राम बाबू से मेरी मुलाकात इत्तफाकन हुई कही जाएगी। मैं एक -दो हफ्ते के लिए इस छोटे से पहाड़ी शहर में आया हुआ था। होटल की बजाय अपने एक मित्र के घर टिका हुआ था। वैसे तो मेरा यह दोस्त समय निकाल कर साथ होने का प्रयास करता ताकि मैं अकेलापन नहीं महसूस करूँ। मगर नौकरी और पारिवारिक झमेलों के बीच उसके लिए रोज समय निकालना मुमकिन नहीं था… और न मैं ऐसा चाहता था, सो मना कप दिया। सवेरे मैं नाश्ता-पानी करने के बाद, डायरी, कैमरा और मोबाइल आदि लेकर खुद ही निकल पड़ता। शहर के जिस-तिस हिस्से में घूमता, तस्वीरें उतारता… आसपास के लोगों से बातचीत करता और डिटेल्स जमा करता।
…थक जाता तो कहीं सुस्ता कर खाना-पानी करता। दफ्तर से फोन आता, तो एडीटर से बात करता… लोकल अखबार पढ़ता …फिर चाय -सिगरेट के बाद शुरू हो जाता.. शहर क्या था… किसी यक्ष्माग्रस्त मरीज सा दबा – सिकुड़ा …काँखता…खाँसता…पुरानी पथरीली सड़कें…कुछ बदरंग दुकानें… दो-चार फैक्ट्रियाँ ….पुरानी शैली के घर-मकान… प्राचीन काल के बचे-खुचे खण्डहर…मंदिर और गढ़ी… मेरा संबंध इन्हीं कलाओं के अध्ययन से था ताकि मैं इतिहास और स्मृति की तह में जा सकूँ। एक अजीब प्रकार का तनाव और दुश्वारी थी… जो अब मैं काम के बीच महसूस कर रहा था। एडीटर लगातार मुझे फोन कर रहा था..कभी-कभी मैं सोचता , तो एक-एक बात से मानो हजार सवाल पैदा होते। मुझे लगता मैं पत्थरों में दबे जिन्दा बुतों के बीच से चल रहा हूँ। मुझे देखकर बुझी हुई आवाजों में वे फुसफुसाते… ” हमें मुक्त करो… चलो निकालो यहाँ से… हम भी वक्त को साथ चलना चाहते हैं… तुम हमें छोड़ कर उसी तरह कहीं चले, तो नहीं जाओगे…?”
कभी-कभी मेरा दोस्त तो हैरान और परेशान हो जाता कि आखिर ऐसा क्या है इन खण्डहरों में? मैं उसे क्या समझाता, हजारों सालों की एक दुनिया, हजारों कहानियाँ, घटनाएँ, इतिहास… क्या नहीं है इन खण्डहरों में? समय ने इन्हें बेदर्दी से उजाड़ दिया है… इनकी पहचान धुँधली कर दी है… कभी कितना जीवंत और रौशन रहा होगा यह पूरा लोक…!
मैं पूरब की पहाड़ियों से निकल कर सड़क किनारे चाय पी रहा था, राम भरोसे टाइप दुकान में…यहीं राम बाबू मिले। ऐसे महापुरुष ऐसी ही जगहों पर अचनक मिलते हैं, खोजे से तो उनकी परछाईं नहीं मिलती। दुकानदार ने उन्हें चाय देने से साफ मना कर दिया था, कह रहा था झिड़क कर,” पहले पिछला हिसाब क्लियर कीजिए, नहीं तो नहीं मिलेगी चाय-बिस्किट…”
निहायत शर्मिंदगी से वे दाँत निपोड़े जा रहे थे,” सब हो जाएगा। पैसे आने दो, बहुत जल्दी मैं तुम्हारा हिसाब कर दूँगा। ला, चाय ला…”
” कह दिया नहीं, तो नहीं।”उसने उपेक्षा से भर कर कहा और दूसरे ग्राहकों की ओर चाय बढ़ाने लगा।
” मैं भागने वाला नहीं हूँ।” उन्होंने प्रतिवाद किया।
” वह तो मैं भी समझा।”दुकानदार ने व्यंग्य करते हुए कहा,” न पैसे होंगे और न आप देंगे।”
लोग बेशर्मी से हँस रहे थे। इस बीच एक अप्रत्याशित घटना घटी। छोटा लड़का राजू उन्हें चाय दे गया, पर उस खूसट अधेड़ ने लपक कर चाय छीन कर कप उड़ेल दिया और लड़के को एक चाँटा जड़ दिया,” साले! बाप की दुकान है…”
मुझे कुछ अटपटा लगा। मैंने बिगड़ कर कहा,” तुम चाय दो उन्हें… पैसे मैं दूँगा।” दुकान में सन्नाटा खिच गया। मैं कुछ दर कसे रहा अपने को,” इतना जंगली व्यवहार करते हो? नहीं, देना है, नहीं दो, चाय फेंकी क्यों?”
