सर्दियां अपने चरम पर थी । ठंड कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी । बाहर तेज और ठंडी हवाएं सन्न-सन्न करके होड़ लगाने में व्यस्त थी। सूरज की तो मैं शक्ल भी भूल गया था । चारों ओर कोहरा इतना घना था कि बगल में खड़ा व्यक्ति भी नजर ना आए । ये सारे शब्द भी इन सर्दियों को ठीक से नहीं दर्शा पा रहे थे । बस इस बात से समझ जाइए कि ये सर्दियां हाड़ पिघलाने वाली थी । और अगर इस मौसम में आप गाड़ी में बैठे हो तो फिर तो सोने पर सुहागा वाली बात होगी । इस परिस्थिति की व्याख्या कर पाना मुश्किल है क्योंकि इसे केवल महसूस किया जा सकता है । मैं यह इतने दावे से इसलिए कह सकता हूं क्योंकि इस वक्त मैं गाड़ी चला रहा हूं । हीटर चालू करने के बावजूद भी ठंड अपनी परिस्थिति दर्ज करवा रही थी । मैंने आज 2-2 स्वेटर पहन रखे थे रिया तो एक और पहनने को कह रही थी पर मैं ही बेवकूफ था जो उसकी बात नहीं सुनी और अब पछता रहा हूं । ऑफिस में अच्छा दिखने के चक्कर में आज दांत कट कटाने पढ़ रहे हैं । ठंड के कारण मुझे गाड़ी चलाने का बिल्कुल मन नहीं कर रहा था पर मजबूरी थी । हमारी कंपनी को एक बहुत बड़ी डील ऑफर की गई थी जिसकी सारी जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई थी पर अगर मैं ही ऑफिस नहीं जाऊंगा तो यह सही नहीं होगा । मैंने बगल वाली सीट पर पड़े आराम से हीटर की हवा का आनंद लेते हुए फोन को खोला । “अरे ! यह क्या 9:30 हो गए थे । लो बेटा ! अब तो तुम गए । आज बॉस पक्का तुझे ऑफिस से निकाल देंगे । टाइम 8:45 तक का है । इसके बाद जो भी आया वो फिर कभी ऑफिस में दोबारा नहीं दिखा । नहीं – नहीं ,यह नहीं हो सकता । जल्दी चल बेटा ! “मैं खुद से बातें करते- करते गाड़ी चला रहा था । कोहरा अभी भी आखों को थके हुए था पर चलना भी मजबूरी थी । धीरे-धीरे ,जैसे- तैसे ,मैं ऑफिस पहुंच गया । बाहर निकलने के लिए जैसे ही मैंने दरवाजा खोला मैं ठंड से कांपने लगा। इतनी देर तक गाड़ी में हीटर का मज़ा ले रहा था इसलिए यह ठंडी- ठंडी हवा मुझे और ज्यादा काँपने पर मजबूर कर रही थी । मैंने ठिठुरते हुए अपने कुछ जरूरी कागजातों से भरा बैग उठाया और ऑफिस की ओर बढ़ गया । मैं जल्द से जल्द ऑफिस में पहुंचना चाहता था ताकि इस हाड़ पिघलाती सर्दी से बच सकूं और तो और मुझे बहुत देर भी हो रही थी इसलिए मैं दौड़ने लगा । आउच- आउच ! जल्दी- जल्दी के चक्कर में मैं ऑफिस के मुख्य द्वार के सामने बने जीनों को तो भूल ही गया जिसके परिणाम स्वरूप मुझे पैर में चोट लग गई पर अभी मेरे पास आह या आउच करने के लिए ज्यादा समय नहीं था । मुझे बहुत ज्यादा देर हो रही थी । मैंने एक बार फिर से जीनों के ऊपर चढ़ना शुरू किया और लंगड़ाते हुए उसमें दाखिल हुआ । अंदर का माहौल चौकाने वाला था । जैसे ही मैं अंदर आया तो देखा कि सभी लोग अपने-अपने फोन चलाने में बिजी थे । कुछ लोग तो बैठे- बैठे चाय की चुस्कियों का भी मजा ले रहे थे । यह क्या ! हमारे ऑफिस में तो फोन चलाना मना है और लंच से पहले किसी को भी कुछ भी खाने की अनुमति नहीं थी । 