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Reading: मधुरेश : एक आलोचक का बनना और होना : पचास वर्ष की स्मृति-यात्रा : लवलेश दत्त
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Lahak Digital > Blog > Literature > मधुरेश : एक आलोचक का बनना और होना : पचास वर्ष की स्मृति-यात्रा : लवलेश दत्त
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मधुरेश : एक आलोचक का बनना और होना : पचास वर्ष की स्मृति-यात्रा : लवलेश दत्त

admin
Last updated: 2023/08/18 at 5:32 AM
admin
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54 Min Read
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मधुरेश जी ने हिन्दी आलोचना जगत में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है तथा देश के प्रतिष्ठित कथा आलोचकों में उनका नाम बहुत आदर से लिया जाता है लेकिन उनकी पहचान अपने संस्मरणों के माध्यम से भी है। ‘दोआबा’ के सितंबर 2018 अंक (26) में ‘आत्मगत’ के अन्तर्गत मैनेजर पांडेय पर केन्द्रित मधुरेश जी का संस्मरण ‘एक आलोचक का बनना तथा होना’ प्रकाशित हुआ था। मैनेजर पांडेय पर केन्द्रित उनका यह संस्मरण केवल संस्मरण ही नहीं अपितु यात्रावृत्त, रिपोर्ताज और तात्कालिक लेखकों के परिचय से युक्त एक महत्त्वपूर्ण संस्मरण है। यह संस्मरण मधुरेश जी की उत्कृष्ट संस्मरण लेखनकला से पाठकों को परिचित कराता है। इसके साथ ही दो शीर्ष आलोचकों के आपसी स्नेह सम्बन्धों को भी दर्शाता है।

मधुरेश जी और मैनेजर पाण्डेय ये दोनों ही हिन्दी आलोचना के शिखर पुरुष हैं। मैनेजर पाण्डेय ने जहाँ अपने आलोचना-कर्म में बदलते हुए परिवेश, मूल्यगत पतन और समाजिक परिवर्तन का बेबाकी और वैज्ञानिकता के साथ वर्णन किया है, वहीं मधुरेश जी की पहचान एक निष्पक्ष और पारदर्शी आलोचक के रूप में है। इन दोनों आलोचकों का विगत पचास वर्ष का संग-साथ है, जिसे याद करते हुए मधुरेश जी ने इस संस्मरण का आरंभ वर्ष 1969 की जुलाई से किया है जिसमें मैनेजर पांडेय के नौकरी हेतु साक्षात्कार, बरेली कॉलेज में नौकरी और फिर बरेली में ही उनके आवास, भोजनादि की व्यवस्था करने का वर्णन है। उस समय मधुरेश जी, बिसौली के एक इंटर कॉलेज से नौकरी छोड़कर बरेली कॉलेज से हिन्दी में एम. ए. कर रहे थे तथा उन्हें भी बरेली में ही रहना था तो यह तय किया गया कि पांडेय जी के लिए भी वे अपने कमरे के निकट ही कोई कमरा देखें, “मुझे कम से कम अभी एक साल बरेली में ही रहना था। अतः आस-पास ऐसे किसी कमरे की तलाश जरूरी थी जहाँ पांडेय जी ज़रूरी एकान्त का उपयोग करते हुए भी एकसाथ रह सकें।” (पृ. 127) बरेली कॉलेज बहुत पुराना और प्रतिष्ठित कॉलेज है। यहाँ पर नियुक्ति सम्मानजनक मानी जाती रही है, संभवतः इसीलिए डॉ. मैनेजर पांडेय ने बरेली से पचास किमी दूर बदायूँ के कॉलेज को न चुनकर इसे चुना। इसका दूसरा कारण वाराणसी से बरेली का सीधे जुड़े होना भी मधुरेश जी ने बताया है। लेकिन इसके साथ-साथ बरेली कॉलेज के हिन्दी विभाग की दयनीय स्थिति को भी बताना वह नहीं भूलते। मधुरेश जी लिखते हैं, “कॉलेज के हिसाब से बरेली कॉलेज बेशक बड़ा और पुराना था। आसपास के कई जिलों के लोग वहाँ पढ़ने आते थे। लड़कियों के लिए कई हॉस्टल थे। कुल मिलाकर कोई तीन-साढ़े तीन सौ अध्यापक थे। हिन्दी विभाग वहाँ बहुत अच्छा तो कभी नहीं रहा लेकिन फिर भी पुराना था और काफ़ी समय से था।”(पृ. 126) बरेली का यह दुर्भाग्य रहा है कि यहाँ पं. राधेश्याम कथावाचक सरीखी साहित्य की महान विभूतियाँ रहीं लेकिन महाविद्यालयी स्तर पर हिन्दी विभाग दिग्गज साहित्य मनीषी और विद्वान अध्यापकों से विभूषित होने के बाद भी प्रायः साहित्यिक आयोजनों की दृष्टि से उदासीन और निष्क्रिय ही रहा है। विभाग के अध्यापकों के अपने-अपने ‘काम्पलैक्स’ भी इसका एक प्रमुख कारण है। इस बात का प्रमाण मधुरेश जी के संस्मरण में बरेली कॉलेज के हिन्दी विभाग के तत्कालीन परिवेश के बारे में कुछेक स्थानों पर मिलता है, “नई किताबों, पाठ्यक्रम में निर्धारित लेखकों से संबंधित स्तरीय आलोचना-पुस्तकों या नई पत्र-पत्रिकाओं से सम्पर्क की ललक प्रायः ही लोगों में नहीं थी।” (पृ. 126)
बरेली कॉलेज में मैनेजर पांडेय जी को एम. ए. की कक्षाएँ नहीं मिलीं थीं तथा वे यहाँ के वातावरण से ऊब भी रहे थे। शाम को वे मधुरेश जी के साथ आसपास टहलने निकल जाते तो कभी सिनेमा देखने चले जाते। दो-तीन दिन की छुट्टियाँ होते ही वे बनारस जाने को हुड़कने लगते थे। प्रत्येक माह उनका बनारस जाना तो तय था ही। बनारस से लौटकर वे मधुरेश जी के लिए उनके बनारस के मित्रों के पत्र, संदेश, समाचार, पुस्तकें आदि भी लाया करते थे जिनमें राहुल सांकृत्यायन की ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ भी सम्मिलित थी। बरेली में रहते हुए उनका किसी से कोई संपर्क नहीं था। मधुरेश जी के सम्पर्क के लोगों से ही उनका परिचय था। इस दौरान यदि उन्हें कोई बनारस या पूर्वी क्षेत्र का व्यक्ति मिल जाता तो उससे वे घंटों बातें करते रहते। मधुरेश जी ने लिखा भी है कि दूर स्थान पर रहते हुए जब कोई अपनी ओर का मिलता है तो उससे सहज आत्मीयता हो ही जाती है। (पृ. 132)
शैलेश मटियानी के विषय में मधुरेश जी ने लिखा है कि इलाहाबाद जाते समय एक बार उनसे मिलने शैलेश मटियानी भी आए थे और उन्होंने ही पांडेय जी का परिचय शैलेश जी से करवाया था। शैलेश जी को इस बात पर भी आश्चर्य हुआ कि बरेली से इतने निकट होने पर भी मधुरेश जी शाहजहाँपुर जाकर हृदयेश जी से तब तक नहीं मिल पाये थे। बातचीत के क्रम में शैलेश जी ने पांडेय जी से बनारस के अपने मित्रों नामवर सिंह और काशीनाथ सिंह की भी चर्चा की। शैलेश जी अपनी पत्रिका ‘विकल्प’ के कथासाहित्य अंक की कुछ प्रतियाँ और पुस्तकें बेचने तथा पत्रिका हेतु विज्ञापन जुटाने के लिए घूम रहे थे।
