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Lahak Digital > Blog > Literature > कहानी : पीर का पर्वत : संजय कुमार सिंह
Literature

कहानी : पीर का पर्वत : संजय कुमार सिंह

admin
Last updated: 2023/06/30 at 9:58 AM
admin
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15 Min Read
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बाजार से चले गिरधारी बाबू तो बूंदाबांदी शुरु हो गयी थी। वे बंगाली बाबू डाॅक्टर से बुखार का टेबलेट और खाँसी का सिरप लेकर जल्दी-जल्दी घर की ओर झपट रहे थे। डाॅक्टर ने उन्हें बताया था कि अगर बुखार नहीं उतरा, तो इंजैक्शन देना होगा। वे मन ही मन उद्विग्न और चिंतित थे। पैसे के अभाव में खेती-बाड़ी ढंग से नहीं हो पा रही थी। मकई का पैसा महाजन ने दिया नहीं था। वह दालकोला से लौट कर पैसा देने की बात कह रहा था। इधर पत्नी बीमार थी भागलपुर से लड़का का फोन आया था कि पैसे भेजिए…एक रिश्तेदार से पिछले साल पैसा लिया था, वह भी तगादा भेज रहा था।
घर पहुँच कर उन्होंने लाडली बिटिया रजनी को आवाज दी, तो वह आयी। भीगा देखकर बोली,” पहले आप कपड़ा बदलिए, नहीं तो बीमार हो जाइएगा पानी और घाम से…”
” पहले माँ को गोली दो।” उन्होंने कहा,” फिर सिरप पिलाकर.. मुझे धोती और गंजी दो…”
बेटी ने उनकी बात काट कर पहले धोती और गंजी दी। फिर दवा लेकर माँ के कमरे में गयी, तो पत्नी रंभा देवी बाहर आ गयी। उनका शरीर बुखार से झुरा गया था। गिरधारी बाबू को मन ही मन डर हे रहा था कि फिर कोरोना तो लौट कर नहीं आ गया… उन्होंने माथा झटक कर कहा,” जरा चाय बनाओ…”
रंजनी तुलसी पत्ता देकर लाल चाय ले आयी, तो वे बोले,” कारू दूध नहीं दे गया क्या?।”
” बेला वाली हिसाब करने आयी थी” पत्नी ने दुखी होकर कहा,” मैंने कहा, कनिया लाल साव पैसा देगा, तो हिसाब हो जाएगा…”
वह नाराज होकर बोली,” तब हिसाब के बाद ही दूध लीजिएगा..”
गिरधारी बाबू चाय पीने लगे, वह भी क्या जमाना था, जब दरवाजे पर दर्जन भर गाय-भैंसे थीं… यही करुआ सब करता था दो जून रोटी पर… अब बाजी पलट गयी है, जो राजा थे, वही रंक… और जो रंक थे वही राजा… हो भी क्यों न सरकार फ्री में अन्न देती है….”
रजनी को कुछ याद आया तो वह बोली,” आपके बाजार जाने के बाद करमचारी जी आए थे, कह रहे थे मालगुजारी कटाने… नहीं तो खेत नीलाम हो जाएँगे।”
” होने दो।” परेशान होकर कहा,” इसी खेत को लेकर इतनी मुश्किलें हैं, न रहेगा बाँस और न बाजेगा बंसबोल… इससे तो बढ़िया कोई भूमिहीन होकर बी.पी. एल. में नाम लिखा ले।”
पत्नी रंभा पीड़ा और तरस से भावुक हो आयी । कोई मामूली आदमी नहीं थे गिरधारी बाबू। इलाके के नामी जमींदार नरसिंह बाबू का बेटा थे।जमींदार साहब छाँह में भी छाता लगाकर चलते थे। अगल-बगल सिपहसलार और सिपाही चलते थे। उस समय गिरधारी बाबू के बियाह में हाथी-घोड़ा नहीं गिन पाए थे लोग। दसियों सरकारी नौकरियों को लात मारी थी गिरधारी बाबू ने…
…
राज-रौनक को बिलाते देर नहीं लगी। चारों भाई तिलकधारी, गिरधारी, राजाराम और विजय शंकर चार टूक हो गए। विजय शंकर और राजाराम तो चेत कर मास्टर हो गए। तिलकधारी बाबू मालिक थे ,सो कुछ माल दबा गए। सबसे ठनठन गिरधारी बाबू। न खेती का शऊर और न हार-काठ हरौथिया। पहले केस-मुकद्दमा और अकाल-बेहाल करते बिनौलावाली यानि रंभा देवी के जेवर बिके फिर खेत…
घर की माली हालत बिगड़ती रही। गिरधारी बाबू हाथ-पैर मारते रहे। जवानी गयी, तो चेहरे पर विषाद की झुर्रियाँ घिर आयीं।
