(तुम्हें कैसे सपने आते हैं? पीले, हरे या गुलाबी। बोलो? क्या तुम्हारे सपने में रोटी आती है? धान के खेत आते हैं? कुदाल आता है? नहीं! तुम्हारे सपने झूठे हैं….बिल्कुल झूठे…..)
शिवचरना की आँखें भक्क से खुलीं। वह हड़बड़ा कर उठा और निंदबासे झुकते-टगते हुए झोपड़ी से बाहर आया। आसमान में भोर का तारा मलीन हो रहा था। मुर्गे की बांग सुनाई पड़ने लगी थी। चिड़ियों की चहचहाट से दूर तक पसरा हुआ सन्नाटा जैसे फट रहा था। लेकिन सूर्योदय में अभी देर थी। उसकी नजर द्वार पर बैठे कुत्ते पर गई। उसने कुत्ते को दुत्कारा….‘धेत-धेत साला! लगता है कहीं बैठने की जगह ही नहीं।’…कुत्ता किकियाते हुए ऐसे भागा…जैसे किसी ने उसे भर दम पीटा हो।
शिवचरना को अचानक रात की बात याद आ गयी। जाने क्यों दो बार सपने में आया भाजो…। कह रहा था …पंजाब चलो शिवचरना. पंजाब! ..यहां कुछ रखा है? बदन पर साबुत कपड़े भी हैं तुम्हारे?
…वहाँ तीस हजार महीना कमाते हैं। सच्चम में। विश्वास नहीं है। देखो हमको।
भाजो परसों ही पंजाब से आया है। भजेसर साह उर्फ भाजो! क्या डील-डौल है! फूल-पेंट सट, काला बेल्ट, काला चश्मा, हाथ में घड़ी। .यह सब देख वह मन मसोस कर रह जाता है। बाप रे! उसकी जनानी! क्या लग रही थी साड़ी में? एकदम झक्कास! यहाँ रहती तो श्याम बरन की लगती थी। पंजाब में रह के रंग कैसा खिल गया है! परसों रेलवे स्टेशन से सीधे टेम्पू रिजप करके आया था गाँव। शिवचरना उसी रस्ते से जा रहा था कि अचानक नजर पड़ी।
ढेर सारी चीजें लेकर आया है भाजो इस बार…टीवी, सीडी, एक बड़ा-सा बेट्रा। बिजली जो नहीं है इस गांव। कहता है बिना बिजली के कैसा भुतहा लगता है गाँव! कह रहा है कि अबकी बार जब फिर घर लौट के आएगा तो एमएलए साहब से बात करेगा वह बिजली के बारे मे! कितना बैकवाड इलाका है यह और एक पंजाब है! कितना होशियार हो गया है भाजो! सोचता है शिवचना।
एमएलए के बारे में सोचते ही शिवचरना को गणपति डांसर की बाद याद आ जाती है….ऐ में ले! ऐ में ले! अरे बरघाएं के सांए भर ले हर तरफ…अपने पिछावाड़े में भी……हा…हा…हा…चारों ओर हँसी के फव्वारे छूटने लगते थे। वह तो सिर्फ इतना जानता है कि एमएलए साहब होते हैं, सरकार होते हैं, बहुत बड़े अमीर होते हैं और मालिक भी। भाजो उसी से गाँव में बिजली लाने की बात करने जाएगा?…उसे सहसा विश्वास नहीं हुआ कि भाजो पंजाब जाकर इतना तेज हो गया है। क्या पंजाब जाकर सब तेज बन जाते है! सब मुझे भोथर कहते हैं। बोतला कहते हैं। क्या मैं भी तेज हो जाऊँगा मातबर हो जाऊँगा…ये सारे प्रश्न शिवचरना के दिमाग में बड़ी तेजी से घूम रहे थे।
उसकी स्मृति में एक और छवि कौंधी…हाँ चंदेशरा भी तो। उसी के टोले का है। चंदेशरा छह महीने पंजाब रह के आया था तो कितना भच-भच करता था। ठेठी में एकदम नहीं बोलता था। सबसे हिन्दी में बात करता था…’हें हमको क्या समझता है तुम, हम हिन्दी, पंजाबी, इंगलिस सब जानते हैं।‘ फिर वह पंजाबी में मुँह बिचका कर बोलता…’ओय तेरी पैन दी फुद्दी ले जाऊँ।‘ यह तो बाद में मालूम पड़ा कि यह बहन लगाकर गाली थी। उस वक्त अगर शिवा को पता होता तो भर पेट मारता चंदेशरा को। शिवचरना को चंदेशरा की आदतें पसंद नहीं थीं। पंजाब से वह जो रेडियो लेकर आया था वह टोले के चौराहे पर जोर-जोर से बजाता और टोले के बहन-भौजाइयों को भद्दे-भद्दे इशारे करता। एक दिन तो हद तब हो गयी जब उसने टोले की सनीचनी से जबरदस्ती की…मड़र के आम के बगीचे में और फिर उसी रात वह गाँव से फरार हो गया। यह तो ठीक हुआ कि वह भाग गया नहीं तो पता नहीं शिवचरना क्या कर देता उसका? कुछ महीने बाद ही पंजाब से खबर आई थी कि साँप काटने से मर गया चंदेशरा। साँप काटने से क्या मरा था…उसके दोस्त ने ही जहर देकर मार दिया था उसे…। सुनते हैं अपने दोस्त की मौगी के साथ ही उसने। भला वह कैसे बर्दास्त कर पाता! वह सोचता कि पंजाब जाकर तेज तो बनना है लेकिन चंदेशरा जैसा नहीं बनना चाहता है वह!
