सृजन की सुरनदी
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प्रगति का नवगीत हम गाते रहेंगे
सृजन की सुरनदी उमडाते रहेंगे
ध्वंसकों की एक भी चलने न देंगे
दुष्टता की दाल हम गलने न देंगे
आज अंगारे उगलती दनुजता है
हम मनुजता की पुरी जलने न देंगे
हम निराशा को कभी आने न देंगे
आस का मधुमास बुलवाते रहेंगे
सृजन की सुरनदी उमडाते रहेंगे
शब्द सार्थक ही हमेशा बोलना है
बोल सारे दिल- तुला में तोलना है
सत्य के ही पंथ पर बढते हुए नित
लोकहित का द्वार पूरा खोलना है
हम नहीं भूचाल से होंगे प्रकंपित
धीरता की ध्वजा फहराते रहेंगे
सृजन की सुरनदी उमड़ाते रहेंगे
बीज हम बिलगाव के बोने न देंगे
मणि कभी सौहार्द की खोने न देंगे
मेल का मधुवन रखेंगे नित हरा ही
किसी राधा को दुखी होने न देंगे
काट करके नफरतों की नागफनियां
प्यार का गुलशन खिलाते ही रहेंगे
सृजन की सुरनदी उमडाते रहेंगे
लक्ष्य की ही ओर हम बढते रहेंगे
पुस्तिका संघर्ष की पढते रहेंगे
तोड़ देंगे मुश्किलों की सब शिलाएँ रास्ता हम नया ही गढते रहेंगे
घोर श्रम के सलिल से पाषाण में भी
जिन्दगी का जलज विकसाते रहेंगे
सृजन की सुरनदी उमड़ाते रहेंगे |
जरा देखिए तो
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जरा देखिए तो
मधुमक्खियों को
जो रहती हैं हमेशा ही
संगठित होकर
देतीं हैं सबको एकता का
पुष्ट सन्देश
पहुंचाती नहीं है वे
किसी को भी
निरर्थक क्लेश
वे आपस में मिलकर
करती हैं निर्मित
अपना छत्ता विशाल
दिखाती हैं गजब का
कमाल
अलग – अलग नहीं,
अपितु वे सब
साथ साथ ही होती हैं
रवाना
जुटाने हेतु जरूरत भर
खाना
वे सहती नहीं हैं
तनिक भी अन्याय
टूट पड़ती हैं
एक साथ जमकर
अन्यायी पर
देखा जा सकता है
उनका जलजला
सीखा जा सकता है उनसे
जीवन जीने की कला
और मानव है जो
इस वसुन्धरा पर
माना जाता है
सर्वाधिक ऊर्जावान
हृदयवान
बुद्धि प्रधान प्राणी
किन्तु
विकट विडम्बना है
कि आजकल
मानव ही मानव के साथ
करता है दर दर पर
अप्रत्याशित आघात
बुलाता है घोर गमों की
काली रात
लूटता है दिन दहाड़े
खुले आम
खुशियों की बारात |
जीवन्त कविता
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भौतिकवादिता की
भीषण चकाचौंध से
अप्रभावित रहकर
अन्तश्चेतना को
सम्यक विकसा कर
भटकाव के
विकट जंगलों को
पार कर
अटकाव के दरियाव से
बाहर निकल कर
छल छद्म के हर जाल को
हटाकर
यथार्थ के ही अस्त्र का
आश्रय लेकर
जो प्राणी जब तक
बन नहीं जाता
सम्पूर्ण रूप से
सही मनुष्य
तब तक वह गढ नहीं सकता
मनुष्यता की
सटीक परिभाषा
पूर्ण नहीं कर सकता
अन्तर्मन की कोई भी
अभिलाषा
उमड़ा नहीं सकता
संवेदना का सागर
भर नहीं सकता
उत्कृष्ट सोच की गागर
बहा नहीं सकता
लोकधर्मी
सर्जनात्मकता की सरिता
और
पैदा नहीं कर सकता
आर पार की जीवन्त कविता |
आग लिखूँगा
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पुष्ट प्रेम सद्भाव शान्ति का
राग लिखूँगा
रंग रास उल्लास मिलन का
फाग लिखूँगा
लेकिन जो भी मनुष्यता का
घोर शत्रु है
उसके लिए अवश्य
धधकती आग लिखूँगा |
जीना चाहता हूँ
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मैं जीना चाहता हूँ
जी भर
जगती की गोद में
रहकर
जग का हलाहल
पी पीकर
किन्तु
नहीं चाहता हूँ जीना
पल भर भी
सत्य के साथी से
बिछुड़ कर
दूर उससे होकर |
खाल उधेड़ रहे हैं
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वे तो विदुर नहीं हैं
वे शकुनि- सहोदर हैं
युधिष्ठिरों से वे
करते मुठभेड़ रहे हैं
वे घमण्ड का ही प्याला
नित पी पीकर
मनुष्यता के सदा काटते
पेड रहे हैं
सत्ता की खेती की
हर जमींन पर वे
काबिज होने हेतु
बनाते मेंड रहे हैं
वे हैं धृतराष्ट्रों के वंशज
अन्धे हैं
आंखों वालों को वे रोज
खदेड़ रहे हैं
वे हैं सच दिलदार नहीं
पत्थर दिल हैं
हर प्रतिरोधी जन को
जमकर छेड़ रहे हैं
वे हैं कितने क्रूर कि
कुर्सी की खातिर
लोकतंत्र की देखो
खाल उधेड़ रहे हैं |
आर-पार लिखूँगा
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इन्सानियत न मरे
धुआँ धार लिखूँगा
हैवानियत भसम हो
अंगार लिखूँगा
अब सरे आम सच का है
कत्ल हो रहा
इन्साफ हेतु यार
आर पार लिखूँगा।
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जवाहरलाल जलज, बाँदा