ग़ज़ल :
हिस्सा था ख़ानदान का, उससे जुदा न था
पत्ता जुड़ा था शाख़ से जब तक गिरा न था
बचपन गया जो छोड़ के आया न लौट कर
शायद वो लौटने की डगर जानता न था
सूरज के साथ-साथ वो मेरा लगा मगर
अफ़सोस उसके ढलते ही साया मेरा न था
कांटे सदाबहार सफ़र में थे हमसफ़र
फूलों ने ऐसा साथ किसी को दिया न था
ग़म के हज़ार ख़ार थे उसमें खिले-खिले
ग़ुल एक भी ख़ुशी का चमन में खिला न था
सारे जहाँ को जीत के, हारा था मौत से
कुछ साथ अपने लेके सिकंदर गया न था
ग़ज़ल :
जड़ पुरानी सभ्यता की, है अभी तक गाँव में
सुबह माँ चक्की चलाती, है अभी तक गाँव में
साग-रोटी, साथ में मिर्ची हरी का स्वाद वाह!
जिसकी ख़ुशबू पेट भरती, है अभी तक गाँव में
उसके नीचे आज भी चौपाल लगती है जहाँ
‘इक पुराना पेड़ बाक़ी, है अभी तक गाँव में
आपाधापी हर जगह, हर शहर में है आजकल
कुछ सुकूँ कुछ सादगी भी, है अभी तक गाँव में
शहर में बदले हैं ‘देवी’ अर्थ मानवता के अब
आदमीयत पूजी जाती, है अभी तक गाँव में
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*देवी नागरानी, (अमेरिका)