उस समय नदी की तरह अबाध बहती दोपहर की सफेद धूप में हवा, आकाश भीगा हुआ था, थोक में खिले चम्पा के उजले फूल गाढ़े हरे पत्तों के बीच गिले-गिले चमक रहे थे! वह अप्रैल का एक दिन था, उलट-पलट बहती मसृण हवा और धूप का मनचला मौसम! मैं माँ को देखने रिहैविलेटेशन सेंटर आया था। हर शनिवार, रविवार को आता हूँ। उस दिन शनिवार था। स्पाइन के ऑपरेशन के बाद उनका यहाँ फिजिओ थेरापी चल रही थी।
लंबी कॉरीडोर पर पापोश से बिछे टुकड़े-टुकड़े धूप से गुजरते हुये मैं दवा की गंध से भीगे उस कमरे के सामने रुका था। बाहर की चौंधियाई धूप ने उस कमरे को कुछ ज्यादा ही अंधेरा कर रखा था। उसी अंधेरे में वह चेहरा दिखा था- सफेद चादर से ज्यादा सफेद, एकदम खाली, शून्य से भरा हुआ! मेरे भीतर झुरझुरी-सी फैल गई थी, चलते हुये एकदम-से ठिठक गया था। क्या कोई जीते जी इस तरह अपने भीतर से गुम हो सकता है! ऐसे कि जैसे कभी हुये ही ना हो! कपूर की तरह निश्चिंह हो जाना… वह जाना सबसे त्रासद होता है जिसमें जाने वाला अपनी देह साथ नहीं ले जा पाता। उसके साथ पीछे रह जाने वालों की तकलीफ और ज्यादा, शव के साथ जीना आसान नहीं होता!
रोज-रोज देखता रहा था, किस तरह उस बेजान देह ने उस कमरे को मुर्दे घर में तब्दील कर दिया था। वहाँ का सब कुछ मुर्दा था- जर्द सफेद पर्दे, चादर, तकिये, दवाई की शीशियों से भरा टेबल, उस पर मंडराती डेटॉल, फिनाइल की गंध, गिलास में स्तब्ध पड़े फूल और वह औरत… तकियों से घिरे एक पथराए चेहरे के सरहाने किसी किताब में डूबी हुई! लगभग हरदम! क्या कम से कम उसे याद है कि वह जीवित है! कई बार उससे पूछने का मन करता था।
जब भी इस कमरे के सामने से गुजरा हूँ, लगभग यही दृश्य देखा है। एक मुश्त ना मिलने वाली मृत्यु कई बार ऐसे ही किस्तों में मिलती है शायद- एक व्यक्ति विशेष के साथ उसके आसपास के सारे जीवन, असबाब और आवाज, दृश्यों को। सब मरते हैं एक मरती हुई देह के आसपास धीरे-धीरे- कुछ इसी तरह! मृत्यु अपने साथ जीवन के सारे चिन्ह समेट कर ले जाती है। मगर सबसे त्रासद होता है उसका यूं घिसट-घिसट कर चलना, खुद को असह्य पीड़ा, अवसाद और समय से लगातार गुणा करते जाना… अंत तक पहुँचते-पहुँचते एक मृत्यु कितनी सारी मृत्युयें बन जाती है! चिता पर जलती सिर्फ एक देह नहीं है! दुनिया भर के सपने जलते हैं, अनजीयी खुशियाँ और इच्छायें, कुछ तो अजन्मे ही…
