चित्रा माली
युद्ध के विषय में महात्मा गांधी ने कहा था “जब तक युद्ध के कारणों को नहीं समझा जाएगा और उनको जड़ से नष्ट नहीं किया जाएगा तब तक युद्ध को रोकने के सारे प्रयास व्यर्थ सिद्ध होंगे । क्या आधुनिक युद्धों का प्रमुख कारण दुनिया की तथाकथित दुर्बल प्रजातियों के शोषण के लिए मची अमानवीय होड़ नहीं है” ?1 दो या दो से अधिक राष्ट्रों के बीच सशस्त्र सेनाओं के संघर्ष को युद्ध कहा जाता है । प्रथम विश्वयुद्ध के कारणों का अध्ययन प्रोफेसर सिडनी बी.फे ने किया था और वे गुप्त संधियों की व्यवस्था को युद्ध का मूल कारण मानते है और इसके अतिरिक्त राष्ट्रवाद, सैनिकवाद,आर्थिक साम्राज्यवाद तथा समाचार पत्र प्रकाशन को भी युद्ध के कारणों में शामिल करते हैं। टाल ए. टर्नर अपनी किताब “The Causes of War and the New Revolution” में युद्ध के 41 कारणों का उल्लेख करते हैं जिन्हें वे चार भागों में विभाजित करते हैं । आर्थिक,धार्मिक,भावनात्मक, राजवंश संबंधी कारण। स्टीवेन जे.रोजन तथा वाल्टर एस.जोन्स ने भी अपनी किताब “The Logic of International Relations” में बहुत ही तार्किक और विस्तृत रूप से युद्ध के बारह कारणों का वर्णन किया है जिन्हें “Twelve Theories of Causes of War” के नाम से जाना जाता है । विभिन्न विद्वानों ने युद्ध के कारणों की पड़ताल अलग अलग तरीके से की है जो काफी हद तक सही भी साबित होती हैं । स्टीड ने युद्ध के कारणों में सबसे प्रमुख ‘भय’ को माना है ।2 जिसकी पुष्टि कई सामाजिक वैज्ञानिकों के द्वारा भी की गई है,असुरक्षा की भावना ही मनुष्य और राष्ट्रों को हिंसा करने के लिए बाध्य करती है ।
एरिक फ्रॉम का मानना है कि जब हम मानवीय प्रवृत्ति को युद्ध के लिए जिम्मेदार मानते हैं तो सामाजिक परिस्थितियों और महत्वकांक्षी व्यक्तियों और निहित स्वार्थों की अनदेखी कर रहे होते हैं । अधिकतर युद्ध से लेकर महायुद्धों तक आर्थिक स्वार्थो और हमारे उद्योगपतियों और राजनीतिक व सैनिक नेतृत्व की आकांक्षा से भी हुए हैं । स्वार्थ केवल वैयक्तिक ही नहीं होते है वह सामूहिक होकर एक प्रकार के राष्ट्रीय या जातीय अथवा किसी प्रकार की मतवादी आत्मरति में बदल जाते हैं ।3 इस प्रक्रिया को एम. एन. राय ने सुपर ईगो कहा है जिसमें व्यक्ति अपनी निजी अस्मिता और उसके साथ निजी विवेक का विलय कर देता है और परिणामस्वरूप राष्ट्रवाद, अंध आक्रामकता का विस्फोट,सांप्रदायिकता और सैनिकवाद के रूप में परिलक्षित होता है ।4 युद्धों का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं के द्वारा यह निष्कर्ष निकाला गया है कि सभ्य होते चले जाने के साथ-साथ मानव-इतिहास में युद्धों की संख्या क्रमशः बढ़ती गई है । जबकि हमारे सभ्यता के विकास के साथ साथ युद्धों की संख्या में कमी होनी चाहिए थी ।
युद्धों की पृष्ठभूमि में तकनीकी-आर्थिक दबावों व स्वार्थों की आवश्यकताएं सभी के सामने हैं । हिंसा का सबसे भयानक रूप युद्ध ही है । दो विश्वयुद्धों की महाविभिषिका से यह सिद्ध हो चुका है कि मानव का कल्याण युद्ध में न होकर शांति में ही निहित है । जब शांति को परिभाषित किया जाता है तो “युद्ध के अभाव को ही शांति की संज्ञा दी जाती है” यह शांति की अपूर्ण परिभाषा हो सकती है लेकिन सामान्य रूप से शांति की समझ इसी आधार पर विकसित होती है । ‘शांति’ की अवधारणा अपने आप में एक विस्तृत अवधारणा है जिसके विभिन्न आयाम हैं । शांति की अवधारणा के रूप में “शांति एक सामाजिक एवं सांस्कृतिक घटना है, जो कि सामाजिक हित और विश्व के हितों को प्रदर्शित करती है । युद्ध और शांति शब्द विलोमार्थक शब्द है जिसमें शांति स्त्रीयोचित है तो युद्ध पुरुषोचित शब्द है ।
