मेरा गांव
मेरे गांव का शिवाला
अंबिका मंदिर
और मस्जिद रिनोवेट हो रहे हैं
पूजा पुजारी इबादत में इजाफा है
ज़मानत के बाद कलइया
ने संध्या का जिम्मा ले लिया है।
धरती धमक्का सूख गया है
ढोर डंगर की गूं मूत नदारद है
गलियारों में खड़ंजा लग गया है
किरहुना,बसुवा और लछुआ
ताल बेपानी हो गये हैं
वैसे जैसे मेरे गांव के लोग।
खेतों की मेड़ें ऊंची हो गई हैं
बिजली का उजाला हो गया है
चौराहे में सोहदे और
अंग्रेजी ठेका हो गया है।
घरों की दीवारें पक्की हो गई हैं
इस दफा देखा तो
यकायक मेरे गांव में
कई रंग….हो गये हैं।
माड़ौ का बिहान
न छानी है न छपरा माड़ौ
मूंज, पहंटा, पतावरि, पल्लव
अपनपौ के रंग का श्रंगार है
रिश्तों की सुवास है
पुरखों का आशीष है
औ चेतना है अचेतन लोक का
मूलाधार से सहस्रार तक
हर चक्र पर रिश्तों के पुनर्पाठ का
जीवित प्रतीक है माड़ौ
बाजारू बियाबान में शीतल
बयारि है माड़ौ
स्वेद, सत्कार औ संस्कार है
अपनों के बिछुड़ने का अहसास है
बिहान
सहजीविता का शोध है
अतिथियों की विदाई पर
पुष्पित अक्षत आदर का प्रतीक है
माड़ौ का बिहान।
मॉं नजर आई
उसने पूछा ‘थकता नहीं!’
निहारा हेरा
दूर बड़ी दूर से आवाज आई
मैंने ख्वाहिश की उसकी सूरत की
मेरे सूने दुवार में
दही गुड़ लिए
अपर्याय
सवालों का जवाब
श्वासों की ऊष्मा
शब्द
ब्रह्म
अभिव्यक्ति
आदर
आभार
लेखनी की मसि
हर मकाम के पीछे
मॉं की छाया नजर आई।
तथागत आंखें खोलो
यशोधरा और राहुल को सोता छोड़
संसार को समता समरसता का पाठ देने वाले
तथागत निहारो इस दुनिया को
मानव के बीच अमानवीयता के कसीदे देखो
लंपट ठगों के जमघट में ईमानदारी की चीखें सुनो
तथागत एक बार प्रार्थना पर गौर करो
आंखें खोलो
उन्नति विज्ञान पे नज़र डालो
जनम-जात-जलालत के
खौफनाक समीकरणों का हल सुझाओ
तथागत तुम एक बार फिर दुनिया को
दया का धर्म सिखाओ।
मारीच की चीख जिंदा है
कहते हैं युगों पहले
एक अपराजित राजा था
धरती आकाश अतल-वितल
अंतरिक्ष-ब्रह्मांड, लोक-परलोक
काल-महाकाल तक को
उसने कब्जे में कर रखा था
उसका हर चिंतन हर व्याख्या
शाश्वत सत्य
सिपहसालार,खुफिया तंत्र
मुस्तैद बाखबर रहते
परपीड़न से परे बुद्धिजीवियों, मसिजीवियों ने
सीख लिया था मौन योग
दरबारे खास में
होते फैसलों पर गूँजता जयघोष
हुक्मउदूली के लिए नहीं
राजपाट की खैरियत को लेकर
नाना मामा बंधु बांधव सचिवों ने
जब करने चाहे सवाल
राजा को यह नागवार गुजरा
मुनादी हुई अपने लिए नहीं तो
अपनों का खयाल रखो…
जिसने इल्तिजा की उसे मिला तख्तो ताज
जो अड़ा रहा उसे देशनिकाला
मारीच ने देना चाहा था संदेश
पलट कर पन्ने दिखानी चाही थीं तवारीखें
उस बुद्धिजीवी ने विचार किया स्वर्ण दीवारों पर
भोग विलास के इंतजामात पर
असंख्य रूपसीयों पर
और वक्त की नजाकत का इस्तकबाल किया
मनचाहे रूप रंग पर इतराने लगा
एक दिन सिरफिरे राजा ने याद दिलाया
स्वर्गीय सुख और शहादत से निर्वाण को
मारीच की देह पर चमकने लगा स्वर्ण
दर्शनों में कैद स्वार्थों में संलिप्त
पहले स्वर्ग फिर मोक्ष के कपट जाल में
हाँफता दौड़ता उछलता कूदता
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष, लुकता-छिपता
कपट रूप प्रकटा
वह डगमगाया ,लुढ़का और गिरा
दिग दिगंत तक गूंजी चीख
समाज के बुद्धिजीवियों मसिजीवियों
बाखबर बाखबर बाखबर!
डॉ. श्यामबाबू शर्मा, शिलांग, मेघालय