(यह लंबी कविता उस माँ की व्यथा है जिसका गर्भ तीन बार गिर गया। पहले गर्भहरण पर वह अजन्मे शिशु को उसके अपराध से मुक्त करती है। दूसरे गर्भहरण पर मृत्यु के देवता को ललकारती है और तीसरे गर्भहरण पर परमपिता को धिक्कार और श्राप देने को तत्पर हो जाती है। पहले, दूसरे एवं तीसरे गर्भहरण पर उत्तरोत्तर घोर पीड़ा में उसका मनःसंवाद।)
(1) – मैं तुम्हारी अप्रसवा माँ
तुम थे तो पुरुष ही
कपास के रेशों के भीतर स्टील से बने
अजन्मे ही लौट गए उस आलोक में
जहाँ युगों बाद वापसी करनी थी तुम्हें।
बंद आँखों से
तुम माँ के अथाह ममत्व को
रक्त में बदलते महसूस करते रहे रोज़
तुम्हें लौटना ही था तो
मेरी साँसों से, धड़कनों से, हृदय से जुड़े ही क्यों?
तुम थे तो पुरुष ही
अनंत संभावनाओं के मार्ग खोलने वाले
तुम्हारे अनगिनत पुरखे नहीं पहुँच पाये थे जहाँ।
तुम थे भी निडर
कि पृथ्वी के साथ जीते हुए
विष भी पीते तो अमृत मथते।
तुम्हारे यकायक लौटने से
निर्वात सिर्फ़ कोख में नहीं उपजा
मेरी धरती की शिराएँ भी काँप गई हैं
तुम्हें लौटना ही था तो
माँ के पास आँसुओं का समुद्र
छोड़ने की ज़रूरत नहीं थी
आधी रात में उलीचने के लिए।
तुम जन्मे ही नहीं तो
तुम्हें निष्ठुर क्या कहना
आँखें ही नहीं खोली तो
कैसे देख सकते थे
क्षत-विक्षत आत्मा के साथ
माँ की तार-तार देह।
मेरी अस्थियों से, मज्जा से
मेरे परमांश से बने थे तुम
स्वप्न नहीं थे कि टूटना ही था तुम्हें।
तुम्हारी कोमल बंद मुट्ठी में क़ैद है
तुम्हारी खिलखिलाती माँ
मेरा आकाश, मेरी धरती
तुम्हें लौटना ही था तो मेरे साथ
क्यों चले कुछ क़दम
गर्भ की अंधेरी सुरंगों में।
ईश्वर तुम्हें क्षमा करे
पृथ्वी तुम्हें फिर से धारण करे
बादल पर सवार तुम
दौड़ते, उमड़ते-घुमड़ते रहो
मेरे अजन्मे शिशु
इसलिए मैं तुम्हारी अप्रसवा माँ
तुम्हें मुक्त करती हूँ।
(2) – ओ गर्भहरते देवता
मैंने सोचा
तुम मेरी साँस लेने आये हो
मृत्यु के काले देवता
इसलिए मैं अविचलित
निर्भीक खड़ी रही
सूर्य को निस्तेज होते देखती रही
अंधेरे को गहराने दिया
कि अमावस की मध्य रात्रि में
जब तुम क्रूरतम हो जाओ
तो मेरे उज्जवल प्राण
रोशनी बनकर तुम्हारे साथ जा सके।
कोई ऋचा नहीं उच्चारी
किसी प्रार्थना को परखा नहीं मैंने
मेरी धड़कनों में मेरा अजन्मा प्राणांश
अनुप्राणित हो रहा था मेरे साथ आने
यह जीवन से बेहतर पर्याप्त था मेरे लिए।
हा! तुमने क्या षडयंत्र किया अनाचारी
अपनी मायावी कुटिल कटीली रश्मियों से
तुम मेरे गर्भ की दीवारों को नहीं भेद सकते थे
तो मेरी कोख के तटबंध तोड़ दिए
और चुरा लिया मेरा सर्वस्व प्रसव के पूर्व ही!
