1.
जैसे गाय को दुहने से पहले
डाल दी जाती उसके सामने ताज़ा हरी घास
जैसे बकरे को पत्तियां खिलाते हुए
लाता है कसाई गोश्त मंडी तक
उसी तरह
देश के नागरिकों को
सुंघाई जा रही विकास की जड़ी
जैसे सुखी जीवन की आशा में
विदा होती किसान की लड़की अपने मायके से
जैसे नौकरी के लिए पढ़ाई करता नौजवान
उसी तरह विकास के लिए
जी रहे देश के नागरिक
विकास एक शब्द रहा होगा कभी
अब वह बन चुका है
पतित सत्ता का प्यारा हथियार
सपनों के व्यापारियों का चमकता सैम्पल
नए समय की वेश्याओं की आंख का काजल
जिसके सम्मोहन से
खिंची चली आ रही है भारी भीड़
विकास अब एक शब्द नहीं
धूर्तता और मक्कारी का दौड़ता हुआ रथ है
जिससे उड़ती धूल
पीछे भाग रहे लोगों की आंख में भर रही है
और लोग
आँखें होने के बावजूद
कुछ नहीं देख पा रहे हैं।
★★★★★
2.
तर्कों का अंत नहीं था
हर तरफ आवाज़ों का शोर था
सत्य को जानने के सबके अपने दावे थे
सबकी अपनी कसौटियां थीं
अनेक लोगों ने इतिहास को
कुछ ने भूगोल को तो
अनेक ने दर्शन,राजनीति,समाज शास्त्र,अर्थशास्त्र
आदि का पत्थर पकड़ रखा था और
उसी पर तेज़ कर रहे थे अपने तर्कों के औज़ार
अनेक लोगों का मत था कि
दुनिया लाखों साल से चली आ रही है
वे टेक की तरह सतयुग,द्वापर,त्रेता
और कलयुग का नाम लेते थे
अतीत के हज़ारों वर्षों की संख्या
अपनी उम्र बताने की आसानी से बताते थे
अनेक लोगों का विचार था कि
केवल कुछ हज़ार वर्षों की है
मानव की यात्रा
बंदरों से आदमी तक
अनेक लोग गाय को माता मानते थे
और अनेक लोग उसे दुधारू जानवर या
अपना प्रिय भोजन
सभ्यता की युगों लम्बी यात्रा ने
असंख्य टन का मलबा
संस्कृति के मैदानों में फेंक दिया था
जिसे संसार भर की भाषाएं
झाड़ू बनकर बुहार रहीं थीं और
इधर का कचरा उधर फेंक रहीं थीं
यह सब जानते थे कि
सबके भीतर एक जैसा ही
बह रहा है रूधिर
सबको लगती है भूख,प्यास और नींद
लेकिन अनेक वर्षों से चले आ रहे तर्कों ने
बना दी थी अभेद्य मोटी दीवारें
अनेक लोग जाग रहे थे जिनमें
भारी बेचैनी थी और
अनेक लोग लंबी ताने हुए सचमुच सो रहे थे
अनेक लोग जागते हुए भी आंखें बंद किये थे
उन्हें दुनिया की नश्वरता और
आदमी के किसी निर्णय पर न पँहुच पाने का
पक्का यकीन था
खुशी की बात बस इतनी थी कि
अनेक लोगों में ज़्यादातर लोग
कलम-करघा या हल-फावड़ा उठाये
चुपचाप बना उगा रहे थे वे चीज़ें
जिनसे जीवन में लालिमा थी और था लोगों में प्यार।
★★★★★
3.
