सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन ‘अज्ञेय’ की लंबी कविता “असाध्य वीणा” शुरू से ही चर्चा का विषय रही है। दरअसल छायावाद के पंत-प्रसाद-निराला-महादेवी के बाद चालीस के दशक में छायावादोत्तर कविता की शुरूआत हुई, जिसके अग्रगण्य लेखकों में अज्ञेय रहे हैं। आधुनिकता इनका मूल मंत्र रहा। तथापि भारतीय मिथकों और प्रतीकों को अपनी कविताओं में लेते रहे। ‘असाध्य वीणा” उसी की एक कड़ी है। यह एक कथा-काव्य ही है, जो उनके “आँगन के पार द्वार” में संकलित है। राजा के पास एक ऐसी वीणा है, जिसे आजतक कोई साध नहीं पाया अर्थात् बजा नहीं पाया था। इसलिए इसे असाध्य वीणा कहा जाने लगा। एक दिन अचानक एक साधक आकर उस वीणा को साधने का बीड़ा उठाता है। और अंततः उसे साधने-बजाने में सफल होता है।
यहॉं अज्ञेय के संबंध में थोड़ी जानकारी देना अपेक्षित है। अज्ञेय ने अपना शुरूआती जीवन स्वाधीनता संग्राम में सशस्त्र क्रांतिकारी संघर्ष में भाग लेकर किया। मगर बाद में लेखक यशपाल की तरह उन्होंने इससे स्वयं को अलग कर लिया। वह पहले अपने मूल नाम से ही लिखते थे। बाद में ब्रिटिश सत्ता की सख्ती के कारण उन्होंने लेखकीय नाम देना बन्द कर दिया। उन्होंने अपनी एक रचना जैनेन्द्र कुमार को एक पत्रिका में प्रकाशनार्थ दी, जिसमें उनका नाम नहीं था। स्वाधीनता संग्राम के दिनों के लेखक ऐसा ही करते थे और संपादक उसमें एक छद्म नाम डाल दिया करते थे। जैनेन्द्र ने उस रचना के लेखक का नाम ‘अज्ञेय’ दिया और आगे भी वह इसी नाम से छापते रहे। इस प्रकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायायन “अज्ञेय’ के नाम से लोकप्रिय हो गये।
अज्ञेय हमेशा एक विवादास्पद व्यक्तित्व के रूप में रहे। आगे चलकर वे ब्रिटिश भारतीय सेना में शामिल हुए। एक आर्मी कैप्टेन के रूप में वे लगभग तीन वर्षों तक पूर्वोत्तर में विविध सीमाओं पर नियुक्त रहे। एक तो सेना की परिवर्तनशील नौकरी, दूसरे घूमक्कड़ी का शौक। शिलंग में रहते उन्होंने वृक्षों पर बने घरों को देखा था। इसी बिना पर उन्होंने दिल्ली में अपने निवास पर के एक पेड़ पर घर बनाया। वह पेड़ पर टँगा घर और रस्सी की वह सीढ़ी लंबे समय तक कौतुहल और चर्चा का विषय बना रहा। उनके इन यात्रा संस्मरणों को उनके संस्मरण पुस्तक “अरे यायावर रहेगा याद” में देखा जा सकता है। अज्ञेय ने बाद में जैन धर्म की भी दीक्षा ले ली।
कविता की शुरूआत ही तीन संबोधनों से होती है- आ गए प्रियवंद! केशकम्बली! गुफा गेह!, ये तीन संबोधन साधक साधु की तीन विशेषताओं को प्रकट करते हैं। ये विशेषता है- बोलने का ढंग़, रहने का ढंग और निवास स्थान। इन्हें साधना का क्रमिक सोपान भी कहा जा सकता है।
“जैन और बुद्धिष्ट” मनुष्यों के केश का कम्बल पहना करते थे, इसलिए यहॉं साधक को केशकम्बली कहा गया। और जिसका निवास गुफाओं में हो, वही तो है ‘गुफा गेह’, जिसे साधना का अंतिम सोपान कहा जाता है। यहॉं कोई शोर-गुल नहीं, असीम शांति ही शांति है। और आश्चर्यबोधक चिन्ह ये प्रदर्शित करता है कि साधक का आगमन अचानक अप्रत्याशित ढंग से हुआ है। ये तीनों ही विशेषण कविता के हैं, और कवि के भी हैं।
राजा के इशारे पर असाध्य वीणा उनके सम्मुख रखा गया। राजा उसका वृतान्त सुनाते हैं
वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस
अति प्राचीन किरीट तरू से इसे गढ़ा था . . .
