वह अनपढ़ थी. पढ़ाई क्या होती है, इसका बीज शायद बचपन से उसके कोमल ज़हन में बोया ही नहीं गया, या परिस्थितियों ने इजाज़त ही न दी. छोटे से गांव की गूंगी गाय सी यह अल्हड अनाड़ी सी लड़की खेती-बाड़ी में काम करते हुए बड़ी हुई. रईसी क्या होती है, ऐशो-आराम क्या होता है उसे पता ही नहीं था? परिश्रम करना, पानी भरना, ढोरों को चारा डालना और दूध दही बाज़ार में जाकर बेच आना, यही काम उसके बस का था.
जिसके लिए वह काम करती थी, वह उसका कौन लगता था इसका भी उसे पता न था. गांव की जवान युवतियों के मुंह से सुना था कि जब वह चार साल की थी तो उसके माता-पिता गांव में आई बाढ़ में डूब गए और वह खुद इस बंदे के पल्ले पड़ गई. वह था तो पिता की उम्र का, पर मटमैली नज़रों का धनी था. जैसे ही वह कुछ समझदार हुई तो उसे लगा कि पीरसन की छेदती निगाहें उसके जवान बदन को चीरकर आरपार होते हुए उसे नंगा करती रहतीं. वह जब सोलह साल की हुई तो उसे गाँव के मंदिर में ले जाकर पंडित को साक्षी बनाकर अपनी पत्नी बनाकर घर ले आया. गाँव के लोगों से ‘गृहलक्ष्मी’ कह कर परिचय करवा दिया. परिचय क्या था, उसकी पत्नी होने का ऐलान था. वह कुछ भी न थी, पर अब गृहलक्ष्मी से लक्ष्मी बन गई.
संसार की रचना का आदि मूल सूत्र शायद इसी एक रिश्ते की बुनियाद पर खड़ा है. इन्सान और पशु में एक ही फ़र्क रहा है. इन्सान सुविधानुसार मर्यादा का पालन करता है और उसे धर्म का नाम दे देता है, बाकी किसी भी लक्ष्मण रेखा को पार करने में वह किसी जानवर से कतई कम नहीं. ऐसे विचार लक्ष्मी के मन में अक्सर पैदा होते जब भी ‘वह’ उसके साथ हैवानों जैसा बर्ताव करता, उसके शरीर को मांस के लोथड़े की तरह रौंदता उसके साथ संभोग करता. यह भावना तब ज़ोर पकड़ने लगी जब वह माँ बनी. जब ‘मोना’ पैदा हुई तो वह और व्यस्त रहने लगी. तीन सालों के बाद ‘मोहन’ पैदा हुआ. अब लक्ष्मी कुछ कुछ मान -अपमान की परिभाषा समझने लगी. मोना के सामने अपने पति के मुंह से तिरस्कृत शब्द सुनती तो अपमान की आग में झुलसने लगती. वह अपनी बेइज्ज़ती इतनी बार करा चुकी थी कि इज्ज़त क्या होती है यह अहसास भी उसके शब्दकोष से स्थगित हो चुका था. बस बयाँ होती थी स्थिति, जब वह ‘आदमी’ शराब पीकर, मदहोशी में झूमते हुए घर आता, और काली रात के ढल जाने पर दिन की रोशनी में सिर्फ़ लक्ष्मी के शरीर के नीले निशान ही उस सच को ज़ाहिर करते.
इसी तरह कुछ साल बीते और देखते देखते मोना दस साल की हो गई. चाहे वह बाप से डरती थी, पर माँ के लिए उसके मन में हमेशा एक सॉफ्ट कॉर्नर रही. गांव के स्कूल में पढ़ती थी. कभी जो पढ़कर आती उसे माँ के सामने दोहराते हुए कहती- “माँ मास्टर ने बताया कि ज़ुल्म करने वाला गुनहगार है, पर जुल्म को सहने वाला भी उससे बड़ा गुनहगार है, क्या यह सच है, या फ़क़त किताबों में दर्ज है?”
मोना माँ से यह सवाल बार बार पूछती- “माँ तुम क्यों कुछ नहीं कहती, क्यों चुपचाप सह लेती हो?
“…”। माँ की चुप्पी एकमात्र जवाब होती.
‘माँ कुछ तो कहो.’ मोना फिर पूछती.
बस सवाल खुद को बार बार दोहराता रहा. लक्ष्मी जवाब दे तो क्या दे ? वह रोकर सहे, या चिल्लाकर सहे, ख़ामोश रहे या शिकायत करे, खुद को बांटे न बांटे, क्या फर्क पड़ता? ज़ुल्म तो ज़ुल्म है, एक करता जाये, दूसरा सहता जाये, शायद इस घर का यही नियम बन गया. उसके पास और कोई विकल्प ही न रहा. अब तो वह दो बड़े बच्चों की माँ भी थी. चुप्पी में अपनी ग़नीमत समझ कर मौन रहती.