मगर इस कठिन समय में जब खेती-बाड़ी से इजज्त का कबाड़ा निकल रहा था । उन्होंने सुरंजन का दाखिला काॅलेज में करवा दिया। सुरंजन पढ़ने में था भी तेज, पर अब यही फैसला उनसे पत्थर फोड़वा रहा था। लाल साव के पैसे पर पचास संकट के गिद्ध थे। सबको झेल भी रहे थे इसी नाम पर। अचानक कप रखकर उन्होंने कहा,” मैं कारू से मिलने जाता हूँ। कल बंगाली डाॅक्टर आ सकता है। सौ रु. तो फीस भी देनी पड़ेगी…”
रजनी ने कहा,” मेरे पास है…”
” कहाँ से आया?”
” मामी ने दिया था।’
” चलो लाज बचे, तो सौ उपाय।”वे निकल गए।
…
कारू एक समय उनका नौकर था, पर अब वह दूध का कारोबारी हो गया था। दस बीघे की खेती जोड़ ली थी। नौकर से अब वह भाई हो गया था। दरवाजे पर जाकर अदब से उन्होंने आवाज लगायी,” कारू भाई, कारू भाई….”
” कहिए जमींदार साहब…”
” दूध काहे रोक दिये?” वे विनम्र होकर बोले।
” अच्छा, चला जाएगा।” कारू ने शरम जोग कर कहा,” पिछला हिसाब रह गया है..”
” लाल साव मकई ले गया है। कहता है दालकोला में अभी भाव डाउन है। बेच कर आएगा तब पैसा मिलेगा। ” उन्होंने विवशता बतायी कि रजनी की माँ बीमार है, बौआ का भागलपुर से फोन आ रहा है… गब्बी वाला दस कट्ठा तुम्हीं भरना ले लो…”
” सब लगा दीजिएगा, तो खाइएगा कैसे?” कारू ने सहम कर कहा।
” अब जो हो, बौआ पढ़-लिख ले।” वे जमीन में धंसते हुए बोले,” रजनी के विवाह को कब तक टालेंगे।जमीन तो बिकेगी ही। बातचीत चल रही है, तुम पैसा जुगाकर रखो। तुमको छोड़ कर किसी को नहीं देंगे।” यह तीर सीधे दिल पर लगा देखकर उन्होंने कहा,” एक बात कहें, पाँच हजार चलाओगे? गब्बी रख लो फिर पचास हजार दे देना…”
कारू असमंजस में कुछ पल घिरा रहा।बेलावाली से राय-मशविरा करे कि नहीं। फिर घर जाकर रु. निकाल कर उसने दे दिया।
…
मुट्ठी गरम हुई, तो गिरधारी बाबू का जी हल्का हुआ। अब पत्नी का इलाज हो जाएगा। बौआ की नौकरी तक गुदड़ी सीकर यह जीवन चले। वे अँधेरे में घर लौटे, तो उनकी चाल बदली हुई थी। उन्होंने पैसा सीधा रंभा जी के हाथ में थमाया।
” कहाँ से लाए?” पत्नी ने आश्चर्य से पूछा।
” कारू से लिए।” वे उसी तरह बोले।
” सूद पर?”
” नहीं जमीन पर।”
” फिर भरना लगा आए?”
” तो तुम को मरने दें?” उन्होंने तमक कर कहा,” हजार-पाँच सौ मालगुजारी भी कटाएँगे। क्या करें…”
” बौआ को आप निजगहा बना दीजिएगा क्या?…”
गिरधारी बाबू ने पत्नी का क्लांत मुख-मंडल देखा और सिर झुका लिया। कुछ देर चुप रहने के बाद वे बोले,” अच्छा एक बात बोलें, कारू से पैसा लेते हुए मेरे दिल पर चोट पड़ी होगी कि नहीं? जिस गाँव में कभी राजा बनकर जी रहे थे ,उसा में दूध, पानी और दवा के लिए तरस रहे हैं… कल रजनी का विवाह होगा, तो फिर जमीन बिकेगी… तब भी तुम यही कहोगी?”
पत्नी ने कहा,” मैं क्या कहूँगी। गोतिया-दियाद वाले कह रहे।”
” उनको कहने दो।” गिरधारी बाबू ने कहा,” कल मैंने एक सपना देखा है। बौआ बड़ा आदमी बन गया है। पटना में मकान बना लिया है। हम लोग वहीं रह रहे हैं। कई गाड़ियाँ हैं…. फिर से राजा बन गए हैं… सब कोर्निश कर रहे हैं…”
” रहने दीजिए। आपका सपना सच हो जाए, तब भी मैं यहां रहूँगी।” वह मुस्कूरा कर बोली,” बस बेटी का बियाह कर दीजिए…”
” देखो इस बार इसका शिक्षिका वाली बहाली में हो जाएगा।” वे बोले,” फिर दहेज भी कम लगेगा। तुम हौसला रखो। जिस मास्टरी के मैंने बीस बार स्वीकार नहीं किया, उसी पोस्ट के लिए मुखिया जी से वचन ले लिया है…”
” भगवान की मर्जी!” पत्नी ने हकम कर कहा,” बहुत लोग हाथ-पैर मार रहे हैं…रामपुर वाली भी अपनी बेटी के लिए कहने गयी थी।”
” कहने दो न।” गिरधारी बाबू ने कहा,” रजनी का रिजल्ट अच्छा है।”