उसने पैंतरा बदल कर कहा,”साब पुराना ग्राहक हैं, इसलिए थोड़ा हँसी- मजाक चलता है… वैसे हैं बहुत फेमस आदमी….”
लोगों ने भी गिरगिट की तरह रंग बदल लिया। राम बाबू तो जैसे एक कप चाय में निहाल हो गए। चाय पीने के बाद बातचीत होने लगी।उन्होंने नाम-पता पूछने के बाद कहा,”… तो आप जर्नलिस्ट हैं?”
” जी।” मैंने संक्षेप में सब कुछ बताया और कहा,” आप पुराने शहरी हैं… आज आप मेरी मदद कर दें, तो अच्छा रहा…” मेरी व्यावहारिक बुद्धि सक्रिय हो गयी या मन के किसी कोने से अनजाने यह अचेतन -राग फूटा। बातचीत और लिबास से मुझे वे प्रभावित कर रहे थे। लगता था जैसे दैव-दुर्योग से उनकी परिस्थितियाँ कुछ मुश्किल हो गयी होंगी।
हम लोग एक पहाड़ी किले की तरफ बढ़ रहे थे। मैंने इधर-उधर की बातें करते हुए पूछा,” वैसे आप करते क्या थे?”
उन्हें शायद इसी प्रश्न का इन्तजार था। लगा, अब वे अपनी असफलता की लम्बी दास्तान कहेंगे, पर यह क्या… उन्होंने जो कुछ बताया और जिस तरीके से बताया, उससे मेरे मन में क्षोभ हो आया। मैं समझ रहा था कि वे इसी शहर के होंगे…पत्नी बीमार होगी और लड़की की शादी की चिंता सता रही होगी… पोंशन में कुछ लफड़ा चल रहा होगा…
… पर उनसे पता चला वे किसी दूसरे प्रदेश के हैं। जिला-जबार दूसरा है उनका। गाँव में अच्छी-खासी जमीन-जायदाद है बल्कि कहा जाए थी। जब उधर गए ही नहीं लौट कर तो क्या कहा जाए। उन दिनों काॅलेज में पढ़ते थे। अचानक क्या हुआ कि उनके जीवन में एक तूफान उठा(नहीं उन्होंने कहा था कि महत्वपूर्ण मोड़ आया) और उन्होंने अपने को एक अभियान पर लगा पाया।आज जो लोगों में धर्म , संस्कृति और जाति के प्रति लोगों में इतनी जागरुकता देखी जा रही है, उनके पीछे उन जैसे लोगों का ही त्याग और बलिदान है- ” समस्त विश्व धर्म-चक्र परिवर्त्तन का यह लक्ष्य लाखों-लाख कोटि योनियों का अकेला मुक्ति मार्ग है।” उनको शब्दों से दर्प और अभिमान के स्फुल्लिंग झड़ रहे थे, जैसे समस्त ग्रह-नक्षत्र और तारा-मंडल उनके दिव्य भाल पर आकर टिक गए हों…
” और अब?” मैंने चेन पुलिंग की।
” अब थक गए हैं…” किंचित स्वर में उतार आया।
” तो बाल-बच्चे तो होंगे?”
” नहीं जी।” राम बाबू ने मुस्कूरा कर कहा।
” तो आपने शादी नहीं की?
” नहीं भाई।”
हम पहाड़ी पर चढ़ रहे थे, जोर ज्यादा लग रहा था। थकान हो रही थी। हाँफते हुए बोले,” फुर्सत ही नहीं मिली।काॅलेज में एक लड़की के प्रति आकर्षण था, लेकिन बाद में तुच्छ लगा।”
मैं चौंका। मन हुआ कि कहूँ,” किसी का प्रेम तुच्छ नहीं होता। इसका मलाल तो जरूर रहा होगा। अब आप महानता-बोध से अपनी आत्मा के कष्ट को कितना भी छिपाओ, पर छिपना वाला नहीं। मैंने कितने कार्यकर्त्ताओं, काॅमरेडों, फ्रीलांसरों,साधु और महात्माओं को पछताते और रोते पाया है।उन्हें आखिर में इस बात का अहसास होता है कि किसी विचारधारा के चक्कर में पड़ कर उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी तबाह कर ली… वहाँ कम्यून में कौन होता है देखने वाला…सब बोझ समझते हौं आप जैसों को…” मगर संभाल गया अपने आवेग को, लगा कुछ भी हो अपनी आत्मा के एकांत में इस बेघर-बार जिंदगी के बारे में कुछ न कुछ जरूर सोचते होंगे!