1 मिनट , 1 मिनट कहीं मैं किसी गलत बिल्डिंग में तो नहीं घुस गया । एक बार बाहर जा कर देखता हूं । मैं जैसे ही बाहर जाने के लिए मुड़ा किसी ने मेरे कंधे पर अचानक से हाथ रख दिया । “अरे भाई ! कहां जा रहा है ?” यह आवाज कुछ जानी पहचानी थी । मैं पीछे मुड़ा तो पाया वहां पर नितिन खड़ा था । “तू यहां है मतलब मैं सही बिल्डिंग में आया हूं ।”
“हां पर तुझे ऐसा क्यों लगा कि तू गलत बिल्डिंग में आया है ? अच्छा , तो सबको मोबाइल चलाता देख और चाय की छुट्टियों का मजा लेता हुआ देख तू हैरान रह गया ना । ” उसने अंदाजा लगाया ।
“इसे कहते हैं असली दोस्त जो बिना कुछ बोले हर बात को समझ जाए । अब यह भी बता दे यह गजब कैसे हुआ वह भी बॉस के रहते ?” मैंने उससे आश्चर्यचकित होकर पूछा ।
“पहले यह बताओ तुझ से किसने कहा कि यह सब बॉस के रहते हुआ है ?” उसने मुझे एक अटपटा प्रश्न पकड़ा दिया ।
“मतलब ? ” मैंने मुंह बनाया ।
“मतलब यह कि बॉस आज ऑफिस नहीं आएंगे । “उसने उत्साहित होकर कहा ।
“क्या ? ” मैं हक्का-बक्का रह गया क्योंकि भूकंप भी उन्हें ऑफिस से छुट्टी लेने पर मजबूर नहीं कर पाता और आज…..कसम से इतनी खुशी तो मुझे स्कूल में मैथ के टीचर के ना आने पर भी नहीं होती थी । मैं बहुत खुश हो गया ।
“चल इधर आ ।” नितिन मेरा हाथ पकड़ मुझे सीधे कैंटीन में ले गया ।
“भैया दो गरम-गरम कड़क चाय बना दो ।”हम दोनों टेबल पर बैठकर चाय की चुस्कियां लेते हुए गप्पे लड़ाने लगे ।
“यार तेरी किस्मत बड़ी अच्छी है । “नितिन प्रशंसा करते हुए कहने लगा।
“देख वैसे तो तू कभी लेट नहीं होता और आज हुआ भी तो बॉस ही नहीं आए ।” उसने अपनी बात को जारी रखा ।
“नहीं, ऐसा कुछ नहीं है । मैं तो आज भी लेट नहीं होता पर पापा को बस स्टैंड छोड़ने जाना पड़ा और तू तो जानता ही है यहां से बस स्टैंड शहर के सबसे आखरी कोने में है जहां शहर खत्म होता है तो वहां दूसरी तरफ हमारा ऑफिस शहर के बीचों-बीच । ऊपर से यह घना कोहरा । अब तू ही बता मैं लेट कैसे नहीं होता । “मैंने एक स्पष्टीकरण दिया ।
“चल छोड़ ना ! आज कौन- सा बॉस आए हैं और तो और ऑफिस में कुछ काम भी नहीं है।” नितिन ने आनंदित होकर कहा ।
“क्यों ? बॉस ने कहा है ?” मैंने एक और खुशखबरी की उम्मीद की ।
“नहीं ।” नितिन ने बेपरवाह होकर कहा ।
“पर आज बौस ही नहीं है तो उन्हें कैसे पता चलेगा ? ” उसने अपनी बात को जारी रखा ।
“अरे गधे ! बॉस कल पूछ भी तो सकते हैं कि उनकी गैरमौजूदगी में हमने क्या- क्या किया ।”मैंने उसे सचेत किया ।
“हां यार ,मैं तो भूल ही गया था कि अपने बॉस किस टाइप के इंसान हैं । किसी न किसी तरीके से पता लगा ही लेंगे । चल अपन चल कर अपना काम करते हैं । बहुत हो गया आराम वैसे भी चाय भी खत्म हो गई है । “उसकी आवाज से डर साफ झलक रहा था ।
