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Reading: अनिरुद्ध सिन्हा की ग़ज़लों से गुजरते हुए : ज्ञानप्रकाश पाण्डेय
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Lahak Digital > Blog > Literature > अनिरुद्ध सिन्हा की ग़ज़लों से गुजरते हुए : ज्ञानप्रकाश पाण्डेय
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अनिरुद्ध सिन्हा की ग़ज़लों से गुजरते हुए : ज्ञानप्रकाश पाण्डेय

admin
Last updated: 2023/08/18 at 5:59 AM
admin
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41 Min Read
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हिन्दी ग़ज़ल को मैं प्रगतिवादी कविता का उत्तरकांड मानता हूँ। यही वह दौर है जब प्रयोगवाद, तत्पश्चात नई कविता प्रकाश में आई। सन् 1943 में प्रथम तार सप्तक के साथ-साथ प्रयोगवाद अपना रूप अख्तियार करने लगा था, मगर इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि सन् 1939 में नरोत्तम नागर के संपादकत्व में प्रकाशित पत्रिका ‘उच्छशृंखल में प्रयोगवाद की पदचाप सुनाई देने लगी थी। सन् 1951 में जहाँ दूसरे तारसप्तक के प्रकाशन ने प्रयोगवाद को पूरी तरह स्पष्ट कर दिया वहीं नयी कविता जैसे साहित्यिक शब्द भी सामने आये। नये भाव-बोध तथा शिल्प विधान की वे कवितायें जो सन् 1951 के पश्चात आईं वे नई कविता कहलाई। इनका विकास प्रयोगवाद से हुआ। इन तमाम साहित्यिक उथल-पुथल के बीच कहीं-न-कहीं एक नयी विधा हिन्दी साहित्य में अपनी जगह तलाश रही थी जो आपातकाल के दौरान 1975 में परिस्थिति की अनुकूलता पाकर दुष्यंत के माध्यम से बड़े ही दमदार तरीके से अपनी हाजिरी दर्ज़ कराती है। ये विधा हिन्दी-ग़ज़ल के नाम से हिन्दी साहित्य में अपनी पैठ बनाती है। 70 के दशक में दुष्यंत ही आम पक्षधरता के बड़े कवि थे। पर्वत होती जा रही पीर से लोक सर्सक गंगा के प्लानन की पैरवी हिन्दी ग़ज़ल में सबसे पहले दुष्यंत ने ही की। ऐसा नहीं कि दुष्यंत के पहले हिन्दी में ग़ज़ले नहीं कही गई। सन् 1974 में भवानी शंकर की पुस्तक ‘चौखट के पार’ आ-चुकी थी जबकि ‘साये में ‘धूप’ का प्रकाशन सन् 1975 में हुआ। इसके अतरिक्त भी कई और दावे किये जाते हैं मगर ये ग़ज़लें दुष्यंत की तरह अपना कोई स्पष्ट पद-चिह्न नहीं छोड़ पातीं जिनका अनुसरण किया जा सके, या जो जनता की अगुवाई कर सकें। हाँ! इतना जरूर कह सकते हैं कि हिन्दी-ग़ज़ल का परवर्ती काव्य-प्रसाद इन्हीं की बुनियाद पर खड़ा हुआ। भारतेंदु, हरिऔध, निराला, शमशेर तथा त्रिलोचन की ग़ज़ले भले ही कोई मानक स्थापित नहीं कर सकीं किन्तु इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि वे नींव की ईंट बनी। प्रयोगवाद और नई कविता की सँकरी दरारों में फँसी हिन्दी ग़ज़ल अब अपनी गर्दन उचकाकर प्रकाश की ओर ताकने का हिम्मत जुटाने लगी थी। हिन्दी ग़ज़ल की अंतः सिसृक्षा मुख्य धारा में अब अपना स्वरूप टटोलने लगी थी। ये समय हिन्दी ग़ज़ल के प्रति चली आ-रही लंबी साजिश के पर्दाफाश होने का समय था। अब हिन्दी संपादक ग़ज़लों को कोठे की विधा कहकर लौटाने में संकोच करने लगे थे। चौधरी बनती जा रही नई कविता को अपने सामने एक प्रतिस्पर्द्धी दिखने लगा था। साजिशें अभी भी कम नहीं थीं। कविताओं में भारतीय मिट्टी और भारतीय परिवेश की खुशबू कम होने लगी थी। जैसा कि सब जानते हैं प्रयोगवाद, प्रगतिवाद एवं नई कविता पर विदेशी साहित्य का गहरा प्रभाव पड़ा। अमेरिका के ‘बिटनिक’ आन्दोलन ने पूरे विश्व को प्रभावित किया। इसका मुख्य उद्देश्य ही सामाजिक धारणाओं की अस्वीकृति , भौतिकवाद का समर्थन तथा यौन संबंधो तथा नशीले पदार्थों के सेवन पर पूरी स्वतंत्रता थी, मगर गिन्सवर्ग भी भारतीयता के प्रभाव से विलग नहीं रह सके यहाँ तक कि वे भारत आये भी और बौद्ध होकर लौटे। बंगाल की भूखी पीढ़ी भी बंगाल में इसी दुष्प्रभाव का प्रतिफल थी। इसके लिए मलयराय चौधरी को जेल भी जाना पड़ा , ये और बात है कि बाद में छूट गये। हिन्दी ग़ज़लकार होने का आरोप खुसरो, कबीर और तुलसी पर लगे या न लगे मगर इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि छायावाद (1918-36) और प्रगतिवाद के दौर में खूब ग़ज़ले लिखी गई। प्रसाद, निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, बलबीर सिंह ‘रंग’ शमशेर बहादुर सिंह इसके उदाहरण हैं। शमशेर में ग़ज़ल की अच्छी सलाहियत थी। निराला की ‘बेला’ त्रिलोचन की’ बुलबुल और गुलाब’ इसके अच्छे उदाहरण हो सकते हैं, मगर इन रचनाकारों ने ग़ज़ल को तत्कालीनता के अनुसार बदलने का जोख़िम नहीं उठाया जिसके कारण इन्हे वो नवनीत नहीं मिल सका जो दुष्यंत को मिला। मुख्यधारा से विस्थापन का दर्द सहती हिन्दी ग़ज़ल दुष्यंत की ‘साये