… काफी देर तक रामबाबू के साथ खण्डहरों में दम तोड़ती कलाओं… बीते जमाने के सपनों… इतिहास की स्मृतियों और वर्त्तमान की उदासियों के बीच कैमरा फ्लैश करता रहा… रामबाबू ने समय के झरोखों से झाँकती कई कहानियों का उल्लेख किया… कई छूट गए तथ्यों की ओर इशारा किया… और बताया कि इतिहास हारे हुए लोगों के प्रति न्याय नहीं करता… वे लगातार कुछ न कुछ हिंदी और अँग्रेजी में बोले जा रहे थे, जैसे शहर की जन्म-पत्री कोई उनके हाथ में देकर चला गया हो। भाषा पर असाधारण अधिकार था, जो उनकी दीन-हीन जीवन से मेल नहीं खाता था।एक खंडहरनुमा जगह में हर तरफ भग्न मूर्त्तियों की बेतरतीब दुनिया थी, जिसे देख कर लगता था किसी ने बड़ी बेदर्दी से इन्हें उजाड़ा है। एक जगह एक स्त्री की असाधारण रूप से कमनीय मूर्त्ति का ऊपरी हिस्सा तोड़ दिया गया था। मैंने रुक कर कई ऐंगिल से उसकी तस्वीरें उतारीं। जितनी बार कैमरे की फ्लैश लाइट चमकी मैं दिव्य सम्मोहन से भर गया… काश! कोई अलौकिक शक्ति वाला कलाकार इसे मुकम्मल तस्वीर में बदल देता… मेरा वश चलता तो मैं इसे उठाकर अपने साथ ले जाता, पर कई अधूरी इच्छाओं को पूरी कर पाने की ख्वाहिशें हमेशा मुमकिन नहीं होतीं…. हम वैसा सिर्फ सोच कर रह जाते हैं….अचानक मैंने राम बाबू से पूछा,” इस खंडित मूर्त्ति को देख कर क्या भाव आ रहे हैं आपके मन में…”
” मेरे मन में क्या आएगा?” उन्होंने उच्छिष्ट चित्त से कहा,” किसी खंडित मूर्त्ति को देखने से अपशगुन होता है….”
” यह आप क्या कह रहे हैं ?” मैंने अचरज से कहा,” किसी आततायी ने इन्हें तोड़ दिया … इसमें इनका क्या कुसूर है?”
” खंडित मूर्त्ति की पूजा नहीं होती । ” राम बाबू ने अपना ज्ञान बघाड़ा,” ऐसा शास्त्र कहता है…”
“क्या यह आपको किसी इष्टदेवी की मूर्त्ति लगती है?”
” नहीं… यह किसी कमनीय स्त्री की मूर्त्ति है… संभवत: यक्षिणी की..” उन्होंने कुछ सोचकर कहा,” पर खंडित मूर्ति से प्रेम या लगाव भी निषिद्ध है…”
” यह भी किसी शास्त्र में लिखा है?” मैंने व्यंग्य से कहा।
” नहीं, यह लोक सम्मत है…” वे मुस्कूराए,” इनकी स्मृति से दुख-दर्द ही बढ़ेगा जीवन में….”