एक दिन कैंटीन में वह औरत मिली थी। ठंडी होती चाय के सामने अपनी किताब में उसी तरह डूबी हुई, आसपास के तमाम शोर-गुल से बेखबर। पहली बार गौर से देखा था, वही मुर्दा चेहरा, बस कुछ रंग और भराव का फर्क था। उसके सामने की कुर्सी पर बैठ कर उसे नमस्ते किया था। वह इस तरह चौंक कर मुझे देखने लगी थी जैसे उसे समझ नहीं आ रहा हो मैं क्या कह रहा हूँ। किताब से टकरा कर चाय की प्याली छलक जाने से कुछ बूंदें उसकी साड़ी में गिर गई थी जिसे पोंछते हुये उसके चेहरे पर नागवारी के भाव उभर आए थे। मैंने क्षमा मांगी थी जिसका कोई जवाब उसने नहीं दिया था। बस ठंडी, प्रश्नसूचक आँखों से मुझे देखती रही थी।
जो आँखें उस अंधेरे कमरे के बिस्तर पर पथराई पड़ी थी, यहाँ बोल रही थीं, पतझड़ में झड़ते उदास, पीले पत्तों की कोई अबूझ भाषा- विरक्त और खींज से भरी हुई! मैं असहज हो आया था, भीतर से कुछ नाराज भी। तकलीफ में यहाँ सब हैं मगर इस तरह हर कोई असामाजिक तो नहीं हो जाता, निभाना पड़ता है… इसी नाराजगी में बोल गया था, माफ कीजिये अगर डिस्टर्ब किया हो तो, बस हालचाल पूछने चला आया था…
वह औरत बुदबुदाई थी, जैसे खुद से ही बोल रही हो- ऐसी कोई बात नहीं, वह मैं ही जरा… यह दो-चार शब्द बोलते हुये वह इतनी उलझी और असहाय-सी दिखी थी कि मैं उठते-उठते दुबारा बैठ गया था- आप ठीक तो हैं? “हाँ! ठीक…” उसने कहते हुये अपनी आँखें फिर किताब पर जमा ली थी। मुझे लगा था, यह किताब उसे ओट देती है, अपने आसपास से, शायद खुद से ही! एक निरापद आश्रय, जहां आँखें गढ़ा कर पड़ी रहा जा सके, हर आवाज, हस्तक्षेप से पीठ फेर कर!
मैंने दो चाय का ऑर्डर दिया था। चाय आने पर उसने बिना कुछ कहे कप ले लिया था- दरअसल मैं थोड़ा परेशान हूँ… मैं बिना कुछ कहे उसे देखता रहा था। चाय की कुछ लंबी-लंबी घूंट ले उसने कप परे सरका दिया था, जैसे अपने भीतर के हिम में कुछ ऊष्मा बटोरने की कोशिश में हो- मुझे अंदेशा तो था मगर… वह वाकायदा डिवोर्स पेपर भेज देगा… कहते-कहते उसने ठिठक कर मुझे देखा था फिर मेरी आँखों में उभरे सवाल को समझ धीरे-धीरे कहा था- वह… सुजीत… मेरे पति!
मैं देख सकता था, ऊपर से शांत दिखने की कोशिश के बावजूद कितनी डरी हुई थी वह! आतंक उसकी आँख, पीली आभा लिए त्वचा, पूरी शख्सियत से जैसे उलची पड़ रही थी। उसे देखा-सूंघा जा सकता था। हल्के नीले खादी दुपट्टे को लगातार ऊंगली पर लपेटती हुई वह रह-रह कर अपने सूखे होंठों पर जीभ फिरा रही थी। मैंने कोई उत्सुकता जाहीर नहीं की थी। समझ रहा था, किसी सतर्क चिड़िया की तरह छोटी से छोटी आवाज उसे डरा सकती है। जरूरत थी उसके सहज होने की। इसके लिए मैं उसे हार्म्लेस लगूँ यह जरूरी था। मैं नहीं चाहता था, मेरी अतिरिक्त उत्सुकता उसके संदेह का कारण बने।