दशहरे की छुट्टियों में मधुरेश जी ने पांडेय जी के साथ बनारस जाने का विचार बनाया क्योंकि इन छुट्टियों में पांडेय जी बनारस में ही रहने वाले थे। मधुरेश जी लिखते हैं, “छुट्टियों में पांडेय जी को बनारस जाना और रहना था। बातचीत के बाद विचार बना कि मैं भी उनके साथ चला जाऊँ।” (पृ. 135) मधुरेश जी पांडेय जी के साथ ही बनारस गये और वहाँ लगभग आठ दिन तक रहे। इस बीच उन्होंने बनारस भ्रमण किया तथा वहाँ के मित्रों से मिले जिनमें प्रमुख रूप से पटना से आए गोपाल राय सहित काशीनाश सिंह, वाचस्पति, धूमिल, त्रिलोचन, पद्मधर त्रिपाठी, शिवप्रसाद मिश्र ‘रुद्र’, विजयशंकर मल्ल, डॉ. देवराज आदि से भेंट की। मधुरेश जी की लेखनी की रोचकता इस बात में है कि वे छोटी-से-छोटी बात को भी इस तरह अंकित करते हैं कि उनकी स्मरणशक्ति पर आश्चर्य होता है। इस संदर्भ में वाचस्पति जी के साइकिल चलाना न आने की बात का उदाहरण द्रष्टव्य है, “जब मैं नीचे तक उन लोगों को छोड़ने आया, ज़ीने के पास खड़ी साइकिल धूमिल ने मोड़ ली थी। मुझे याद आया— वाचस्पति को तो शायद साइकिल चलाना आता ही नहीं है। कम से कम बिसौली में रहते तो तक तो नहीं आता था। कई साल हो चुके हैं। हो सकता है यहाँ सीख ली हो। फिर देखा, उन्हें डंडे पर बिठाकर धूमिल ने स्वयं गद्दी पर बैठकर पैडल मारना शुरू कर दिया है।”(पृ. 138) इस प्रकार के उनके कई दृष्टान्त हैं जो इस आलेख को रोचक बनाते हैं। काशीनाथ सिंह के हंसमुख व खुशमिजाज़ व्यवहार, बनारसी लहजे और आत्मीयता से बातचीत करने से लेकर साइकिल पर सवार होकर जाने की बात बताना, हिप्पियों से मिलना और उन पर टिप्पणी करना, नाश्ता-भोजनादि का जिक्र भी इन दृष्टान्तों शामिल है। अपने संस्मरण में मधुरेश जी इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि उसमें ये छोटी-छोटी बातें और घटनाएँ समानान्तर चलती रहें, जिससे पाठक को तत्कालीन परिवेश और कालखंड का अनुमान सहज ही लग जाए तथा वह उस समय और परिवेश से स्वयं को जोड़ सके।
बनारस में अपने आठ दिन के प्रवास के दौरान मधुरेश जी ने त्रिलोचन जी से हुई उनकी भेंट और उनके व्यक्तित्व को निखारने वाले गुणों को रेखांकित करते हुए अपनी टिप्पणी में लिखा है, “किंवदंती पुरुष के रूप में त्रिलोचन जी की व्यापक चर्चा भले ही बाद में शुरू हुई हो, उसके बीज उनमें तब भी न सिर्फ मौजूद थे, उनमें बाकायदा कल्ले भी फूटने लगे थे।…कहानियों और किंवदंतियों का जैसे उनके पास अकूत ख़ज़ाना था। घर-परिवार, अड़ोस-पड़ोस, कला-साहित्य, दर्शन-राजनीति, भाषा और शब्दों की व्युत्पत्ति— मतलब जिस पर बोलना शुरू करते घंटों बोल सकते थे।…यह उनके भविष्य की शुरुआत का दौर था जो आगे चलकर बहुत चमकीला और सक्रिय होने वाला था, सचमुच उन्हें एक किंवदंती-पुरुष में ढालते हुए।” (पृ. 143)
मधुरेश जी ने काशीनाश सिंह, पाण्डेय जी व अन्य लोगों के साथ अलग-अलग दिन बनारस के विभिन्न स्थलों को देखा जिनमें सारनाथ, रामनगर, गंगा में नौकाविहार आदि प्रमुख हैं। सारनाथ भ्रमण पर टिप्पणी करते हुए वे लिखते हैं, “…मेरे लिए सारनाथ एक अभिभूत करने वाला अनुभव था, शायद इसलिए भी कि मैं पहली बार उसे देख रहा था। एक बहुत बड़े क्षेत्र में फैले हुए बौद्धस्तूप, स्मारक और समाधियाँ और सबसे अधिक कभी रही गौतम बुद्ध की उपस्थिति की अनुभूति।” (पृ. 145) इससे पहले वे यह लिख चुके हैं कि काशीनाथ सिंह ने उन्हें व पांडेय जी को भाँग की अपेक्षाकृत छोटी गोलियाँ दीं तथा स्वयं एक बड़ी-सी गोली, एक दुकान से लोटे में पानी लेकर गटक गए और इन दोनों से पूछा कि ‘क्या उन्होंने प्रसाद पा लिया’ क्योंकि काशीनाथ जी के अनुसार यदि बनारस में यह ‘दिव्य प्रसाद’ नहीं पाया तो कुछ नहीं पाया।
मधुरेश जी की ख्याति एक आलोचक के रूप में उस समय तक अच्छी तरह फैल चुकी थी क्योंकि उनके आलोचनात्मक लेख देश की ख्यातिलब्ध पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रहे थे और कई बड़े व लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकारों से पत्राचार के माध्यम से उनका सम्पर्क भी बढ़ रहा था। इसी क्रम में बनारस के कई लेखकों से भी उनका पत्राचार होता रहता था। द्विजेन्द्रनाथ मिश्र ‘निर्गुण’ भी उनमें से एक थे। ‘निर्गुण’ जी मूलतः बदायूँ जिले के थे जो बाद में संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में संस्कृत के अध्यापक होकर बनारस में ही रह रहे थे। अपने बनारस भ्रमण के अन्तर्गत ही मधुरेश जी द्विजेन्द्रनाथ मिश्र ‘निर्गुण’ जी से मिलने भी गए। पारिवारिक कार्यों से निवृत्त होकर ‘निर्गुण’ जी मधुरेश जी और पांडेय जी से बहुत समय तक बातें करते रहे। अपनी बातों में उन्होंने यह भी बताया कि वे किसी की परवाह किये बगैर लिखते हैं। विशेष रूप से वे वही लिखते हैं जो उनके मन को भाता है। ‘निर्गुण’ जी से हुई बातचीत को मधुरेश जी ने इस प्रकार लिखा है, “…मैंने उन्हें उनके मुझे लिखे उस पत्र का स्मरण कराया जिसमें उन्होंने लिखा था कि वे इसकी चिंता नहीं करते कि ठाकुर शिवदान सिंह, ठाकुर नामवर सिंह या ठाकुर मार्कण्डेय सिंह उनके बारे में क्या लिखते हैं और कहते हैं। वे वही लिखते हैं जो उन्हें ठीक लगता है और मन को भाता है।” (पृ. 147)
