लखनऊ, 24 सितम्बर, 2023
दीर्घ नारायण के उपन्यास “रामघाट में कोरोना” पर सम्पन्न विमर्श गोष्ठी में नामचीन साहित्यकारों व आलोचकों के वक्तव्य:
दीर्घ नारायण के उपन्यास “रामघाट में कोरोना” पर सम्पन्न विमर्श गोष्ठी में नामचीन साहित्यकारों व आलोचकों के वक्तव्य:
अखिलेश जी
सबसे पहले मैं भाई दीर्घ नारायण को उनके महत्वपूर्ण और वृहद् उपन्यास के लिए बहुत मुबारकबाद देता हूँ। निश्चय ही कोरोना महामारी हम सबकी मेमोरी में हमारे समाज के लिए हमारे देश के लिए दुनिया के लिए इससे बड़ी दुर्घटना इससे बड़ी त्रासदी शायद दूसरी नहीं हो। हमारी याद में जितनी भी दुर्घटनाएं जितनी भी मानवीय त्रासदियां दिखाई पड़ती हैं इससे बड़ी नहीं कोई मिलेगी। एक अच्छा लेखक जब इतनी बड़ी त्रासदी को अपनी रचना भूमि बनाता है तो यह देखना होता है कि वह त्रासदी को केवल एक ह्यूमन ट्रेजेडी के रूप में ले रहा है या उसके पॉलिटिकल ट्रेजेडी जो उसमें शामिल है या आर्थिक त्रासदी जो शामिल होती है, सामाजिक त्रासदी या किसी भी प्रकार की त्रासदियां जो शामिल होती हैं उन सबको अपनी रचना का केंद्र बना पा रहा है अथवा नहीं? मैं कहना चाहता हूं कि दीर्घ नारायण का जो उपन्यास है इसमें उन्होंने उसे केवल एक दुर्घटना के रूप में नहीं रखा, जैसे कहीं से एक थोड़े समय के लिए कुछ वर्षों के लिए तीन वर्षों के लिए आ गई और वो केवल एक ट्रेजेडी के रूप में नहीं बल्कि उसके तमाम सूत्रों को डिकोड करने की इन्होंने कोशिश की है। इतनी बड़ी त्रासदी आयी, लाखों लोग जाने कितनी मौत हुई, इतनी बड़ी त्रासदी जिसमें हमारे देश का हर नागरिक हर इंसान जिसने अपने किसी प्रियजन को खोया उस पर उपन्यास लिखना कोई साधारण चुनौती का काम नहीं है, और इस बड़ी चुनौती को रचने का जिम्मा दीर्घ नारायण जी ने उठाया इसके लिए वह भरपूर प्रशंसा के पात्र है।
अगर आप हिंदी के साहित्य परिदृश्य को देखें तो जहां तक मेरी स्मृति में आ रहा है एक प्रवीण कुमार का उपन्यास कोरोना पर आया अमार देशवा, एक प्रियदर्शन मालवीय का जो वर्तमान साहित्य पत्रिका में धारावाही रूप में चला और एक कितने किलोमीटर एक पत्रकार द्वारा लिखी गई किताब है वह भी प्रकाशित हुआ, इसके अलावा मुझे नहीं लगता है कि कोई बड़ी मेजर कृति है जिसे एक बड़े महा आख्यान के रूप में दीर्घ जी ने रखा है। यह भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है कि आखिर क्या वजह है कि एक से एक दिग्गज कथाकार हैं साहित्य में लेकिन कोरोना पर चीजें क्यों नहीं है? इस पर विचार करने के पहले हमें यह सोचना होगा कि 1947 में हमारे देश का विभाजन होता है और शायद इतनी बड़ी हिंसा इतना कत्लेआम आधुनिक भारत के इतिहास में दूसरा कोई नहीं, लेकिन उस पर तत्काल कोई प्रतिक्रिया नहीं आई, उसके बहुत वर्षों बाद तमश आया, चमनाल का आजादी आया, झूठा सच आया, आधा गाँव अपने ढंग से आया; आखिर वो क्या चीज होती है कि एक बड़ी दुर्घटनाओं पर तत्काल कोई सृजनात्मक कृति नहीं रची जा पाती? एक लेखक लेखन प्रक्रिया से जुड़ा होता है, एक पत्रकार के लिए यह जरूरी होता है कि तुरंत रिएक्ट करे, अगर वो उस घटना पर तुरंत नहीं रिएक्ट करता है तुरंत नहीं रिपोर्ट प्रस्तुत करता है तो वो इर्रेलिवेंट हो जाएगा, उसकी नौकरी तक चली जाएगी। लेकिन एक लेखक उसे अभ्यांतरीकृत करता है, जिसे हमारे बहुत बड़े कवि मुक्तिबोध कहा करते थे कि बाह्य का अभ्यांतरीकरण। अच्छी कृतियों का नियम लगभग यही रहा है कि जो यथार्थ है जो दृश्य है उसको अभ्यांतरीकृत करते हैं। लेकिन यह भी है कि अगर इतना बड़ा यथार्थ सामने आया है तो उस पर तत्काल कोई नियम नहीं होता, लेखन की दुनिया में नियम नहीं होता है; और इस नियम को दीर्घ नारायण जी ने तोड़ा। 832 पृष्ट का उपन्यास है, मुझे लगता है जब ये कोरोना महामारी शुरू हुई होगी तो उसी समय से लिखना शुरू कर दिया, तभी शायद ये चीज बनी।