” ऐसे ही कौन से सुख हैं जीवन में….” मेरी आह सी निकल गयी उनकी बातों से। सचमुच हमने कैसे -कैसे पूर्वग्रह पाल रक्खे हैं अपने भीतर… यह कटुता इन बेकुसूर मूर्त्तियों के प्रति क्यों?… मैं राम बाबू के नजरिये से सहमत नहीं पा रहा था बल्कि खुद को अज्ञात आकुल संवेदनों से घिरा हुआ महसूस कर रहा था और लगातार फोटो सूट कर रहा था। राम बाबू उकता रहे थे उनके हिसाब से मैं यहाँ आकर नास्टेल्जिक हो गया था। आखिर हम बाहर निकले।
सूरज बादलों की ओट से कहीं बहुत दूर लाल भर रह गया था। उसकी तपिश ठंढी पड़ने लगी थी। परछाइयाँ लम्बी होने लगी थीं।। परिंदे वापसी की उड़ान भर रहे थे। तिलस्मी धुँधलका घिर रहा था। हम लोग एक पहाड़ी टीले पर आकर बैठ गए।
मैंने अपना थैला खोला। खाने-पीने की कुछ रेडीमेड चीजों के साथ बीयर की बोतल निकाली।मेरा काम राम बाबू के सहयोग से लगभग पूरा हो चुका था।मैं प्लास्टिक के गिलास में ढालने लगा,” लीजिए थकान मिटाइए।”
” नहीं, मैं शराब नहीं पीता..” वे एकदम से बिदक गए, जैसे तेज जहरीली चीज हो, जिसे छूकर वे भ्रष्ट हो जाते।
मुझे फिर उनके स्वभाव पर हँसी आयी। मन हुआ कहूँ,” अगर शराब हेय और हानिकर है, तो बीड़ी क्या है, जो वे लगातार धूक रहे हैं…” पर छोड़ दिया।
” लीजिए नमकीन और बिस्किट ही लीजिए।” मैंने ससम्मान उनकी ओर बढ़ाते हुए एक अप्रत्याशित सवाल किया,” तो अब आप करेंगे क्या… मेरा मतलब है आजीविका के लिए कुछ तो करना होगा?”
” कहीं इस्कूल-उस्कूल में रखवा देंगे।” उन्होंने टालते हुए कहा और फिर कहीं खो गए।
मैंने उनके इस अलक्षित लोक के पट को खोलते हुए कहा, ” तो यही है आप के किये का प्रतिदान? लोग ऊँची कुर्सी तोड़ें और आप…?”
” क्या मतलब है आपका?” वे अकबकाए।
” आपने खुद के साथ धोखा किया है। अपनी आत्मा के साथ अन्याय….शायद इस सदी का सबसे बड़ा अपराध…” मैंने गिलास खाली करते हुए कहा,” जिंदगी पान-फूल या परसाद नहीं, कि किसी विचार, संस्था या शिविर के चरणों में चढ़ा दिया जाए… कि ऊपर लोग मजा करें, सिंहासन बत्तीसी पर झूलें और नीचे आप एक कप चाय के लिए थेथरई करें।”
” ऐं … क्या बोल रहे हैं आप?” राम बाबू बौखलाए।
” कैसा उत्थान? कैसा उत्सर्ग? कैसा परिवर्त्तन? कैसा प्रचार-प्रसार? कौन सा मीशन?”मेरे अंदर कुछ विस्फोट कर गया था,” आप गलत राह पर चलते गए… कभी पलट कर आत्म-निरीक्षण तो करते… आपकी जिंदगी का अपने लिए मतलब? यह समय नहीं है कि आप शुतुरमुर्ग बनें ” सचमुच मेरी साँस तेज हो गयी थी।
राम बाबू असहज हो गए। मुझे लगा था आपसी बातचीत के इसी सबसे संवेदनशील मोड़ पर हम उनके वहम को मार गिराएँगे…. इस तरह के सम्मोहन और स्वांग में भरम कर न जाने कितने लोग अपनी आत्मा की राह भूल जाते है। मुझे उम्मीद थी कि इस अचानक के विपरीत आघात से वे टूट कर कहेंगे,” हाँ प्रकाश बाबू! मेरी आँखें खुल गयीं।”
लेकिन नहीं, सख्त लहजे में उन्होंने कहा,” यह आपका सोचना हो सकता है। आप लोग प्रोफेशनल लोग हैं, तो सोचेंगे भी उसी तरह। ” उनके चेहरे पर अज्ञात किस्म की अज्ञानता का लुटा-पिटा दर्प अब भी था,” आज के युवाओं मे जब घर-परिवार के लिए सेक्रीफाइज करने की भावना नहीं रही, तो वह राष्ट्र-समाज और धर्म-कर्म के लिए क्या करेगा?” फिर उन्होंने व्यंग किया,” क्या मैं नहीं समझता कि आपके इस काम के पीछे महत्वाकांक्षा क्या है? अरे भाई किसी अखबार या टी.वी में इसे बेचेंगे आप…. फीचर लिख कर …. फिल्म बनाकर खूब माल बटोरेंगे, अन्यथा इतनी जहमत उठाने क्यों आते? एक बात और आप यहीं क्यों आए… यह भी बताना चाहता हूँ…. ऐसी जगहों की कमी नही है देश में, जहाँ पर प्राचीन कलाएँ दम तोड़ रही हैं… अरे यहाँ एक फिल्मी हीरो का बचपन बीता है … इसलिए हाटकेक है आपके लिए….”