अनेक अनकहे शब्द
बंद हैं होंठों के भीतर
ऐसे जो अनेक अवसरों पर
बाहर निकलते निकलते रह गए
उल्लास,प्रेम,प्रशंसा,क्रोध
सभी तरह की स्थितियों में निकल सकने वाले अनेक शब्द
बंद हैं होंठों के भीतर
शब्द घुमड़ते रहते भीतर
अपने निकल सकने का
अवकाश तलाशते
बेचैन
होंठ से कंठ तक
कंठ से हृदय तक कभी कभी
उतर जाते हैं शब्द
धुंए की तरह सोख लेता है शरीर
शब्दों को
नाचता रहता शब्दों के नशे में
लगता है कि शब्द ही शब्द
पसरे हुए हैं दिक-दिगंत में
अपने चुने जाने की बाट जोहते
इस भीड़ में
सबसे खूबसूरत शब्द वे हैं
जो हैं साबुन के झाग की तरह
हल्के और पारदर्शी
जिनमें झलक जाते
असली चेहरे
कुछ बेहद मासूम शब्द
जाने कबसे बाहर निकलने की
प्रतीक्षा में हैं
नहीं खत्म हो रही
उन शब्दों की परीक्षा
न्याय मांगते अनगिनत शब्दों से
संवर सकती है
हकलाती हुई दुनिया
★★★★★
4.
बोलो बोलो
लोगों की पोल खोलो
पोल
जिसे सुनते ही
दिखाई पड़ती है एक अंधी सुरंग
जाने कब से बंद पड़ी
जिसमें लिजलिजाते हैं
ज़हरीले सरीसृप
भयावह रहस्यों का
ठिकाना है जिसमें
पुरानी बावड़ियों में
उगी रोंएदार काई की तरह
पोल
जिसे सुनते ही
खाली जगह याद आती है
वीरान,सुनसान
अपने खालीपन के कारण बेचैन व परेशान
बोलो बोलो
लोगों की पोल खोलो
शायद
पोल में पहुंचाई जा सके
रोशनी की किरण
इसके अंधकार में बोया जा सके
प्रकाश की दुर्धर्ष जाति का
कोई साबुत बीज
पोल के सुनसान में
भेजी जा सके शायद
शायद कोई मचलती सरगम
जो भेद सके उसके भयावह सन्नाटे को
बोलो बोलो
ज़ोर से बोलो
लोगों की पोल खोलो
★★★★★
5.
बहुत दिनों से
जी भरकर नहीं निहारा
खुद को आईने में,
बहुत दिनों से खुलकर नहीं गाया
कोई गीत
शहर की सभ्यता के डर से,
हवाई चप्पल पहने हुए
नहीं घूमा बहुत दिनों से
चौक की सड़कों पर,
बहुत दिनों से नहीं गया
अर्जुनपुर और बलुहवा
उन दोस्तों के पास
जो समय को ताश की तरह फेंटते
और अद्धे की तरह पीते हैं,
बहुत दिनों से नहीं की
कोई लम्बी रेल यात्रा
नहीं मिला कोई चहकता स्टेशन
चाय पिलाने को
हाथ पकड़कर खींचता हुआ,
बहुत दिनों से
सूरज को सलाम नहीं किया
चाँद से बातें नहीं की
धरती का कुशल-मंगल नहीं पूछा
इस तरह बहुत दिनों से
नहीं आई ढंग की नींद
नहीं देखा कोई अच्छा सपना
जिसे जागते ही भूल जाऊं
लेकिन ताज़ा रहूं दिन भर
★★★★★
6.
ग़ज़ल – 1
मेरा दिल है जैसे धरती सब कुछ इसके अंदर है
पर्वत,समतल,हरियल-बंजर,खांई और समंदर है
निगल रहा है धीरे धीरे हँसी खुशी का हर लम्हा
यह कोई बेचैन समय है या फिर कोई अजगर है
वैसे तो दुनिया को अक्सर भला बुरा कह लेता हूँ
लेकिन कभी कभी लगता है सब कुछ केवल सुंदर है
प्रातः के बारे में यह भी एक कल्पना है प्यारी
चंदा की चाँदनी प्रश्न थी यह सूरज का उत्तर है
ऐसे ही कवि नहीं हुआ है उसने पीड़ा झेली है
कभी अनल है कभी सजल है इसीलिए मन उर्वर है
★★★★★
7.