युद्ध पर बात आंद्रेई दिमित्रीविच सखारोव के बिना अधूरी ही मानी जायेगी । सखारोव को सोवियत हाइड्रोजन बम का जनक भी कहा जाता है । सखारोव प्रसिद्ध परमाणु भौतिकशास्त्री और मानवाधिकार समर्थक थे । सखारोव आरंभ से ही नाभिकीय हथियारों की होड़ और नाभिकीय ध्रुवीकरण के प्रति सजग रहे और रूस की आवाम और नीति निर्माताओं को इसके खतरों के प्रति आगाह करते रहे । 1966-67 में सखारोव ने स्टालिन की पुरानी नीतियों को लागू करने का विरोध किया और नागरिक स्वतंत्रता पर जोर दिया । 1968 में न्यूयॉर्क टाइम्स में उनका लेख रिफ्लेक्शंस ऑफ़ प्रोग्रेस,पीसफुल को एक्सिसटेंस एंड इंटेलेक्चुअल फ्रीडम,जिसमें उन्होंने नागरिक स्वतंत्रता, पूर्व पश्चिम सहयोग,हथियारों की प्रतिस्पर्धा को खत्म करने की पैरवी की थी साथ ही युद्ध के खतरों के प्रति लोगों को सजग भी किया था । इस लेख के प्रकाशन के बाद सखारोव को रूस के सभी वैज्ञानिक शोधों से हटा दिया गया था। इसके अतिरिक्त उन्हें मास्को से गोर्की नामक स्थान पर निर्वासित भी कर दिया गया था जहाँ उन्हें किसी से भी मिलने की अनुमति नहीं थी ।
सोवियत संघ की राजनीति में गोर्बाच्योव के आने के बाद तथा सखारोव के सोवियत संसद में चुने जाने के बाद उन्होंने नए संविधान के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । अपने कार्यालय में उन्होंने निःशस्त्रीकरण, राजनीतिक कैदियों के लिए एमनेस्टी इंटरनेशनल, प्रजातीय व नस्लीय विवादों के शांतिपूर्ण समाधान तथा सत्ता के मुख्य केंद्रों की शक्तियों को सीमित करने पर लगातार जोर दिया । सखारोव को नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया और यह पुरस्कार उन्हें आणविक निःशस्त्रीकरण एवं मानवाधिकारों के हनन की आवाज को मुखर करने के लिए प्रदान किया गया था । एक वैज्ञानिक होने के नाते उनका अभिमत था कि “विज्ञान तर्क के आधार पर संचालित है, अतः लोकतंत्र में भी वस्तुनिष्ठ सत्य पर वैज्ञानिक प्रक्रिया के ज़रिए पहुंचा जा सकता है ।”5
युद्ध का नकार सर्वप्रथम मोहिस्ट दार्शनिक स्कूल के द्वारा किया गया । बावजूद इसके कि वे युद्धरत पॉलिटिकल समय में रहते थे और किलेबंदी के विज्ञान को विकसित कर रहे थे । 20वीं शताब्दी में युद्ध के नकार और युद्ध की विभीषिका के खतरों को खत्म करने के दुखोबोर्स (विश्व शांति के लिए कार्य करने वाला एक संप्रदाय) के द्वारा नग्न होकर सिलसिलेवार प्रदर्शन किए गए । जिससे अधिक लोगों को आकर्षित किया जा सके तथा युद्ध की विभीषिका से रू ब रू करवाया जा सके । यह नग्न प्रदर्शन एक रणनीति के तहत किए गए । जिनमें आधुनिक नारों का समावेश किया गया । जिसमें “निशस्त्रीकरण के लिए कपड़े उतारना” और “शांति के लिए नग्नता” जैसे नारों का इस्तेमाल किया गया । युद्धों को रोकने के लिए व शांति को बनाए रखने के लिए अहिंसक प्रयास महिलाओं के द्वारा अधिक किए गए हैं क्योंकि वे ही युद्धों की अधिक विक्टिम रही हैं । इनमें वूमेंस पीस पार्टी,इंटरनेशनल कमिटी ऑफ वीमेन फ़ॉर पर्मानेंट पीस ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस संदर्भ में अमेरिकी कांग्रेस की पहली महिला सदस्य जीनेट रानकिन ने अमेरिका के महायुद्धों में शामिल होने के प्रस्तावों का अकेले विरोध किया था । द्वितीय विश्वयुद्ध का विरोध करने वाली वे एकमात्र महिला थीं ।6