0
मोना और मोहन दोनों ने माँ की कोख से जन्म तो लिया पर कभी पालने में झूल न पाए थे. उन्होंने कभी माँ की प्यार भरी लोरी नहीं सुनी. बस सुनी तो सिर्फ पिता की कड़कती हुई आवाज़ या उसके लोहे जैसे हाथों से माँ के नाजुक बदन पर कड़कती बिजलियों जैसी मार की आवाज़. वे छोटे थे, पर इतने भी छोटे नहीं कि वे यह भी न समझ पायें कि उनकी माँ पर जुल्म हो रहा है. लेकिन वे दोनों बेबस और मजबूर है. जानते थे, हर रोज़ रात को जब उनके पिता घर में घुसते, तो किस तरह माँ सहमी-सहमी सी अपना चेहरा सूत की चुनरी से ढांप कर खाट के कोने पर एक पोटली की तरह बैठी हुई होती, और उनके आते ही उठ खड़ी होती.
‘अब इस तरह क्या खड़ी हो? जाओ पापड़ पानी ले आओ…’ और वे कपड़े बदलकर फ़क़त एक बनियान और एक बरसों पुरानी लूंगी पहनकर उसी खाट पर लेट जाते. कभी तो घर में घुसते ही गालियों की बौछार शुरू कर देते- ‘न जाने मैं कैसे इस जंजाल में फँस गया हूँ? फ़कत मैं एक ही कमाने वाला, और तुम तीनों बैठ कर खाने वाले. तुम क्यों नहीं कुछ हाथ पैर चलाती? चार पैसे कमाओगी तो पता चल जाएगा कि काम करना क्या होता है? परिश्रम का पसीना बहाना क्या होता है? निकम्मों की तरह रोटी पका कर, रोटी खाकर, बिल्कुल बेसूद सी हो गई हो.’
लक्ष्मी ऐसे जहरीले शब्द सुनने व् झेलने की आदी हो गई थी, आज नहीं, पिछले दस सालों से. एक कहावत है ‘नई दुल्हन नौ दिन, ज़्यादा से ज़्यादा दस दिन!’ पर लक्ष्मी को तो दस दिन भी नयी नवेली दुल्हन होने का सुख नसीब न हुआ था, सुहागन के सारे अरमान धरे के धरे रह गए. मिला तो फ़क़त यह चूल्हा-चौका, वही झाडू-पोता, जैसे यही उसकी विरासत हो!
कभी कभी मोना और मोहन आपस में आंखों की अनुच्चारित भाषा में बतियाते. एक दिन लक्ष्मी पर इतनी मार पड़ी कि उसे तेज़ बुखार चढ़ गया. उसके शक्तिहीन बदन से जैसे किसी ने प्राण खींच लिए. खटिया पर बिना हिले डुले पड़ी कराहती रही. मोना अब छोटी न रही, बारह साल की हो गई थी. वह क्षुब्ध नज़रों में माँ की ओर देखते हुए कहने लगी-’ भगवान करे ऐसे बाप से बाप न हो तो ही अच्छा है.’
इस बात को एक हफ्ता गुजर गया. हालात ने न सुधरने की ठान ली. घाव भरने का नाम ही न लेते. हक़ीम से दवा लाकर पिता ने मोना को देते हुए कहा ‘यह माँ के घाव पर लगा दो, घाव जल्दी ठीक हो जाएंगे, और दवा दूध के साथ पिला देना.’
मोना का गुस्सा अभी ठंडा नहीं हुआ था. जुल्म सहने की भी हद होती है. पहली बार पिता के सामने ज़ुल्म के खिलाफ़ आवाज़ उठाते हुए कहा-’ ठीक हो जाएगी, फिर क्या? फिर मार खाएगी, फिर गिरेगी, पड़ेगी, कराहती रहेगी और फिर मरहम लगाने पर उठ खड़ी होगी, फिर से मार खाने के लिए! इससे बेहतर यह है कि आप उसे एक ही बार इतना मारें कि वह मर जाये, और इस पीड़ा से मुक्ति पा ले. मुझे तो याद नहीं आता है कि मैंने कभी माँ मुस्कुराते हुए देखा है, या कभी इस घर में मान-सम्मान पाते हुए देखा है. इसके साथ तो हमेशा बदी का व्यवहार होता आया है, और करने वाला कोई और नहीं, आप ही हैं. जोरावर के आगे कमज़ोर का क्या बस चलेगा? उसे पड़ी रहने दो, पड़े पड़े मर जाने दो,..’ कडवाहट का ज़हर उगलने के पश्चात वह रोने लग गई. मोहन छोटा था, पर था तो उसका भाई. अपनी दोनों बाहें बहन के गले में डाल कर उसे चुप कराने लगा.