थोड़ी देर बाद वह कुछ आश्वस्त-सी हुई थी। मुझसे पानी की बोतल मांग कुछ घूंट पीया था फिर बोली थी- तीन महीने से ऋतु- मेरी बहन- ऐसे ही पड़ी है… उसे एक साल में दो स्ट्रोक आए… पहले के बाद एक हद तक ठीक हो चली थी मगर…
उस दिन वह अपनी बात पूरी नहीं कर पाई थी। किसी के बुलाने पर चली गई थी। मगर हमारे बीच की अजनबीयत कुछ हद तक टूटी थी, एक औपचारिक-सा परिचय जो ट्रेन, अस्पताल या किसी दफ्तर के वेटिंग रूम में अक्सर दो प्रतीक्षारत व्यक्तियों के बीच हो जाता है, हमारे बीच भी अनायास घटा था।
इसके बाद वह धीरे-धीरे खुली थी, कई मुलाकातों के दरमियान। अपना नाम इना बताया था उसने, इना जोहरी! मैंने गौर किया था, वह अक्सर बोलती रहती थी, खुद ही, बिना किसी सवाल के। यह बोलना शायद बहुत जरूरी था उसके लिए। खुद के भीतर बंद होना एक त्रासद अनुभव हो सकता है, अब बेहतर समझ सकता हूँ। जिधर देखें हम ही हम! खुद के आगे खड़ी दीवार की तरह, उससे लगातार भिड़ते हुये… तो उसे धैर्य से सुनते हुये मैं उसके किसी काम आ रहा, यह सोच मुझे कहीं से अच्छा महसूस कराती थी।
मुझे भी तो कहीं से छुटना था… माँ के बाद हमेशा का घर एकदम से मकान बन गया था। उससे पहले सुजाता का जाना, साथ मुनमुन का… अब सोचता हूँ तो लगता है, कहीं ना कहीं इंसान भी तो मकान-सा ही होता है! भीतर किस साध से लोग घोंसला बांधते हैं, सपने बीनते-बिछाते हैं और फिर एक दिन चले जाते हैं… जाते हुये कई बार मुड़ कर भी नहीं देखते। जैसे सुजाता गई, मुनमुन को ले कर… उतना प्यार, बातें… जाने उनका क्या हुआ!
दिन कामों में बीत जाता है मगर रात आती है और सीने पर पहाड़ बन कर बैठ जाती है। रह-रह कर याद आता है, जाते हुये मुनमुन का रोना, मेरी तरफ हाथ फैला कर- पापा! पापा! पुकारना। वह पुकार मुझे हर वक्त सुनाई पड़ती है! कई बार सचमुच टूट-टूट पड़ता हूँ, मुनमुन से कहता हूँ, मुझे अब मत पुकारो! वह सुनती नहीं… अक्सर लगता है इन दिनों, मैं अपनी विगत स्मृतियों की गूंज से भरा एक खंडहर मात्र रह गया हूँ जो कभी भी ढह सकता है!
कुछ सवाल निरुत्तरित ही रहे, मसलन, लोग आपस की दुश्मनी में बच्चों का इस्तेमाल क्यों करते हैं? वह भी अपने बच्चों का…! क्या सुजाता को अपनी बेटी का रोना भी नहीं दिख रहा था! सुना, अक्सर वह रातों को उठ कर मेरे लिए रोती थी… जान कर आज भी भीतर असह्य दुख गुमड़ता उठता है। मेरा बदला उस छोटी-सी जान से लेना… मैं था ना सब झेलने के लिए!
