सिर्फ भारतवर्ष में ही नहीं, बल्कि संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में राम का कथानक लोकप्रिय रहा है। एक आख्यान के रूप में तो यह सर्वव्यापी है ही, एक आदर्श के रूप में भी सदियों से राम लोकप्रिय रहे हैं। हिंदी के प्रसिद्ध कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने इन्हीं राम के शक्ति पूजन को लेकर अपनी कालजयी रचना “राम की शक्तिपूजा” लिखी है। यहॉं एक बात ध्यातव्य है कि निराला के राम जनमानस में पैठे अवतारी राम नहीं, बल्कि एक सामान्य जन की तरह प्रस्तुत होते हैं, जिनमें मानवीय विह्वलता और संवेदनशीलता है। इस कविता पर कुछ कहने के पूर्व निराला के संबंध में जानकारी देना अपेक्षित रहेगा।
हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में छायावाद का विशेष मान रहा है। पंत-प्रसाद-निराला-महादेवी इसके आधारस्तम्भ कवि माने जाते हैं। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ स्वातंत्र्यपूर्व भारत में प्रथमतः विद्रोही या क्रांतिकारी कवि के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने अपने व्यक्तित्व के अनुरूप छन्दों के बंधन में बँधी काव्य परिपाटी का विरोध किया और मुक्तछंद की कविताएँ लिखीं। इसके लिए उन्हें विद्वत्समाज के भारी प्रतिवाद का सामना करना पड़ा। मगर वह अपने निश्चय पर अडिग रहे। कालांतर में मुक्तछंद की रचनाएँ हिंदी साहित्य में स्वीकृत हुईं। और उनके देखादेखी अन्य रचनाकार भी मुक्तछंद की कविताएँ करने की ओर प्रवृत हुए्र।
बंगाल में लंबे समय तक रहने के कारण स्वाभाविक ही निराला ने बंगला साहित्य का गंभीर अध्ययन-मनन किया था। इन्होंने रविन्द्र संगीत की तर्ज पर “गीतिका” की रचना की। अपने व्यक्तित्व के अनुरूप उनकी भाषा-शैली भी अनगढ़ है। अगर प्रयोग की दृष्टि से देखा जाए तो आधुनिक काल के कवियों में वे सबसे बड़े प्रयोगवादी कवि के रूप में सामने आते हैं।
“राम की शक्तिपूजा” उनकी सर्वाधिक प्रौढ़ व कालजयी रचना मानी जाती है। इसका कथानक “देवी भागवत” और “शिवमहिम्नस्त्रोत” में देखा जा सकता है। मगर बंगाल में दीर्घावधि तक रहने के कारण बंगला कृतिवास रामायण से ये सुपरिचित थे। इसी बंगला रामायण से उन्हें इस कविता को लिखने की प्रेरणा मिली। राम के शक्ति-पूजन प्रसंग का कथानक ‘कृतिवास रामायण’ में जहॉं वर्णनात्मक है, वहीं निराला ने राम के अंतर्मथन को प्रमुखता दी है। एक प्रकार से देखा जाए तो उसे मौलिकता प्रदान की है। कृतिवास रामायण में वर्णन है :
नयनेर बहे जल, शुकायेल मुख
ताहा देखि बिभीषनेर दुःख फाटे बुक
बने प्रभु आमार गाहिक साध्व आर
आमा हे ते हेले हेत उपाय उहार
एत सुनि कादेन आपति रघुराय
धूलाय लोचन खिन्न नीलोत्पल प्राय
लक्ष्मण कांदिछे आर बीर हनुमान
सुग्रीव अंगद नल नील जांबवान।
रोदन करिछे सबे छाड़िये समर
देखिया सामेर दुःख कातेर अमर।
अब कविता “राम की शक्तिपूजा” में इसी का वर्णन देखें :
अन्याय जिधर, है उधर शक्ति, कहते छल-छल
हो गये नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजन,
रूक गया कण्ठ, चमका लक्ष्मण तेज प्रचण्ड
धँस गया धरा में कपि-गह-युग-प्रद मसक दंड
स्थिर जांबवान-समझते हुए ज्यों सकल भाव