…
सवेरे-सवेरे अप्रत्याशित रूप से बौआ की बड़तुहारी के लिए लोग आ गए । गिरधारी बाबू भौंचक रह गए। साथ में उनके दियाद राजू बाबू भी थे। उन्हीं के साढ़ू की लड़की थी। हजार-पाँच सौ का चूना तुरंत लग गया। कारू के पैसे ने चीर-हरण रोका। मुसीबत पर मुसीबत। खुशी भी पनसोंखा की तरह।हँसाने के बदले आँखों से आँसू निकाल दे। पर जोगना तो सब पड़ता है, चाहे जो बिके।बातचीत चली, तो लड़की वाले ने तिलक के साथ पाँच लाख का आफर दिया। लड़के को पढ़ाने-लिखाने जिम्मा भी।
गिरधारी बाबू हाथ जोड़ कर बोले,” लड़का से पूछना होगा। पहले बेटी है सिर पर…”
” सब हो जाएगा।”
” हम लोग लड़का को देख चुके हैं।”
” तब?”
” पसंद भी कर चुके हैं।”
” ईश्वर इच्छा।” वे उसी तरह बोले।
” तो बात पक्की।”
” कुछ समय दीजिए।”
” अच्छा सोच लीजिए।राजू बाबू हैं न…”लड़की के पिता ने कहा,” लड़की चाहे आपकी हो कि मेरी पिता की पगड़ी का बोझ है, सब समय सो हो जाए, तो अच्छा….”
” जी…जी।” गिरधारी बाबू ने घबराकर कहा। खान-पान के बाद जब
लोग उठ कर गए, तो गिरधारी बाबू पत्नी और बेटी के साथ सोच-मशविरा में उलझ गए। रात इसी सेंत-मेत में कटी।
…
आज रंभा जी खुश थीं। जी हल्का था।बेटे पर लोग आए थे। इस आत्म-गौरव ने नयी ऊर्जा का संचार कर दिया था।
तीन बजे बंगाली बाबू डाॅक्टर आए। नब्ज देखी। आला लगाकर जाँच की और कहा,” बुखार उतर गया है।चिंता की बात नहीं है।सब ठीक हो जाएगा।”
गिरधारी बाबू ने चाय पीने का आग्रह किया, तो वे रुक गए। बातचीत होने लगी। लगा बदले समय से वे भी उदास हैं। उन्होंने कहा,” अब डाॅक्टरी भी व्यवसाय हो गया है। कोई सरोकार नहीं। मैं भी अब उतना कहीॆ आता-जाता नहीं… लेकिन मेरे ऊपर आपके परिवार का ऋण है। बड़े जमींदार साहब ने उस जमाने में बाँस और लकड़ी दी थी घर बनाने के लिए… उस समय बहुत से लोग उजड़ कर आए थे उधर से… मैं चटगाँव से भागकर आया था… अब तो किसी की आँखों में पानी नहीं बचा… अपना पानी बचे यही काफी है…”
” डाॅक्टर साहब वह समय अब रहा नहीं।” गिरधारी बाबू ने फीस थमाते हुए कहा, ” पर आपके हाथ में जादू है… आज कोई भले जितना बड़ा बोर्ड लटका ले… लेकिन उस समय हैजा-फौती में भी आपने लोगों की जानें बचायी हैं… आपके उपकार को कोई कैसे भूलेगा… आप तो देवदूत बन कर आए इस इलाके में…”
” नहीं, अब नहीं, किसी का किसी पर कोई उपकार नहीं… गीव-टेक का जमाना है । ” डाॅक्टर साहब ने कहा,”पहले एक पार्टीशन हुआ ।देश बँटा। अब लोग दिलों के बीच पार्टीशन के बीज बो रहे। पाॅर्टी वाले सब यही कर रहे….”
” आप सही कह रहे हैं…” गिरधारी बाबू गेट तक छोड़ने गए।उन्हें मालूम था।अभी साल भर पहले उनकी छोटी बेटी रत्ना को एक दबंग ने उठवा कर विवाह कर लिया था। वे इस प्रकरण से दुखी थे। पर कुछ बोलते नहीं थे।
उनके जाने के बाद लौट कर फिर वे अंदर आए। रंभा जी की तबीयत के बारे में डाॅक्टर साहब की बातों से वे खुश थे।लेकिन तभी अचानक माँ के पास खड़ी रजनी पर उनकी नजर गयी, तो वे सिहर गए।