उसके कानों में हिम शिखर रहस्य कहा करते थे अपने
कंधों पर बादल सोते थे
उसकी करि शुंडों सी डालें
हिम वर्षा से पूरे वन युथों का कर लेती थीं परित्राण
कोटर में भालू बसते थे
और सुना है जड़ उसकी जा पहुँची थी पातााल लोक
उसकी गंध प्रवण शीतलता से फण टिका वासुकि सोता था।
किरीट वृक्ष की विशालता का अंदाज इसी से लगता है कि वह हिम शिखरों को स्पर्श करता था। और गहराई इतनी कि उसकी जड़ पाताल लोक में चली गई थी, जहॉं उसके मधर सुगंध और शीतलता को ग्रहण करता वासुकी नाग विश्राम करता था।
राजा आगे ये भी जानकारी देता र्है
मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त
सबकी विद्या हो गई अकारथ दर्प चूर
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे साध न सका
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गई।
पर मेरा अब भी है विश्वास
कृच्छ तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।
वीणा बोलेगी अवश्य पर तभी
इसे जब सच्चा स्वर सिद्ध गोद में लेगा।
साधक साधु किरीट-तरू, असाध्य वीणा और वज्रकीर्ति का वृतान्त जानकर विस्मित है। वह अपना केशीय कम्बल उतार उसपर असाध्य वीणा को रख देते हैं। फिर उसके पास वे अपने ध्यान और अपनी मौन साधना के साथ निःशब्द बैठ रहते हैं। प्रियवंद के पूर्व जितने भी साधक आए, वे स्वयं को ज्ञानी-गुणी समझते थे। अर्थात् वे अहम् भाव से भरे हुए थे। मगर इस साधक में अहं तो लेश मात्र भी नहीं है। सभी यही सोच रहे थे कि केशकम्बली भी इस असाध्य वीणा से पराभूत हो गए। तभी तो वे वहॉं निष्क्रिय, निःशब्द बैठे हैं। मगर प्रियवंद की यह मौन साधना थी। स्पंदित सन्नाटा, अकेलापन और नीरव एकालाप। आलोचकों के अनुसार इस कविता की सारी शब्दावली ध्यान संप्रदाय की है। यहॉं आकर भाषा के कोलाहल का अंत हो जाता है और यहीं से मौन साधना आरंभ होती है। भारतीय धर्म दर्शन में इसी को ‘अजपा जाप’ कहा जाता है। इससे बढ़कर और कोई जाप नहीं होता।साधक प्रियवंद उसी साधना में लीन हैं :
वीणा क्या सचमुच है असाध्य
पर उस स्पन्दित सन्नाटे में
मौन प्रियवंद साध रहा था वीणा
नहीं, अपने को शोध रहा था
सघन निविड़ में वह अपने को
सौंप रहा था उसी किरीट तरू को।
साधक केशकम्बली अबोध बालक की तरह किरीट तरू की स्तुति करते उसके आगे आत्मसमर्पण सा करते हैं :
जिसकी जड़ वासुकि के फण पर थी आधारित
जिसके कन्धों पर बादल सोते थे
और कान में जिसके हिमगिरि कहते थे अपने रहस्य
संबोधित कर उस तरू को करता था
नीरव एकालाप प्रियवंद।
आगे की कविता साधक की साधना से प्रकृति चित्रण से, चाक्षुष और श्रुत बिम्बों से भरा-पूरा है। केशकम्बली निर्विकार हैं। अंततः उनकी साधना रंग लाती है :
सहसा वीणा झनझना उठी
संगीतकार की आंखों में ठंडी पिघली ज्वाला सी झलक गयी
रोमांच एक बिजली सा सबके तन में दौड़ गया
अवतरित हुआ संगीत
जिसमें सीत है अखंड
ब्रम्हा का मौन
अशेष प्रभामय।
असाध्य वीणा का स्वर सभी के लिए अलग-अलग मनोनुकूल है, इसलिए सभी आनंदित हैं। जैसे राजा ने सुना तो उसे लगा :
जय देवी यशःकाय
वरमाल लिये
गाती थी मंगल गीत
दुन्दुभी दूर कहीं बजती थी
राजमुकुट सहसा हलका हो आया था
मानो हो फल सिरिस का।
वहीं रानी को लगा :
तुम्हारे ये मणि मानिक कंठहार पट वस्त्र
मेखला किंकणि
सब अंधकार के कण हैं ये
आलोक एक है
प्यार अनन्य। उसी की
विद्युल्लता घेरती है रस भार मेघ को।
इसी प्रकार वहॉं उपस्थित सबने जैसे अपनी-अपनी रूचि के अनुरूप वीणा के सुर को अलग-अलग सुना :
इसको
वह कृपा-वाक्य था प्रभुओं का
उसकी आतंक-मुक्ति का आश्वासन
इसको
वह भरी तिजोरी में सोने की खनक
उसे
बटुली में बहुत दिनों के बाद अन्न की सोंधी खुशबू।
किसी एक को नयी वधू की सहमी सी पायल ध्वनि।
किसी दूसरे को शिशु की किलकारी
इस शब्द चित्र को अज्ञेय अपनी रोचक शैली में आगे ले जाते है :
चौथे को मंदिर की ताल-युक्त घंटा ध्वनि
और पाँचवे को लोहे पर सधे हथौड़े की सम चोटें
और छठे को लंगर पर कसमसा रही नौका पर लहरों की अविराम थपक।
वीणा के मौन होने पर सभी आह्लादित थे। मगर साधक प्रियवंद केशकम्बली कहते हैं :
श्रेय नहीं मेरा कुछ
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब कुछ को सौंप दिया था।
इस कविता के माध्यम से अज्ञेय ने मौन की अभ्यर्थना की है। साथ ही यह भी कि अहं को अर्थात् स्वयं को विसर्जित कर ही साध्य तक पहुँचा जा सकता है।
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चितरंजन भारती,
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