व्याकुल सुग्रीव, हुआ उर में विषम घाव,
निश्चित-सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम
मौन में रहा स्पंदित वातावरण विषम।
इस प्रकार हम देखते हैं कि इस कविता का आधार बंगला कृतिवास रामायण ही है। वैसे यह कहना प्रासंगिक है कि निराला ने प्रचलित रामचरित कथानक को लिया है, मगर उसकी प्रकृति को अपने परिवेश में ढाला है। दोनो का वातावरण एक दूसरे से एकदम भिन्न है। प्रथम में बंगाली भावुकता अपनी चरमावस्था पर है, तो द्वितीय में मध्यदेशीय संयम और धैर्य का संधान है। प्रथम में विभीषण, लक्ष्मण, नल-नील, सुग्रीव, जांबवान आदि एक ही तरह के हैं। किन्तु द्वितीय में सबकी प्रतिक्रियाएँ अपने व्यक्तित्व के अनुरूप अलग- अलग हैं। लक्ष्मण की तेजन्विता, हनुमान का दबा हुआ व्यक्तिगत उत्साह, जांबवान का धैर्य आदि चारित्रिक विशेषताएँ उभर आई हैं।
इस कविता का रचनाकाल 1936 है। मतलब प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त हो चुका था। इस वक्त पूरे विश्व में युद्ध की विभीषिका पर चिंतन चल रहा था। सो इस कविता में भी युद्ध के मध्य उत्पन्न मानसिक प्रक्रिया है, जिसमें राम के चरित्र के रूप में केवल मानवीय रूप उभरकर पग-पग पर सामने आया है, जो प्राचीन रामकथा की रूढ़ियों को तोड़ नवीन दृष्टिकोण को परिभाषित कर रहा है :
स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर फिर संशय
रह रह उठता जग जीवन में रावण जय भय
राम यही देख और सोच कर विचलित हैं :
अन्याय जिधर, है उधर शक्ति, कहते छल छल
हो गये नयन, कुछ बूँद ढलके दृगजल।
निराला के “राम की शक्तिपूजा” के प्रसंग हैं- राम की पराजय, शिविर में राम की चिंता, राम का अंतर्द्व्न्द्व, हनुमान का ऊर्द्ध्वगमन, विभीषण की मंत्रणा, जाम्बवान की सलाह, राम का निश्चय, देवी की आराधना, पद्महरण प्रसंग, देवी स्तुति, वर प्राप्ति।
कविता का आरंभ कुछ यूँ होता है :
रवि हुआ अस्त
ज्योति के पत्र पर लिखा
अमर रह गया राम-रावण का अपराजेय समर।
अपने समय का सर्वाधिक बलशाली, विश्वविजेता योद्धा रावण। उसके युद्धकौशल का वर्णन निराला कुछ यूँ करते हैं :
रावण प्रहार दुर्वार विकल बानर दल बल
मुर्छित सुग्रीवांगद भीषण गवाक्ष गय नल
वारित सौमित्र भल्लपति अगणित मल्लरोध
गर्जित प्रलयाब्धि क्षुब्ध हनुमत् केवल प्रबोध
उद्विरित वह्नि भीम पर्वत कपि चतुःप्रहर
जानकी भीरू उर आशा भर रावण सम्वर।
रात होने के साथ युद्ध समाप्त हुआ तो सेनाएँ वापस अपनो शिविरों की ओर लौट चले :
लौटे युग दल
राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल
बिंध महोल्लास से बार बार आकाश विकल।
उधर वानरी सेना का हाल यह था कि :
वानर वाहिनी खिन्न लख निज पति चरणचिन्ह
चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।
ऐसे में राम का परिस्थितिगत चित्रण देखें :
श्लथ धनु गुण हैं कटि बन्ध स्त्रस्त तूणीर धरण
दृढ़ जटा मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल
फैला पृष्ठ पर बाहुओं पर वक्ष पर विपुल
उतरा ज्यों पर्वत पर नैशान्धकार
चमकती दूर ताराएँ ज्यों हों कहीं पार।