जब लेखक लिखता है तो देखने की तीन चीज होती है कि वह कितना अधिक विषय केंद्रित होते हैं, कितना अधिक शामिल कर सका है, चीजों के कितने सूत्र होते हैं और छोर होते हैं उनको कितना वो व्यापकता के साथ शामिल कर सका है, नंबर एक; नंबर दो जो शामिल कर सका है वह कितना सृजनात्मक है, वह कितना कलात्मक है, आखिर साहित्य कला रूप भी है वह कितना कलात्मक है या कलात्मक नहीं है, वो केवल डिटेलिंग है एक ब्योरा है; तीसरी चीज एक लेखक के साथ यह होती है कि जितना वो ग्रहण कर रहा है कितना उसे छोड़ रहा है, तो छोड़ना भी महत्वपूर्ण होता है क्योंकि छोड़ने का मतलब यह कि एक लेखक के रूप में एक कलाकार के रूप में आप समझते हो कि यहां पर कला बनती है यहां पर उपन्यास बनता है यहां पर संवेदना बनती है; निश्चय जो पहला पैमाना था लेखक कितना अधिक से अधिक उसके सत्य को उसकी थीम को आत्मसात कर सका उसमें यह उपन्यास एकदम खरा उतरता है। लेकिन बाकी जो दो कसौटी हैं जिसमें पहली कसौटी है कितना छोड़ना तो छोड़ने का हौसला उसका एक साहस होना चाहिए, रचने का साहस तो होता है, चीजों को शामिल करने का साहस तो एक व्यक्ति का साहस होता है, विचारक का साहस हो सकता है, छोड़ने का साहस कलाकार का ही साहस होता है कि आपके पास इतनी अनुभव संपदा है आप जानते हैं कि यह जरूरी था यह आपका अनुभव है लेकिन अपने अनुभव को कितना त्याग सकते हैं यह सृजनात्मक साहस भी होनी चाहिए। रचने के साहस की तो पूरी उपस्थिति है लेकिन छोड़ने के साहस की परख बाक़ी है। तीसरी बात जो मैंने कहा कि उसे रचता कैसे हैं, जिसे कहा जाता है कि किसी कला कृति में या किसी कृति में साहित्यिक कृति हो पेंटिंग हो नाटक हो कोई कोई भी कृतियां हों उसमें विचारधारा कितनी प्रच्छन्न होती है? मार्क्स या एंगल्स का कथन है कि किसी कलाकृति में विचारधारा जितनी प्रच्छन्न होती है वह श्रेष्ठता की दिशा में उतना आगे बढ़ती है, नंबर एक; नंबर दो और ये तभी संभव होता है कि प्रच्छन्न होते विचार केवल विचारधारा का सवाल नहीं, जैसा कि कहा गया कि साहित्य जो है वह जीवन के अनुभव की पुनर्रचना होती है, तो पुनर्रचना करने का जतन दीर्घ नारायण जी ने किया है, क्योंकि जो समाज जो विचार रचते हैं, जो उनका यह कोरोना कैबिनेट है वो कोरोना कैबिनेट कोई वास्तविक जीवन में आपको नहीं मिलेगी, लेकिन आदर्शीकृत पुनर्रचना है जिसमें लेखक के पास अपने आइडियाज है और उस आइडियाज को वह रखना चाहता है।
इस उपन्यास में विविधता है, इसमें ऊर्जा है, उमीद है। मुझे लगता है इस थीम को पहली बार किसी ने इतने बृहद स्तर पर इतने व्यापक पैमाने पर इसे रचा और जो युवा कैबिनेट है उसके किरदार है यूटोपिया का जो कॉन्सेप्ट है, एक लेखक की ताकत यह होती है कि यूटोपिया को भी रियल बना दे, बिना यूटोपिया के कोई कृति बड़ी कृति नहीं बनती, दीर्घ नारायण जी की कृति इस मायने में श्रेष्ठ है कि यहां जो युवा कैबिनेट है वो एक यूटोपिया है और वो अटेंप्ट करते हैं यूटोपिया के निर्माण का। लेकिन इस कृति की जो सीमा है कि उस यूटोपिया को रियलिस्टिक नहीं बना पाते हैं। लेकिन दीर्घ नारायण जी ने उसको एकदम समसामयिक तक पहुंचाया है, जैसे कि जब हंसामल जो बहुत बड़े उद्योगपति, वह जैसे ही कोरोना कैबिनेट वाले बच्चों की मदद करते हैं तो पता चला कि उनके यहां छापा पड़ जाता है, जो उस दौर में नहीं था लेकिन कोंटेम्पोररी टाइम में जो है वो है! तो ये उपन्यास समय को पार भी कर जाता है, कई बार पुराने समय को भी पार कर जाता है, नए समय में पहुच जाता है और कई नए समय की तमाम वास्तविकता को उस दौर के यथार्थ से चश्प करा देता है।
जाहिर है कि इनका पहला उपन्यास है और पहले उपन्यास में यही एक बड़ी बात है कि इतने विस्तार से इन्होंने और इतने नाजुक विषय को जिस पर पूरा जोखिम था कि उसके समसामयिकता बोध से कैसे बचें कैसे उसको पार किया जाए और कैसे उसे उपन्यास बनाया जाए, तो इन्होंने बनाया और बहुत ही गहन तरीके से रचा, इतने किरदार रचे, इसमें किस्सागोई है, आप पढ़ते चले जाइए कहीं कोई अमूर्त नहीं है, चीज स्पष्ट तरीके से और वो घटनाएं भी जैसे चाहे वो त्रिशूल लेकर आते हैं वो घटना हो या अस्पताल की जो घटना हो या कहीं का भी, इसमें जो विजुअल्स मिलते हैं ये इनकी बहुत बड़ी सफलता है कि इनके जो अनुभव हैं उनको उपन्यास में विजुअल में रूपांतरित कर सके हैं। उनको मैं फिर से मुबारकबाद देता हूं, उमीद करता हूं कि अगला उपन्यास और शानदार होगा।
लखनऊ, उत्तरप्रदेश