” हाँ क्यो नहीं?” मैं फटा,” मुझे बेचना ही चाहिए। मैंने परिश्रम किया है, लिखा है, क्या आप चाहते हैं कि किसी इन्दर दास को दे दूँ?”
” यह इन्दर दास कौन है?” वे अकचकाए।
” वही जो आपको काम पर लगाकर खुद ऊँची कुर्सी पर बैठ कर राज-योग भोगता है।” मुझे सचमुच चढ़ रही थी।
” देखिए आप बकवास कर रहे हैं।” उनका चेहरा विद्रूप हो गया,” मैं किसी इन्दर दास को नहीं जानता।हमारे समय में नहीं था ऐसा कोई… आपके समय में है, इसलिए, धर्म, इतिहास,तप-त्याग सब बिकाऊ हैं। पैसा, प्रशंसा और पद यही लक्ष्य हो गए हैं आपके…” उनकी वाणी मारक हो उठी,” आप लोग सफलता के उजाले में भटक गए हैं… यही आपका अँधेरा है,आत्म-चिन्तन कर आप जरा सोचिए… जब सारे लोग आप जैसे हो जाएँ, तो इस संसार का उद्धार कैसे होगा? कौन से प्रतिमान बनाएँगे आप? होगा कोई मोक्ष का मार्ग किसी के लिए?” वे संस्कृत का कोई श्लोक पढ़ने लगे, जो मेरे पल्ले नहीं पड़ा।
हमारी बातचीत अब खतरनाक मोड़ पर आ गयी थी,” देखिए राम बाबू मैं भगत सिंह, खुदीराम बनने के लिए किसी को रोक नहीं रहा,… और उनके प्रति कोई अवमानना है मन में….पर एक देशना है अप्प दीपो भव, पर अंधा क्या दिखावे दूसरे को राह… रघुवीर सहाय ने एक कविता लिखी है आप जौसे लोगों के लिए… अगर कहीं मैं तोता होता तो क्या होता… तोता होता…”
” आप कहना क्या चाहते हैं?”रंज होकर कहा उन्होंने।
“यही कि आप लोगों के पास न अपना स्वचिंतन होता है और न स्व-चेतना…” मैं अब अपने रंग पर था।
” आप तो नास्तिक लगते हैं…”देर बाद एक सूत्र उनके हाथ आया।
” और आप आस्तिक!” मैंने तड़प कर कहा,” ईश्वर भी आपको क्षमा नहीं करेंगे।आप लोगों के पास अपना कोई विचार होता ही नहीं। आप अपना सब कुछ पहले ही बंधक रख देते हैं, अन्यथा भटकाव किसके जीवन में नहीं आता, गलतियाँ किससे नहीं होतीं,… मुश्किलें किसके जीवन में गतिरोध पैदा नहीं करतीं… पर लोग निकलते हैं… फिर उस अनुभव का ,उस आत्म-विचलन का सत्य समझ में आता है। आप अपनी आत्-कथा लिख कर दूसरे का मार्ग-दर्शन कर सकते थे, पर आप तो…”
राम बाबू उठ गए,” बहुत हो गया आपका प्रलाप…क्षुद्र मानव-दर्शन का उद्बोध! शराब पीकर नशे में अंट-बंट बके जा रहे हैं …आपसे भला क्या मुँह लगना… ईश्वर आपको सद्बुद्धि दें।”
” और आपको रोजी-रोटी। ” मैंने उनकी बातों को उन पर उलटाया।पर मुझे राम बाबू से घृणा नहीं, बल्कि गहरी सहानुभूति हुई। उनका तोता कुछ भी सोचने से लाचार था। वह अपनी उड़ान और गति भूल चुका था। मैं काफी देर तक उनको जाते देखता रहा। लगता वे पहाड़ी से लुढ़क रहे हैं। सूरज उनके सर पर डूब रहा था, लगातार सिमटता हुआ जब टिक्का भर रह गया, तो मैंने बोतल मारी पत्थर पर कड़ाक। मैं अपना गुस्सा निकाल रहा था, निश्चित रूप से रामबाबू पर नहीं, इन्दर दास पर, …
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नाम- संजय कुमार सिंंह
जन्म- 21 मई 1968 ई.नयानगर मधेपुरा बिहार।