में धूप’ के साथ स्वदेश वापसी करती है। हिन्दी ग़ज़ल भले ही एक लंबा वनवास सहती रही मगर इसने अपनी भारतीयता, संस्कार ,लोक तथा मिट्टी की खुशबू को क्षरित नहीं होने दिया। ग़ज़ल अब धीरे-धीरे जनवाद का दामन थाम रही थी। दुष्यंत के बाद ‘अदम’ और ‘शलभ’ खूब चर्चा में रहे। हिन्दी ग़ज़ल अपने शुरूवाती दौर से ही समीक्षकों का अकाल झेल रही थी। यह समय हिन्दी ग़ज़ल के उसी दर्द से उबरने का समय था। बहुत धाकड़ आलोचक हिन्दी ग़ज़ल को भले ही न मिले हों, मगर इतना तो कहा ही जा सकता है कि हिन्दी ग़ज़ल के पास अब अपना आलोचक है। इस पर गोष्ठियों और चर्चाओं का दौर शुरू हो चुका है। ग़ज़ल के व्याकरण, मूल्यांकन एवं सिद्धान्तों पर चर्चायें तथा सेमिनार्स आयोजित किये जाने लगे हैं। आलोचना तथा छपने की समस्यायें ‘नई कविता’ के साथ भी थी मगर बाद में सब आसान हो गया। अज्ञेय ने एक बड़ी अच्छी बात कही थी कि “कृतिकार के रूप में नये कवि को वकील और जज दोनो होना होगा।” सचमुच बड़ी तटस्थता के साथ हमें स्वयं का आकलन करना होगा। एक बात और कहना चाहूँगा कि हर दौर में हर विधा के साथ ऐसा हुआ है कि कुछ न्यून पूँजी वाली छद्म और स्वयंभू प्रतिभायें महिमा भंडित होने की फिराक में घात लगाये रहती हैं। हिन्दी ग़ज़ल भी इसका अपवाद नहीं बन पाती हैं। ऐसे दो-तीन घुसपैठियों को मैं भी जानता हूँ। ये अलग-अलग तरीकों से स्वयं को साहित्यिक ऐश्वर्यता प्रदान करने की अनेकानेक कोशिश कर चुके हैं। इन लोगों ने अपने गुर्गे भी पाल रखे हैं जो समय-समय पर हुआँ-हुआँ कर इनका कीर्ति गान करते रहते हैं। ये कभी इन पर विशेषांक निकालते हैं कभी पुस्तक निकालते हैं तो कभी परिचर्चा करवाते हैं। ये तथाकथित ग़ज़लकार साहित्यिक फैशन के तहत अपने आप को वामपंथी भी घोषित करवा चुके हैं। इन लोगों ने कुछ समीक्षक भी खरीद रखे हैं जो अंतराल-दर-अंतराल इन्हें बड़ी-बड़ी संज्ञाओं से अभिहित करते रहते हैं। जीवन सिंह जैसा अच्छा समीक्षक भी इनके जाल में बुरी तरह फँस जाता है। इन तथाकथित ग़ज़लकारों में कुछ समीक्षक भी हैं जो अभी-अभी अंडे से निकले चूजों की समीक्षा कर वाहवाही बटोरते रहते हैं। इतना ही नहीं बैशाखियाँ पकड़कर चलती हुई ग़ज़लों को मैराथन का विजेता घोषित कर देते हैं। इस तरह के ऋषि दर्शी लंकापतियों से हिन्दी ग़ज़ल को सुरक्षित रखने की सख़्त जरूरत है। हर काल में कुछ ऐसे रचनाकार हुए हैं जो अपने जुगाड़, सत्ता तथा अर्थ के बल पर अपने आप को साहित्य के क्षेत्र में स्थापित करने की कोशिश करते हैं। किन्तु समय जब अपना आकलन करता है तो सब दूध का दूध और पानी का पानी कर देता है। हिन्दी ग़ज़ल अगर स्वयं को बचाना चाहती है तो उसे खुद में असली-नकली के पहचान की शक्ति विकसित करनी होगी। खैर ये सब बातें बहुत हो चुकीं अब मुख्य मुद्दे,अर्थात सिन्हा जी पर आते हैं। जैसा की हम जानते हैं, भारतीय दर्शन कर्म प्रधान रहा है, सिन्हा जी ने भी कर्म पर बल दिया। सफलता तथा असफलता का आकलन तो वक्त करेगा। सिन्हा जी ने हिन्दी ग़ज़ल में कई नये कार्य किये। उनका सबसे सराहनीय कार्य नयी प्रतिभाओं की तलाश है। उनकी इस तलाश का सुफल ‘हिन्दी ग़ज़ल के युवा चेहरे’ के रूप में सामने आया। इस पुस्तक के माध्यम से सिन्हा जी ने धूमिल होती प्रतिभाओं को बड़ी ममता से झाड़-पोछकर मंजरे-आम पर ले आने का बड़ा ही सराहनीय कार्य किया है। टी0 वी0 पर नये टैलेंट की तलाश हम कई रूपों में देखते आ-रहे हैं। कहीं अभिनय की, कहीं हास्य की तो कहीं सुर की। साहित्य में सिन्हा जी का ये प्रयास अपनी तरह का पहला प्रयास है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। इसके अतरिक्त कितनी ही पुस्तकों का संपादन तथा सृजन इन्होने किया किन्तु इन्हें गिनवाना यहाँ मेरा अभीष्ठ नहीं है। आगे बढ़ते हैं, सिन्हा जी द्वारा रचित पुस्तकें कितना सार्वकालिक होंगी इसका फैसला भविष्य पर छोड़ते हैं मगर इस सच्चाई से हम बचकर निकल नहीं सकते कि हिन्दी ग़ज़ल के सन्दर्भ में जितना गद्य साहित्य इस दौरान रचा गया उतना कभी नहीं रचा गया। सिन्हा जी ने सिर्फ स्वयं ही नहीं लिखा बल्कि अपने समकालीनो, साथ-ही-साथ अनुज रचनाकारों को भी लिखने के लिए प्रेरित किया। सिन्हा जी के इसी सारस्वत प्रयास का फल है कि हिन्दी ग़ज़ल नयी कविता के समानान्तर तनकर खड़ी हो सकी। सिन्हा जी इस वजह से भी बड़े हो जाते है कि एक साधनहीन सुदूर गाँव में रहकर भी अपनी साहित्यिक ऊर्जा को कभी क्षीण नहीं होने दिया। सिन्हा जी हर हाल में खुश रहने वाले व्यक्ति हैं। इनमें न केवल जीवन के प्रति गहरी स्वीकार्यता और समर्पण है, बल्कि जीवन की खुरदरी हक़ीक़तों से दो-चार होने का अदम्य उत्साह भी है। ये स्वीकार्यता इनके अंदर की ईमानदारी की प्रतिछाया है।