“चल !” हमने अपने- अपने कप डस्टबिन में फेंके और लिफ्ट की ओर बढ़ने लगे । तभी नितिन बोला,” अरे ! मैं तो भूल ही गया था आज तो दोनों लिफ्ट खराब हो गई थी उनमें कुछ तकनीकी प्रॉब्लम आ गई थी इसलिए आज तो सीढि़यों का ही सहारा है । ”
उसकी बात सुन मैंने अपने कदम सीढ़ियों की ओर मोड़ लिए । एक-एक करके हम जीने चढ़ने लगे । जल्दी ही हम ऊपर वाले माले पर थे । मैं अपनी सीट पर बैठ गया और अपना कंप्यूटर चालू करने ही वाला था कि तभी जितेंद्र भी वहां आ गया ।
“कितनी देर से तुम लोगों को आवाज लगा रहा हूं । पर तुम तो अपनी ही धुन में चले जा रहे थे ।” जितेंद्र हाँप रहा था । वह आकर अपनी सीट पर बैठ गया ।
” तुम हाँप क्यों रहे हो ?” मैंने पूछा ।
हम तीनों के कंप्यूटर अगल-बगल रखे थे ।इसलिए हम साथ- साथ काम किया करते थे और अच्छे दोस्त भी थे ।
“क्या बताऊं यार , एक बस शहर के बीचों-बीच पलट गई जिसकी वजह से ट्रैफिक लग गया । उसी में मैं भी फँस गया था । बड़ी मुश्किल से निकला , जैसे- तैसे ऑफिस पहुंचा तो पता चला बॉस नहीं आए । तभी तुम दोनों को ऊपर जाते हुए देखा बस तभी से तुम लोगों के पीछे दौड़ रहा हूं । ” जितेंद्र ने अपनी बात पूरी की ।
बस कहीं ये पापा वाली बस तो नहीं । नहीं- नहीं रोज शहर में हजारों बसें आती- जाती हैं उन्हीं में से कोई होगी । मुझे उससे क्या ?
“क्या सोच रहा है ?” नितिन ने मुझे हिलाया ।
” कुछ नहीं ।” इतना कहकर मैं अपने काम में व्यस्त हो गया ।
मुझे कंप्यूटर खोलें बस 15 मिनट ही गुजरे होंगे कि तभी मेरे फोन पर रिया का फोन आ गया। “हेलो , हेलो बेटा ! बेटा तुम पापा को जिस बस में बिठा कर आए थे उस बस का क्या नाम है ?” आवाज मां की थी । वह बहुत घबराई हुई लग रही थी ।
“सरस्वती । पर क्यों …” इससे पहले कि मैं अपनी बात पूरी करता मां जोर- जोर से रोने लगी । उनका रुदन सुन मैं घबरा गया ।
“हेलो- हेलो मां ! “मैंने बहुत कोशिश की पर मां बस रोए ही जा रही थी। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था ।
“हेलो !”
“हेलो रिया ! मां क्यों रो रही है ? क्या हो गया ?” रिया की आवाज जैसे ही मेरे कानों में पड़ी मैं बोल पड़ा ।
“पहले आप यह बताइए कि आप पापा जी को जिस बस मैं बिठाल कर आए थे उसका नाम क्या है ? क्या उसका नाम सरस्वती है ? ” रिया ने घबराते हुए पूछा । मानो वह मुझसे ना की उम्मीद कर रही हो ।
“हां , उसी बस में मैं पापा को बिठाल कर आया था ।” मैंने आश्वस्त करते हुए कहा पर यह क्या अब रिया भी रोने लगी ।
“क्या हुआ ? कोई मुझे कुछ बताएगा ?” मैं बहुत ज्यादा चिंतित हो गया।
जिस बस में आप पापाजी को बिठाकर कर आए हैं उसका एक्सीडेंट हो गया है । “यह कहकर वह और ज़ोर-जोर से रोने लगी । ये खबर सुन मैं अंदर तक हिल गया । मेरे हाथ से फोन छूटकर ज़मीन पर गिर गया और मैं सदमे मैं वहीं पर बैठा रह गया ।