राम के धनुष की प्रत्यंचा ढीली हो गई है। कटिबन्ध का कसाव कमजोर हो गया है। और जटा-मुकुट अस्त-व्यस्त है। दृढ़ जटा-मुकुट बिखर कर पीठ पर, हाथ पर और छाती पर भी फैल जाना एक विशेष नकारात्मक मानसिक दशा का द्योतक है। इस चित्र में वेषपरक रेखाओं द्वारा राम के अवसादपूर्ण मनोदशा का मार्मिक दृश्य अंकित किया गया है।
सुबेल गिरि पर आकर राम अत्यंत संशयग्रस्त हो चुके हैं।उनमें रावण के जय का भय समा गया है। युद्ध के लिए उद्यत उनका मन बार-बार हार जाता है। हार के इन्हीं क्षणों में इन्हें विदेह-उपवन में सीता से प्रथम मिलन का ध्यान हो आता है। यह स्मृति जन्य मिलन हार के बाद नारी के अंचल में मुंह छिपा लेने का मिलन नहीं है और न सर्वत्र से अपने को हटाकर श्रृंगारिक अनुभूतियों में खो जाने का मिलन है। यह प्रेम का रचनात्मक मिलन है, जो मन के आवेश, आवेग और उत्साह को जगाकर क्रियात्मक बना देता है :
फूटी स्मिति सीता ध्यानलीन राम के अधर
फिर विश्व विजय भावना हृदय में आई भर
वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत
फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत।
किन्तु उस दिन के युद्ध में अपने दिव्यास्त्रों के खण्डित होने से अपनी असफलता की याद में राम पुनः चिन्ताकुल हो उठे। उन्हें गर्वोन्मत्त रावण का अट्टहास सुनाई पड़ा और उनकी आँखों से आँसू ढुलक पड़े :
फिर सुना हँस रहा अट्टहास रावण खल-खल
भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्ताजल।
यह देखते ही भक्त हनुमान का आवेश बढ़ता है और वे ऊर्द्ध्वगमन कर जाते हैं :
इस और शक्ति शिव की दशकन्धपूजित
उस ओर रूद्रवदन जो रघुनन्दन कूजित।
करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल
लख महानाश शिव अचल, हुए क्षण भर चंचल।
किन्तु माता अंजना के समझाने पर हनुमान सामान्य हो वापस भूमि पर उतर जाते हैं।
विभीषण राम को समझाते और उत्साहित भी करते हैं। वह कहते हैं कि लक्ष्मण, हनुमान, सुग्रीव, अंगद आदि सभी वीर आपके साथ हैं और युद्ध भी वही है। फिर असमय ही उनके मन में यह पराजय बोध क्यों जगे :
रघुकुल गौरव लघु हुए जा रहे तुम इस क्षण
तुम फेर रहे हो पीठ, हो रहा जब जय रण।
ऐसे में राम उनसे निराश स्वर में कहते हैं कि महाशक्ति तो रावण के आमंत्रण पर उसके साथ है। फिर विजय कैसे होगी :
बोले रघुमणि “विजय न होगी रण
यह नहीं रहा नर वानर का राक्षस से रण
उतरी पा महाशक्ति रावण से आमंत्रण
अन्याय जिधर है उधर शक्ति।” कहते छल छल
हो गये नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल।
इतना ही नहीं। राम इससे आगे भी अपनी निराशा का वृतांत सुनाते हैं :
देखा है महाशक्ति रावण को लिये अंक
लांछन को लिये शशांक नभ में अशंक
हत मन्त्रपूत शर सम्वृत करती बार-बार
निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार।
इस बार जांबवान उन्हें समझाते है :
बोले विश्वस्त कण्ठ से जांबवान ‘रघुवर
विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण
हे पुरूषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर ।
वयोवृद्ध जांबवान की बात मान राम शक्ति पूजन के लिए तत्पर होते हैं। वह हनुमान से पूजन हेतु एक सौ आठ कमल लाने का अनुरोध करते हैं :
चाहिए हमें एक सौ आठ कपि इन्दीवर
कम से कम, अधिक और हों, अधिक और सुन्दर
जाओ देवीदह उषःकाल होते सत्वर