“जुबाँ पर और साँसों में नमी हो तो गलत क्या है,
अगर ऐसी ख़ुशी से ही ख़ुशी है तो गलत क्या है।

हिचकती है नई तहजीब की गलियों में जाने से,
खफा अपने सफ़र से जिंदगी है तो गलत क्या है।

हमारी बेबसी पर तंज करने के लिए ही तो,
पड़ोसी के यहाँ महफिल सजी है तो गलत क्या है।”

ये शेर नहीं बल्कि जीवन के तीन कड़वे सवाल हैं जिनका सामना सिन्हा जी बहादुरी के साथ करते हैं। ऐसी स्थितियों में रचनाकार पलायन नहीं करता, चिढ़ता भी नहीं, न तो परिस्थितियों के सामने घुटने टेकता है। रचनाकार सच्चाइयों को सहर्ष स्वीकार करता है।
अज्ञेय ने अपने एक लेख ‘कविता का सम्प्रेषण’ में एक स्थान पर लिखा है- “किसी शब्द का कोई स्वयं अर्थ नहीं होता। अर्थ उसे दिया गया है, वह संकेत है, जिसमें अर्थ की प्रतिपन्ति की गई है। इन बातों को ध्यान में रखकर जरा इन शेरों पर दृष्टिपात करते हैं। –

“भरोसे की नहीं दे और कुछ सौगत मुझको,
परेशां कर रहे हैं ख़ुद मेरे हालात मुझको।

खफा जब से हुए हैं चाँद सूरज और तारे,
बहुत खुद्दार सी लगने लगी है रात मुझको।

कई जख्मों के काँटे हैं अभी तक दिल में मेरे,
मुहब्बत की नहीं लगती है अच्छी बात मुझको। ”

सिन्हा जी के शेर मात्र उतने ही नहीं हैं जितना ये दिख रहे हैं बल्कि उसके अतरिक्त कुछ और भी हैं। कवि अपने हालात अपनी परिस्थिति और अपने परिवेश से परेशान है। परिवेश मनुष्य को जो दिखाता है आदमी वही देखता है। इस समय परिवेश क्या दिखा रहा है सभी जानते हैं। शायद इसी से कवि चिंतित है। ऐसा नहीं कि कवि के पास अपना विश्वासपात्र नहीं है। असंदिग्ध निष्ठा वाले लोग भी कवि के पास हैं मगर दौरे-हाजिर का परिवेश है कि कवि को इस निष्ठा पर यकीन नहीं करने देता दूसरा शेर भी काफी अर्थ पूर्ण है। संभवतः कवि कहना चाहता है कि अंधकार और प्रकाश के बीच मुसलसल जो द्वंद्व चल रहा है उसकी एक मात्र वजह शत्रुता ही नहीं है: बल्कि अपनी प्रभुता सिद्ध करने की टेक भी है। तीसरा शेर प्रत्येक मनुष्य का सच है। अनुष्य का अंतरमन ही उसके सही-गलत, पाप-पुण्य तथा अच्छे-बुरे का निर्धारण करता हैं मगर इसकी शर्त ये है कि अंतः आईना कबीरर की तरह साफ हो। कबीर कहते हैं-

‘जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय’

चौथे शेर का तगज्जुल और गुदाज देखते ही बनता है। सचमुच मनुष्य की परिस्थिति तथा उसकी मनः स्थिति ही उसके लिए किसी क्षण को सुखद या दुखद बनाती है। ज़िंदगी की तल्ख हक़ीक़तें जब चारो तरफ से विषैले वाणों की तरह चुभ रही हों तो बारात भी शव यात्रा सी लगती है।

“तस्वीर उजाले की दिखाये न वो बादल,
बारिश में चिरागों का तमाशा नहीं होता। ”

“दस्ते-कातिल का प्यार मुश्किल है। ”

अनिरुद्ध जी सियासी गलियारों के सियाह सच से बख़ूबी वाकिफ हैं। उन्हें पता है कि किस तरह दिन के उजाले मे भी सियाह-से सियाह करतूतों को अंजाम दिया जा सकता है। साथ-ही-साथ रातों का गहरा अँधेरा भी रंगीनियों से लवरेज रहता है। आज सियासत का जहर कहाँ नही व्याप्त है? शिक्षा हो, रोजगार हो, चिकित्सा हो, व्यापार हो, धनी हो ,गरीब हो ऊँच हो, नीच हो, हर जगह सियासी दलदल घुटनों तक व्याप्त है। वहाँ दिखता कुछ है और सच्चाई कुछ और होती है। अनिरुद्ध जी ठीक ही तो कहते हैं-