“क्या हो गया मनीष ?” जितेंद्र ने पूछा पर मैं कुछ ना कह सका । मानो मेरे लफ्ज़ हिलना ही भूल गए हो । नितिन ने मुझे तीन- चार बार झकझोरा तब जाकर मुझे कहीं होश आया ।
“पापा- पापा -पापा ! “होश में आते ही मैं रोने लगा ।
“क्या हुआ ?” मेरी हालत देख जितेंद्र और नितिन खड़े हो गए ।
“पापा.. पापा.. पापा.. का एक एक्सीडेंट हो गया है ।” मेरे हाथ पांव कांप रहे थे ।
“क्या ?” जितेंद्र को भी एकदम शौक लगा ।
“कहीं जो बस रास्ते में पलट गई थी अंकल उसी में तो नहीं थे ?” नितिन ने पूछा था । मैं फूट-फूट कर रोने लगा ।
“हमें फौरन उस जगह के पास जाना होगा जहां पर एक्सीडेंट हुआ है । जितेंद्र तुझे तो पता है ना एक्सीडेंट कहां हुआ है । ले मेरी गाड़ी की चाबी ! तू ड्राइव कर मैं मनीष को लेकर आता हूं ।” नितिन ने जितेंद्र को गाड़ी की चाबी दे दी और हम गाड़ी की ओर बढ़ने लगे । मैंने जाने से पहले रिया को फोन लगाया और उसे मां को संभालने को कहा और उसे आश्वस्त किया कि मैं पापा के साथ ही घर लौटूंगा । हम फौरन गाड़ी में बैठ गए । जितेंद्र गाड़ी चला रहा था । नितिन और मैं पीछे बैठकर जल्दी से वहां पहुंचने के लिए इंतजार करने लगे लेकिन पूरे रास्ते मेरे आंस आ रहे थे । मेरा मन ढेरों गलत विचारों का घर बन चुका था । मैं बस एक ही बात सोचे जा रहा था कि जिनके कंधों पर बैठकर मैंने यह पूरा शहर घुमा है मैं उन्हें नहीं खो सकता पर मेरा क्या होगा अगर पापा को कुछ भी हुआ तो । नहीं- नहीं ऐसा कुछ नहीं होगा । मैं मन ही मन अपने आप से जंग लड़ रहा था जिसमें मैं हार रहा रहा था । यह लो ! हम पहुंच गए । जितेंद्र की बात सुन हम फौरन ही गाड़ी से उतर गए पर जैसे ही मैंने वहां का मंजर देखा मेरे पैरों तले जमीन ही खिसक गई । मेरे सामने खून से लथपथ घायल व्यक्ति थे । जो दर्द से कराह रहे थे तो कुछ मूर्छित पड़े थे । उनमें से मुझे अपने पिता को ढूंढना था । मैं तो लगभग गिर ही चुका था यह सब देख कर पर जितेंद्र ने मुझे संभाल लिया ।
“हिम्मत रख मेरे भाई । “नितिन ने थोड़ी धीमी आवाज में कहा । मैं और मेरे दोस्त एक-एक कर उन सभी घायल लोगों के पास से गुजर चुके थे जिन्हें अभी अस्पताल ले जाना बाकी था पर उनमें से एक भी मेरे पिता नहीं थे । मैं इधर-उधर नजरें घुमा रहा था कि तभी मुझे एक पुलिस अधिकारी दिखाई दिया जो यह सुनिश्चित कर रहा था कि एंबुलेंस सभी घायल व्यक्तियों को अस्पताल ले जाए । मैं उनके पास गया और लड़खड़ाती हुई जबान से पूछा ,”सर मेरे पापा भी इसी बस से यात्रा कर रहे थे । मैंने उन्हें सभी घायल व्यक्तियों के पास ढूंढ आया पर वह कहीं ना दिखे । मुझे लगता है शायद उन्हें हॉस्पिटल ले जाया चुका है । मैं यह जानना चाहता हूं कि यह एंबुलेंस किस हॉस्पिटल जा रही है ?”