शिक्षा- एम.ए. पी-एच.डी(हिन्दी)भा.वि.भागलपुर।
रचनात्मक उपलब्धियाँ-
हंस, कथादेश, वागर्थ, उद्भभावना,परिकथा,नई धारा, नया ज्ञानोदय, पाखी , साखी, पुष्पगंधा, नवनीत, आजकल, गृहलक्ष्मी , अविराम साहित्यिकी, वीणा, अहा जिंदगी, चिंतन दिशा, सोच विचार,हिंदी चेतना, हरिगंधा,पुष्पगंधा, संपर्क भाषा भारती, कथाबिंब, दोआबा, कथाक्रम, लहक, कलायात्रा, प्राची, परिंदे, अक्षरा, गगनांचल, विपाशा, हिमतरु, साहित्य अमृत, समकालीन अभिव्यक्ति, मधुराक्षर , प्रणाम पर्यटन, परती पलार, नया, मधुमती, विचार वीथी, संवदिया, साहित्य कलश, रचना उत्सव, दि अण्डरलाइन, हिन्दुस्तानी जबान, सृजन सरोकार, सृजन लोक, नया साहित्य निबंध, पाठ, किस्सा, किस्सा कोताह, नवल, उत्तर प्रदेश , प्रणाम पर्यटन, अतुल्य भारत, ककसाड़ , एक और अंतरीप, गृहलक्ष्मी, अलख, नया, भाग्य दर्पण, अग्रिमान, हस्ताक्षर, नव किरण, आलोक पर्व, लोकमत, शब्दिता, दूसरा मत, उदंती, हाशिये की आवाज, काव्य-प्रहर, नव निकष, समय सुरभि अनंत, हाॅट लाइन, हिमप्रस्थ, अतुल्य भारत ,पुरवाई, गौरवशाली भारत, स्वाधीनता, रचना उत्सव, प्रखर गूँज, अभिनव इमरोज, साहित्यगंधा, हिमप्रस्थ,शोध-सृजन, पश्यंती, वर्त्तमान साहित्य, कहन, गूंज, संवेद, पल,प्रतिपल, कला, वस्तुत: उमा, अर्य संदेश, गूँज, सरोकार, द न्यूज आसपास, कवि कुंभ, जनपथ,अपरिहार्य , मानवी, अलख, साहित्य समीर दस्तक, सरस्वती सुमन, हिमतरु, हिमालिनी, अंग चम्पा, हस्ताक्षर, मुक्तांचल, साहित्य यात्रा, विश्वगाथा ,विश्वा, शीतल वाणी, अनामिका, वेणु, जनतरंग , किताब , चिंतन-सृजन, उदंती, स्पर्श समकालीन, सुसंभाव्य, साहित्यनामा, हिमाचल साहित्य दर्पण, हम हिन्दुस्तानी, दैनिक हिन्दुस्तान, इन्दौर समाचार, मालवा हेराल्ड, कोलफील्ड मिरर, नई बात, जनसत्ता, प्रभात खबर आदि पत्र- पत्रिकाओं में कहानियाँ,कविताएँ,आलेख व समीक्षाएँ प्रकाशित।
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3 लाल बेहाल माटी (कहानी-संग्रह) अधिकरण प्रकाशन दिल्ली।
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9 आलिया की कविता का सच(कहानी-संग्रह)अधिकरण प्रकाशन दिल्ली।
10 लिखते नहीं तो क्या करते-(कविता-संग्रह) अधिकरण प्रकाशन
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12सपने में भी नहीं खा सका खीर वह (उपन्यास)
13- कास के फूल ( संस्मरण)वही
14कैसे रहें अबोल( दोहा-संग्रह) यश प्रकाशन दिल्ली
15धन्यवाद-( कविता संग्रह) नोवेल्टी प्रकाशन पटना।
16वहाँ तक कोई रास्ता नहीं जाता-(कविता-संग्रह)अधिकरण प्रकाशन दिल्ली।
17अँखुआती है फिर भी जिंदगी (काव्य-संग्रह) सृजन लोक प्रकाशन नई दिल्ली।
18साहिब के नाम (मुक्तक) अधिकरण प्रकाशन दिल्ली।
19समकालीन कहानियों का पाठ-भेद( आलोचना की पुस्तक)यश प्रकाशन दिल्ली।
20 कुछ विचार और कुछ प्रतिक्रियाएँ(आलोचना) अधिकरण प्रकाशन दिल्ली।
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