“इतना तो बताओ सियासत तेरे घर में,
क्यों रात के दामन में अँधेरा नहीं होता। ”

स्थिति इससे भी दुखद है-

“अपने ही दायित्व से जो गिर गया,
हम थके हारे उसी के घर गये। ”

“गलत को हम गलत कहते इसी कहने की कोशिश में,
सियासत ने अँधेरे में हमारी हर खुशी रख दी। ”

सियासत का एक और षड़यंत्र देखें:-

“कहीं वो आँधियों से मिल न जाये;
जो लपटे उठ रहीं उसकी जुबां से। ”

ये शेर तो वर्तमान का सच है। अभी हाल में हमने ऐसे तमाम नमूने दिल्ली के शाहीन बाग़ और देश के विश्वविद्यालयों में देखे।

एक और उदाहरण देखें:-

“आँधियों के आचरण से डर गये,
कुछ हरे पत्ते नवागत झर गये।”

सच ही तो है। सियासत जब अपने साथ नफरत की आँधी लेकर आती है तो हरे पत्ते ही सबसे आगे भ्रमित होते हैं तथा झरते हैं। सियासत एक बाजार है जहाँ हर चीज बिकती है। जो जितना अधिक बिकता है वो उतना बड़ा है। आज के समय में जिस तरह कविता के नाम पर ‘माँ’ बिक रही है ठीक उसी तरह सियासत में ‘अल्लाह’ और ‘राम’ धड़ल्ले से बिक रहे हैं।

“एक मंडी है सियासत ऐसी ,
जिसमें अल्लाह बिके राम बिके।”

ये वहीं ‘अल्लाह’ और राम है जिनकी वजह से बस्तियाँ जलकर खाक हो जाती हैं। बशीर बद्र साहब ने एक जगह लिखा था –

‘लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में,
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में।”

सिन्हा जी की भी दृष्टि समाज की विद्रूपताओं पर है। सिन्हा जी जानते हैं कि किस तरह कुर्सियों के लोभ में हमारे राजनेता नेत्र हीनता और बधिरता की उस सीमा तक पहुँच जाते हैं जहाँ उन्हें अपनों की चीख और जलती हुई बस्तियों का मंजर तक द्रवित नहीं करता।

“किस देश से आये हैं ये लोग कहाँ के सब,
इंसानी लहू पीते अपनों को चबाते हैं।”

बड़ी ही बेबाकी से सिन्हा जी अहले-सियासत और अहले-मोहब्बत के फ़र्क को बयां करते हैं।

“तुम अहले सियासत हो हम अहले मोहब्बत हैं
तुम आग लगाते हो हम आग बुझाते हैं।”

एक और शेर देखें –

“प्रश्न संसद में उठे जो तोड़कर सारी हदें,
देखकर पथरा गई आँखे मुखर संवाद की।”

इस शेर को देखकर क्या ऐसा नहीं लग रहा जैसे प्रतिवादी प्रश्नों का भयंकर ज्वार प्रबल आवेग के साथ बढ़ रहा हो मगर सियासत की ढिठाई और बेशर्मी देखकर औंधे मुँह गिर पड़ा है। इस शेर के बाद की प्रक्रिया संभवतः यही शेर होना चाहिए –

“क्या जाने क्या हुआ कि अदालत के सामने,
अपनी जुबान से वो मुकरता चला गया।”

इस तरह अदालत में सच के मुकर जाने के पीछे भी किसी-न-किसी तरह की सियासत ही तो रहती है। सत्य की विवशता के पीछे सियासत की अराजक शक्तियों का हाथ होता है। जरा इस शेर को देखें –

“मोह से दंशित समर्पण के प्रवल प्रतिवाद से,
पाप अपना धो रही सत्ता महज उन्माद से।”

क्या यहाँ ऐसा नहीं लग रहा कि सिन्हा जी ने पूरी महाभारत दो पंक्तियों में कह डाली है। धृतराष्ट्र, मोह से दंशित समर्पण ही तो था। तथा अठारह दिन का पूरा युद्ध सत्ता द्वारा पाप प्रक्षालन की कुत्सित प्रचेष्टा थी। सियासत के एक और सच की तरफ सिन्हा जी हमें ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। वाकई आज का सत्य यही है –

“अर्थ सियासत खो बैठी है अब तो केवल इतना है,
जिसकी लाठी भैंस उसी की, शासन बौना देख लिया।”

एक और शेर देखें –

“करिये न इतना जुल्म सियासत के नाम पर,
बचिये मिरे हुजूर गरीबों की आह से।”

अब जरा उत्तर आधुनिकतावाद की तरफ चलते हैं। 20 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में एक ऐसा आन्दोलन चला जिसने संस्कृति, वास्तुशास्त्र, दर्शनशास्त्र और कला को पूरी तरह से बदल डाला। इस आन्दोलन ने अपने पुरवर्ती आधुनिकतावाद को एक बड़ी चुनौती दी। तन्कीद के क्षेत्र में इसका गहरा प्रसार हुआ। 19 वी शताब्दी के भारतेन्दु युगीन आलोचना को इसने काफी प्रभावित किया। इस आन्दोलन ने सर्वशक्तिमान की सत्ता को मानने से इन्कार कर दिया। इसने आत्म-चेतना पर बल दिया। भारतीय संस्कृति भी बदली। कहीं तो सुदृढ़ता आई किन्तु कहीं-कहीं अराजकता भी फैली। इस उत्तर आधुनिकतावाद ने कई परिभाषाओं को या तो सिरे से खारिज कर दिया या फिर बदल दिया। पारिवारिक संबंधो में आया विघटन भी कहीं-न-कहीं इसी के प्रभाव का प्रतिफल है। भारत की प्राचीन संस्कृति भी बहुत हद तक आहत हुई। पश्चिम से आई अश्लीलता भी इसी का दुष्परिणाम है। इस आन्दोलन ने वस्तुनिष्ठवाद का विरोध किया तथा संशयवाद तथा व्यक्तिपरकता का समर्थन किया। इस विदेशी आन्दोलन से संक्रमित भारतीय संस्कृति का विभत्स चित्र सिन्हा जी ने अपनी ग़ज़लों के माध्यम सें दिखाने की कोशिश की है। अपने आस-पास उन्हें जो दिखता है उसे वो बगैर लागलपेट के कह देते है। लोगों का ‘स्व’ बहुत सिमट गया है –