इसके अतिरिक्त भी महिलाओं के द्वारा युद्धों के खिलाफ अहिंसक प्रतिरोधों की एक व्यापक श्रृंखला है जो नए नए तरीकों से प्रतिकार करती आई हैं और आज भी इजरायल हमास युद्ध के खिलाफ जारी है । रूस यूक्रेन युद्ध और वर्तमान में जारी इजरायल और हमास युद्ध पर काफी कुछ युद्ध विश्लेषकों व बौद्धिकों के द्वारा लिखा जा चुका है और लगातार लिखा भी जा रहा है । जिसमें युद्ध के सभी पहलुओं और अन्य देशों पर इसके प्रभाव का उल्लेख भी किया जा रहा है । लेकिन इसमें महिलाओं और बच्चों पर युद्ध के प्रभावों पर अलग से विमर्श की दरकार है । खासकर युद्ध का प्रभाव युद्धरत देशों व उनके आस पास के देशों की महिलाओं और बच्चों पर अधिक पड़ता है । रूस यूक्रेन युद्ध जब प्रारंभ नहीं हुआ था और युद्ध की अटकलें लगाई जा रही थीं,तभी पूर्व के युद्धों की विभीषिका और महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा खासकर यौन हिंसा का जिक्र लगातार सोशल मीडिया साइटस पर किया जा रहा था,जो भयावह था । पर्यावरणीय नारीवाद ने हमेशा युद्धों का विरोध किया है । क्योंकि युद्ध पुरुषवादी और वर्चस्ववादी मानसिकता का परिचायक है ।
युद्धों में होने वाली हिंसा का शिकार सर्वाधिक महिलाएं,बच्चे व बूढ़े होते हैं । महिलाओं के द्वारा ही युद्धों का विरोध और शांति के लिए अहिंसक प्रयास किए जाते रहे हैं और साथ ही उन्होंने शांति अभियानों में सक्रिय भूमिका निभाई है तथा इन आंदोलनों का कुशल नेतृत्व भी किया है । युद्धों पर सर्वाधिक फिल्में अमेरिका और रूस में बनी है । जिसमें प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध की हर घटना को दर्ज किया गया है । यूरोप की एक एक जगह में युद्ध की दास्तान है। बच्चे किसी भी देश का भविष्य होते हैं और अगर भावी भविष्य को उज्ज्वल देखना चाहते हैं तो बच्चों को गरिमामय,सम्मानपूर्ण और स्वतंत्रतापूर्वक विकास के अवसर प्रदान किए जाने आवश्यक है । दो विश्व युद्धों की विभीषिका के बाद मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा 10 दिसंबर 1948 में की गई लेकिन इसके भी पूर्व 1924 में राष्ट्र संघ ने बाल अधिकारों की घोषणा जारी की जिससे देश के भविष्य को संरक्षित संवर्धित किया जा सके । संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अंतर्गत भी संयुक्त राष्ट्र संघ ने विशेष हिदायत दी है कि “बचपन पर विशेष ध्यान और सहायता की आवश्यकता है । बच्चों के विकास और खुशहाली के लिए उसे आवश्यक संरक्षण और सहायता मिलनी चाहिए जिससे वह समाज में अपनी जिम्मेदारी पूर्ण रूप से निभा सकें”। बच्चों को समाज में अपने विशिष्ट व्यक्तित्व के साथ जीने के लिए तैयार किया जाना चाहिए और उनका पालन – पोषण संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा – पत्र के आदर्शों की भावना शांति,सहिष्णुता, स्वतंत्रता, समानता और परस्पर एकता की भावना के अनुरूप होना चाहिए ।
