कुआं
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कुएं में मैं नहीं रहता
लेकिन घर मेरा कुएं जैसा है
इस घर में इतने कुएं हैं कि
गिनती नहीं की जा सकती
घर में तीन चार बाल्टियां हैं
जिनमें भरा है कुएं का पानी
तो उसे क्या कहेंगे आप ?
कुआं कहने में कोई हर्ज है क्या ?
लोटे कटोरी गिलास में
भरा है यदि कुएं का पानी
तो आप उन्हें
कुआं कहने से क्यों इंकार करेंगे?
मैं तो
कुएं में ही डूबता उतारता हूं
रोज पीता हूं उसी का पानी
सत्तर फीसद पानी कुएं का
बहता रहता है मेरे भीतर
मैं जोर देकर कहूंगा कि
मैं तो एक मुक्कमल कुआं हूं
मुझे इस बात से फर्क नहीं पड़ता
जब आप कहते हैं कि
” मेढक हूं कुएं का”
और आप तो जनाब !
विशाल हैं समंदर की तरह !
आप इतराइये कि
आपको कोई बांध नहीं सकता
अथाह है आपकी गहराई
ऊंची लहरें उठती गिरती हैं
ठोंकते रहिए अपनी छाती
किसी काम नहीं आयेगी आपकी खारा जल राशि !
समुद्री जल का जमा होना
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बेतहाशा
काटे जा रहे हैं पेड़
जिस तरह
तोड़े जा रहे हैं पहाड़
लगता है
धूल बन जाएंगे
चूर चूर होकर
तब जीवन बचेगा कितना ?
नहीं होगा कहीं कोई दरख़्त
जहां बैठकर छांव मिले
सूरज के ताप में जलकर
राख हो जाएगा सब कुछ
नदियां बन जाएंगी आग का दरिया
तब क्या झुक आएगा आसमान ?
महुये के फूल की तरह टपककर
धरती पर आ जाएंगे सभी तारे ?
वर्चस्व की होड़ में
बारूदी विस्फोटों से बेचैन
समंदर में उठेंगी आग की ऊंची लपटें
सर्वाधिक क्षरित संवेदनाओं के
इस काल खंड में
आग की लपटों में खड़े होकर
निहार रहा हूं आसमान में
गहराए बारूदी बादलों को
जो उड़ रहे हैं ऊंचा बहुत ऊंचा
जानता हूं
कहां जायेंगे ये बादल
वाष्पित ऊष्मा लिए
कहां टकराएंगी
ये गर्म हवाएं
महसूस कर रहा हूं
शिद्दत से
अपनी सुलगती आंखों में
समुद्री जल का जमा होना
जो सैलाब बन सकते हैं!
अभिलाषा
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फूलों में जैसे रहती है सुगंध
हम रहते आए थे साथ
हम खेलते आए थे साथ
जैसे खेलती है हवा बादलों के साथ
हमें पढ़ाया एक ही गुरु ने
एक ही जैसा ज्ञान एक ही जैसा ईमान
हम महत्वाकांक्षी थे
जानते थे चुनौतियों से लड़ना
हम मुट्ठी में कर लेना चाहते थे
नीलाभ विस्तृत आसमान
हम नहीं जानते थे
कि किसी दिन
उगते उगते डूब जाएगा सूरज
स्याह अंधेरे में
खड़ी हो जाएगी
एक नीरंध्र प्राचीर !
हम इस तरह अलग होंगे
कि किसी के पास
किसी का पता नहीं होगा
बिना पता के खोजने का भी
क्या कोई व्याकरण होता है!
तो मान लो तुम्हें बहुत खोजा
कहां कहां नहीं खोजा
कहते हैं न __
” कस्तूरी कुंडल बसे”
सो पता होते हुए पता नहीं ढूंढ सका
दृश्य का अदृश्य पता क्या होता!
गहरे अवसाद के क्षणों में
मेरी आत्मा की खोल से
एक नदी दूर तक बहते हुए जाती है
मुझे ऐसा क्यों लगता है
वह तुम हो मेरी अभिलाषा!
आधा होना
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सब कुछ तो है आधा आधा
कुछ भी नहीं है पूरा का पूरा
मुद्दतों से खोजते हुए पूरा
कितना अधूरा हूं मैं!
एक सड़क
जिससे अक्सर गुजरता हूं
आधा चलकर
मुड़ जाती है जंगल की ओर
कट कट कर जंगल अब
कितना बचा है जंगल ?
दूसरी सड़क चलकर
जाती है नदी तट तक
जिसमें पछिटता हूं
मैं अपनी मैली कमीज
नदी की गहराई में जाकर
डुबकी लगाता हूं बारबार
और निकलता हूं बाहर
आधा भीगा हुआ
जब कभी चढ़ता हूं कोई पहाड़
डरते हुए ही चढ़ता हूं
ढहता पहाड़
अब कितना पहाड़ है ?
सोचता हूं तो आधा ही सोचता हूं
कि मेरी कविताओं में विस्फोट होगा
और कभी तो होगी
एक मुकम्मल क्रांति !
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उमेश पंकज (लखनऊ)