शिवचरना ने अंगराई ली। आज उसकी पूरी देह दुखा रही है, सिर कुछ भारी-भारी-सा लगता है। उसने लुंगी को कस कर लपेटा और चुनौटी से खैनी और चूना निकाल कर अपनी तलहथी पर रख लिया। कुछ देर तक खैनी लटाता रहा और फिर उसकी गर्दी को उड़ाकर होठों के नीचे रख लिया। वैसे तो हर चीज का स्वाद चखा है उसने लेकिन आदत सिर्फ खैनी की है। खैनी पर अक्सर एक फेकरा सुनाता है शिवचरना “अस्सी चुटकी नब्बे ताल तब जानो खैनी है माल।” ऐसा लगता है जैसे खैनी का हाल सिर्फ उसे ही मालूम हो।
खैनी खाने के बाद उसे मैदान का अनुभव होने लगा। उसने जल्दी-जल्दी एक मैली चादर ओढ़ ली और मैदान के लिए निकल गया।
सड़क सूनी थी। ठंड तो ज्यादा नहीं थी पर हवा में बिसबिसी थी। उसने हाथ छाती में दुबका लिया। सड़क के बगल में लगे बाँस की फुनगी से पानी टप-टप चू रहा था। सड़क के दोनों ओर दूर-दूर तक धान की फसल नजर आ रही थी। पकने-पकने को था धान। उसकी कच्ची-पक्की बालियाँ ओस के भार से झुक-सी गयी थीं।
पटवन करने वाले ने नाले का मुँह बंद नहीं किया था। नाले का पानी सड़क पर आ गया था। शिवचरना ने ट्रेक्टर वालों को एक भद्दी गाली दी। ऐसे जल्दी मुँह से गाली नहीं निकालता वह लेकिन क्या करे बरसात के दिनों में धान के खेत की तरह कदवा कर देता है ट्रैक्टर ये मालिक-मुख्तार सब सिर्फ पैसा ऐंठना जानते हैं, टेलर से गढ़े में मिट्ठी नहीं दे सकते। जबकि हर साल यहाँ टैक्टर फँसता है और टोचन करके निकालना पड़ता है। इस इलाके के ट्रैक्टर की गिनती करने लगे तो अंगुली पर गिन नहीं पाएगा शिवा। पहले लोग दुवार पर हाथी बाँधने में शान समझते थे और अब ट्रैक्टर बाँधने में। शिवचरना को अपनी ही सोच पर हँसी आ गयी…भला ट्रैक्टर भी बाँधने की चीज है कोई गाय-गोरू बकरी-खस्सी या हथ्थी तो है नहीं! अरे! है कैसे नहीं…ये भी भर पेट खाए बिना दुवार से टसकते ही नहीं…पहले उसके बड़े से पेट-नुमा टंकी में डीजल-मोबील डालो…पानी पिलाओ इतना ही नहीं आरती उतारो फूल-माला चढ़ाओ…अगरबत्ती जलाओ। बेचन साह के बेटे सुटवा को जब वह रोज ट्रैक्टर को नहर में नहवाते देखता है तो सही लगता है कि जैसे हथ्थी ही नहर में नहा रहा हो।
गढ़े में मिट्टी डालने में ट्रैक्टर-मालिक लोगों को पैसा लगता है…और अब लीजिए चखिए मजा जब नहर के शीशम की लकड़ी को ढोने में गाँव के एक नहीं तीन-तीन ट्रैक्टर मालिक-सहित धराया है! सब बाबू लोगों को कोट-कचहरी करते करते नकदम होगा। महीना भर से तो तीनों हथ्थी थाने में सड़ रहा है।
बेमन से शिवचरना सड़क के पानी-भरे गड्ढे में उतरने के लिए अपनी लुंगी समेटने लगा। सुबह-सुबह पानी में घुसना उसे बिल्कुल पसंद नहीं लेकिन दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं था। दोनों तरफ धान के खेत में भी पानी घुस गया था। वह लुंगी समेट के जैसे ही पानी में घुसा उसे न जाने क्यों लतराहा धार की बात याद आने लगी। लतराहा गाँव के कुछ मनचले युवक शाम के समय काम से लौटकर धार टपती औरतों को ललचाई आँखों से निहारते….। उस समय तक जब पानी जांघ तक चला जाता और साड़ी उपर….!! आँखें बंद कर लेता शिवचरना लेकिन उन लौंडों की आँखों में शर्म कहाँ…सब अच्छे घर के खाते-पीते नौजवान! दस दिन तक मकई तामने गया था शिवचरना इस्सर सिंह के खेत में। लौटती बेर रोज का यही नजारा था। अब बाबू-बबुआन लोग से कौन भिड़े! कौन उससे बतकुट्टी करे! ये बात नहीं सुनेंगे…पहले लप्पड़-थप्पड़ से ही बात करेंगे। रस्सी जल गई है पर ऐंठन नहीं गई है।
नहर तक आते-आते उसे जोर से मैदान का अनुभव हुआ। वह इधर-उधर देखकर बैठ गया। तब-तक काफी सुबह हो चुकी थी। कई लोग इधर-उधर से आ दूरी बनाकर बैठ गए थे। शिवचरना को लगा कि ठीक से पचा नहीं है। पेट गुमगुमाया-सा लगा। कल उसने पाँच सौरी मछली खाई थी। दो को शाम में पका के खा गया था और बाँकी को रात में झोर देकर!
मछली की याद आते ही शिवचरना का मन डोल जाता है। मन करता है आज भी भैयाजी चाँप चला जाए। पर गाली कौन सुने! कहीं पकड़ा गए तो मार मुफत में! इस्सर सिंह और रामबरन सिंह मिल कर जोतते हैं इस चाँप को….साला जब मछली मरने लगता है तो कितना ट्रैक्टर लाइन में लग जाता है इसका कोई हिसाब नहीं!