मधुरेश जी के लेखन का यह विशिष्ट गुण है कि उसमें जिन-जिन व्यक्तियों का नाम आता है, वे उनसे सम्बन्धित एक संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित जानकारी अवश्य देते हैं, जिससे पाठक उस व्यक्ति से परिचित हो सके, फिर चाहे बनारस के रहने वाले हों या फिर बरेली या उसके आस-पास के। उनकी यही खूबी उनके संस्मरण को औरों से अलग करती है। अपने इस संस्मरण में उन्होंने डॉ. देवराज का भी जिक्र किया जो रामपुर के रहने वाले थे और उन दिनों बनारस में रह रहे थे। मधुरेश जी ने उनसे हुई भेंट को ‘आत्मीय’ लिखा है। चलते समय डॉ. देवराज ने उन्हें अपनी दो पुस्तकें भेंट कीं और उन पर प्रतिक्रिया के लिए कहते हुए उन्हें बताया कि वे मधुरेश जी को पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते रहते हैं। काफी देर तक डॉ. देवराज से बातें करने के बाद वे पांडेय जी के साथ वापस आ गये। डॉ. देवराज के लिए अपनी टिप्पणी में मधुरेश जी लिखते हैं, “डॉ. देवराज कभी अपने मार्क्सवाद विरोध के कारण ही भारत भवन और अशोक वाजपेयी के चहेते लेखकों में थे। लेकिन अपने गंभीर दार्शनिक और चिन्तन प्रधान रुझान के बावजूद उनके उपन्यासों और आलोचना में पठनीयता का अभाव नहीं है। स्पष्टता और पारदर्शिता ही वस्तुतः उस गद्य की खास पहचान है।” (पृ. 149)
पांडेय जी के अध्यापकों में जिनके नाम थे उनमें शिवप्रसाद मिश्र ‘रुद्र’ से मिलने भी मधुरेश जी पांडेय जी के साथ गए। मधुरेश जी ने ‘रुद्र’ जी पर टिप्पणी करते हुए लिखा है, “रुद्र जी ने काशी के ही दो सौ साल के जीवन पर ‘बहती गंगा’ जैसा उपन्यास भी लिखा था।” (पृ. 150) मधुरेश जी ने बहुत स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि ‘रुद्र’ जी मधुरेश जी से पूरी तरह अपरिचित थे। पांडेय जी ने मधुरेश जी के विषय में ‘रुद्र’ जी को बताया, “रुद्र जी जैसे वरिष्ठ लेखक मेरे नाम और काम से पूरी तरह अपरिचित थे मेरे बारे में जानकारी उन्होंने पांडेय जी या फिर मुझसे ही लेने की कोशिश की। लेकिन ज्ञान और जानकारी के प्रति उनकी यह ललक अभिभूत करने वाली थी।” (पृ. 150)
मधुरेश जी का मन था कि बनारस में जयशंकर प्रसाद जी का आवास भी देखा जाए और वे दोनों गोवर्धन सराय स्थित प्रसाद जी का आवास देखने पहुँचे। मधुरेश जी उस क्षेत्र के परिवेश के बारे में लिखते हैं, “गली के मोड़ पर ही कभी धंधे और कला में लगी औरतों का उल्लेख प्रसाद जी के जीवन और संस्मरणों में पढ़ चुका था। अब वहाँ वैसा कुछ नहीं था, लेकिन वे जगहें पहचानी जा सकती थीं, जहाँ कभी वे कोठे उनकी कंठध्वनि और घुँघरुओं से गूँजते रहे होंगे। सुंघनी साहू परिवार की वह दुकान भी देखी थी जिस पर बाद में स्वयं प्रसाद जी के बैठने-संभालने का उल्लेख मिलता है।” (पृ. 150) प्रसाद जी के आवास पर उनके एकमात्र पुत्र रत्नशंकर प्रसाद जी ने उनका स्वागत किया। उनका भवन देखते हुए रत्नशंकर जी ने उन्हें वह ऐतिहासिक सिल भी दिखाई जिस पर जयशंकर जी अपने लेखक मित्रों के लिए ‘विजया’ पीसते या पिसवाते थे। वहीं शर्बत-ठंडाई के साथ रत्नशंकर जी से मधुरेश जी और पांडेय जी की बातचीत हुई जिसमें उन्होंने प्रसाद जी की बैठकी, ऐतिहासिक महत्त्व वाले नाटकों, कवि सम्मेलनों के साथ-साथ प्रसाद जी से महादेवी वर्मा और प्रेमचंद के कई प्रसंगों को बताया जिन्हें मधुरेश जी पहले पढ़ चुके थे। रत्नशंकर प्रसाद मधुरेश जी और पांडेय जी को गली के मोड़ तक विदा करने भी आए।
मधुरेश जी ने यह पूरी यात्रा पांडेय जी के साथ की थी। इसमें मधुरेश जी के मन में कहीं-न-कहीं यह बात भी छिपी थी कि पांडेय जी से संगी-साथी, अध्यापक और अन्य लोगों से मिलकर पांडेय जी के व्यक्तित्व के विषय में भी जाना जा सकेगा। समीक्षक का मानना है कि यह विचार मधुरेश जी के अवचेतन में अवश्य होगा क्योंकि पांडेय जी के साथ अपनी बनारस यात्रा के विषय में लिखने से पूर्व उन्होंने लिखा है, “कुछ वर्ष रहकर छोड़ी उस जगह के लोगों का खेमा और सुलूक आपके प्रति कैसा है उसे व्यक्ति को समझने की एक कसौटी के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। पांडेय जी मूलतः बिहार के एक गाँव लोहटी से पढ़ने बनारस में आए थे। पढ़ाई के सिलसिले में वे अधिकतर हॉस्टल में रहे थे। स्वाभाविक है कि उस क्षेत्र के लोगों से ही उनका सम्पर्क रहा और सम्बन्ध बने। उनके सहपाठी, आगे-पीछे पढ़ने वाले कुछ सीनियर और जूनियर साथी और सबसे अधिक उनके अध्यापक उनका जो और जैसा आँकलन करते थे उसे आधार बनाकर पांडेय जी के वर्तमान से अधिक उनके भविष्य को समझने के सूत्र मिल सकते हैं।” (पृ. 137)
पांडेय जी के साथ बनारस दर्शन चल ही रहा था कि पांडेय जी को सूचना मिली कि उनका एक जूनियर साथी और वाचस्पति का सहपाठी वीर भारत तलवार पेट में तकलीफ होने के कारण अस्पताल में भर्ती है। पांडेय जी और मधुरेश जी उन्हें अस्पताल देखने भी गए और लगभग एक घंटा वहाँ बिताया। मधुरेश जी ने लिखा है, “वीर भारत वाचस्पति के सहपाठी थे।…अविभाजित बिहार के झारखंड क्षेत्र में तब भी आदिवासियों के बीच उनके काम की एक पहचान थी— बनी से अधिक बनती हुई।”(पृ. 137)
