ग़ज़ल 1:-
दोस्ती में फ़ासला क्यों हो गया है ,
दुश्मनी से राब्ता क्यों हो गया है।
है नहीं गठजोड़ जब नेता-पुलिस का ,
‘उनका’ फिर ‘वो’ रहनुमा क्यों हो गया है ।
अब भी धनपतियों को है धन की तवक़्क़ो,
ये अनोखा सिलसिला क्यों हो गया है ।
रोशनी की भी वकालत हो रही पर ,
तीरगी का दबदबा क्यों हो गया है ।
हर किसी पर हो रहा है दोषारोपण,
देश अपना कटघरा क्यों हो गया है ।
फूल-काँटे, बाग़-भँवरे हैं व्यथित सब ,
ये नज़ारा आम-सा क्यों हो गया है ।
दीप को जलना है जलता ही रहेगा ,
पर ‘शलभ अब अनमना क्यों हो गया है ।
ग़ज़ल 2:-
नहीं रौशनी मिली है , कभी तीरगी के बाइस,
तुझे दो जहां मिले हैं , तेरी मुख़बिरी के बाइस ।
करे अपने नाम शोहरत , की जो मैंने , तुमने अर्जित ,
सरे आम सब को लूटे, किसी तिश्नगी के बाइस ।
जो जहाज़-ए- इश्क़ मेरा जा लड़ा तलातुमों से ,
तो वो चुटकियों में डूबा, तेरी बेरुख़ी के बाइस ।
तेरी शाने-बेनियाज़ी कभी तोड़ मैं न पाया,
तेरा दंभ जा के टूटा, तेरी बरहमी के बाइस ।
मुझे सब मिला जहां में , तेरा प्यार और मुरव्वत ,
है मेरा ख़ुलूस क़ायम , तेरी बंदगी के बाइस ।
मुझे आईनों के सदके , जो मैं था वही दिखाया ,
नहीं था कोई मुखौटा , मेरी शाइरी के बाइस ।
ऐ ‘शलभ’ ज़रा सँभलना, कि ख़याल उनका करना ,
वो जो लोग थक के बैठे, तेरी रहज़नी के बाइस ।
ग़ज़ल 3:-
सबको तावीज़ बाँधता है वो ,
कोरे सपनों का झुनझुना है वो ।
झूठ का ऐसा सिलसिला है वो ,
सच के पाँओं का आबला है वो ।
सबकी नब्ज़ें टटोलता रहता ,
बातें ‘प्रतिशत’ में बोलता है वो ।
सब परख कर के चोर-नज़रों से ,
मन के पत्तों को खोलता है वो ।
रास आते नहीं उसे पहिये ,
एक पथरीला रास्ता है वो ।
जो वो कहता है वो नहीं करता ,
नीम पागल है, बावरा है वो ।
शम्अ होती तो देखते भी ‘शलभ’
बेमुरव्वत-सा आईना है वो ।
ग़ज़ल 4:-
बेख़बर भी कौन था, गर वे ख़बर पाले रहे,
‘झूठ को सच’ कहने वाले ही नज़र वाले रहे ।
हर सियासत में उसे पिसना था, वो पिसता रहा ,
हर घड़ी दहकान को ही जान के लाले रहे ।
पीटती है हर हुकूमत ढोल वंचित के सदा ,
मुफ़लिसों की ख़्वाहिशों पर तो जड़े ताले रहे।
मंज़िलों के रास्ते तीखे कँटीले थे मगर,
अनवरत चलते रहे हम पाँवों में छाले रहे ।
बोल मीठे उनके सब तो थे निरादर से भरे ,
तंज के वो तीर तो मन में धँसे भाले रहे ।
पाँव छूते हाथ जोड़े रात-दिन मिलते हैं लोग ,
कौन है अब बेग़रज़ जब सब ग़रज वाले रहे।
झूठ की पर्तों में देखो आजकल सच क़ैद है ,
मकड़ियों के ही ‘शलभ’ उस पर सने जाले रहे ।
ग़ज़ल 5:-
ज़िंदगी इक ख़ूबसूरत हादसा है ,
ये ख़ुदा की नेमतों का फ़लसफ़ा है।
दर्द हों, शिकवे हों या हो फिर अदावत ,
शौक़ फरमाएँ सफ़र में जो मिला है ।
अपना ही चेहरा कहाँ पहचानते सब ,
दूसरों पर अनवरत बस तब्सिरा है ।
जो मेरी क़िस्मत में आई ख़्वाब बन कर ,
इक उसी सूरत में मेरा मन रमा है।
जिस ‘शलभ’ ने शम्अ से लौ छीन ली थी,
मैं नहीं हूँ वो , वो कोई दूसरा है ।
ग़ज़ल 6:-
इश्क़ की भी अज़ान होती है ,
आँख कब बे-ज़ुबान होती है ।
मौत पंछी की जब उड़ान में हो,
ऐसे मरने में शान होती है ।
टस से मस भी नहीं वो हो सकते ,
जिन के हाथों कमान होती है ।
सागरों की अनोखी है दुनिया ,