मछली मारने में उसका कोई जोर नहीं… इसमें तो माहिर है वह। जब पानी कम हो तो हथौरिया से मछली मारने का मजा ही कुछ और है। दो डग बढ़े नहीं कि हाथ में चुब्ब से एक मछली! पर कभी-कभी डर लगने लगता है ढोरिया साँप का। एक बार तो ढाई हाथ का साँप पकड़ लिया था शिवा ने हथौरिया में। हाथ के साँप को जोर से फेंककर घर में ही दम ले सका था वह। ढोरिया महाराज में विष नहीं होता पर साँप बड़ा बिगरैल! काटेगा तो मांस-गुद्दा बाहर लेकर ही निकलेगा अपने दाँत में।
इधर कुछ दिनों से मटरगस्ती कर रहा है वह। कमाया हुआ सारा पैसा हाथ से निकल गया है। कमाया हुआ क्या था बस समझो पेट काटकर बचाते-बचाते छह महीने में कुछ रूपए जमा हो पाए थे। काम पे भी जाए तो कैसे! भर दिन देह-तोड़ खटाई के बाद भी इतना ही पैसा मिलता है कि किसी तरह उस दिन का पेट भर सके। मालिक लोग मजदूरी नहीं बढ़ाएँगे…पहले तो एक जून का खाना मिल जाता था लेकिन अब मालिक लोग कहेंगे ‘सीधा-सपट्टा बात इतना ही देंगे… फलनमा की माँय बीमार रहती है। उससे जन-मजदूर का खाना नहीं बनेगा। हाँ अगर सत्तू खाओगे तो दे देंगे…अचार और मिरचाई तो है ही पकड़ के खींच लो और बाबू जरा दिल लगागे के भिड़ जाओ तमनी में। देखो न गाँव में सब गृहथ लोगों के मकई की तमनी हो गई और एक मेरा ही खेत बच गया। नहर में अभी लबालब पानी भरा है आज ही निपटा दो, शाम में नाला खोल देंगे!’ अब लीजिए निकल गया कचूमर! पैसा को दांत से पकड़ेंगे और सिर पर बैठ कर काम करवाएँगे। उस दिन तो मालिक को भी रौद-बतास कुछ नहीं लगेगा छत्ता तान के और रह-रह के पान चबाते हुए भर दिन कड़कती धूप में बैठे रहेंगे सिर पर। इलाके के सब मालिक-मुख्तार का यही हाल है। कहाँ जाए काम पे वह! एक बार रामकसून बाबू ने पाँच रूपया मजदूरी बढ़ा दी थी और मजदूर लोगों से कहा था कि दिल लगाकर काम करोगे तो मूढ़ी और जिलेबी खिलाएँगे कि बस पूरे इलाके में मच गया हंगामा। मालिक लोग बोलने लगे पागल तो नहीं हो गए हैं इ रामकिसून। मजदूरों को मनबढ़ू बना देगें…सुनते हैं कि मिटीन भी किया था और रामकिसून बाबू को बाद में मजदूरी घटानी पड़ी।
शिवचरना ने इधर महसूस किया है कि दो दिन लगातार काम करने के बाद तीसरे दिन उसका शरीर जबाब दे देता है। रात में सोने पर सुबह सूरज के एक बाँस उपर चढ़ने पर ही नींद खुलती है। उस टैम तो कोई काम देगा नहीं। आजकल के मालिक को तो जैसे मजदूरों पर भरोसा ही नहीं। शुरू से लेकर अंत तक माथा पर चढ़ कर काम करवाएँगे। ऐसे तो जल्दी ही बीमार पड़ जाएगा वह! पेट तो बड़ी मुश्किल से पलता है दवा-दारू का खर्च कैसे उठा पाएगा वह! नही! अब उसे भुटकुन के बताए तरीके पर चलना होगा। भुटकुन बोलता है और अपना खिस्सा भी सुनाता है
‘अरे सिर पर बैठ के काम करवाने वाले मालिक को ठगो! खूब भुटिया के ठगो। ऐसा काम करो कि लगे खूब काम कर रहे हो और शरीर पर भीड़ नहीं पड़ने दो। समझे कि नहीं! हमलोग भी वही करते हैं। अरे! जब मालिक लोग हरामीगिरी करते हैं तो हमारा भी हक बनता है। हाँ जो मालिक सीधा हो तुम पर विश्वास करे उसके लिए दिल से काम करो। हम तो ऐसा खचरई किए थे इस्सर सिंह के खेत में कि बाबू साहब याद रखेंगे। हुआ यह कि इस्सर सिंह ने हमको एक थप्पड़ लगा दिया। कहा तुम खुद तो कामचोर हो ही औरों को भी कामचोर बना रहे हो। लीडरी करना है मजदूरी क्यों करते हो। एमएलए के चुनाव में काहे नहीं खड़े हो जाते। सरकार ने तुम मुसहरों के लिए क्षेत्र तो सुरक्षित कर ही दिया है। बाबू! हम तो खून का घूँट पी गए! तभी क्या कर सकते थे। लेकिन जब कोई काम से इस्सर सिंह अपने कामत गया तो बस शुरू हो गए हम अपने काम में। साला सब मकई के गाछ को काट डाला और सब गाछ पर इस चालाकी से मिट्टी चढ़ा दिए कि साले को पता भी न चले। सब मजदूरों को भी कह दिया देखो भाई ये बात मालिक के कान तक न पँहुचे! उसके बाद क्या हुआ यह तो तुम जानते ही हो। हमारे मजदूर-जात में भी कुछ लोग तो दोगले के जन्में हैं हीं जाके कह दिया इस्सर सिंह को कि भुटकुनमा ने ऐसा किया है। बस हमको तो उसी रात पंजाब भागना पड़ा। लेकिन एक बात कहेंगे शिवचरना कहीं भी चले जाओ मजदूर मजदूर ही रहेगें। कहीं भी तुम्हारा दोस्त-हीतू नहीं मिलेगा। सब जगह के मालिक तुम्हें भुक्खड़ ही मिलेंगे।’