इन आठ दिनों में मधुरेश जी ने पांडेय जी के साथ बनारस की यात्रा की तथा वहाँ उनके अध्यापकों, मित्रों, सहपाठियों और जूनियर साथियों से भेंट और बातचीत की तथा यह पाया कि पांडेय जी ने यहाँ एक अच्छा व्यवहार बनाया है। उन्होंने देखा कि अपना घर-परिवार छोड़कर दूर स्थान से आने वाले छात्रों का एक दूसरा परिवार उस स्थान पर बन जाता है जहाँ वह अपनी शिक्षा पूरी करते हैं। इन्हीं में से पांडेय जी भी एक थे। जिन्होंने बनारस में अपने अध्यापकों, मित्रों, सहपाठियों और जूनियर साथियों के साथ अपने व्यवहार से एक नया और अच्छा परिवार बना लिया है। पांडेय जी की इसी विशेषता से प्रभावित होकर मधुरेश जी ने लिखा है, “कम उम्र में परिवार से दूर रहकर पढ़ने बाहर निकलने पर, ऐसे लोगों का परिवार फिर बाहर ही बन जाता है। हॉस्टल या साथ के लोगों का संग-साथ उनके सुख-दुख फिर उनके जीवन का हिस्सा बन जाते हैं। छोटे और रक्त संबंधों वाले परिवार को छोड़कर जैसे वे एक बड़े परिवार से जुड़ जाते हैं। फिर वह नया समाज ही उनका परिवार होता है।” (पृ. 151)
यहाँ तक का संस्मरण मधुरेश जी और पांडेय जी की बनारस यात्रा पर आधारित था इसमें प्रमुख रूप से मधुरेश जी ने पत्राचार के माध्यम से अपने ही सम्पर्क के लोगों से हुई भेंट, बातचीत और प्रमुख प्रसंगों को लिखा और बताया है। यहाँ तक पांडेय जी अदृश्य रूप में चलते हैं, हालाँकि कुछेक स्थानों पर पांडेय जी पर केन्द्रित टिप्पणी है लेकिन मुख्य रूप में पांडेय जी केवल मधुरेश जी का परिचय कराने का काम करते ही दिखाई देते हैं। संभवतः इसका कारण यह भी रहा हो कि मधुरेश जी पांडेय जी के साथ अवश्य थे लेकिन उनके व्यक्तित्व, उनके व्यवहार और उनकी प्रकृति से अधिक परिचित न हों। इस संस्मरण का पूर्वार्द्ध मूल रूप से मधुरेश जी ने स्वयं पर ही केन्द्रित किया है जिसमें पांडेय जी का केवल नाम चलता रहा है।
बनारस वापसी के बाद यानि कि इस संस्मरण का उत्तरार्द्ध पूर्णतः पांडेय जी पर केन्द्रित है। जिसमें वर्ष 1969-70 में घटी तीन घटनाओं के विषय में बताते हुए मधुरेश जी ने लिखा है कि इस समय में तीन ऐसी घटनाएँ घटीं जो पांडेय जी की उपस्थिति के कारण महत्त्वपूर्ण हैं। पहली घटना कॉलेज के हिन्दी विभाग की ओर से आयोजित तुलसी जयन्ती के कार्यक्रम की थी जिसमें पांडेय जी को भी व्याख्यान देना था। मधुरेश जी ने लिखा है चूँकि पांडेय जी को कॉलेज में एम. ए. की कक्षाएँ पढ़ाने को नहीं दी गयीं थीं अतः इस कार्यक्रम में अपना व्याख्यान देकर अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन करने का उनके लिए अच्छा अवसर था। लेकिन इस आयोजन में भीड़, अव्यवस्था और अराजकता के कारण पांडेय जी का व्याख्यान बिना सुने ही समाप्त हो गया और उनका यह अवसर व्यर्थ हो गया। दूसरी घटना में मधुरेश जी ने यशपाल जी के एक पत्र का जिक्र किया है जिसमें उन्होंने किसी फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में रामपुर जाने और बरेली में उनसे और पांडेय जी से मिलने की बात लिखी थी। पांडेय जी के साथ मधुरेश जी निश्चित तिथि पर रेलवे स्टेशन पर गाड़ी की प्रतीक्षा करते रहे किन्तु यशपाल जी नहीं आए और पांडेय जी का यह स्वप्न भी अधूरा रह गया। तीसरी घटना में मधुरेश जी ने कॉलेज के अंग्रेजी विभाग की ओर से आयोजित एक व्याख्यान में प्रो0 प्रकाशचन्द्र गुप्त के इलाहाबाद से आने और उनके व्याख्यान के विषय में लिखा है, “प्रो0 प्रकाशचन्द्र गुप्त तब पचपन के पहुँच रहे होंगे। सलीके से बढ़े बाल और हल्के भूरे रंग के गैवर्डीन के सूट पर शोख लाल रंग की टाई लगाए वे मंच पर बैठे थे। उनके व्याख्यान का विषय था लिट्रेचर एंड सोसायटी।…बहुत ओजस्वी भाषा में कॉडवेल के उल्लेख से ही उन्होंने अपना व्याख्यान शुरू किया। भारी भीड़ के बीच हॉल में छाए सन्नाटे में वे कोई एक घंटा बोले।”(पृ. 156) मधुरेश जी ने प्रो0 प्रकाशचन्द्र जी से मिलने का प्रयास किया किन्तु यह उस दिन संभव न हो सका और बाद में पता चला कि प्रो0 प्रकाशचन्द्र गुप्त का आकस्मिक हृदयाघात से निधन हो गया है।
प्रो0 प्रकाशचन्द्र गुप्त के प्रेमचंद विषयक मोनोग्राफ के विषय में शिकायती अंदाज में मधुरेश जी ने लिखा है, “साहित्य अकादेमी के लिए उन्होंने प्रेमचंद पर अंग्रेजी में मोनोग्राफ़ लिखकर, स्वयं उसका हिन्दी अनुवाद किया था। आज साहित्य अकादेमी भी उसे पूरी तरह दबा और भुला कर प्रेमचंद पर कमलकिशोर गोयनका का नया मोनोग्राफ़ प्रकाशित करती है। जाने कैसे-कैसे लोगों पर अकादेमी ने इस बीच मोनोग्राफ़ प्रकाशित किए हैं, प्रकाशचन्द्र गुप्त की याद किसी को नहीं आती।” (पृ. 153) हालाँकि बहुत बाद में (वर्तमान समय में कुछ दिन पहले) पाण्डेय जी ने दिल्ली से मधुरेश जी को फोन पर बताया था कि ‘स्वराज्य प्रकाशन दिल्ली के अजय मिश्रा ने प्रकाशचन्द्र गुप्त की रचनावली 6 खण्डों में कम्पोज़ करवाई है, जिसमें उनकी अंग्रेजी रचनाएँ भी हैं जिसकी भूमिका लिखवाने के लिए नामवर जी को भी संपर्क किया गया था तथा धनराशि भी भिजवाई गयी थी किन्तु भूमिका नहीं मिली और अजय मिश्रा मधुरेश जी को उसी ग्रंथावली की भूमिका लिखने के लिए फोन करेंगे। यद्यपि प्रकाशचन्द्र गुप्त की पुत्री विभा गुप्ता के कारण इस कार्य में बाधा पड़ गयी।’ (पृ. 193)
बदायूँ के नेहरू मेमोरियल शिवनारायण दास पोस्ट-ग्रेजुएट कॉलेज के हिन्दी विभाग में मधुरेश जी की नियुक्ति हो गयी और वे बदायूँ में रहने लगे। चूँकि पांडेय जी बदायूँ में भी साक्षात्कार दे चुके थे, अतः बदायूँ से परिचित थे। पहली बार किसी रविवार को वे मधुरेश जी से मिलने बदायूँ पहुँचे तथा पूरा दिन वहाँ बिताकर वापस आए। एक बार उनके साथ बनारस से वीर भारत तलवार भी मधुरेश जी से मिलने बदायूँ पहुँचे थे। जब कभी मधुरेश जी बरेली आते तो पांडेय जी से भी मिलते थे। लम्बी छुट्टियों में पांडेय जी बनारस चले जाते थे। पांडेय जी ने बरेली कॉलेज ज्वाइन तो कर लिया था लेकिन उनका मन बनारस में ही अधिक रमता था। मधुरेश जी पहले से ही यह बात जानते थे कि पांडेय जी अधिक समय बरेली में नहीं रुकेंगे। वे लिखते हैं, “जब पाण्डेय जी ने बरेली कॉलेज में ज्वाइन किया था, शुरू से ही यह स्पष्ट था कि उन्हें यहाँ बहुत दिन नहीं रहना है।” (पृ. 163)
