थोड़ी पी हुई भी…
“मैं एकदम बढ़िया हूँ, यूरी, काम ख़ूब चल रहा है, अब मेरे बच्चे भी मेरे साथ काम कर रहे हैं, बड़े बड़े लोगों की दावतें सजाते हैं! अब मैंने यह जगह भी खरीदी है, एकदम जंगलों के बीच, मुम्बई से थोड़ी दूरी पर, यहाँ आकर मस्त समय बिता सकते हो! शादी भी मैंने नई कर ली है उस निकम्मे को छोड़कर ! मिलो मेरे पति से, ये अच्छे हैं!” – उसके बग़ल में बैठे आदमी का परिचय देकर उससे भी बात कराई… – “देखो, यूरी, यहाँ मस्त जगह है, तुम दोस्तों को लेकर कभी भी आओ, रह लो जितनी मर्ज़ी मुफ़्त में! बस दारू का पैसा ख़ुद देना पड़ेगा…
चौंका देती है यह दीवानी मराठन…”
खिड़की में चीड़-पेड़ों को देख रहा हूँ हाथ में दारू की ग्लास लिए… इधर की परिस्थितियों ने कसकर पकड़ा है… कर्मों के ही फल होंगे… कई रिश्तों को तोड़-मरोड़कर, हृदय-रोग से ग्रस्त, प्रेम-मार्ग से भटका हुआ हूँ,… पुण्य-मार्ग का नाम भी न लूँ तो अच्छा है… पर कुछ अच्छा भी तो किया होगा कि वह काग़ज़ी फूलों की रानी अपनी आनंदमय चमक से मेरे दिल में असली फूल खिलाकर निकली है… जैसे काल्पनिक फ़िल्मी कहानी में सच्चे भावों की गहराई छुपी होती है, वैसे ही उसकी सफलता पर लगी उन नक़्ली फूलों की मालाओं में साफ़ झलकता है सच्चा जीवन-प्रेम… यह जाम तुम्हारे नाम, जया…
लेखक यूक्रेनवासी हैं और हिंदी प्रेमी हैं।