1) कस्तूरबा
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मूल ओड़िआ : ईप्सिता षडंगी
अनुवाद: हरेकृष्ण दास
अनुवाद: हरेकृष्ण दास
आंखों से छलकते प्रशांति
मन में ढेर सारा विद्रोह
पहाड़ से मजबूत अपने व्यक्तित्व में
सिमट लिया कैसे अपने आप को तुम
बा’!
संसार जानो तो अपना यह देश,
अगर घर समझो तो यह सारा भारत,
बच्चे हैं तो यह सारे जग वाले,
शांति की श्रृंगार से झिलमिल
ओ! कस्तूरबा –
क्या महात्मा ने अपनाया था तुमसे
अहिंसा का मंत्र!
तुम्हारा लिखा हुआ हर एक लफ्ज़
लफ्ज़ ही नहीं ,
थे एक-एक अक्षर
खुद से ही अलग हुए ।
सीखा नहीं था तुमने पढ़ना लिखना।
मगर तुम्हारा जीवन- नाटक में
तुम्हारा निभाया हुआ तरह-तरह की किरदारों के
संलाप की भांति
अनगिनत शून्य विराम चिन्हों से भरे हुए थे।
क्या तुम्हें मालूम है बा’
संघ, आदर्श और आश्रम –
मिट जाते है
उनके प्रवर्तक के मौत से!
तुम्हें क्या दिखाई देता है
कहर का वह भयानक रूप,
धोखेबाजी का वह तमाम नौटंकी,
राम राज्य के आड़ में ?
अनगिनत बच्चों की बा’ हो मगर
सन्तान सुख से कोसों दूर हो तुम !
महात्मा सा सूरज के तेज कि नीचे
छोटा सा दिया बनकर
बुझती चली दिन-ब-दिन तुम।
अब जगह जगह पर मूर्तियां तुम्हारी
जी करता है देखने को झांक कर तुम्हारी आंखें –
शायद मिल जाए वहीं
ओस में छुपे अफसोस की दो बूंद आंसु!
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2 ) गांधी
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मूल ओड़िआ: ईप्सिता षडंगी
अनुवाद :हरेकृष्ण दास
गांधी
एक प्रतीक है
समाहार है कुछ “लोगों” ( logo)का
एक ऐसा ब्रांड जिसमें आसानी से छुपाया जा सकता है
सारे कर्म अपकर्म और कुकर्म ।
गोलाकार चश्मे का छवि बना कर
ढिंढोरा पीटा जा सकता है स्वच्छता का;
बदला जा सकता है
अपनी झोली में छुपाया हुआ पाप को
बने बनाए कहानियों के आड़ में;
वह गांधी लाठी भी अब
एक चौकन्ना पहरदार है जैसे;
घुटनों तक लंबाई से भी छोटी वह तुम्हारी धोती
अब मजदूरों के लिए संवेदना का
एक प्रतीक है मात्र;
तुमने कभी पहना ही न था जो
उस गांधी टोपी अब एक
अनोखा वसन है
अपने शर के गंदगियों को छुपाने का।
घड़ी की आड़ में
समय का ज्ञान देने वाले इंसान मगर
बेफिकर है हमेशा वक्त को लेकर!
आभूषण से लेकर दर्शन तक
हर एक चीज का तिजोरी हो तुम बापू!
हर कोई ले जाता है उतना तुमसे
बस जितना चाहिए होता है उसे।
इससे ज्यादा है क्या
हमें सौंपा हुआ तुम्हारा ये स्वतंत्रता?
किसी को शायद मिल जाता है कुछ ऐसा
जो है इंसानियत,आदर्श और दर्शन से भी परे,
मुझे नजर आता है मगर आंशूओं का धार
बहता हुआ तुम्हारी मूर्ति की आंखों से हमेशा ।।
काश !
कभी लौट आ सकते तुम!