उन दिनों नामवर सिंह जी जोधपुर में हिन्दी के प्रोफेसर और अध्यक्ष थे। इधर मैनेजर पाण्डेय के काशीनाथ सिंह से बहुत आत्मीय संबंध थे। संभवतः इन्हीं संबंधों के आधार पर पाण्डेय जी की भेंट कभी नामवर सिंह से हो गयी हो और उन्होंने ही उन्हें जोधपुर आने को कहा हो। मधुरेश जी ने इस बात को अनुमानतः कहा है। वे लिखते हैं, “मेरा अनुमान है कि नामवर सिंह और मैनेजर पाण्डेय की भेंट, हो सकता है इसी बीच कभी बनारस में हुई हो और नामवर जी ने उन्हें जोधपुर आने को उकसाया हो या कम से कम इस संभावना की टोह ली हो। पाण्डेय जी के लिए निश्चय ही यह बरेली से बेहतर विकल्प था।”(पृ. 164) पांडेय जी ने बरेली कॉलेज की नौकरी के दूसरे ही साल जोधपुर में इंटरव्यू दिया। यद्यपि उन्हें बरेली कॉलेज में तीन माह का नोटिस देना था, बनारस और अपने गाँव जाकर जोधपुर जाने की व्यवस्था भी करनी थी बहरहाल नामवर सिंह जी की कृपा से सभी औपचारिकताएँ पूरी करने के उपरान्त पांडेय जी ने जोधपुर विश्वविद्यालय ज्वाइन कर लिया।
जोधपुर से लौटकर वे मधुरेश जी से मिलने बदायूँ गए। मधुरेश जी ने उनके बरेली और बदायूँ हमेशा के लिए छोड़ने की बात सोचकर पांडेय जी के साथ चित्र भी खिंचवाए। अब तक पांडेय जी विशुद्ध बनारसी अन्दाज में रहा करते थे—लंबे कुर्ते-धोती और चप्पल। इसी वेशभूषा में मधुरेश जी ने उनके साथ चित्र खिंचवाए। मधुरेश जी ने लिखा है, “मुझे लगा पाण्डेय जी से बरेली तो छूट रही है, बदायूँ भी छूट रहा है। अब जोधपुर से उनका क्यों और कैसे बदायूँ आना होगा? शाम को हमलोग अपने छात्र फोटोग्राफर रूप सिंह के स्टूडियो पर गए। लंबे कुरते-धोती और चप्पल में पाण्डेय जी का एक फोटे उसने अलग से लिया और दो हमलोगों को साथ बिठाकर। इस परिधान में वह संभवतः पाण्डेय जी का अंतिम फोटो है।” (पृ. 164)
पाण्डेय जी लगभग पाँच वर्ष जोधपुर में रहे और फिर उसके बाद वे जे.एन.यू. आ गए। अपने जे.एन.यू. आने के विषय में मधुरेश जी को उन्होंने स्वयं बताया था। मधुरेश जी ने लिखा है, “अभी कुछ वर्ष पूर्व बरेली आने पर, जोधपुर से, जे.एन.यू आने के प्रसंग में, मुझसे और पत्नी से उन्होंने कहा था, ‘भाई साहब, तब जे.एन.यू. तो मैं आना चाहता था। चन्द्र से मेरा प्रसंग चल रहा था और मैंने बहुत दबाव और मजबूरी में ही जोधपुर छोड़ा था।’” (पृ. 165) मधुरेश जी ने जोधपुर प्रवास को लेखकीय दृष्टि से पाण्डेय जी के लिए उर्वर बताया है, “जोधपुर उनके लिए वैसा अनुर्वर और कृतघ्न प्रक्षेत्र साबित नहीं हुआ जैसा बरेली लगभग हुआ था। जोधपुर उनके लिए नए जीवन और भविष्य का दुर्गद्वार बना।” (पृ. 165) पाण्डेय जी के लेखन का आरंभ जोधपुर से ही हुआ था। भले ही वह नामवर सिंह के उकसाने पर हुआ हो। उन्होंने ‘आलोचना’ जैसी पत्रिका के लिए लिखा। हालाँकि बाद में पाण्डेय जी को पुस्तक-समीक्षा से गहरी वितृष्णा हो गयी लेकिन उनके लेखन का आरंभ उसी से हुआ था। उन्होंने मोतीराम वर्मा की पुस्तक ‘लक्षित मुक्तिबोध’ पर एक समीक्षात्मक लेख लिखा था। मधुरेश जी लिखते हैं, “उस लेख का ढांचा भले ही पुस्तक-समीक्षा का न हो लेकिन अपनी मूल प्रकृति में था वह वही।” (पृ. 165) पाण्डेय जी के रचनाकर्म के बारे में बताते हुए मधुरेश जी ने बताया है कि पाण्डेय जी की पहली पुस्तक ‘शब्द और कर्म’ जे.एन.यू. में आने के बाद 1981 में प्रकाशित हुई। इसमें संकलित लेख जोधपुर प्रवास के दौरान ही लिखे गये थे। मधुरेश जी लिखते हैं, “…शुरूआत उनकी भले ही आलोचना से हुई हो जल्दी ही उन्हें उड़ने को एक बड़ा आकाश मिला— ‘पहल’, ‘कंक’, ‘उत्तरगाथा’, ‘युग परिबोध’, ‘धरातल’ आदि।”(पृ. 165)
बरेली कॉलेज से जोधपुर और फिर जे.एन.यू. में रहते हुए पाण्डेय जी के व्यक्तित्व में कई परिवर्तन हुए उसमें उनकी वेशभूषा भी सम्मिलित थी। मधुरेश जी ने इसे पाण्डेय जी का संक्रमण काल कहते हुए लिखा है, “जोधपुर की रेगिस्तानी धरती पर उनके मन में हरियाली के कल्ले फूटे ही यहीं उनका अपना गेट-अप भी बदला।” (पृ. 166) पांडेय जी में हुए बदलावों के विषय में मधुरेश जी ने आगे लिखा है, “पाण्डेय जी के जिस गेट-अप में बदलाव की बात मैं कहता हूँ, उसका मतलब सचमुच उनके गेट अप – रख-रखाव – से होता है। बरेली से बदायूँ आने पर मैंने पहली बार उन्हें पैंट-शर्ट में देखा। बाद में दिल्ली आकर, राजेन्द्र यादव की तरह, उनकी पहचान और उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बना उनका पाइप अभी शुरू नहीं हुआ था। पैंट-शर्ट के बावजूद पीते वे सिगरेट ही थे। कैप्सटन के पाउच से सिगरेट वे जब-तब खुद बनाने लगे थे।” (पृ. 167) इसी संदर्भ में हरपाल त्यागी के अतिथि संपादन में प्रकाशित ‘भारतीय लेखक’ के संस्मरण विशेषांक में नामवर जी पर केन्द्रित अपने संस्मरण में भी मधुरेश जी ने लिखा था, “दिल्ली आकर मैनेजर पाण्डेय भी दिल्ली के रंग-ढंग में ढलने लगे थे।” (पृ. 168)