“रिश्तों के इतने नाग उठाए हुए हैं फन,
मैं हर क़दम पे ख़ुद से ही डरता चला गया।”

“दुख में अपना ही घर केवल,गाँठ दुखों की खोलेगा,
लेकिन शीश झुकाकर घर का कोना-कोना देख लिया।”

“मूल्य बढ़ते जा रहे हैं आपसी संबंध के,
प्यार से, बल से प्रलोभन जातिगत अनुबंध से।”

“इस नये विज्ञापनो के दौर में,
सभ्यता के शब्द सारे मर गये।”

“नई सदी की लकीरों पे चल के घर अपना,
पुरानी आग से दामन कहाँ बचाता है।”

अनिरुद्ध जी एक सादगी पसंद रचनाकार हैं। जहाँ तक मैं जानता हूँ इनकी सादगी इनके वेशभूषा, स्वभाव, रहन-सहन एवं बोली के साथ-साथ इनके अंदर की सादगी है। इनके अंदर एक बड़ा ही कोमल व्यक्ति हैै जो सब के प्रति प्रेम से आपूरित रहता है। मैने अपने पूरे साहित्यकाल में कभी नहीं देखा कि कोई अग्रज रचनाकार अपने अनुज रचनाकारों के प्रति इतना स्नेहिल भाव रखता हो। भला क्या जरूरत थी इन्हें पचास नये कवियों पर लिखने की ? एक ऐसा समय जब हर कोई आगे निकलने की घुड़दौड़ में सामिल हो, अपने अनुज रचनाकारों पर इतना लिखना बड़े ही जीवट और मनुष्यता का कार्य है। इस बात से जो एक बात उभर कर सामने आती है वो ये कि अनिरुद्ध जी को भविष्य की चिंता है। आज जब लोग महिमामंडन में लगे हैं, अनिरुद्ध जी का ये कार्य सम्मान का भागी है। कवि की सादगी कभी-कभी बड़ी तंजिया हो जाती है –

“ये मेरे ख्वाब हैं लो हिफाजत करो,
तुम बड़े लोग हो कुछ सियासत करो।”

कवि की सादगी इस दूसरे शेर में देखें। कवि ने जैसे अपने प्रारब्ध से समझौता कर लिया हो। कवि जैसे अपनी नियति जानता हो। कहें तो ये भी कह सकते हैं कवि जीवन की वास्तविकताओं को समझ रहा है।

“मुझको हर हाल में टूटना ही तो है,
मैं खिलौना हूँ मुझसे शरारत करो।”

जिजीविषा हिन्दी कविता की विशेषता है तथा संघर्ष इसकी संजीवनी है। संघर्षण की यही अग्नि हमारे अंदर की जिजीविषा को उत्तप्त रखती है। हिन्दी कविता के इंकलाब के मूल में जिंदा रहने की यही प्रबल इच्छा शक्ति रही है। प्रगतिवाद, छायावादी वैयक्तिकता के विरोध के प्रतिफल के रूप में आया था। इस परंपरा ने कविता को कल्पना के कोमल स्पर्शी परिधि से बाहर निकाल कर वास्तविकता के स्वेदसिक्त यथार्थ से रूबरू कराया। प्रगतिवाद मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का ही एक रूप है। इसे ही राजनीति में साम्यवाद कहा गया। सन् 1937 से 1943 तक यह अपने पूरे शबाब पर रहा।
कवि परंपराओं का संवाहक होता है अतः कवि में भी ये जिजीविषावादी तेवर साफ परिलक्षित होते हैं कवि कठिन-से कठिन परिस्थिति में अपने को सम्हाले हुए है। कवि जानता है कि जीवन परिवर्तनशील है। आकस्मिक पीड़ा से कवि टूटता नहीं है। कवि दर्द से भागता भी नहीं बल्कि उसको जीता है। कवि में इससे उबर आने का विश्वास है।

“डूबा हूँ दर्द में ये और बात है,
रहने दो मेरे ज़ख्म को कोई दवा न दो।”

गोरख पाण्डेय भी अपनी कविता में संभवतः यही बात कहते नजर आते हैं। वे कहते हैं-

“यहीं पर एक बूढ़ा माली
हमारे मृत्युग्रस्त सपने पर
फूल और उम्मीद
रख जाता है”

दरअस्ल उम्मीद ही वास्तविक दवा है जो ज़ख्म को ठीक कर सकती है। इतना ही नहीं कवि पत्थर होती जा रही संवेदना से चिंतित है। उसे डर है कि कहीं सफर की धूप जीवन की नदी को सोख न ले। ये मानव समाज के लिए बड़ा ही घातक होगा। आर्द्रता की इस नदी की तलाश ही तो जीवन के प्रति कवि की दृढ़ता का सूचक है। सिन्हा जी लिखते हैं –
“तुम्हारी आँख की खोई हुई नमी की तलाश,
सफ़र की धूप में करता हूँ मैं नदी की तलाश।”