मानवाधिकारों के घोषणा – पत्र के अनुच्छेद 24 में प्रत्येक बच्चे को “नस्ल,रंग,लिंग,भाषा,धर्म,राष्ट्रीय या सामाजिक मूल,संपत्ति या जन्म पर आधारित किसी भी तरह के भेदभाव के बिना अपने परिवार,समाज और राज्य से संरक्षण के ऐसे साधन प्राप्त करने के अधिकार को मान्यता दी गई है जो उसकी नाबालिग हैसियत के अनुसार आवश्यक है । बच्चे के नाम,पंजीकरण और राष्ट्रीयता प्राप्त करने के अधिकार को भी इस अनुच्छेद में मान्यता दी गई है । बच्चे की देखरेख और शिक्षा संबंधी अधिकार उसके अभिभावकों को दिए गए हैं ”।7
1959 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी बाल अधिकारों की घोषणा की । नागरिक और राजनीतिक अधिकारों की अंतरराष्ट्रीय प्रसंविदा 1966 में (अनुच्छेद 23 व 24 में) तथा आर्थिक,सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की अंतरराष्ट्रीय प्रसंविदा 1966 के (अनुच्छेद 10) में भी बच्चों के कल्याण से जुड़ी विशिष्ट संस्थाओं और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से संबंधित विधानों और प्रपत्रों को मान्यता प्रदान की गई है । तदुपरांत 20 नवंबर 1989 में बाल अधिकारों का अंतरराष्ट्रीय अभिसमय (कन्वेंशन) हुआ तथा उसकी सिफारिशों को 1990 में लागू कर दिया गया । 26 जनवरी 1990 में सत्र के पहले ही दिन 61 राष्ट्रों ने इस बाल अधिकार के अंतरराष्ट्रीय समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए थे । वर्तमान में इस अंतरराष्ट्रीय समझौते पर विश्व के 193 राष्ट्रों की सरकारों ने हस्ताक्षर कर दिए हैं । बाल अधिकारों के अंतरराष्ट्रीय अभिसमय में 54 अनुच्छेद हैं जिनमें विविध प्रकार के प्रावधानों को शामिल किया गया है । बाल अधिकारों के अंतरराष्ट्रीय अभिसमय में बच्चों की सुरक्षा पर अधिक बल दिया गया है । “शारीरिक तथा मानसिक रूप से अपरिपक्व होने के कारण, बच्चों की सुरक्षा के लिए विशेष उपायों और देखभाल की आवश्यकता है । इसमें जन्म से पूर्व तथा बाद में भी समुचित कानूनी संरक्षण प्राप्त होना चाहिए”।8 बाल अधिकारों के अंतरराष्ट्रीय अभिसमय में सर्वप्रथम बच्चा किसे माना जाए उसकी उम्र क्या हो इस पर काफी विचार विमर्श के बाद तथा विभिन्न देशों में आंशिक विधिक योग्यता के बाबजूद मानवाधिकारों की दृष्टि से 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति को बच्चा/ बालक माना जाएगा । इसी के साथ यह भी तय हुआ कि बाल – अधिकार में प्रत्येक अधिकार की समान हैसियत होगी और किसी एक अधिकार के नाम पर दूसरे किसी अधिकार का अतिक्रमण नहीं किया जा सकेगा । अभिसमय में यह भी माना गया कि बच्चा अधिकारों का सक्रिय भोक्ता है उसे परिवार की संपत्ति की तरह नहीं माना जा सकता है प्रत्येक बच्चे को प्राकृतिक अधिकार के साथ जीवन के अधिकार,नागरिक,सामाजिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक अधिकारों की भी स्वीकृति प्रदान की गई है । प्रत्येक बच्चे का एक नाम और राष्ट्रीयता हो पारिवार संबंधी जानकारी हो इसका भी ध्यान रखा गया है । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ सूचना प्राप्ति का अधिकार और हानिकारक सूचनाओं से बचाव के अधिकार को भी शामिल किया गया है । सबसे महत्वपूर्ण बात इस अभिसमय की यह है कि इसमें बच्चों की निजता – प्राइवेसी के अधिकार पर भी ध्यान दिया गया है तथा उल्लेख किया गया है कि बच्चे के आत्मसम्मान और प्रतिष्ठा को क्षति नहीं पहुंचाई जा सकती है । बच्चे के विकास के अधिकार में शिक्षा,मनोरंजन, खेलों में भाग लेने व कलात्मक गतिविधियों में सहभागिता करने का और इनके साधन प्राप्त करने का तथा अपने से संबंधित न्यायिक और प्रशासनिक मामलों में भी अभिव्यक्ति का अधिकार का है । इस अधिकार के अंतर्गत ही माता-पिता के तलाक संबंधी मामलों में भी बच्चे की राय ली जाती है । इन सभी अधिकारों में प्राथमिकता, बच्चे के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य और संरक्षण को दी गई है और बीमार हो जाने पर स्वास्थ्य सुविधा पाने का भी अधिकार है । बच्चों की खरीद फरोख्त, अपहरण,व्यापार तथा स्वतंत्रता से वंचित न किए जाने सामाजिक सुरक्षा,सामाजिक बीमा और आर्थिक शोषण से मुक्ति के प्रावधान को भी शामिल किया गया हैं । किसी भी बच्चे को उसके माता पिता से जबरन अलग नहीं किया जा सकता है, अवैध रूप से कहीं भी नहीं भेजा जा सकता है तथा वापस आने पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है । इस अभिसमय के अनुच्छेद 38 में उल्लेख किया गया है कि “सशस्त्र संघर्ष की स्थिति में नागरिकों को बचाने के अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत अपने दायित्वों की पूर्ति के अनुरूप ही,समस्त सदस्य देशों को युद्ध से प्रभावित बच्चों के संरक्षण और देखभाल सुनिश्चित करने के लिए सभी आवश्यक प्रयास करेंगे” ।
इसके अतिरिक्त शरणार्थी, विकलांग, अल्पसंख्यक व आदिवासी बच्चों के लिए विशेष प्रावधान को स्वीकार किया गया है । किसी भी बच्चे को उसके अधिकारों से वंचित न किया जाए और उनके साथ किसी भी प्रकार का दुर्व्यवहार न हो इसकी जिम्मेदारी माता पिता,अभिभावक,राज्य के साथ साथ संपूर्ण मानव समाज व मानव जाति की भी है इसका अभिप्राय यह है कि अगर कोई भी बच्चा अपने अधिकारों से वंचित किया जाता है तो यह पूरे समाज की गैरजिम्मेदारी को प्रदर्शित करता है । वर्तमान में जारी इजरायल और हमास युद्ध से प्रभावित बच्चों के वीडियोज और तस्वीरों से हम उनकी स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं । बच्चों के अधिकारों का हनन कहीं न कहीं मानवता के क्षरण का भी प्रतीक है इसलिए बच्चों के अधिकारों और अधिकारों के हनन के प्रति और अधिक सजग होने की आवश्यकता है ।
अभी कुछ माह पूर्व एक फिल्म “बवाल” आयी थी । अत्यंत साधारण सी दिखने वाली यह फ़िल्म एक संदेश संप्रेषित करती है खासकर युद्ध को लेकर । फिल्म में वर्ल्ड वॉर म्यूजियम, गैस चेम्बर, नोर्मंडी,ओमाहा बीच और ऐनी फ्रैंक का घर दिखाया जाता है । ऐनी फ्रेंक महज 13 साल की लड़की है जो अपने परिवार के साथ नाजी सेना के खौफ से छुपी हुई है । वह राइटर बनना चाहती है इसलिए प्रत्येक दिन की हर घटना को डायरी में दर्ज करती रहती है । आज ऐनी फ्रेंक नहीं है लेकिन उसकी डायरी उसे आज भी जिंदा रखे हुए है । ऐनी फ्रेंक की तरह ही आज भी कई सारे बच्चे हो सकते हैं जिनके बहुत सारे सपने भी हैं उन्हें अतित की बुरी यादों के बरक्स सुनहरे भविष्य का अधिकार है और यही मानवतापूर्ण सह-अस्तित्व के लिए