पाण्डेय जी अब पूरी तरह से दिल्ली के हो चुके थे। जब वे बरेली आते थे, तो मधुरेश जी साइकिल से उन्हें लेने स्टेशन जाते थे। कभी-कभी विलम्ब हो जाने के कारण वे रिक्शे से आते हुए दिख भी जाते थे। अब मधुरेश जी को अक्सर दिल्ली जाना पड़ता था। इसका एक कारण मधुरेश जी का शोधकार्य भी था जिसे उन्होंने नामवर सिंह के निर्देशन में आरंभ किया था। इस दौरान पाण्डेय जी से मधुरेश जी का पत्राचार भी चलता रहता था। ऐसे ही किसी पत्र में पाण्डेय जी ने मधुरेश जी को दिल्ली स्टेशन पर लेने या छोड़ने न आने की मजबूरी प्रकट की थी। दिल्ली में एक स्थान से दूसरे स्थान पहुँचना आसान नहीं है। मधुरेश जी के लिए भी नहीं था। वे लिखते हैं, “…मैं स्वयं दिल्ली के अनुसार कभी नहीं ढल सका। आज भी मुझे रास्ते और मोड़ याद नहीं रहते। कई बार जाते रहने के बावजूद मुझे किसी का साथ चाहिए—चाहे वह मयूर विहार में अपनी बेटी वंदना के घर ही क्यों न हो।”(पृ. 169)
संस्मरण के इस स्थल पर आकर ऐसा प्रतीत होता है कि पाण्डेय जी में आए बदलावों से मधुरेश जी कहीं-न-कहीं आहत हुए थे अथवा उनके मन पर ठेस लगी थी। हालाँकि इस बात का स्पष्ट स्वीकार्य नहीं है, लेकिन उनके लिखे इस अंश से सहज ही इसका अनुमान लगाया जा सकता है, “दिल्ली आने के बाद पाण्डेय जी में घटित बदलाव के ढेरों स्मृति-खण्ड शृंखलाबद्ध रूप में मन के तहखाने में दबे पड़े हैं। उनकी चर्चा भी करूँगा। उसके पहले उनका यह पत्र सामने रखना चाहूँगा जो दिल्ली आने के लगभग तुरन्त बाद ही मेरी आशंकाओं के उत्तर में उन्होंने लिखा था।” (पृ. 169) पत्र में पाण्डेय जी ने स्वीकार किया है कि ‘दिल्ली ने उन्हें नहीं बदला, बस परिस्थितयाँ ही कुछ ऐसी हैं कि निरन्तर व्यवस्तता बनी रहती है’। इसके साथ ही उन्होंने अपनी अस्वस्थता भी प्रकट की थी।
कुछ समय बाद मधुरेश जी जब दिल्ली गए तो पाण्डेय जी से भी मिले। किसी बात पर नासिरा शर्मा का जिक्र छिड़ा। पाण्डेय जी ने तुरन्त नासिरा शर्मा के पति को फोन लगा दिया और उनसे हुई बात के आधार पर वे दोनों नासिरा जी से मिलने चल दिए। पाण्डेय जी ने उन्हें बताया कि ‘नासिरा शर्मा का घर नामवर जी के घर के निकट ही है’। चूँकि नासिरा जी से मधुरेश जी का खूब पत्रचार होता रहा था, उनके पति भी मधुरेश जी से परिचित थे। इसी तरह एक बार राजेन्द्र यादव जी के पत्र में उन्हें बार-बार बुलाने की बात होने पर वे राजेन्द्र यादव से मिलने पाण्डेय जी के साथ गए। मधुरेश जी लिखते हैं, “…मेरे दिल्ली जाने की सूचना पाकर राजेन्द्र यादव प्रायः लिखते—आप नामवरी के चक्कर में फँस गए हैं। इस बार पाण्डेय जी के यहाँ रहते तय हुआ कि एक दिन अक्षर की ओर चला जाए।” (पृ. 172) अपनी बातचीत के दौरान राजेन्द्र यादव ने पाण्डेय जी के बोलने के विषय में टिप्पणी करते हुए कहा, “बोलने के लिए भी यह तैयारी करते हैं, भरसक तर्कपूर्ण ढंग से अपनी बात कहते हैं और औपचारिकता और रस्म अदायगी से बचते हैं…” (पृ. 173) हालाँकि इसमे उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से नामवर सिंह के लिए ही कहा था। इस बात पर मधुरेश जी ने लिखा है, “मार्क्सवादियों से उन्हें पुरानी शिकायत है कि वे विचारधारा का हऊआ दिखाकर रचना के मूल्यांकन को बाधित करते हैं।” (पृ. 173)
‘कहानी’ पत्रिका की 1958 की फाइल देने के संदर्भ में मधुरेश जी, पाण्डेय जी के साथ नासिरा शर्मा जी के माध्यम से श्रीपत राय से मिलने गए थे। बाद में पत्रिका की फाइल लेकर नासिरा जी भी पहुँच गयीं। जैसा कि समीक्षक ने पहले भी लिखा है कि मधुरेश जी की विशेषता है कि वे अपने आलेख के अन्तर्गत चर्चा में आए व्यक्तियों पर, पाठकों की जानकारी के लिए एक सारगर्भित टिप्पणी अवश्य करते हैं, अतः यहाँ श्रीपत राय पर टिप्पणी करते हुए मधुरेश जी ने उनके समुचित मूल्यांकन की आवश्यकता भी बताई है। वे लिखते हैं, “श्रीपत राय अपने मूलरूप में क्या थे इसका मूल्यांकन अभी भी होना बाक़ी है।”(पृ. 174) श्रीपत राय ने पाण्डेय जी को अपने और मधुरेश जी के विषय में बताते हुए कहा, “मधुरेश जी से हमारा सम्पर्क उस समय हुआ जब हमारा प्रकाशन बंद-सा हो चुका है…नहीं तो इनकी किताबें हम छापते।” (पृ. 175)
नामवर सिंह और मैनेजर पाण्डेय के साथ के विषय में बताते हुए मधुरेश जी ने लिखा है कि उनका यह साथ 1971-72 से अब तक है। यद्यपि उनमें कभी-कभी वैचारिक टकराहट की स्थिति को भी मधुरेश जी ने दर्शाया है और मैनेजर पाण्डेय के खिलंदड़े अन्दाज की बात भी कहते हैं, जिसमें उन्होंने नामवर जी के लिए कहा था कि ‘तुम्हीं से मुहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई’। पाण्डेय जी के आलोचना कर्म के विषय में मधुरेश जी ने स्पष्ट रूप से लिखा है कि वे अपनी समझ और तैयारी के बल पर आलोचना में आए हैं, “साहित्य-आलोचना में पाण्डेय जी नामवर सिंह की उँगली पकड़कर नहीं आए। एक लंबी तैयारी और पकी-प्रौढ़ समझ के साथ वे आलोचना में आए।” (पृ. 176) मधुरेश जी की विशेषता है कि वे कभी भी झूठी प्रशंसा के लिए नहीं लिखते हैं। एक बार समीक्षक से हुई बातचीत में उन्होंने यह कहा भी था कि ‘मेरा लेखन रोली-चंदन वाला नहीं होता’। ‘भारतीय लेखन’ में प्रकाशित नामवर सिंह पर मधुरेश जी के संस्मरण पर पाण्डेय जी ने टिप्पणी करते हुए मधुरेश जी से कहा था, “भाई साहब, यह सब कुछ वही लिख सकता है जिसे साहित्य से कोई अपेक्षा न हो…” (पृ. 176) इसका आशय एकदम स्पष्ट है कि पाण्डेय जी अपने मन से लिखने के लिए स्वतंत्र न थे और नामवर सिंह के प्रभाव और ताकत के बोझ तले दबे थे। मधुरेश जी ने पाण्डेय जी की टिप्पणी पर स्पष्ट लिखा है, “ऐसा कुछ कहकर शायद वे मुझे नामवर सिंह की ताक़त का अहसास करा रहे थे, अनजाने ही तब शायद ऐसा नहीं हो, इस लम्बी कालावधि में मेरे अपने ही अनुभव ने यह बोध मुझे कराया है कि जलते हुए अंगारे को मैंने अपनी नंगी उँगिलयों से पकड़ लिया था।”(पृ. 176) ऐसी हिम्मत और स्वतंत्रता केवल मधुरेश जी जैसे आलोचक में ही हो सकती है वरना नामवर सिंह के नाम का भार ही इतना है कि कई प्रखर आलोचक उसी में दबे रह गए।