ग़ज़ल – 2
हर तरफ शिकंजे हैं सख़्त पहरेदारी है
रस्म है,रवायत है और दुनियादारी है
जाने किन ख्यालों में रात भर भटकते हैं
स्वप्न हैं कई ऐसे जैसे जिम्मेदारी है
गौर से जो देखें तो चार दिन की दुनिया में
हर कोई शराबी है हर कोई जुआरी है
हर किसी में तुमको ही खोजता सा रहता हूँ
क्या कहूँ कि मुझ पर तो इक जुनून तारी है
हमने ज़ख्म खाये हैं इसलिए ही ऐसे हैं
लहजा जैसे शोला है बात ज्यों कटारी है
देखिए क्या होता है, है सफर बहुत मुश्किल
टिमटिमाते दीपक हैं और हवा से यारी है
★★★★★
8.
ग़ज़ल – 3
ईसा को सूली पर टांगा गांधी जी पर वार किया
दुनिया ने सच कहने वालों से ऐसे ही प्यार किया
कुछ कहते थे यही ठीक है कुछ कहते थे यही गलत
हमने कोई बात न मानी बस दिल के अनुसार किया
मेरी बातें सुनकर अक्सर सब की भौं तन जाती है
सच्चाई को आसानी से कब किसने स्वीकार किया
बड़ी बड़ी जगहों पर रोगी लोग घिसट कर आ बैठे
ऐसे ही लोगों ने पूरी पीढ़ी को बीमार किया
आदम की कुछ संतानें भी ज्यों श्वानों में बदल गईं
कुछ लोगों ने पूँछ हिलाने में जीवन बेकार किया
★★★★★
9.
ग़ज़ल -4
फिर वही दास्तान ले बैठे ।
अपना पूरा जहान ले बैठे ।
छत पे निकले थे हम हवा खाने,
लीजिये आसमान ले बैठे ।
हमने कीमत चुकाई थी भारी,
कैसा मद्धिम बिहान ले बैठे।
दुःख के बादल भिगो गए पखने,
वे हमारी उड़ान ले बैठे ।
उनको मालूम न था जुर्म है ये,
खेलने में ही जान ले बैठे ।
हर जगह उसके दिल पे बन आये,
कवि भी सबकी थकान ले बैठे ।
अर्थ का तीर लक्ष्य बेधेगा ,
शब्द की हम कमान ले बैठे ।
★★★★★
10.
पद-कुपद
लोकतंत्र का अजब हाल है
चूस रही सपनों की टॉफी,भीतर से जनता निढाल है
दाने चुगने को उकसाता, राजनीति का विकट जाल है
देश हुआ बेगाना अब तो राष्ट्र शब्द का ही उबाल है
बेकारी है और किसानों की आत्महत्या का सवाल है
भूख,गरीबी,हत्याएं हैं, रेप,लूट, दंगा- बवाल है
कोढ़ जाति का मिटा नही और खड़ा धर्म का महाकाल है
हर दल में भारी दलदल है,हर नेता लगता दलाल है
झंडों की कोई कमी नहीं है,भगवा,हरा, सफेद,लाल है
जो खुदको जनसेवक कहता वह जनता के लिए काल है
जो जितना शातिर अपराधी उसका उतना उठा भाल है
बिका मीडिया झूठ परोसे,सत्य जानना अति कराल है
बुद्धिजीवियों की भी क्षुद्र स्वार्थ से प्रेरित हर इक चाल है
यश कीअधम शूकरीविष्ठा जिसकी ख़ातिर सब हलाल है
सब कुछ है पीआर प्रबंधन जहां झूँठ का बस कमाल है
सबकी दौड़ उधर की ही है जहाँ कमाई है और माल है
अनगिन कविता संग्रह हैं पर कविताओं का ज्योंअकाल है
ऊंटों का गायन है चंहुदिसिऔर उस पर गदहों का ताल है
जो सच्चा मनुष्य है उसका तो हरदम जीना मुहाल है
★★★★★
डॉ. प्रकाश चन्द्र गिरि
संपर्क : drpcgiri@gmail.com