सचमुच ! व्यक्त करने का तरीका या साधन चाहे जैसा भी हो किन्तु मानवीय संवेदना की एकरूपता सार्वभौम है।
कितनी ही प्रतिकूल शक्तियाँ मानवीय विकास का बाधक बनकर आती हैं तथा पस्त करने की हर मुमकिन कोशिश करती हैं। ये परिस्थितियाँ अनेकानेक रूप में हमारे सामने आती हैं मगर कवि असहाय नहीं होता बल्कि प्रतिफल का इंतजार करता है –

“कह रही है बला की खामोशी,
फैसला अब कोई नया होगा।”

अद्भुत विश्वास है कविका। कवि कहीं हथियार डालता हुआ दिखाई नहीं देता बल्कि एक पहाड़ की तरह सामने आकर खड़ा हो जाता है। बेलगाम हवाएँ दृढ़ता की इन चट्टानों पर अपना सिर पटक कर अपना सा मुँह लेकर रह जाती हैं। त्रिलोचन की एक कविता याद आ-रही है।

“शब्दों से ही
बस गंध का काम लिया है
मैंने शब्दों को असहाय नहीं पाया है
कभी किसी क्षण”

सिन्हा जी के दृढ़ विश्वास को पुष्ट करते कुछ और शेर देखें –

“तुम्हारी प्यास पर मंज़िल नहीं हँसे कल को,
सफ़र की धूप में भी डर सम्हाल कर रखना।”

“चिरागों को अँधेरे से बहुत लड़ना पड़ेगा,
अँधेरा जो अभी है कल यहाँ ऐसा न था।”

“जब हाथ की लकीर रूलाने की जिद करे,
तब हादशों के साथ तमाश बढ़ा के देख।”

कुछ और शेर देखें –

जिस्म मजबूत है उसे कह दो
जुल्म जज़्बात पर नही ढ़ाये।

कुछ इसी तरह की संवेदना लिए हुए सर्वेश्वर की ‘कुआनो नदी’ का एक अंश देखें –

“आग मेरी भी धमनियों में जलती है, पर शब्दों में नहीं ढल पाती
मुझे एक चाकू दो मैं अपनी रग काटकर दिखा सकता हूँ
कि कविता कहाँ है।”

ये जो रक्त है यही तो कविता की आग को रचती है तथा चिराग़ बनकर आलोकित करती है। यही तो कवि की इच्छा शक्ति है।
ये जिजीविषा कवि की परंपरा का अंश है कवि की परंपरा को इसने हथियार डालना नहीं सिखाया। टी0 एस0 इलियट की बात यहाँ बहुत सूट करती है कि परंपरा प्रतीक्षा की रगों में रक्त की तरह दौड़ती है।“ कवि परंपरा का वाहक होता है। यकीनन ये परंपरायें तबील सफर तय करेंगी।
आज के कठिन होते जा रहे दौर में रोजमर्रा की जरूरतें भी उतरोत्तर कठिन होती जा रही हैं। इस कठिनाई का कारण मैं बाजार वाद को मानता हूँ। इस बाजार वाद ने चीजों को इतना सुलभ तथा आकर्षक कर दिया है कि निरर्थक खपत का भार दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है, जिसकी वजह से हमारे खर्च हमारी आमदमी पर एक स्थाई दबाव बनाये हुए हैं। एक व्यक्ति सुबह से शाम तक मेहनत कर के भी बड़ी मुश्किल से अपना घर चला पाता है। शकील आज़मी साहब भी कुछ ऐसा ही सोचते हैं –

“सबेरे निकलू मैं शाम आऊँ तो घर चलाऊँ,
पसीना जाकर कहीं बहाऊँ तो घर चलाऊँ।

जहाँ पे मरता हूँ रोज जीने के वास्ते मैं
वही से खुद को बचा के लाऊँ तो घर चलाऊँ।“

कुछ इसी तरह की पीड़ा अनिरुद्ध जी को भी निरंतर
सालती रहती है। रोजमर्रा की ये कठिनाईयाँ मनुष्य को दिन-ब-दिन संवेदनहीन की कर रही हैं। लोग रिश्तों की तरलता तथा गर्माहट भूलने लगे हैं। हर मनुष्य मात्र साधन जुटाने में लगा है। सभी को कही-न-कही ये डर है कि उसके पास कुछ कम न हो जाय। यहाँ तक की बूढ़े माँ-बाप भी लोगों को अखरने लगे हैं। मानवीय संवेदना बाजारवाद के सामने सिजदा करती नजर आती है। धनी और धनी होते जा रहे हैं तथा गरीब और गरीब होते जा रहे हैं। संसार की सारी पूँजी कुछ गिने-चुने लोगों की मुट्ठी में बंद है। रोटी जो कभी सफर का साधन थी, साध्य बनती जा रही है। सारे, बड़े मानवीय लक्ष्य रोटी की परिधि में सिमेट कर रह गये हैं। एक बड़ा तबका ऐसा भी है जो रोटी के साथ खेलता भी है। धन के असामान्य वितरण ने एक तरफ जहाँ रंगीनियत का अंबार लगा रखा है वही दूसरी तरफ रोटियों की मारामारी है। कुछ उदाहरण देखें –

“वो जो रोटी की लड़ाई लड़ रहा है,
वक्त से पहले ही मारा जायेगा।”

“माँ रिवाजों की शोख बस्ती में,
भाई-भाई में कल बँटी होगी।

दिलकशी वक्त की बुझी होगी,
हाँफ कर रौशनी बुझी होगी।”

“हवा में हाँफती उम्मीद की सूखी नदी रख दी,
तसल्ली के लिए हालात ने इतनी नमी रख दी। ”

“रंग आवाजों के बदलेंगे उछालों रोटियाँ,
एक मुद्दत से खड़ी इस मुफलिसी को देख लें।”