आवश्यक है । युद्ध में महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को गरिमा श्रीवास्तव की किताब “देह ही देश” क्रोएशिया प्रवास-डायरी है जो महज डायरी न होकर एक विस्तृत ब्यौरा है कि किस प्रकार से स्त्री देह पर युद्ध लड़े जाते हैं और जीते जाते हैं । युद्ध की स्मृतियों में घृणा और भय से भरी विरासत पीढ़ी दर पीढ़ी ट्रांसफर होती जाती है । महिलाओं और बच्चियों के साथ हुए सामूहिक बलात्कार जिसमें उनकी चीखें घोर राष्ट्रप्रेम में कहीं विलुप्त हो जाती है । उग्र राष्ट्रवाद के नाम पर होने वाले युद्धों और बलात्कारों की विभीषिकाओं के बारे में एक स्वतंत्र विमर्श की आवश्यकता है । जिससे युद्धों में महिलाओं और बच्चियों के साथ होने वाले शोषण और अत्याचारों के प्रति समाज व समाज का प्रत्येक व्यक्ति संवेदनशील हो,सचेत हो और एक सिरे से युद्ध का नकार करें । रूस और युक्रेन युद्ध में भी महिलाओं के साथ हो रही हिंसा की खबरें लगातार प्रकाशित हो रही हैं तथा इसमें छोटी उम्र के लड़के व लड़कियों के साथ भी दुर्व्यवहार किया जा रहा है । इस युद्ध के खिलाफ भी दोनों देशों की आवाम ने अहिंसक प्रतिरोध किए ताकि युद्ध को टाला जा सके ।
महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को नादिया मुराद के संस्मरण की किताब ‘द लास्ट गर्ल’ में भी महसूस किया जा सकता है । नादिया जो एक यजीदी युवती हैं जिन्हें आईएसआईएस ने कैद में रखा और उनका यौन उत्पीड़न किया लेकिन वे हिम्मत नहीं हारी और लगातार अपने लिए और अपने लोगों के लिए लड़ती रहीं । यह संस्मरण,इराक में नादिया के शांतिपूर्ण बचपन से शुरू होकर क्षति और क्रूरता और फिर जर्मनी में उनके सुरक्षित लौटने तक का सफर है । नादिया पर एलेक्जेंड्रिया बॉम्बाख ने ‘ऑन हर शोल्डर्स’ नाम की फिल्म भी बनाई है । नादिया मुराद मानवाधिकार कार्यकर्ता है और उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है इसके अतिरिक्त वक्लेव हैवल मानवाधिकार पुरस्कार व सखारोव पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है । साथ ही वे संयुक्त राष्ट्र के डिग्निटी ऑफ सरवाइवर्स ऑफ ह्यूमन ट्रैफिकिंग की पहली गुडविल एंबेसडर भी हैं । हम सिर्फ साहसिक नादिया मुराद की आपबीती को सुन पा रहे हैं लेकिन न जाने कितनी मासूम बच्चियों और महिलाओं की व्यथा,वेदना और चीखों से हम अनभिज्ञ हो कोसों दूर है ।
संदर्भ सूची :-
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2. डॉ.दुबे रमेश एवम डॉ. शर्मा हरिश्चन्द्र. (2007).अंतरराष्ट्रीय कानून. कॉलेज बुक डिपो त्रिपोलिया जयपुर. पृष्ठ क्र.376-377
3. दुबे अभय कुमार (2013). समाज विज्ञान विश्वकोश खंड – 1 . राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली.पृष्ठ क्र.306
4. आचार्य नन्दकिशोर. (2010 ). अहिंसा विश्वकोश. प्रकाशन.पृष्ठ क्र.557
5. वही .पृष्ठ क्र.695
6. वही .पृष्ठ क्र.653
7. डॉ.दुबे रमेश एवम डॉ. शर्मा हरिश्चन्द्र. (2007).अंतरराष्ट्रीय कानून. कॉलेज बुक डिपो त्रिपोलिया जयपुर. पृष्ठ क्र.346
8 .डॉ.सिंह धरम (2015).मानवाधिकार.भारत बुक सेंटर 17,अशोक मार्ग लखनऊ.पृष्ठ क्र.342
सहायक प्रोफेसर
गांधी एवम शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय क्षेत्रीय केंद्र कोलकाता