कई साल बाद मुनमुन को देखा था, जब वह सुजाता के साथ आस्ट्रेलिया से लौटी थी। काफी बड़ी हो गई थी। अपनी माँ की तरह दिख रही थी। वही कांसे की-सी चमकदार रंगत, भ्रमर काली आँखें… सुजाता के नए पति को पापा कह कर बुला रही थी, बहुत सहजता से। मुझे भी पापा कहा था, उसी तरह! शायद ‘पापा’ अब महज एक शब्द बन कर रह गया है उसके लिए! जाने किस उम्मीद से देखा था मैंने, मगर उसकी आँखों में कुछ नहीं था। समझा था, मैं उसके भीतर से मिट गया हूँ। नर्म मिट्टी में जिस आसानी से पाँवों की छाप पड़ती है, मिट भी जाती है। मुनमुन विलगते हुये वैसी ही तो थी- बहुत छोटी- गीली मिट्टी-सी! अब समय की चाक पर धरी जाने कौन-सा रूप ले रही होगी…
उस दिन पहली बार एहसास हुआ था, अपनी बेटी के हमेशा के लिए खो जाने का। सुजाता तो खैर कब की चली गई थी। उस दिन माँ की गोद में सर छिपा कर बहुत रोया था, उनका वही छोटा बच्चा बन कर जिसको वह अक्सर याद किया करती थी। एक दिन माँ ने ही फिर चेताया था, ज़िंदगी की दुश्वारियों से घिर कर लोग कई बार अपने ही अनजाने बचपन की सुरक्षा की तरफ लौटना चाहते हैं। तुम जानते हो, इसे रिग्रेशन कहते हैं। यह मत होने दो एकांत, बी अ फायटर! उन दिनों मैं छिप-छिप कर पहले की तरह मिट्टी खाने लगा था जो शायद माँ ने कभी देख लिया था! उनकी फटकार से जैसे नींद टूटी थी।
मैं क्या करूँ कि चाह कर भी मैं नफरत नहीं कर पाया सुजाता से। शायद यह मेरे जींस में ही नहीं! उसने मुझे सुनियोजित तरीके से खत्म किया! ऐसी दुश्मनी को कैसे समझ पाता जो खालिस प्यार के बदले की गई हो! जाने मैं उसकी किस महत्त्वाकांक्षा के आड़े आ रहा था! सच कहूँ तो अपने एकाकी पलों में सुजाता मेरे लिए अब भी वही होती है जो हमेशा से थी। प्यार करना, ना करना किसके वश में होता है… विपरीत परिस्थितियों में सब चला जाता है मगर प्यार नहीं! कम से कम किसी के चाहने से तो कतई नहीं!
लोग कहते हैं भूल जाओ। मैं नहीं जानता भूला कैसे जाता है। काश यह कोई लिया गया निर्णय होता! समय की वही गति भीतर नहीं होती जो बाहर होती है। उसकी अपनी रफ्तार है, वह उसी से चलता है। सुजाता जहां से अलग हुई थी वहाँ से मैं अब तक दो कदम भी आगे नहीं बढ़ पाया था। बस मुड़-मुड़ कर देखता खड़ा रह गया था। किसी को क्या बताता कि उसके पास मेरा सब कुछ रह गया है- मुनमुन, मैं, मेरी जिंदगी…! इनसे छुट कर जाता तो कहाँ! बहरहाल कैलेंडर के पन्नों पर कई साई गुजर गए थे।
एक दिन इना ने मुझे उसके पति के द्वारा भेजे डिवोर्स के पेपर दिखाये थे। कहती रही थी, महीनों से सब कुछ- जर्मनी में अपनी दस साल की बेटी, पति, नौकरी छोड़ कर वह यहाँ अपनी बहन के पास पड़ी हुई है। माँ के बाद उसके सिवा उसकी इस जुड़वा बहन का कोई नहीं… तो उसे किसके भरोसे यहाँ अकेली छोड़ जाती! जर्मनी का कानून बहुत सख्त। वहाँ अपने बुजुर्ग, बीमार रिशतेदारों को भी साथ नहीं ले जा सकते।
पति नाराज है, बेटी परेशान! कई बार धमकी देने के बाद आखिरकार ऊसने डिवोर्स पेपर भेज दिये है! अपनी उलझन में बदहवास-सी उसने मुझसे पूछा था, आप बताइये, इस हालत में मैं अपनी बहन को कैसे अकेली छोड़ जाऊं? वह समझता नहीं… मैं क्या कहता! कुछ समस्याओं का हल थ्योरी में हो सकता है, हकीकत में नहीं!