तोड़ो लाओ वे कमल, लौटकर लड़ो समर।
राम शक्ति पूजन-साधन में प्रवृत होते हैं। राम की साधना यहॉं दुहरे अर्थों में द्योतक है। एक तो शक्ति के आराधना के अभाव में जीवन पराजय का दूसरा नाम होगा। दूसरे इसके माध्यम से ही आत्मा नित्य स्वरूप में लौट सकती है। अर्थात् अपनी अस्मिता को विसर्जित कर अद्वैत की स्थिति में पहुँचा जा सकता है। कुण्डलिनी का जागरण, शक्ति का जागरण है। कुण्डलिनी चिदग्नि है। इसे जगाने का अर्थ है- परस्पर विरूद्ध शक्तियों का सामंजस्य। पाँच दिनों में मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत और विशुद्ध को पार करने के बाद छठे दिन जाग्रत चित्तशक्ति आज्ञा नामक चक्र में पहुँचती है। छठा चक्र आज्ञाचक्र है। यह मनोमय कोष है। इसके बाद चित्त निर्विकल्प शुद्ध प्रज्ञा में पहुँचकर दिव्य ज्ञान बिन्दु का साक्षात्कार करता है। भूमध्य के निम्न देश अर्थात् आज्ञा के सहस्त्रार में कई स्तर हैं। मंशाशक्ति के आक्रमण के फलस्वरूप कुंडलिनी सहस्त्रार में पहुँच जाती है। यहॉं पर परम शक्ति का आलिंगन करती है। इसके आगे एक मंजिल और है : ब्रम्हरंध्र। इसके बाद व्यक्ति की खण्ड सत्ता, अखण्ड सत्ता में बदल जाती है। यही अद्वैत स्थिति है। यही संपूर्णता को प्राप्त करने में ही होती है। इस बाधा के हट जाने पर साधक और साध्य में अद्वैतता हो जाती है। कविता “राम की शक्ति पूजा” के माध्यम से निराला इसी अद्वैतता का प्रतिपादन करते हैं। राम शक्ति अर्थात् दुर्गा की पूजन करते जाते हैं :
पूजोपरांत जपते दुर्गा दशभुजा नाम
मन करते हुए मनन नामों के गुणग्राम
बीता वह दिवस, हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण
गहन से गहनतर होने लगा समराधन।
शक्ति दुर्गा की पूजा का अंतिम दिन। एक को छोड़ सभी कमल पुष्प चढ़ाए जा चुके हैं। अचानक भगवती दुर्गा उनकी परीक्षा लेने के लिए वह कमल पुष्प उठा ले जाती हैं :
द्विपहर रात्रि साकार हुई दुर्गा छिपकर
हँस उठा ले गई पूजा का प्रिय इन्दीवर।
यह अंतिम जप ध्यान में देखते चरण युगल
राम ने बढ़ाया कर लेने को नीलकमल।
लेकिन वहॉं वह फूल तो था ही नहीं। राम एकदम से हतप्रभ रह गए कि अरे यह क्या हुआ। उन्हें अपने जीवन पर धिक्कार आने लगा। कवि निराला के स्वर में :
धिक् जीवन को, जो पाता ही आया है विरोध
धिक् साधन, जिसके लिए सदा ही किया शोध
जानकी, हाय उद्घार प्रिया का, हो न सका।
अचानक उन्हें कुछ याद हो आता है। और इसी के साथ वह अपना चित्त स्थिर करते हैं। एक दृढ़ संकल्प मन में उठता है :
“कहती थी माता, मुझको सदा राजीवनयन
दो नील कमल, हैं शेष अभी यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मात, एक नयन।”
अपने तरकश से वे एक तीर निकाल ज्योंहि वह उसके द्वारा अपनी एक ऑंख निकालने को उद्धत होते हैं, भगवती शक्ति दुर्गा साक्षात् प्रकट होकर कहती हैं :
होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।
वह महाशक्ति राम के बदन में हुई लीन।
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चितरंजन भारती,
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जगतनारायण रोड, कदमकुँआ, पटना-800 003
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