शिवचरना को जाने क्यों आज सारी बातें रह-रह के याद आती जा रही हैं। वह जब दिशा-फराकत से उठा तो देखा आस-पास बैठे सारे लोग उठकर चले गए हैं। इसका मतलब है कि वह बहुत देर से बैठा न जाने क्या-क्या सोचता रहा। उसने नहर में हाथ धोकर पनछू किया। शीशम के गाछ पर चढ़ कर एक दातुन तोड़ी और तेजी से मुँह साफ करके नहर के पानी से ही कुल्ला किया। काम पर तो वह जाएगा पर कहाँ! टोले के मजदूर आजकल चनरू मरड़ के यहाँ जाते हैं काम के लिए। लेकिन वह तो नहीं जाएगा उसके यहाँ। उसका बेटा दिलफा एक नंबर का लफंगा है सी नंबर का दारूबाज! हमेशा जैसे दारू के नशे में ही रहता है। एक दिन पटुवा की डोरी पखाते वक्त दो बार डोरी छूट गई थी शिवचरना से और इतने पर गाल लाल!! पांचों अंगुली के दाग बैठ गए थे गाल पर। अपने फूले गाल को दो दिन तक छिपाया था शिवचरना ने अपनी दोशाला से। तबसे नहीं जाता है उसके यहाँ। मर्री चली गई फिर भी इतना गुमान! बहुत पहले की बात है तभी तो बच्चा था वह। अब कुछ कह के देखे, बता देगा शिवचरना।
उसने तय कर लिया कि आज हल्दीबाड़ी जाएगा। सुरूसिंह के यहाँ। पोखर खुना रहा है सुरूसिंह। बिजवा कह रहा था कि जितना जन-मजदूर काम के लिए चाहे जा सकता है उसके यहाँ। शिवचरना पहले भी उसके यहाँ गया है काम करने। सुरूसिंह की बेटी मिन्नी गमकौवा सेंट लगती है। उस दिन जब कलेऊ खिला रही थी तो शिवचरना का मन सेंट से ही भर गया था। शिवा जब उसे गौर से देख रहा था तो वह झमकती हुई बोली “ऐ! ऐसे क्या घूर के देखता है। कभी नहीं देखा है मुझे!” बड़ी तीखी नजर है मिन्नी की! छट-छट गोरे देह पर लाल साड़ी बड़ी सोहती है। लेकिन कसाई है सुरूसिंह। बड़ा खूसट और सक्की है। चौठिया कहता था कि आजकल तो और सठिया गया है। हर बात में मीनमेख! ’कहां गई थी!‘ ’बाड़ी में तभी से क्या कर रही थी।‘ ’और कौन था साथ में, बोलती काहे नहीं!‘ जैसे बाप न हो कोई बकील हो।
शिवचरना ने घर से कुदाल ली और हल्दीबाड़ी की ओर जाने वाली सड़क पकड़ी। सूरज काफी उपर चढ़ आया था उसने यह महसूस किया। सड़क से उतर कर जब उसने पगडंडी पकड़ी तो उसके साथ दूसरे टोले के जन-मजदूर भी आ गए थे। रजुआ ने खैनी लटाकर दी तो शिवचरना ने उसे अपने होठों के नीचे रख लिया और तेज कदमों से सूरूसिंह के कामत की ओर बढ़ चला। अब और मटरगस्ती नहीं करेगा शिवा। उसने सोच लिया है कि कम से कम हफ्ता भर दिल लगा कर काम करेगा जिससे कम से कम हाथ में पैसा आ जाय। शिवचरना ने देखा कि मिट्टी ढोने के लिए जनानी मजदूरों को रखा गया है।
काम करने में जरा भी मन नहीं लग रहा है शिवचरना को। पता नहीं क्यों जब से वह भाजो से मिला है तब से रह-रह कर एक ही बात कान में गूंजती है….पंजाब चलो शिवा यहाँ क्या रखा है।
दिन भर का थका मांदा सूरज जैसे सुस्त होकर जैसे अपने घर को लौटता है उसी तरह शिवचरना भी सुस्त कदमों से घर लौट आया। सूरूसिंह शिवचरना को नौकरी रखने के लिए फुसला रहा है। शिवचरना भी कम तेज नहीं जो उसके यहाँ नौकरी रह जाए…वो भी एक हजार रूपए महीने पर। वह खूब जानता है सुरूसिंह को। अभी कैसे खुशामद कर रहा है…..कह रहा है कि कपड़ा लता…भी देगा…खाने-पीने की तो कोई बात ही नहीं, दही-दूध भी अफरात है…जितना जी में आए खा सकता है शिवा। अभी कितना दानी बन रहा है लेकिन बाद में वह रूखा-सूखा खिलाएगा इसमें रती भर भी संदेह नहीं। बाप-बाप कर खटनी करो सो अलग। चौठिया ने सब कुछ कह दिया है उसके बारे में। बचपन से ही सूरूसिंह के घर भैंसचरवा के रूप में रहा है चौठिया। उसके तन पर न कभी बस्तर रहा और न देह में गोस। बड़ा होकर जब दिमाग खुला तब उसके यहाँ से बेगारी छोड़ के भागा वह!
शिवचरना ने कुदाल घर के अंदर रखा। बाहर खाली पड़ी जमीन पर टोले भर के बच्चे खेलने में मस्त थे और काफी शोर मचा रहे थे। घर से थोड़ी दूर पर स्थित सरकारी चापाकल पर उसने हाथ-मुँह धोया। उसे ठंड का अनुभव हुआ। अब शाम और सुबह के वक्त ठंड लगने लगी थी। उसने अपनी झोपड़ी में जाकर दो कमीज पहनी और घर का दरवाजा लगा कर बाहर निकल आया। फिर उसके दिमाग में भाजो की बात कौंध गई। उसने खेलते बच्चे के झुंड के पास जाकर किसी को पहचानने की कोशिश की और फिर जोर से बोला……ढ़ोंरवा है रे! अपनी आदत के अनुसार वह ओय बोला। शिवचरना ने उसे बुलाया और उसके कान में कुछ बोला तो ढोरवा ने पूरब की इशारा किया और फिर अपने दोस्तों के साथ खेलने में मशगूल हो गया।