मूर्ति से मानवत्व तक की यात्रा
बिल्कुल मुश्किल तो नहीं तुम्हारे लिए बापू
बिल्कुल भी मुश्किल तो नहीं।।
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3) मैं :नारी
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मूल ओड़िआ: ईप्सिता षडंगी
अनुवाद :हरेकृष्ण दास
3) मैं :नारी
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मूल ओड़िआ: ईप्सिता षडंगी
अनुवाद :हरेकृष्ण दास
सौंप आई थी मैं अपनी अल्हड़पन
मां की जरायू का उस फूल को
नष्ट होने के लिए मिट्टी में दफ्ते हुए
पैदा हुई मैं जब।
बड़ी हुई में
मां ने कहा अब तू रजस्वला है।
सीखना पड़ा है मुझे
अंदर ही अंदर सिमट जाना । सीखा मैंने लाज।
खो दिया मैंने अपना अधिकार
पापा और भैया के पास उठने बैठने की
शिखा मिटना ,समेटना, सहना- मिट्टी सा।
छोड़ आई थी मैं अल्हड़ अंगड़ाइयां सब
बचपन की कोमल नर्म बिस्तर पर जब मैंने शादी की!!
अब मैं और मेरी अनिच्छा
बैठे हैं आमने सामने
बंद कर के दरवाजे सारे
अंधेरे में
अपने-अपने अस्मिता को ढूंढते हुए।
कोशिश में लगे हैं भी
लात देने को अपना अपना ख्वाहिशे ,अभिमान ,अहंकार
और असूया को
एक दूसरे के कंधो पर।
हार और जीत
सब कुछ एक है यहां ,
यादों में गूम
अपने ख्यालातों के अस्पष्ट बिंदुओं में
समाए हैं जैसे।।
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4 ) कोरोना
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मूल ओड़िआ: ईप्सिता षडंगी
अनुवाद :हरेकृष्ण दास
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मूल ओड़िआ: ईप्सिता षडंगी
अनुवाद :हरेकृष्ण दास
मैं नहीं जानती
कोरोना का रोना कैसा गुजरा उन पर
सच का आईना मानती हूँ, मगर!
खेल ऐसा हुआ
अंधी राजनीति का जुआ
लाखों परदेसी लोग भोले-भाले
परदेस से अपना बक्सा संभाले
मीलों पैर घिसते हुए
मौत के मुँह में पिसते हुए
चले पाँव-प्यादे
सहते घनी पीड़ को
अपने घर की डगर, अपने नीड़ को
अंधविश्वास के बीज मन में भरे
लोग घर से अफरा-तफरी में निकल पड़े
धरम के भरम में लगाया मौत को गले
किसी की आत्मा में ऐसा डर कभी न था
विज्ञान की चमक, रिश्तों की महक
और उस पर ये कि-
पैसों की खनक
हमें मदमत्त रखा हर घड़ी, हर जगह
लेकिन,
डर ने जकड़ ली है हर धड़कन…
हल्की-सी छुअन के ख्याल से भी
डर कर जाता है घर
जान निकल जाती है
छुअन के लम्हों को फिर से जीते हुए
अपने सीने में सारे रिश्ते समेटे हुए
वापस लौट आता है स्वार्थी आदमी
अपने देश को-
जहाँ उसका आदि है, अंत है
लगता है शायद,
वह भूल नहीं सकता
सच का यह आईना
जैसे कोई बुद्धत्व उतरा हो उन पर
हमेशा दिखाएगा
सम्यक सत्य का सम्यक मार्ग
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5) देह
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मूल ओड़िआ: ईप्सिता षडंगी
अनुवाद :हरेकृष्ण दास
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मूल ओड़िआ: ईप्सिता षडंगी
अनुवाद :हरेकृष्ण दास
एक लड़की की
देह या मन का” मन “नहीं होता!
मन ही नहीं होता एक लड़की की।
जन्म से अन्त तक
उसकी शरीर कितनी
आबृत होगी
कितने अनाबृत
यह फैसला किसी और को लेना है।
लड़की की शरीर में भी
यौवन आता है।।
गीत गाए वह भी
झुमती है मलय पवन के साथ।
स्वप्न संज्योती है रंग बिरंगे जीवन का,
मगर ख्याल में सिर्फ,
सिर्फ मन ही मन में, हाय!