तुम जो शिशु-प्राण ले जा रहे हो
माँ के प्राण, ओ हृदयहीन
सिर्फ़ इसलिए कि जननी बन
मैं अमर हो जाती पीढ़ियों से पीढ़ियों तक।
तुमने छल किया है मृत्यु के देवता
ऐसा छल कि सारी मनुष्यता
तुम्हें धिक्कारती रहेगी सृष्टि के अंत तक।
(3) – कैसे परमपिता हो तुम
ओ स्वघोषित सृजन पुरुष
सृष्टि रचते-रचते ऐसा क्या होता है
कि विक्षिप्त हो जाते हो तुम।
विध्वंस करने लग जाते हो
समुद्र मथते हुए तांडव करते हो
महाविनाश घड़ते हो
सुनामी सजाते हो, भूकंप बुनते हो।
पर्वत खड़े करते हो तो
कंदराएँ, खाइयाँ और गह्वर खोद देते हो
जीवन देते हो तो मृत्यु से बाँध देते हो।
अपनी फ़ितरत के वाबस्ता
सिद्ध करना चाहते हो कि
तुम्हारी अभिव्यक्ति में बरसों-बरस रचा
यह अपूर्ण, अधूरा, आहत विश्व
तुम्हें क्षुद्र लगता है
अपने विराट अव्यक्त स्वरूप के सामने।
किसी अनुशासन से बंधे बिना तुम
सब पर थोपते हो अपना अलिखित क़ानून
जिसे कभी कोई चुनौती नहीं दे पाता।
तुम्हारे लिए कितना सरल रहा होगा
कर्म-अकर्म-दुष्कर्म का विधान कर देना
सृजन और विध्वंस को
सारहीन भाग्य से जोड़ देना
तुमने अपनी निरंकुशता का जो उपभोग किया, निरर्थक
तुम महान बने भी तो
मूल्यहीन स्वेच्छाचारी ही रहे।
मेरी कोख ने एक भ्रूण आकारा
तुम्हारे शास्त्रकार कहते हैं
अच्छे कर्म किए होंगे कुछ जो मानव रूप मिला
जो मिलता बलाएँ लेता, कहता
बच्चे भगवान का रूप होते हैं
गर्भ में भगवान का ध्यान रखना
और भी सैकड़ों बातें हैं ऐसी
पर तुमने ख़ुद ही शर्मसार कर लिया
ओ पुत्रहंता
मेरा पहला अपरिपक्व भ्रूण चुरा कर।
मुझे फिर जन्म दिया तुम्हारे नवसृजन ने
विश्वास दिया मुझे पुनः माँ बना कर
मैं अपने अस्तित्व में तुम्हें जीना चाहती थी।
इस बार मेरे अजन्मे शिशु को
गर्भ में ही समाप्त कर
जो खरबों-खरब मौतें दीं एक जन्म में मुझे
कौन-सा दंडविधान रहा होगा तुम्हारा
जो कहीं नहीं मिला मुझे!
तुम मुझे जो दे न सके थे
मुझसे कैसे छीन सकते थे उसे भला
मेरे पास था ही क्या उस एक बालिश्त देह के सिवा
माँ रहना चाहती थी मैं
नहीं बनना था मुझे किसी पुराणकथा का पात्र।
तुम्हारा भाषाशास्त्र ‘विश्वास’ को अवकलित करता गया
श्वास में, वास में और अंततः आस में
तीसरी और अंतिम बार माँ बनते हुए
मैंने उसे अपना रक्त, मज्जा, गुणधर्म सब दे दिए
धर्म दे दिया
जीवन ना दे सकी तो
मृत्यु प्रमाण पत्र के लिए
उसे नाम दे दिया, अपनी जाति दे दी
अपने देश की नागरिकता दिला दी
जीवन देने का एकाधिकार तो तुम्हारे ही पास था
जिसके ऊपर शैय्या सजाकर सो गए थे तुम,
यह मेरी पराजय नहीं थी।
वह भी चाहता था धरती पर भटकना
और बाँसुरी बजाना
अपने पूर्वजों की तरह जाना चाहता था
उत्तरी ध्रूव से अंटार्कटिका तक अपने पिता संग
उस पिता की प्रणामबद्ध बाँहों में
एक भी साँस नहीं लेने दी तुमने।
वह हरे-बैंगनी-लाल-पीले होते
उत्तरी ध्रुवीय आकाश के ऑरोरा बोरेलिस तले
रातें गुज़ारना चाहता था
मेरे पेट में चलना सीखने की
बार-बार कोशिश करते हुए।
वह पक्षियों को कंधे पर बैठा कर
उड़ना चाहता था अपना अंतरिक्ष
वह फिसलना चाहता था
बैम्फ़ और हिमालय की पर्वत शृंखलाओं पर
मानसरोवर जाने से पहले।
मैं तुम्हें यह सब क्यों कह रही हूँ
तम्हारी प्रभुताजनित इस त्रासदी पर
आँखों से मेरे आँसू तेज़ाब बनकर
भीतर दिल पर टपक रहे हैं
जहाँ मैं ममत्व उगा रही थी।
मृत्यु गुज़र गई कितनी ही बार
थपथपाते, मुस्कुराते यह कह कर
कि फिर कभी आएगी मेरे लिए
आज तो उसे सिर्फ़ गर्भ में छुपा प्राण चाहिए।
स्मृतियों के नेपथ्य में लौटते हुए
गला आकंठ ऐसे रुँधा है
आँखें ऐसी पथरा गई हैं
गुहा, योनि, नासिका, मुँह, द्वार सब
इतने संकुचित हो गए हैं
कि मेरी आत्मा वहाँ से निकल नहीं सकती
मृत्यु को क्षण-क्षण अपने भीतर जीते हुए।
तुम्हारे अहं को चुनौती नहीं दे सकती मैं
मैं तुमसे आस मांग रही थी तुमने निराशा दी
मैंने प्यार मांगा तुमने घृणा दी
तुम्हारा विधान जिसे न्याय मानता है,
नरबलि का निकृष्ट न्याय
इससे तो अन्याय ही बेहतर होता
कम से कम तुम्हें धिक्कार तो सकती थी
अन्याय के विरुद्ध।
अपने संपूर्ण संचित आवेग से
कोसना चाहती हूँ तुम्हें
पर मैं माँ रही हूँ कुछ दिन
तुम्हारे सृजन के श्रेष्ठतम साक्ष्य को जीते हुए
मैं तुम्हें श्राप भी नहीं दे सकती।
तुम आदि से पूज्य रहे हो
खरबों-खरबों लोगों के लिए
आस्थापूरित शाप देकर मैं क्या करूँगी!
तुम्हारी अवर्णनीय महासत्ता
तब भी परम ही रहेगी
ओ छद्म, कैसे परमपिता हो तुम
माँ का दर्द भी नहीं समझते।
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