शिवचरना ने पुरबा बाध की ओर जाने वाली पतली पगडंडी पर अपने कदम बढ़ा दिए। महंथ बाबा थान के विशाल पीपल के पेड़ के पास पँहुच कर उसने चारों ओर अपनी नजर दौड़ाई। पहली नजर में तो उसे दूर-दूर तक कहीं कुछ नहीं दिखा। साँझ ढल आई थी। चारों ओर धुंध छाने लगी थी। लगता था जैसे कुहासा धान के खेत से निकलकर उपर आसमान में छा रहा है। बाजार की ओर से चूड़ा मिल का धुआँ कुहासे में मिलकर उसे और घना बना रहा था। दाँयी ओर से बगुले का एक झुण्ड उड़ता हुआ चला जा रहा था। पीपल के गाछ पर बैठे चिड़ै-चुनमुन से काफी कोलाहल था। शिवचरना को आसमान में एक तारा दिख गया। अब तो तारों का जोड़ा लगाना ही होगा नही तो अंधा हो जाएगा वह…..इस सोच के साथ उसने दूसरा तारा ढूंढना शुरू किया। कुछ देर की मेहनत के बाद उसे दूसरा तारा भी दिख गया। उसने राहत की साँस ली। चारों तरफ दूर-दूर तक फैले धान के खेतों में कहीं कोई नजर नहीं आ रहा था। वह खेत के मेड़ों पर बढ़ता गया कि तभी अचानक एक औरत दिखी। वह उसकी ओर चलने लगा। सनीचरी ही थी। पहले शायद मेड़ पर बैठी होगी इसलिए नहीं दिखी। सनीचरी पानी से लबालब भरे धान के खेत में बहते सोते पर जाल लगा कर बैठी थी। अपनी साड़ी घुठने तक उठा के कमर में खोंस ली थी उसने। उसके होठों पर गहरे लाल रंग की लिपिस्टिक पुती हुई थी।
बहते सोते पर डेरवा और इचना मछली गिर रही थी। अंधेरा छाने लगा था इसलिए सनीचरी ने जाल समेट लिया। कुछ आधा किलो के लगभग मछली रही होगी। वह ज्यों ही मुड़ी देखा शिवचरना सामने खड़ा है। सनीचरी ने कमर में खोंसी हुई साड़ी ठीक कर ली और पूछा … ‘तुम यहाँ’….. ‘हाँ’ इसके अलावा शिवचरना कुछ नहीं बोला।
शिवचरना ने अनुभव किया कि सनीचरी का बदन पुष्ट हो गया है। क्यों न हो थाली भर के तो भात खाती है। जिस दिन बथुआ का साग तोड़ के लाती है उस दिन मकई की तीन मोटी-मोटी रोटियाँ गटक जाती है। उससे दोगुना खाती होगी।
सनीचरी को रिझाने में परेशान हो जाता है शिवचरना। बड़ी फरमाईश करती है। स्नो पाउडर, टिकली, आइना, लिपिस्टिक सब कुछ लाकर दिया है शिवचरना ने। पर हर बार नखरा करती है… कहती है कि फरमाईश पूरी नहीं हुई तो दूसरे का साथ धर लेगी…।
शिवचरना ने सनीचरी के हाथ की पोटली को छूते हुए पूछा
“कौन मच्छी है।”
“डेरवा और इचना है।”
“भर दिन यहीं थी क्या! मैं तो तुम्हें सूरूसिंह के कामत पर ढूँढ रहा था। टोले की कई औरतें थीं वहाँ।”
“नहीं वहाँ नहीं गई मैं। दोपहर के बाद यहीं आ गई।”
“दोगी कि नहीं!”
“क्या!!”
“मच्छी और क्या!!”
शिवचरना ने कनखी मारी और हल्के से जीभ को दाँत से दाब दिया…। दोनों छहर पर आ गए थे। उसने सनीचरी के कंधे पर धीरे से अपना हाथ रखा…
“आज रात आओगी न सनीचरी!”
“मच्छी देने!”
“नहीं।”
“उस लिए..।”
“शंखे का बाला लूँगी।”
“अगली बार लेना।”
“नहीं आऊँगी।”
“अच्छा ला दूँगा…। सुनो! मच्छी भी ले लेना…। अच्छी तरह झोल लेना।”
“तुम्हारी मौगी नहीं हूँ…।”
“उससे क्या कम हो!”
शिवचरना ने सनीचरी को बाँहों में जकड़कर चूम लिया। सनीचरी ने अपने आप को छुड़ाया और शिवचरना को मारने दौड़ी। शिवचरना ने दौड़कर दूसरी पगडंडी पकड़ ली और तेजी से दूसरे टोले की ओर बढ़ चला। सनीचरी सड़क के रास्ते चली गयी। शिवचरना ने सोचा कि क्यों न भाजो से मिल आए।
शिवचरना का मन तितली बन गया है….कहीं ठहरता ही नहीं। रह-रह कर पंजाब की बात घूमने लगती है मन में। पंजाब कभी नहीं गया शिवचरना…..लेकिन वहाँ के बारे में बहुत सुना है उसने…भाजो से। वहाँ की लहलहाती फसलें। वहाँ की सड़कें। वहाँ की औरत मोटी…गदुम्मी। मगर लड़की बड़ी सुन्दर होती है। सीधा दूना उपजता है वहाँ अपने देश से। खेत-खेत में बिजली है….पानी के लिए पंपसेट है। खेत तक पीच रोड है। शिवा सोचता है कि वह भाजो की खुशामद करेगा….कहेगा कि उसे भी पंजाब ले चले। भाजो पंजाब की बहुत बड़ाई करता है।
“खूब पैसा देता है वहाँ का सरदारजी सब….बहुत दिलवाले लोग हैं वहाँ। मगर खूब मन लगाकर काम करना पडे़गा उस्ताद! जब गोरी-गोरी पंजबनी मेम अपने हाथों से चाय पिलाएगी और प्यार से बोलेगी तो खुद काम करने लगोगे….समझे कि नहीं! कितना भी काम करोगे पता ही नहीं चलेगा।” भाजो कहता है कि यहाँ के अमीर को जितना पैसा है वहाँ सबसे गरीब को भी उससे अधिक पैसा है। शिवा सोचता है…क्यों न हो पैसा वहाँ के लोगों के पास वहाँ हर कोई खटता है निठल्लू होकर थोड़े ही बैठा रहता है। यहाँ के सारे मालिक लोगों का यही हाल है। खुद तो काम करते नहीं और जन-मजदूर को पैसा देने में नानी मरती है। सब बेगार का काम कराना चाहेंगे। भाजो बोलता था कि वहाँ का सरदार तो फूलपेंट-सट पहनकर भी खेत में काम करने भिड़ जाता है और यहाँ लाटसाहबी करने से फुरसत ही नहीं।