गीत गुनगुनाये – तो वेश्या
नाचे सधीर तो- असती,
स्वप्न में जो ने लगे तो- सीमा लांघ ने की आशंकाएं अनेक।
आशंकाओं से
आतंकों से
आबद्ध कर लिया जाता है
लड़की का शरीर।
जब कभी उसके शरीर को
अपनी अधिकार में ले लेता है
कोई जादूगर
तब उसका शरीर
टूटी फूटी बिछोना की तरह
घसीटा जाता है
इधर से उधर
बार बार
बार बार।
लड़की का शरीर सुंदर , अनावश्यक,
उपेक्षित
एक महाकाल फल।।
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6) समय राग
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प्रश्नवाचक चिह्न के घेरे में
मुझे धँसा हुआ छोड़कर
कहाँ भगे हो चोरी-चुपके मुँह मोड़कर
री, समय!
जहाँ कहीं भी बाहें फैलाता
कटारी धार घूरती रहती है तुम्हारी समय-असमय
जीवन का रोम-रोम घायल है
और कटार-सी उतरती सीने में
निर्बाध छनकती तेरी पायल है
मुझे कहो दूर भागते हुए समय-
मेरी दुर्बलता रही
मेरी अयोग्यता की आड़ में
मेरी बाँहों में एकसाथ संभावनाओं के हरे-भरे रंग
होते रंग-बेरंग
फैलता शून्य का विशाल वितान
मेरी आँखों के सामने उत्तान (लापरवाह)
मेरी अयोग्यता का भोलापन
कटाक्ष करने के लिए
और प्रिय की आँखों में मासूमियत के लिए नहीं
मेरी असहायता
मेरी अयोग्यता उस आवाज को संजोने के लिए है
जिसे मैं शब्दों की कर्कशता के बीच ढूँढ रहा था
क्या सबकुछ मेरी सहनशक्ति के परे नहीं है?
क्या आत्मा में आत्मसात करने की कोमलता
अटूट भरोसे के साथ नहीं है-
भावनाओं का स्पर्श और दिल में गूँजने वाले शब्द
अब सहनशीलता की सीमा से परे?
एक सुराग छोड़ दे, री, समय!
कैसे खोलना है दुनिया के सारे पूछताछ के पुलिंदा की भूलभुलैया गाँठे
री प्रहरी! अंत बिंदु पर
अपनी दुनिया को दो हिस्सों में खुला रखो
मैं या तो शरण लूंगा या रेंगते हुए शून्य में विलीन हो जाऊँगा।
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7) पांडोरा का बक्सा
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मूल ओड़िआ: ईप्सिता षडंगी
अनुवाद :हरेकृष्ण दास
अनुवाद :हरेकृष्ण दास
सपने सब सच हो रहे थे
गोद में मां के।
आहिस्ता आहिस्ता
जवां होने लगी में
सपने भी होते गए भारी।
तो उन्हें कैद करना पड़ा
बक्से में एक
आधा बुना स्वेटर सा
या एक टेडी की तरह
आधा बना।
बंध गया में जब
एक खंभे से जा कर
दूसरे खंबे में-
तो मैं सोची
सच्चा सुख मिले ना सही
सपनों के साथ जीना
निराला भी तो है।
उस बक्से को ले आई मैं इधर
मेरी नई केद खाने पर।
निहारे और खुश हुए-
सब।
मगर कोई बोला- मेरे कमरे में फिर किसी ने बोला-
मेरे अलमारी में
तो और किसी ने कहा-
मेरे दिल में
जगह ही नहीं थोड़ा सा भी कहीं।
सपनों को दिशा दिखा दी गई
सही जगह उनके।
अब मेरी कहानी कैद होकर रह गई है
इस बंद बक्सा में ।
बक्से में मेरे साथ
सिकुड़ी हुए हैं मेरे सपने
पड़े हैं धूल से भरी