“सिटी हॉस्पिटल !” उन्होंने गुटका थूकते हुए कहा ।
“सिटी हॉस्पिटल ! अच्छा, ठीक है ।धन्यवाद सर ।” यह कहकर मैं गाड़ी की ओर बढ़ने लगा तभी उन्होंने हमें फिर से आवाज दी, “सुनो ! अस्पताल जाने से पहले तुम उन दो लाशों के चेहरे खोल कर देख लो ।” उन्होंने इतनी बेदर्दी से कहा मानो उन्हें किसी और की भावनाओं का ध्यान ही ना हो । खुदा ना खाता अगर आज वे इस स्थिति में होते तो तब समझ में आता ।
“मनीष !” मेरे दोस्तों ने इशारे में मुझे कफ़न हटाने को कहा । मेरे हाथ कांप रहे थे । आंसू बारिश की बूंदों की भांति टपक रहे थे फिर भी मैंने हिम्मत जुटाई और कफन हटाया । “नहीं ” मैंने संतोष हरी आवाज से कहा क्योंकि वह मेरे पिता नहीं थे पर अभी एक और शव था जो मेरा इंतजार कर रहा था । मैंने प्रार्थना की कि यह कोई भी हो पर मेरे पिता ना हो । यह प्रार्थना मन में लिए मैंने जैसे ही उस कफन को धीरे से हटाया ,यह क्या उस कफन की नीचे एक औरत थी । मैं उसका चेहरा ढकने ही वाला था कि तभी एक लड़की उस शव को देखकर ज़ोर- ज़ोर से रोने लगी । “मम्मी – मम्मी ! “वह शायद उसकी मां का शव था । बेचारी ! यह सब देख मेरा दिल दहल गया पर मैं संतुष्ट था कि चलो इन दोनों में से कोई भी मेरे पिता नहीं है तो जरूर वह अस्पताल में ही होंगे । यह सोचकर मैं जैसे ही मुड़ा मैं हक्का-बक्का रह गया। मेरे पीछे मेरे पिता खड़े थे । मैं उन्हें देख बहुत खुश हो गया । मैंने रोते हुए उन्हें गले से लगा लिया ।
“पापा ,आप कहां थे ? आप को कहीं चोट तो नहीं लगी । “मैं उनका निरीक्षण करने लगा ।
“नहीं- नहीं ,बस सिर में हल्की- सी चोट आई है और हाथ छिल गया है । वह तो शुक्र मानो मैं बच गया वरना देखो तो ना जाने कितने लोग यहां पर खून से लथपथ पड़े हैं, ना जाने कितने लोग मूर्छित हो चुके हैं ,ना जाने कितने लोग यहां पर दर्द से करा रहे हैं । 2 शव तो यहां पर अजनबियों की तरह पड़े हैं जिनके घर वालों को यह तक नहीं पता कि वह अब इस संसार को अलविदा कह चुके हैं । “पिताजी ने शोक मनाते हुए कहा । उनकी बात सुन मैं एक बार फिर से पीछे मुड़ा ।
वहां पर अभी भी लोग लहूलुहान थे ,दर्द से चीख रहे थे ,बिल्कुल वैसे- जैसे पिताजी के मिलने से पहले चीख रहे थे पर तब मैं उनका दुख महसूस कर पा रहा था । मुझे वह अपना लग रहा था पर अब मैं उनके दर्द को समझ ही नहीं पा रहा हूँ । शायद वो इसलिए क्योंकि अब मैं उनके दुख में शामिल नहीं हूँ ।
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परिचय
नाम :- काव्या कटारे
उम्र :- 15 साल
कक्षा :- दसवीं
प्रकाशन :- प्लूटो,म.प्र.शिक्षा विभाग द्वारा प्रकाशित राष्ट्रीय बाल रंग,ग़ज़ल गलियारा सीरीज का संग्रह आंखों में धूप के सपने,
हंस में “चीख”, कथादेश में ” प्रेरणा ” और “ऐसा अंत ” वर्तमान साहित्य के महिला लेखन महा विशेषांक में ” नई लकीरें ” कथाबिम्ब में “काली लड़की” वनमाली कथा में “नताशा हरिगंधा में “गोद”,आपके लिए इलैक्ट्रॉनिकी में “आगे की बात”, अविलोम में ” जो आया था”, आंच में “कौन लिखेगा ” कहानियाँ प्रकाशित।
कथादेश द्वारा आयोजित कथा समाख्या आठ की प्रतिभागी कथाकार.
पुरस्कार… कथाबिंब का कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार
प्रकाशित कृतियाँ :- काली लड़की कथा संग्रह, धमाचौकड़ी (बाल कविता संग्रह),
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संपर्क :- महेश कटारे सुगम
काव्या चंद्रशेखर वार्ड
बीना, जिला सागर म.प्र.
पिन: 470113
मोबाइल: 9713024380