“रात भटकती सुबह सरकती साँसों पर,
दुविधाओं के जंगल भी उग आते हैं।”

‘लोक’ हिन्दी कविता का एक बहुत ही सबल तथा पुराना पक्ष है। यहाँ बुद्धि की तुलना में हृदय अधिक प्रभावी होता है। किसी भी संस्कृति का वट वृक्ष वहाँ के लोक की उर्वर मिट्टी पर ही जन्मता है। लोक का अर्थ बड़ा ही व्यापक है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लोक के संदर्भ में अपना विचार प्रकट करते हुए लिखा है – “लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नही है बल्कि नगरों तथा गाँवों में फैली हुई वह समस्त जनता है जिसके व्यवहारिक ज्ञान का आधार पोथियाँ नहीं हैं ।ये लोग नगर में परिष्कृत तथा रूचि संपन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगो की समूची विलक्षणता तथा सुकुमारता को जीवित रखने के लिए जो भी वस्तु आवश्यक है उन्हें उत्पन्न करते हैं।” इसी लोक का एक अंग किसान है। किसान भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है हिन्दी साहित्य में भी किसानों की स्थिति पर खूब लिखा, गया। 1857 के विद्रोह में किसानो के योगदान के संदर्भ में रामविलास शर्मा लिखते हैं- “ धर्म और वर्ण की सीमा को तोड़कर ये जो लाखो किसान एक ही लड़ाई में शामिल हुए उसका बड़ा गहरा असर भारत की संस्कृति पर पड़ा और यह असर उनके लोक गीतो में भी दिखाई देता है।” मगर त्रासदी ये है कि भारतीय किसान की स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है। सिन्हा जी का कवि मन किसानो के लिए दुखता है वे कहते हैं।

“हमारी रात उजालों से कब हुई रौशन
बना के चाँद उसे आईने में देखा भी ”

सचमुच किसानों के स्वप्नलोक की जमीन बड़ी बंजर है।
वहाँ कोई फलदार वृक्ष नहीं उगता। उगती हैं तो बस कटीली झाड़ियाँ। अभाव की कुछ ऐसी ही झाँकी युगधारा में नागार्जुन प्रस्तुत करते हैं। –

पैदा हुआ था मैं
दीन-हीन अवठित किसी कृषक कुल में,
आ-रहा हूँ पीता अभाव का आसव
ठेठ बचपन से

किसान कविता की लेकप्रियता का अंदाजा नेहरू नागर प्रकरण से भी लगाया जा सकता है। जिसमें किसान कवि खेम सिंह नागर की कविता सुनने के लिए 1936 में किसानों ने जवाहरलाल नेहरू का बहिष्कार कर दिया था।
अनिरुद्ध जी भली भाँति इस बात को जानते भी हैं कि गाँव के सपने उस शीशे की तरह हैं जो किसी भी समय दरक सकते हैं मगर साथ-ही-साथ उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति पर उन्हे आश्चर्य भी होता है। –

“कई सपनों के शीशे में जड़ा है,
तू आखिर किन वसूलों पर खड़ा है।”

ये बात वाकई आश्चर्य में डालती है कि जहाँ साधन हीनता का अतल दलदल है वहाँ गाँव आखिर खड़ा कैसे है ? नागार्जुन कहते हैं –

मेरा क्षुद्र व्यक्तित्व रुद्ध है सीमित है,
आटा दाल नमक लकड़ी के जुगाड़ में

हम आज किसी दलील के तहत भले ही ये कह दे कि ये नागर्जुन का समय नही है। आज दुनिया बदल चुकी है, मगर सच तो ये है कि अच्छे दिन अब भी मात्र दबंगों तक ही सीमित है। ‘उज्ज्वला’ का प्रकाश अब भी मुस्तखबिल के अँधेरे को मिटा नहीं पाई है। गंगोत्री से निकली नदियाँ विशाल जन समुद्र में मिलने से पहले ही किसी अनजान खंदक में समा जाती हैं।
भारत में किसान आन्दोलन का श्रीगणेश बिजोलिया किसान आन्दोलन से, हुआ। विजय सिंह पथिक के नेतृत्व में चला ये आन्दोलन आधी शताब्दी तक चला। अंग्रेजी शासन के दौरान तो भारत की कृषि व्यवस्था एक तीखी ढ़लान पर आ चुकी थी। उससे भी बड़ी त्रासदी तो ये हुई कि उन्नीसवी शताब्दी के उत्तरार्ध तथा वीसवी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में धटित होने वाले अकाल तथा महामारी ने भारतीय किसानों की कमर ही तोड़ दी थी। 19वीं शताब्दी की शुरूआत से ही किसानों की समस्याओं को लेकर भारत के कितने ही भागो में आन्दोलन जोर पकड़ने लगे थे। गाँधी का चंपारण किसान विद्रोह विनोवा भावे का भूदान आन्दोलन, नक्सल बाड़ी आंदोलन, पाबना आंदोलन। दक्कन विद्रोह, मोपला विद्रोह, कूका विद्रोह ,खेड़ा सत्याग्रह, बारदोली सत्याग्रह न जाने कितने ही किसान विद्रोह हुए तथा सबने अपने-अपने तरह से इन किसान आन्दोलनों में अपना-अपना योगदान किया। इसमें हिन्दी रचनाकारों का भी सहयोग कम नहीं था। बड़े-बड़े व्यापारिक घराने किसानो की जमीन हथियाने पर लगे थे। जमीनों के इस हस्तांतरण का परिणाम किसानों की आत्महत्या के रूप में सामने आ रहा था। आये दिन हम किसानों की आत्महत्या की खबरें सुनते रहते है। कोई महुए के पेड़ पर झूलता नजर आता है तो कोई सल्फास खाकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेता है। प्रदेश के मंत्री पीड़ित परिवार के लिए कुछ रूपयों का ऐलान कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं किसी का भी ध्यान स्थाई समाधान की ओर नहीं जाता है। सिन्हा जी किसानों को सामाजिक, आर्थिक, तथा राजनीतिक प्रश्नों को समझते हैं। शायद इसीलिए वे बड़े ही तंजिया अंदाज में कहते हैं –