शिवचरना जब घर लौटा तो पहर रात बीत चुकी थी। सड़क सुनसान थी। रास्ते में उसे कोई आदमी सड़क पर नहीं मिला सिर्फ कुत्ते इधर से उधर मटरगस्ती कर रहे थे। शिवचरना ने अपने घर का फाटक खोला। अंदर घुप्प अंधेरा था। ताखे पर रखी माचिस से उसने ढिबरी जलाई। हल्की सी रोशनी घर के अंदर फैल गई। घर के अंदर ही एक कोने में चूल्हा बना था। वहीं जलावन भी रखा था। दूसरी तरफ पुआल बिछा था जिस पर एक सुजनी थी। पूरे मुसहरी टोले में शिवचरना का घर सबसे उत्तरी तरफ था। कुल पच्चीस घर ही तो थे इस टोले में।
शिवचरना ने चूल्हे पर चावल चढ़ा दिया…। सनीचरी का कोई ठिकाना नहीं, सबके सोने के बाद नुकाके आएगी।
संठी की तेज आँच में चावल खदकने लगा था। उसे खाना बनाने की एकदम इच्छा नहीं हो रही थी। मन बहलाने के लिए वह एक लोकगीत गाने लगा….“चलिए में भेलिए हे दूर्गा माँय…आहे एक कोस गेलिए।”
उसने हाथ के दबाव से देखा कि चावल सीझ गया था। आग बुझा कर उसने तसली उतार ली। शिवचरना ने घर का फाटक बंद कर दिया और बिछावन पर लेट गया।
लेटे-लेटे जाने क्या सोचने लगा शिवचरना….खूब कमाएगा….घर बनाएगा…टीवी लाएगा…मिन्नी….सनीचरी…पंजाब…तीन हजार महीना…शिवचरना की आँख लग गई। कितनी देर तक सोया रहा उसे पता नहीं। फाटक पर हल्की खरखराहट के साथ उसकी नींद खुली। बाहर चारों तरफ अंधेरा पसरा हुआ था। उसने फाटक खोला…। देखा तो सनीचरी खड़ी है। वह दनदना के अंदर घुस गई…। बाटी भर मछली लेकर आई थी।
शिवचरना ने फाटक अंदर से बंद कर लिया….ढिबरी को नजदीक किया और खाने लगा। मछली अच्छी बनी थी…। पर झोर थोड़ा तीता बन गया था। वैसे भी सनीचरी का हाथ थोड़ा तेज है।
शिवचरना ने हाथ धोकर थाली बगल में खिसका दी और सनीचरी की बगल में लेट गया। उसने ढिबरी बुझा दी और सनीचरी को अपने पास खींच लिया…बिल्कुल करीब…।
शिवचरना परसों अपने गाँव को छोड़ पंजाब चला जाएगा। भाजो बोलता है वहाँ असली कमाई चालू है। असली कमाई यानी धन-कटनी!! वहाँ मशीन से सब कुछ होता है। जुताई-कटाई सब कुछ। लेकिन फिर भी आदमी तो चाहिए न। वहाँ काम करने वाले आदमी का बहुत डिमांड है।
शिवचरना का मन बड़ा बेचैन है। उसे लगने लगा है कि ज्यादा हौंस में वह सब बात कह गया है भाजो से। सब कुछ इस्टेंडर का है पंजाब में तो फिर बोचवा रजुआ और दूसरे टोले के मजदूर एक बार लौट के आने पर दूसरी बार पंजाब जाने का नाम क्यों नहीं लेते? खुद वह आजतक अपने गाँव-टोले से दूर रहा भी नहीं कभी। हाँ एक बार बनमनखी गुरूमहाराज के सतसंग में गया था। ठसमसठ रेल से।
कातिक महीने में अपने गाँव बिठेली का मेला भी नहीं छोड़ा है उसने कभी। मेला की तो कोई परवाह नहीं….मेला तो भर जिनगी देखता ही रहेगा….पहले पंजाब जाकर कमा-धमा ले…घर बनाले…कैसा ढह-ढनमना गया है। पर साल के मेले की सारी बातें उसके मन में घूमने लगीं।…कैसे शिवचरना अपनी कमीज में बिठेली नव-जुवक संघ का बिल्ला लगाकर कार्यकरता बनकर घूमता था। आस-पास के गाँव वाले जब पूछते कि कितने में डान्सर हुआ है इस बेर….तो बढ़ाचढ़ाकर बोलता था शिवचरना….दस हजार में हुआ है….देखना कैसा थैह-थैह मचता है। सच में बघुवादीयरा की नाचपाटी ने थैह-थैह मचा दिया था। इसटेज पर पैसे की बरसात हो गई थी। नाटक…फेंक दो कलम उठा लो बंदूक…में मुरारी डाक्टर एन मेन शेरा डाकू लगता था….काला कपड़ा काला मुरैठा…लाल टीका…लाल जलती आँखें और हाथ में रायफल..। उसके चिल्लाने से ढेर बच्चों ने पेंट में मूत दिया था।
शिवचरना सोचता है कि नाटक-नौटंकी…मेला-ठेला तो जिंदगी पर चलता रहेगा….बिना पैसे के जिंदगी कैसे चलेगी। फिर ब्याह-शादी भी तो करेगा…कब तक यूँ ही रहेगा। वह ठहरा टूवर। माँ-बाप गुजर ही गए बीमारी से। एक भाई था जो पागल हो गया और न जाने कहाँ गायब हो गया। घर में डेरावाली आ जाएगी तो वह कमा के लाएगा और डेरावाली रोटी बनाके खिलाएगी…। यह सोचते ही उसकी देह में सिहरन होने लगी। उनकी आँखों में मिन्नी की गुस्साई निगाहें तैर गई…। सूरूसिंह की बेटी!….ना-ना कहाँ गृहथ की बेटी और कहाँ हम मजूर मुसाहर। गजब का फेकराबाज बन गया है शिवा। उसने एक फेकरा छोड़ा और अपनी बुद्विमानी पर मुस्कुरा दिया….“कहाँ राजा भोज कहाँ गंगुवा तेली…।”