उसके पिता के तो जैसे होश उड़ गए. भीतर एक बिजली कौंधी, कुछ लर्जिश सी हुई और कुछ भरभराकर टूटता, गिरता महसूस हुआ. मार खाने वाला मौन पर उसकी दो मजबूत बाहें उसका कवच बनकर खड़ी है. अब लक्ष्मी निर्बल नहीं. एक दिन ये बाहें इतनी मजबूत हो जायेंगी कि वे उस पर वार करते हुए हथियार को भी थाम लेंगी. उसे महसूस हुआ जैसे वह खुद लक्ष्मी का रक्षक नहीं, उसका भक्षक बन गया हो, अपने घर को खुद ही आग लगाने वाला एक राक्षस. आज उसने अपने मन के आईने में अपना बदसूरत अक्स देखा और उसे खुद से घृणा होने लगी. आंखें भर आई. निराशा में एक आशा जागी. वह उठा, हाथ मुंह धोकर रसोईघर में गया, थोड़ी खिचड़ी पकाई, थाली में लेकर मोना के सामने आकर खड़ा हुआ.
‘ यह अपनी माँ को खिलाओ’ कहते हुए आंखें शर्म से नीचे धरती में गाड़े वह खड़ा रहा. उसकी आँखें तर थीं.
‘ आप ही जाकर उसे खिलाओ,’ बेरुखी के साथ मोना ने जवाब दिया. भीतर ही भीतर मोना सचेत थी. उसे पता था कि ये प्रायश्चित के आंसू है जो उसके पिता की आंखों में तैर रहे थे. पर वह प्रायश्चित की इन्तेहा देखना चाहती थी. प्रायश्चित और माफ़ी दोनों आमने सामने खड़े थे. पिता ने थाली उठाई और लक्ष्मी की खाट के आगे जा खड़ा हुआ, इस अहसास से बेखबर कि लक्ष्मी नींद में भी आंसू बहाते बहाते सो गई थी. दमकते मोती से आंसू भी उसके गालों पर ही सो गए थे.
अब मोना से रहा न गया, उठ कर अपने पिता के पास आकर खड़ी रही. उनकी आंखों में आंखें डाल कर जैसे उनसे कोई वादा लिया, और फिर माँ के हाथ पर हाथ रखकर धीरे से कहा-‘उठो माँ, उठकर खिचड़ी खाओ, बाबा ने अपने हाथों से बनाई है.’
लक्ष्मी ने आंखें खोलीं. पति को अपने सामने पाया, इन्सानी जामे में एक नया स्वरूप. उठने की नाकाम कोशिश की फिर निर्बलता के कारण आंखे मूंदकर यूँ ही लेटी रही.
‘ तुम लेटी रहो, मैं तुम्हें चम्मच से खिलाता हूँ.’ कहकर उसने एक चम्मच खिचड़ी का भरकर लक्ष्मी के मुंह की तरफ बढ़ाया और लक्ष्मी के मुंह खोलने का इंतजार करने लगा. लक्ष्मी ने खिचड़ी खाई और साथ में अपने आसुओं का पानी भी पिया. खाने-पीने का स्वाद अमृत जैसा भाया. आंखें खोलकर पति की ओर देखा, फिर बच्चों की ओर. मोना के मुंह पर मुस्कुराट का उजाला फैला हुआ था. पिता की ओर देखकर उसके गले में अपनी बाहें डालते हुए खनकती हंसी के फुव्वारे सी झरझरित वाणी में बोली- ’बाबा, खिचड़ी में तो आपने नमक डाला ही नहीं, फीकी खिचड़ी क्या खाक स्वाद देगी!’
सुनते ही पिता की छलकती आंखें ज़मीन में गढ़ गईं. सभी के चेहरों की मुस्कराहट एक मुखरित हंसी में तब्दील होते होते एक ठहाके की गूँज बनकर चारों ओर फ़ैल गई !
————————————
देवी नागरानी
जन्म: 1941 कराची, सिंध (तब भारत) 12 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, 10 कहानी संग्रह, 2 भजन-संग्रह, 14 सिंधी से हिंदी अनुदित कहानी-संग्रह प्रकाशित। सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार लेखन, हिन्दी- सिंधी में परस्पर अनुवाद। श्री मोदी के काव्य संग्रह, चौथी कूट- साहित्य अकादमी प्रकाशन, अत्तिया दाऊद, व् रूमी का सिंधी अनुवाद. NJ, NY, OSLO, तमिलनाडू, कर्नाटक, -धारवाड़रायपुर, जोधपुर, केरल व अन्य संस्थाओं से सम्मानित। डॉ. अमृता प्रीतम अवार्ड, एवं मीर अली मीर पुरूस्कार. 2007-राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद से पुरुसकृत। 14 सितम्बर, 2019, महाराष्ट्र राज्य सिन्धी साहित्य अकादमी से ‘माँ कहिंजो ब न आहियाँ’ संग्रह के लिए पुरुस्कृत. अप्रैल, 2021 को ‘गुफ़्तगू संस्था’ की ओर से प्रयागराज में ‘साहिर लुधियानवी जन्म शताब्दी समारोह’ के अवसर पर ‘साहिर लुधियानवी सम्मान’. सिन्धी अनुदित कथाओं का हिंदी अनुवाद अब Voice & Text में कथासागर के इस लिंक पर सुनिए.
https://nangranidevi.blogspot.com/
contact: dnangrani@gmail.com