अपने इस संस्मरण में मधुरेश जी ने नामवर सिंह के प्रभाव और मैनेजर पाण्डेय के उसमें दबे होने को कई स्थलों पर उजागर किया है। मधुरेश जी ने लिखा है, “पाण्डेय जी ने अपनी पुस्तक हिन्दी के ‘समाजशास्त्र की भूमिका’ (1989) नामवर जी को ही समर्पित की, इन शब्दों के साथ—डॉ. नामवर सिंह को सादर, जिनके प्रयत्न से ही साहित्य का समाजशास्त्र हिन्दी में आया है।” (पृ. 177) यहाँ एक मजेदार बात मधुरेश जी ने लिखी है कि नामवर सिंह की किसी भी प्रकार की आलोचना करने या उन पर टिप्पणी करने से पाण्डेय जी स्वयं बचते रहे हैं, लेकिन यदि कोई अन्य व्यक्ति उनकी आलोचना करता है तो वे अन्दर ही अन्दर प्रसन्न होते हैं और ऐसे अवसरों पर वे नामवर सिंह को ‘आचार्य’ या ‘आचार्यश्री’ कहकर संबोधित करते हैं। मधुरेश जी ने नामवर सिंह पर केन्द्रित संस्मरण में शिवदान सिंह चौहान के प्रति किए गए अन्याय को उद्घाटित किया जिसमें एक क्रूर षडयंत्र के कारण वे अनदेखी और उपेक्षा का शिकार हुए। लेकिन मैनेजर पाण्डेय ने शिवदान सिंह चौहान के साहित्यिक योगदान का महत्त्व समझा और अपने एक छात्र अमरेन्द्र त्रिपाठी को शिवदान सिंह पर एम.फिल् और पी-एच.डी. करवाया वह भी इस धमकी के साथ कि “मेरे साथ काम करना है तो इस विषय पर को वर्ना और किसी के पास जाओ।” (पृ. 179)
मधुरेश जी के लेखन की खास बात उनकी निष्पक्षता और पारदर्शिता है। वे शब्दावली, भावाभिव्यक्ति, व्यक्तियों के चरित्र चित्रण आदि में बराबर संतुलन बनाकर चलते हैं। भले ही किसी कारण से उनके मैनेजर पाण्डेय, नामवर सिंह या फिर किसी अन्य के साथ वैचारिक द्वंद्व चलता हो लेकिन वे किसी के गुणों और विशेषताओं को कभी कमतर नहीं आँकते। मैनेजर पाण्डेय और उनकी साहित्यिक प्रतिभा को वे बहुत पहले से जानते हैं। इसलिए पाण्डेय के लिए जब यह बात आती है कि ‘वे नामवर सिंह के बनाए हुए आलोचक हैं’ तो मधुरेश जी को हैरानी होती है, “यह असंभव नहीं कि कृतज्ञता और नीतिबोध जैसा ही कुछ पाण्डेय जी को नामवर सिंह के खुले विरोध से बरजता हो। हैरत तब होती है जब विश्वनाथ त्रिपाठी की तरह वे भी ऐसा वक्तव्य देते हैं कि वे नामवर सिंह के बनाए आलोचक हैं।”(पृ. 179) वे पूरी तैयारी के साथ पाण्डेय जी के बचाव में उतरते हैं, “अपने एक साक्षात्कार में जब नामवर सिंह ने मैनेजर पाण्डेय का बचाव किया था। एक तरह से नामवर सिंह ने उन पर यह आरोप लगाया था कि वे अधिकतर सैद्धान्तिक लेखन करते हैं, आलोचकों की बहस और विवाद के लिए जिसका ज्यादा महत्त्व होता है। नामवर जी की शिकायत शायद यह भी थी कि मैनेजर पाण्डेय ने व्यावहारिक आलोचना लिखकर अपने समय के साहित्य में न के बराबर हस्तक्षेप किया है। तब मैंने पाण्डेय जी के निबंध संग्रह ‘अनभै सांचा’ से कुछ उदाहरण जुटाकर नामवर जी के विरोध में कुछ तर्क दिए थे कि किसत रह उन्होंने समकालीन रचनाकारों और कृतियों पर भी लिखा है।”(पृ. 187) यद्यपि पाण्डेय जी के द्वारा नामवर जी के प्रति संकोच और मौन मधुरेश जी को परेशान करता रहा है। इस बात को उन्होंने इस तरह लिखा है, “नामवर सिंह से मैनेजर पाण्डेय के संबंध में चापलूसी और दरबारी प्रकृति के कभी नहीं रहे। लेकिन वे बराबरी और बहुत जन-तांत्रिक ढंग के हों, ऐसा भी मुझे नहीं लगा।…आख़िर इस संकोच से चिपके रहकर पाण्डेय जी को हासिल क्या है?” (पृ.180) वे आगे लिखते हैं, “अपनी लगन और निष्ठा से, बहुत कुछ जुनून की हद तक पहुँचे, आलोचना के क्षेत्र में जो काम उन्होंने किया यदि उस सबकी पहचान पुरस्कारों, सम्मानों या ऐसी ही दूसरी उपलब्धियों और सुविधाओं से की जाए तो अन्ततः उन्हें क्या मिला? प्रकाशन, पत्रिका— ‘आलोचना’ —समितियाँ सम्मान और विदेशी दौरे— इनमें पाण्डेय जी का हासिल क्या रहा है?” (पृ.181) गंभीर लेखन और पाण्डेय जी के विषय में टिप्पणी करते हुए मधुरेश जी ने आगे लिखा है, “कोई गंभीर और सार्थक रचना-कर्म में लगा लेखक इस सबके लिए नहीं लिखता लेकिन इन कथित उपलब्धियों के लिए लोगों की बदहवास दौड़ और अपने हितों के लिए सबकुछ को मैनेज करने का हुनर कहीं न कहीं जेनुइन लेखकों का मनोबल तोड़ता ही है। मनोबल भी न टूटे, एकाग्रभाव से काम की दृष्टि से ये प्रतिकूल एवं विरोधी स्थितियाँ तो हैं ही। अनेक महत्त्वपूर्ण संस्थाओं से नामवर सिंह का जुड़ाव और उनके प्रति उनके रवैये की चर्चा तक सीमित प्रसंग है। पाण्डेय जी की यह चुप्पी मुझे परेशान करती रही है।”(पृ. 181)
मधुरेश जी ने कभी भी किसी के कद को ऊँचा नहीं उठाया और न ही नीचे खिसकाया है। अच्छे को अच्छा कहने में उन्हें बिल्कुल संकोच नहीं होता है। प्रस्तुत संस्मरण में जहाँ नामवर जी के साथ उनके विभिन्न वैचारिक मतभेद दिखाई पड़ते हैं, वहीं दूसरी ओर मधुरेश जी नामवर सिंह के लिए यह भी लिखते हैं, “अनेक मुद्दों पर नामवर सिंह की जो और जैसी भी आलोचना की जाए, लेकिन मुक्तिबोध और धूमिल की स्थापना और खोज उनकी आलोचना का सबसे सार्थक और सकारात्मक पक्ष है।” (पृ. 188) लेकिन इसके बाद वे बड़ी ईमानदारी से पांडेय जी की ओर रुख करते हुए कहते हैं, “समय की धारा में बने रहने का जो जुनून एक आलोचक में होता है, होना चाहिए और अपनी आलोचना के तेजस्वी दौर में स्वयं नामवर सिंह के यहाँ वह बड़ी मात्रा में है, वह क्या पाण्डेय जी में भी है? उन्हें पढ़ते हुए आख़िर ऐसा क्यों लगता है कि अपनी छवि से आविष्ट आलोचक हैं? सिद्धान्तों की पुष्टि और सिद्धि से हटकर किसी नए लेखक या कृति पर उन्होंने स्वतंत्र रूप से लिखा हो, मुझे याद नहीं।” (पृ. 188) वे आगे लिखते हैं, “आलोचना में वे समसामयिक, विकासशील और जीवित लेखकों पर टिप्पणी करने से बचते हैं—जैसे वे स्थापित, प्रतिष्ठित और दिवंगत लेखकों के ही आलोचक हों। कभी-कभी तो यह लगता है कि उनके द्वारा उल्लेख किये जाने के लिए किसी लेखक का दिवंगत होना एक जरूरी शर्त है। दिवंगत और स्थापित जैसे उनकी आलोचना के बीच शब्द हैं।”(पृ. 188)