“फरेब आँखों को ऐसा दिया बहारों ने,
चमन-चमन को लगा फूल-फल गया सब कुछ।”

किसान का समूचा जीवन सचमुच ही फरेब की परिभाषा है। ये फरेब उसे कई जगहों से मिलता है। कभी मौसम से कभी साहूकार से तो कभी सरकार से। एक और शेर देखें –

“हवा जो बदली अचानक बदल गया सब कुछ,
हमारे हाथ से जैसे निकल गया सब कुछ।”

किसान कविता का ये अर्थ कतई नहीं होता कि किसान कविता में किसान शब्द आये। किसान की सामाजिक आर्थिक तथा राजनीतिक स्थिति व्यक्त करने वाले शेर ही किसान कविता के अन्तर्गत आ सकते हैं। उपर्युक्त शेर को देखकर अच्छी तरह से समझा जा सकता है कि किस तरह हमारे देश में किसानों का राजनीतिकरण होता है। चुनाव आते ही ये याद आने लगते हैं तथा चुनाव जाते ही ये भुला दिये जाते हैं। सच तो ये है किसान अब वोट पाने का साधन मात्र है। किसानों को स्थिति दिन-ब-दिन खराब होती जा रही है। 1912 मे मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत-भारती’ छपी जिसमें भारत दुर्दशा के विभिन्न पहलुओं को लेकर किसानों की बर्बादी का एक पूरा दस्तावेज है। ‘किसान’ खण्ड काव्य में तो गिरमिटिया कृषक मजदूरों के अप्रवासी जीवन का बृहद लेखा-जोखा है। 1914 में हीरा डोम’ की कविता ‘अछूत की शिकायत’ छपी।ये हिन्दी की प्रथम दलित किसान कविता है। इसका कुछ अंश देखें –

“हमनी के रात-दिन मेहनत करीजां,
दुइगो रूपयावा दरमहा में पाइब।
ठाकुर के सुखसेत घर में सुतलबानीं
हमनी के जोति-जोति खेतिया कमाइबि”
“खंभवा के फारी पहलाद के बंचवले।
ग्राह के मुँह से ग़ज़राज के बचवले।
धोतीं जुरजोधना के भइया छोरत रहै,
परगट होके तहौ कपड़ा बदवले।
मरले खनावाँ के पलले भभिखना के,
कानी उगुरी पै घैके पथरा उठले
कहंवा सुतल बाटे सुनत न बाटे अब,
डोम तानि हमनी के छुए से डेराले”

कितना दुखद मंजर है। इतना ही नहीं, किसानों पर इसके अतरिक्त भी बहुत कुछ लिखा गया। गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ ने ‘1857 की जनक्रांति’ बालमुकंद गुप्त ने ‘बसंत बंधु’ तथा’ मेघ मन वाली’ , प्रेमघन की’ जीर्ण जनपद, महावीर प्रसाद द्विवेदी की ‘वर्तमान दुर्मिक्ष’ तथा प्रताप नारायण मिश्र की ‘बैरागी विलाप’ लिखी गई। गणेश शंकर विद्यार्थी ने किसानों के लिए ‘प्रताप’ पत्रिका का संपादन शुरू किया। इसमें छपा लेख’ भारतीय कृषक’ काफी चर्चा में रहा। अनिरुद्ध जी भी इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हैं। अनिरुद्ध जी को ग्रामीण परिवेश गँवई खुशबू में समेटे रहता है। उनका मन भी किसानों के लिए भावुक रहता है। किसानों की वास्तविक स्थिति अनिरुद्ध जी से छुपी नहीं है। वे कहते हैं –

“गाँव की तक्दीर शहरों में यही,
चील के पंजे में हो साँपों का सर।”

“टूटे सपने घर ले आया,
सब खो-कर वो इतना पाया।”

सचमुच ! दँवरी-मिजनी के बाद किसान क्या पाता हैं। क्या बचता है आखिर उसके पास लगान और साहुकार को देने के बाद। कभी-कभी तो ‘किसान क्रेडिट’ चुकाने के बाद वह किसान से मजदूर बन जाता है।
अनिरुद्ध जी में किसी तरह की भाषाई कट्टरता नहीं। ये हिन्दी उर्दू तथा गँवई शब्दों का प्रयोग घड़ल्ले से करते हैं। इनकी रचनाओं में एक भाषाई तवाजुन नजर आता है। किसी भी तरह का कोई मानसिक दबाव परिलक्षित नहीं होगा। इनकी आधुनिक चेतना संपन्नता इन्हें सार्वकालिक कवियों में पांक्तेय करती है। इनकी रचनाओं में आया यथार्थ इन्हें और भी पुष्ट करता है। इनकी रचनायें दायित्व बोध से सम्पन्न हैं। इनके चिंतन का फ़लक व्यापक है। हिन्दी ग़ज़ल में इनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता।


ज्ञानप्रकाश पाण्डेय, कोलकाता

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admin August 18, 2023
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2 Comments 2 Comments
  • Dilip Darsh says:
    August 18, 2023 at 10:13 am

    अनिरुद्ध सिन्हा साहब बड़े ग़ज़लकार हैं. उनकी ग़ज़लें वक्त से लोहा लेती हैं. हिंदी ग़ज़ल की चर्चा उनके बिना अधूरी है. समीक्षक को भी बहुत बहुत बधाई.

    Reply
    • admin says:
      August 18, 2023 at 3:19 pm

      सही कहा

      Reply

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