परिचय :
संजय कुमार सिंह,
प्रिंसिपल पूर्णिय महिला काॅलेज पूर्णिया854301
रचनात्मक उपलब्धियाँ-
हंस, कथादेश, वागर्थ,आजकल, पाखी,परिकथा, लहक, वर्त्तमान साहित्य, समय सुरभि अनंत, सृजन सरोकार, सरोकार, एक और अंतरीप, संवेद, संवदिया,संस्पर्श,मुक्तांचल,हिमतरु,सुसंभाव्य, नई धारा,साहित्य यात्रा,जन तरंग, वस्तुत:,पश्यंती, वेणु,अभिनव इमरोज, समकालीन अभिव्यक्ति,बया, प्राची, हस्ताक्षर,गगनांचल, नया, नवल, अक्षरा, अनामिका, साहित्यनामा, अविलोम, परती पलार, उद्घोष, अर्यसंदेश, परिंदे, पुरवाई, पल प्रतिपल, दोआबा, सोच-विचार, कथाक्रम, अक्षरा, अनामिका, साहित्य यात्रा, पुरवाई, विश्वा, हस्ताक्षर, मानवी, नव किरण, विपाशा,शीतल वाणी, विश्वगाथा ,कथाबिंब, साहित्यनामा, किस्सा, साखी, नया साहित्य निबंध, समाचार लोकमत, अलख, स्वाधीनता, आलोक पर्व, अहा जिन्दगी, नवनीत, ककसाड़, किस्सा कोताह, साखी, कहन, उमा, रचना उत्सव, कला, किताब, दैनिक हिन्दुस्तान, प्रभात खबर, आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।

प्रकाशित कृतियाँ-
1 टी.वी.में चम्पा (कहानी संग्रह) सस्ता साहित्य मंडल दिल्ली
2 रंडी बाबू ( कहानी- संग्रह)जे.बी.प्रकाशन नई दिल्ली
3 कैसे रहें अबोल( दोहा-संग्रह)यश प्रकाशन दिल्ली
4 धन्यवाद-( कविता संग्रह) नोवेल्टी प्रकाशन पटना।
5 वहाँ तक कोई रास्ता नहीं जाता-(कविता-संग्रह)अधिकरण प्रकाशन दिल्ली।
6 लिखते नहीं तो क्या करते-(कविता-संग्रह) वही।
7 रहेगी ख़ाक में मुंतज़िर-(उपन्यास) वही
8 सपने में भी नहीं खा सका खीर वह!(उपन्यास) वही
9 समकालीन कहानियों का पाठ-भेद( आलोचना की पुस्तक) वही,दिल्ली।
10- कास के फूल( संस्मरण)वही।

सम्प्रति- प्रिंसिपल,पूर्णिया महिला काॅलेज पूर्णिया-854301
9431867283/6207582597

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