मधुरेश जी ने यह माना है कि नामवर सिंह की तरह मैनेजर पाण्डेय भी आलोचना में गर्वोक्तिपूर्ण घोषणाएँ करते हैं, “आलोचना में एफ. आर. लीविस के ‘कामन परसूट’ से प्रेरित होकर नामवर जी अपनी आलोचना को ‘सहयोगी प्रयास’ जैसा कुछ घोषित करते हैं। उनकी गर्वोक्ति यही होती है— ‘I am thy wings’ पाण्डेय जी भी अपनी आलोचना में पूरमपूर आचार्य बनकर ही सामने आते हैं। वे सीखने के लिए नहीं, सिर्फ सिखाने के लिए आलोचना लिखते हैं।” (पृ. 189) पाण्डेय जी के आलोचनाकर्म के विषय में टिप्पणी करते हुए मधुरेश जी ने लिखा है, “…पाण्डेय जी की भी कोशिश होती है कि उनके लेख में दो चार नाम ऐसे हों जो सामान्यतः लोगों ने न सुने हों। लगता है, नामवर सिंह जब उन्हें ‘आलोचकों का आलोचक’ कह रहे थे तो रचना और रचनाकार से अधिक उनकी भावनात्मक निकटता आलोचकों और सिद्धान्तविदों से जोड़कर ही देखे जाने पर जोर दे रहे थे।” (पृ. 189)
पाण्डेय जी के साथ मधुरेश जी के वैचारिक द्वंद्व की स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी थी कि डॉ. प्रदीप सक्सेना ने जब मधुरेश जी पर केंद्रित एक आलोचनात्मक पुस्तक के प्रकाशन की योजना बनाई तो पाण्डेय जी से भी मधुरेश जी पर आलेख लिखने का निवेदन किया गया लेकिन वे उसे कोई-न-कोई बहाना बनाकर सदैव टालते रहे। अन्ततः जब अत्यधिक दबाव के कारण जब लेख लिखा तो बहुत ही साधारण। इस बात को इस संस्मरण में मधुरेश जी ने यूँ लिखा है, “प्रदीप के दबाव में, फिर जिस भी कारण से हो, वह लेख उन्होंने लिखा। लेकिन वह उस संकलन का शायद सबसे औपचारिक लेख था जो कहीं से भी लगता नहीं है कि मैनेजर पाण्डेय का लेख है।” (पृ. 190) अक्सर यह विचित्र स्थिति देखने में आती है कि समकालीन ख्यातिलब्ध लेखक इस कदर वैचारिक मतभेद में उलझ जाते हैं कि एक दूसरे के रचनाकर्म और व्यक्तित्व को ही उपेक्षित करने लगते हैं। समझ नहीं आता यह किस प्रकार का बुद्धिजीवी वर्ग है जो वैचारिक मतभेद या किसी भी प्रकार के मतभेद के चलते एक दूसरे को नीचा दिखाने के अवसर ढूँढ़ता रहता है। ऐसा करने में उनका क्या लाभ होता है यह भी समझ से परे है? मधुरेश जी ने कभी किसी प्रसंग में पाण्डेय जी से अपने आलोचनाकर्म पर एम.फिल. या पी-एच. डी कराने की बात भी कही थी लेकिन इस बात पर भी पाण्डेय जी उदासीन ही रहे। मधुरेश जी के शब्दों में, “कभी मैंने पाण्डेय जी से स्वयं कहा था कि अपने किसी शोध-छात्र से मेरे आलोचना-कर्म पर वे एम.फिल. या पीएच.डी. का कोई काम करवाएँ। मैं सचमुच अपने काम को गंभीरता से लेना चाहता था और अपनी सीमाओं से भरसक उबरकर बचे हुए समय में एक नई पारी खेलना चाहता हूँ। अपनी बात में मैंने यह भी जोड़ा था कि उस शोध के निष्कर्षों को प्रकारान्तर से उनके ही निष्कर्ष और सुझाव मानकर मैं भरसक उन्हें उसी रूप में लेने की कोशिश करूँगा। लेकिन यह कभी हुआ नहीं।” (पृ. 191)
आज भी पाण्डेय जी और मधुरेश जी के मध्य अच्छे सम्बन्ध हैं दोनों की फोन पर लम्बी बातचीत भी होती रहती है। कुछ वर्ष पूर्व जब पाण्डेय जी बरेली आए तो मधुरेश जी से मिलने उनके निवास पर भी गये। उस समय पंडित राधेश्याम कथावाचक पर केंद्रित मधुरेश जी की पुस्तक प्रकाशित हो चुकी थी और बरेली में पंडित राधेश्याम कथावाचक पर किसी बड़े आयोजन की योजना बन रही थी जिसमें अतिथि की तरह सम्मिलित होने और पुस्तक पर वक्तव्य देने की सहमति पाण्डेय जी ने जताई थी और कहा था, “जब आप लोगों की इच्छा हो मुझे बतायें…सिर्फ़ एक फोन करना काफ़ी होगा…मैं अपने खर्चे से आऊँगा, किराया भी नहीं लूँगा” (पृ. 192) किन्तु किसी कारणवश यह आयोजन नहीं हो पाया।
सारतः इस संस्मरण में जहाँ एक ओर मधुरेश जी के निष्पक्ष और पारदर्शी व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं, जो उनके लेखन में भी परिलक्षित होता है, वहीं पाण्डेय जी के एक उत्कृष्ट और प्रखर आलोचक होने के बावजूद भी उन पर विभिन्न दबावों और प्रभावों का असर भी साफ दिखाई देता है। मधुरेश जी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि पाण्डेय जी की प्रखर आलोचनादृष्टि उन्हें एक श्रेष्ठ आलोचक सिद्ध करती है। वे एक ऐसे आलोचक हैं जो पूरी तैयारी, योजना और अध्ययन के बाद लिखते हैं। वह स्वयंसिद्ध आलोचक हैं, किसी के बनाए हुए नहीं। मधुरेश जी और पाण्डेय जी के ऐसे मधुर संबंध रहे हैं कि पाण्डेय जी के निजी जीवन की कई बातें मधुरेश जी से छिपी हुई नहीं थीं ऐसे कुछ प्रसंगों को इस संस्मरण में भी दिया गया है। यह संस्मरण केवल मधुरेश जी और पाण्डेय जी के ही व्यक्तित्व, कृतित्व और आलोचना सम्बन्धी विचारों को जानने का नहीं अपितु इन दोनों के सम्पर्क में आने वाले अनेक प्रतिष्ठित साहित्यकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व का परिचय देने वाला एक उत्कृष्ट और महत्त्वपूर्ण संस्मरण है।

————————
डॉ. लवलेश दत्त
165-ब, बुखारपुरा, पुरानाशहर, बरेली (उ.प्र.) पिन-243005,
दूरभाष 9412345679, ईमेल lovelesh.dutt@gmail.com

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admin August 18, 2023
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