ख़ुद में जो संविधान होती है ।
धर्म की आड़ ही लुटेरों को ,
मुख़्तसर ‘ब्रह्मज्ञान’ होती है ।
बाज़-सी आँखों में रखो हिम्मत ,
तब परों में उड़ान होती है ।
जान देगा ‘शलभ’ अना के लिए ,
यह अदा स्वाभिमान होती है ।
ग़ज़ल 7:-
मेरी आँखों में तेरी सूरत है,
तेरी सीरत-सी तेरी ज़ीनत है।
दिल को तूने सकून है बख़्शा,
हर तरफ़ फैली तेरी रंगत है ।
नस्लें सारी मिलेंगी ग़ारत में,
सर चढ़ी उनके कैसी फ़ितरत है ।
सिर्फ़ ठुमकों से मुल्क चलते नहीं ,
शिव के तांडव की अब ज़रूरत है ।
हाथ मासूमों के थमा पत्थर ,
रहनुमाओं की क्या ज़लालत है ।
जब कहा वस्ल हँस के टाल दिया ,
मुझको तुमसे बड़ी शिकायत है ।
अपने शब्दों को बस में रखिए ‘शलभ’ ,
देश में ‘अपनों’ की हुकूमत है ।
ग़ज़ल 8:-
अनमना-सा ये दिल सोचता रह गया ,
एक काँटा-सा मन में चुभा रह गया ।
रेत ही रेत फैली थी चारों तरफ़ ,
एक दरिया-सा मुझ में छिपा रह गया ।
इतनी माँगी थीं हमने दुआएँ मगर ,
मंज़िलें तो चलीं रास्ता रह गया ।
मुझको कुछ भी न उससे मयस्सर हुआ ,
आईने को ही मैं देखता रह गया ।
उसने महलों के सपने दिखाये बहुत,
मेरे सर पर वही झोंपड़ा रह गया ।
उसके वादे पे मुझको यक़ीं था मगर,
मेरे हक़ में बस इक क़हक़हा रह गया ।
साथ बहता रहा वो मेरे दूर तक ,
फिर भी इतना बड़ा हाशिया रह गया ।
दरमियां उसके मेरे ‘शलभ’ कुछ नहीं,
कुछ अगर था तो वो अनसुना रह गया।
ग़ज़ल 9:-
ख़ुद्दार लोगों की ज़रा पेशानी देखिए,
अज़मत पे उनकी होती है हैरानी देखिए।
नदियाँ कहाँ समझती हैं सागर की पीर को ,
अल्हड़पने में करती हैं नादानी देखिए ।
बूढ़े सुनाते हैं वही माज़ी की दास्तान,
सुनते नहीं हैं, बच्चों की मनमानी देखिए ।
‘वो’ हँस के टाल देते हैं माँ की पसंद को ,
फिर भी वो करती सबकी निगहबानी देखिए ।
‘सागर’ में उतरो , कुछ भी करो , हाथ जोड़ लो ,
जी भर के देगा, उसकी फ़रावानी देखिए ।
उसका विराट रूप चकाचौंध कर गया,
चेहरों पे चमक आई जो नूरानी देखिए ।
इस बार फिर मिलेंगे पुरस्कार ऐ ‘शलभ’!
कैसे अदीब करते हैं “दरबानी” देखिए ।
ग़ज़ल 10:-
अब नशेमन को बचाने कौन आएगा ,
क़ौल को अपने निभाने कौन आएगा ।
जब बुतों पर क़हर टूटा है मुसव्विर का ,
उनकी अज़मत को बचाने कौन आएगा ।
जागती आँखों से ही दिखते हैं अब सपने,
नींद से हमको जगाने कौन आएगा ।
पूछता है दस मुखौटे बाँध कर रावण,
‘राम-सा जीवन निभाने कौन आएगा।’
जो हुकूमत ने कहा उस बात का मतलब,
अब ‘शलभ’ हमको बताने कौन आएगा ।
ग़ज़ल 11:-
उसने मेरे ज़ख़्म को महका दिया है ,
इक नया नासूर फिर ताज़ा हुआ है ।
मस्त हाथी पर चढ़े हैं शाहे-आलम ,
रौंद देंगे जो भी रस्ते में खड़ा है ।
अब नहीं पर्वत रहे चट्टानों जैसे ,
रेत के टीलों में बोलो क्या धरा है ।
आईने का सच मुक़द्दस है ख़ुदाया ,
उसकी रहमत से न कोई भी गिला है ।
लाखों दरिया पी के कहता है समुंदर,
जो मिला ! सब कुछ तुम्हें लौटा दिया है ।
आदमी की ज़ात का कैसा भरोसा ,
जिसने पाला बस उसी को डस लिया है ।
अब ‘शलभ’ की दास्तां में उसका चर्चा ,
‘सोने’ के शब्दों में चुन-चुन कर लिखा है ।
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डॉ. विनोद प्रकाश गुप्ता ‘शलभ’
मो: 9811169069
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