ब्याह तो सनीचरी से ही करेगा। लेकिन क्या वह चैन से जीने देगी! घड़ी-घड़ी झगड़ा करेगी। उसकी मतारी तो और झगड़ाही है…।
सुबह सूरज बाँस भर उपर चढ़ आया था…। भक्क से नींद खुली शिवचरना की। एक दिन और बीत गया…। कल सबेरे ही जब सारा गाँव अधजगा-सा आँख मल रहा होगा तब तक वह गाँव छोड़कर जा चुका होगा…। पंजाब चला जाएगा शिवा अपने देस को छोड़कर।…पंजाब भी तो अपने देस में है…..होगा…पर अपना देस तो यही है…. शिवचरना ने सोचा कल तो वह चला ही जाएगा….आज ही सबसे मिल-जुल लेगा। उसका अपना संबंधी तो कोई है नहीं बस दोस्त मुहिम है। रामदेव भगत से उधारी पैसा भी लेना है। अपना कुदाली, खन्ती, खुरपी और दबिया रामदेव भगत के यहाँ बनकी लगाना होगा तब वह सूद पर पैसा देगा। रामदेव भगत दस रूपया सैकड़ा सूद लगाता है। राफ-साफ! इससे कम नहीं। भाजो बोला है कि कटिहार से टिकट कटाकर सीधे अमृतसहर और वहाँ से टेलमा जाएगा सरदार के पास…। भाजो को सरदार खूब मानता है। शिवचरना को अच्छा काम लगा देगा भाजो। सनीचरी को भी पाँच किलो मकई खरीद के देना है सत्तू पीसकर देने के लिए। रास्ते में भूख लगने के बाद सत्तू से ही ठहार मिलेगा।
जाने के पहले भर दिन अपना सारा काम निपटाता रहा शिवचरना। पैसा उधारी ले आया….सनीचरी भी सत्तू पीस के दे गई…बोचवा और रजुआ से भी मिल आया शिवा….साँझ तक अपनी पोटली में सारा सामान बाँध लिया उसने…एक बटुवा भी सिला लिया उसने जिसमें सावधानी से रूपया रख सके…सब कुछ जमा-जुगता कर पहर रात जब अपने बिछौने पर गया शिवचरना तब न जाने क्यों मन स्थिर नहीं था उसका। उसके दिमाग में रजुआ और बोचवा की बात चकरघिन्नी की तरह घूम रही थी। “भाजो के साथ जा रहे हो शिवा! वह तो मजदूरों का दलाल है। सरदार सस्ता मजदूर लाने के बदले उसको दलाली देता है। पैसा तुम्हारे हाथ में तो आएगा शिवचरना लेकिन तुमको इतना खटना पड़ेगा कि तुम बेकाम हो जाओगे। पंजबनी सरदारिन जो चाय पिलाती है न उसमें अफीम डालती है। नशे के झोंके में तुमसे काम लिया जाएगा और तुम्हें पता भी नहीं चलेगा। तुम जाओ, जाते आदमी को रोकना नहीं चाहिए, लेकिन परदेश में मजूरों का कोई हीतू नहीं होता। इतना ध्यान रखना कि किसी पर विश्वास मत करना और लेन-देन में साफ रहना। आते बखत पैसा सम्हाल के रखना। मजदूर और मूरख समझ कर टीटी और पुलिस पैसा छीन लेता है।”
बोचवा की फूटी आँख भी शिवचरना के आगे घूम जाती है…वह सोचता है कि कैसे सरदार ने उसकी आँख फोड़ी होगी। विद्या भी तो पंजाब में ही मरा। बोचवा बोल रहा था कि उसके दोस्त ने उससे रूपया उधार लिया था जब ढेर सारा रूपया उधार हो गया तो विद्या उससे माँगने गया। खाना खिलाने के नाम पर उसके दोस्त ने ही जहर दे दिया विद्या को।
शिवचरना अपने मन को कड़ा करता है। सोचता है सब तैयारी हो चुकी है अब कुछ भी हो! भाजो भी उतना बुरा तो नहीं लगता जितना रजुआ कहता है। नींद शिवचरना की आँखों पर सवार होने लगी थी…सब बातों को किनारे कर वह सो गया।
शिवचरना जा रहा है….अपने घर से दूर…अपने गाँव से दूर….अपने देश से दूर…। भगवत्ती थान में प्रणाम कर शिवा अपने गाँव को निहार रहा है। भगवत्ती मइया को प्रणाम, दोस्तों को सलाम….कहा-सुनी माफ….न जाने फिर कब आना हो। उसने देखा पक्के मकान भी…टीन के घर भी चमकते हुए…भूरे-भूरे रंग की खपरैल….फूस की छप्पड़ और उसके बीच झाँकती उसकी झोपड़ी…। दक्खिन की ओर दूर तक चली गई नहर…। नहर के दोनों ओर हरी-पीली फसलें और पच्छिम की ओर के पंपिंग सेट से निकलती पानी की पतली धार…। बाजार की तरफ से आती तुक-तुक की आवाज और चूड़ा मिल से निकलता काला धुआँ।
जोर से साँस भरकर शिवा ने कदम आगे बढ़ाया। बगल के कदंब गाछ पर नीलकंठ दीख गया तो जतरा शुभ मानकर उसने नीलकंठ को प्रणाम किया।
भाजो के साथ और लोग हैं…..सीप्रसाद टोला का सितबिया भी जा रहा है। भाजो झटक रहा है। “और तेज चलो…धीरे चलोगे तो गाड़ी छूट जाएगी।” शिवचरना बार-बार रूक जाता है…..उसका कलेजा कटा जा रहा है। गाँव छोड़कर जा रहा है….घर से दूर अनजान जगह….कहीं वह कभी वापस न आ सका तो!!