किसी कोने में कहीं।
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समकालीन ओड़िआ काव्य जगत में आदर और सम्मान से लिए जाने वाले नामों में से एक है *ईप्सिता षडंगी ।* 1975 में पैदा हुई इप्सिता पिछले 30 सालों से कविता लिखना , आलोचना साहित्य तथा अनुवाद में समर्पित है।अब तक उनकी *छह कविता* पुस्तकें
(१- पक्षी फेरिनि २००१
२- फेरीबा कथा २००३,
३- पुनश्च बुद्ध २०१२,
४- केतेबेले केजानि २०१३,
५- शब्द आरपाख २०१८,
६ – दृश्य दर्पण २०२१) ,
*दो आलोचना पुस्तकें*
( १- इंद्रधनुर अष्टम रंग – २०१९,
२ – एबर कविता- २०१९)
और *6 अनुवाद* *पुस्तकें*
( १- वेटिंग फॉर मन्ना -२००७,
२- अक्टाभिऔ पाजंक कविता – २०१६ ,
३ – चाइल्डहुड डेज – २०१८,
४ – बाघ – २०२० ,
५- अब्सिक्योर गड्डेश – २०२०,
५ – मानहटन रु मुन्नार- २०२१ )
प्रकाशित हो चुकी हैं। वह वरेण्य कवि केदारनाथ सिंह जी की प्रसिद्ध कविता “बाघ” के ओड़िआ अनुवाद तथा Spanish-Latin कवि Octavio Paz के अंग्रेजी कविता का ओड़िआ अनुवाद ओड़िशा साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित । ओड़िशा के सभी प्रख्यात पत्रिका और अखबारों में उनकी कविता और आलोचनाएं नियमित तौर पर प्रकाशित होती रहती है। इसके अलावा लंदन से प्रकाशित प्रसिद्ध पत्रिका The Orbis, Indian Literature, museindia, Rock Pebbles, समकालीन भारतीय साहित्य, हमारा भारत, अंतरंग आदि अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविता की अनुवाद
इंग्लिश और हिंदी में प्रकाशित हुई है ।इप्सिता अपनी दूसरी काव्य संकलन “फेरीबा कथा” के लिए 2001 में ओड़िशा सरकार के तरफ से राज्य युवा पुरस्कार से सम्मानित होने के साथ-साथ ओड़िशा का एक महान अनुष्ठान ‘समाज’ की तरफ से सम्मानजनक ‘ *उत्कलमणि युव प्रतिभा* *पुरस्कार ‘ (साहित्य के लिए) रूप में 2017 में ₹50000 की नगद राशि और मानपत्र हासिल किए हुए हैं।20 से भी ज्यादा महत्वपूर्ण पुरस्कारों से सम्मानित ईप्सिता 2007 में केंद्रीय साहित्य अकादमी के Travel Grant
पाकर मुंबई टूर के दौरान कई़ं साहित्यिकों से मुलाकात की थी।उसके साथ साथ केंद्र साहित्य अकादमी की “मुलाकात” कार्यक्रम, और नई दिल्ली में आयोजित “युवा सहिती” कार्यक्रम में ओडिशा का प्रतिनिधित्व किया है। रेडियो तथा टीवी चैनलों पर नियमित साहित्यिक कार्यक्रम में आने वाली ईप्सिता केंद्र साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त प्रसिद्ध कवि बंशीधर षडंगी के सुपुत्री हैं।अपनी कविताओं के विषयवस्तु और काव्यशैली के अनोखे पन के दम पर खुद के लिए एक निराली पहचान बनाने वाली ईप्सिता एक डिग्री कॉलेज में अंग्रेजी भाषा साहित्य के अध्यापिका हैं और भुवनेश्वर में रहती हैं। उनकी ईमेल आईडी है….
poetipsita@gmail.com
फोन नंबर:9938370289