बीते दिन तुरंत-तुरंत गुजर रहे हैं शिवा के सामने से। दृश्य बदल रहे हैं….मन बदल रहा है। शिवचरना का दिल बैठा जा रहा है। एक-एक कदम नाप कर उठा रहा है। अपनी टांगों को शक्ति लगाकर घसीट रहा है शिवचरना। उसे कुछ समय पहले की बात याद आ रही है जब नागेशर बाबू के यहाँ नया-नया फोन लगा था और पंजाब से मुसहरी टोले में फोन आया था। खबर आई की सुन्नर का फोन है पंजाब से। सुन्नर का नहीं सरदार का फोन है, उसी के यहाँ सुन्नर रहता है। मुसहरी के तेतरी से ब्याह हुआ है सुन्नर का। टोलेभर का जमाई, टोले भर का कुटूम है सुन्नर। बहुत तेज! इंगलिश में चिट्ठी लिख कर भेजता है बिठेली पता लगाने कि देखें वहाँ कोई इंगलिश पढ़ पाता है या नहीं। पिछली बार जब चिट्ठी आई थी तो तेतरी की माँ ने शिवचरना को दिखाई थी। शिवचरना भी सोचता था कि वह भी जब पंजाब जाएगा तो इंगलिश सीखेगा। तेतरी को फोन कान में सटाने पर गुदगुदी लगती है। क्या बोलेगी वह! सरदार बोल रहा है….“ओय! क्या तू उसकी पैन है!” तेतरी को जब समझ में नहीं आया तो शिवचरना ने फोन अपने हाथ में ले लिया था। उसके बाद उसने क्या सुना और क्या कहा उसे याद नहीं करना चाहता शिवचरना। उसे तो याद है उसके बाद का रूदन….उसके बाद की चित्कार…। उसके बाद तेतरी का मुक्के से छाती पीटना याद है शिवा को…।
शिवचरना को आज लगता है कि उसका दिल अंदर की तरफ सिकुड़ता जा रहा है। उसे आज नहर पर ट्रक की आवाज सुनाई दे रही है। ऐसा लगता है कि वह बीच सड़क पर जकड़ा पड़ा है और ट्रक उसे पीसता हुआ आगे बढ़ गया है। ट्रक सुन्नर को नहीं बल्कि शिवचरना को कुचल कर आगे बढ़ा है…साथ ही उसके अरमानों को भी…उसके बेतरतीब ख्वाबों को भी।
रूपौली हॉल्ट! सिर्फ पैसेन्जर गाड़ियाँ रुकती हैं यहाँ। शिवचरना ठंड में भी पसीने से नहा गया है। बरगद के गाछ के नीचे हवा चल रही है….हवा में बैठा है शिवचरना। उसका मन दो फाँक हो गया है। एक मन कह रहा है कि वह नहीं जाए….नहीं जाए….। दूसरा मन कह रहा है कि वह जाए…खूब कमाए…। भाजो सब मजदूर से पैसा तसील कर टिकट कटाने गया है।
स्टेशन पर ढेर सारे लोग हैं…। आस-पास कतारों में दुकानों सजी हैं। शिवचरना को लगता है जैसे गाछ-वृच्छ में भी हाथ उग आए हैं। सभी रोक रहे हैं शिवा को….मत जा शिवचरना….मत जा…।
गाड़ी आ गई है…। सब चढ़ रहे हैं….। शिवचरना भी चढ़ रहा है….। अपनी धड़कन को बंद करके शायद…। अपने मन को मार कर शायद…..।
गाड़ी खचाखच भरी हुई है। शिवचरना पोटली लेकर खड़ा है अन्दर में….लोग उसके पैरों को कुचल रहे हैं…। दम घुटा जा रहा है शिवचरना का…लगता है जैसे प्राण छूट जाएँगे। उसे याद आती हैं रजुआ की बातें…भाजो दलाल है…उसका थ्रेसर से कटा हाथ…बोचवा की फूटी हुई आँख…..सुन्नर के शरीर के मांस का लोथरा…आस-पास के मजदूरों के पंजाब में मरने की खबर…भुटकुन की बात कि मजूर कहीं भी रहेंगे मजूर हीं रहेंगे….उसकी जिन्दगी कभी नहीं बदलेगी।
शिवचरना ने भाजो से कहा…“भाजो भैया मैं नहीं जाऊँगा।”
गाड़ी सड़कने लगी है। “पगला तो नहीं गए हो शिवचरना…।” भाजो चिल्लाया।
शिवचरना ने पोटली सिर पर ली और भीड़ को चीरता हुआ गेट के सामने आ गया…। ट्रेन ने ज्यादा रफ्तार नहीं पकड़ी थी…। वह डिब्बे से बाहर कूद पड़ा…। हाथ-पैर सही सलामत थे…। उसकी साँसें तेज चल रही थी।
शिवचरना को यह समझ में नहीं आया कि उसने अच्छा किया या बुरा….लेकिन वह बेहद खुश था। उसने पटरियों को दूर तक देखा जहाँ डिब्बे का अंतिम काला भाग ही दिख रहा था। आसमान का सूरज बरगद के पत्तों के बीच से झिलमिला रहा था….। उसने पूरबा हवा के ताजे झोकों को अपने नथुनों में भर लिया….। बहुत काम मिलेगा यहाँ भी…यह सोचते हुए उसने अपनी पोटली पीठ पर ले ली और संकड़ी पगडंडी पर उतर गया…।
****“मेरो मन अनत कहां सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै|” -सूरदास
परिचय
नाम- श्रीधर करुणानिधि
जन्म पूर्णिया ,बिहार के एक गाँव में
प्रकाशित रचनाएँ- दैनिक हिन्दुस्तान‘, ‘ दैनिक जागरण’’प्रभात खबर’
’उन्नयन‘(जिनसे उम्मीद है कॉलम में) हंस, ‘कथादेश’ ‘आधारशिला’’पाखी‘, ‘‘वागर्थ’ ’बया‘ ’वसुधा‘, ’परिकथा‘ ’साहित्य अमृत’,’जनपथ‘ ’नई धारा’ ’छपते छपते‘, ’संवदिया‘, ’प्रसंग‘, ’अभिधा‘‘ ’साहिती सारिका‘, ’शब्द प्रवाह‘, पगडंडी‘, ’साँवली‘, ’अभिनव मीमांसा‘’परिषद् पत्रिका‘ आदि पत्र-पत्रिकाओं, ‘समालोचन’ लिटेरेचर प्वाइंट’, ‘बिजूका’ ‘अक्षरछाया’ वेब मेगजीन आदि में कविताएँ, कहानियाँ और आलेख प्रकाशित। आकाशवाणी पटना से कहानियों का तथा दूरदर्शन, पटना से काव्यपाठ का प्रसारण।
प्रकाशित पुस्तकें-
1. ’’वैश्वीकरण और हिन्दी का बदलता हुआ स्वरूप‘‘(आलोचना पुस्तक, अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर, बिहार
2. ’’खिलखिलाता हुआ कुछ‘‘(कविता-संग्रह, साहित्य संसद प्रकाशन, नई दिल्ली)
3. “पत्थर से निकलती कराह”(कविता संग्रह, बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित)
4. ‘अँधेरा कुछ इस तरह दाखिल हुआ(कहानी-संग्रह), बोधि प्रकाशन से रामकुमार ओझा पांडुलिपि प्रकाशन योजना 2021 के तहत प्रकाशित
संप्रति-
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, गया कालेज, गया( मगध विश्वविद्यालय)
मोबाइल- 09709719758, 7004945858
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