रविवार, शनिवार मिलने के अलावा अब हम फोन पर भी बात करने लगे थे। दोपहर के लंच के बाद अक्सर उसका फोन आ जाता। मैं हर तरह से खाली था और वह भरी। मेरे पास खोने के लिए कुछ नहीं था और उसके पास सब कुछ। इसलिए जहां मैं निस्पृह था, वह अधीर, उद्दिग्न! कहती थी, कहती ही रहती थी। मैं सुनता था चुपचाप। कई बार हम सड़क के किनारे भीड़ भरे बाज़ारों से गुजरते हुये दूर तक साथ-साथ चलते या रिहैविलेटेशन सेंटर के सामने के बगीचे के घने पीपल के नीचे बैठे रहते। हवा चलती तो पीपल के पत्ते बरसती बूंद की तरह झरझर बजने लगते। झीमाती दुपहरी में उनींदी पड़ी झाड़ियों से हल्की-हल्की सीटी की-सी आवाज गूँजती। माँ कहती थी यह साँप की आवाज है। साँप सीटी बजाता है। जाने सच या झूठ!
उसी ने एकदिन बातों ही बातों में बताया था, उसकी बहन ऋतु बहुत अच्छी पेंटर है। बहुत साल पहले उसकी शादी टूट गई थी। जाते हुये पति ने उसका बेटा भी छीन लिया था। उसके बाद कई सालों तक अपनी माँ के साथ रह रही थी मगर पाँच साल पहले माँ के जाने के बाद बिल्कुल अकेली हो गई थी। तकरीबन तीन साल पहले जीवन में कुछ खुशियाँ लौटी थीं। उसे किसी से प्यार हो गया था। ऐन स्ट्रोक से पहले अपने प्रेमी के साथ शादी की योजनाएँ बना रही थी…
सुन कर मुझ में उत्सुकता जागी थी- फिर? फिर क्या हुआ?
“फिर… फिर बस वही हुआ जो होना था- ऋतु को स्ट्रोक हो गया!”
“और उसका प्रेमी?”
“वह अपनी पत्नी, बच्ची के पास लौट गया… शादी-सुदा था, सालों से उनसे अलग रहता था!”
“लौट गया! ऋतु को इस इस हालत में छोड़ कर!” ना जाने क्यों, मुझे यह बात बहुत बुरी लगी थी।
उस समय ऋतु दिनों बाद व्हील चेयर पर बाहर निकली थी। छोटे, छटे हुये बालों में कितनी छोटी लग रही थी- किसी स्कूल गर्ल की तरह! पलकें झपकाती हुई सामने के पार्क में खेलते हुये बच्चों को उत्सुकता से देख रही थी। इन दिनों दूसरी थेरापी के साथ उसकी स्पीच थेरापी भी चल रही थी। उसकी बहन बता रही थी, वह सहयोग नहीं कर रही। ऐसे केसों में ठीक होने के लिए इच्छा शक्ति का होना बहुत जरूरी होता है।
मेरे सवाल का जवाब इना ने देर से दिया था, जैसे खुद ही ना जानती हो क्या कहना है। ऋतु के कपड़े दुरुस्त कर वह मेरे पास लौट आई थी- “एकदम से नहीं! महीनों उसके साथ रहा, उसकी देख-भाल की…”
“फिर” मैं सब कुछ जानने के लिए अधीर हुआ जा रहा था।
“फिर… वह थक गया…“ अपनी बात के आखिरी सिरे पर पहुँचते-पहुँचते उसकी आवाज डूब-सी गई थी- “और अपनी दुनिया में लौट गया!”
उसकी बात के खत्म होते ही वहाँ जैसे अचानक से सन्नाटा पसर गया था। मैंने अनायास मुड़ कर ऋतु की ओर देखा था और एक अव्यक्त गुस्से और दुख से भर उठा था। किसी मरते हुये को छोड़ कर लोग कैसे ज़िंदगी की ओर बढ़ जाते हैं… उस समय मेरी आँखों के सामने ऋतु थी मगर दिमाग में कहीं सुजाता- जाती हुई… उसके साथ घिसटती जाती मुनमुन, उसकी पुकार- पापा! पापा! ना जाने किस-किस के दुख में हम खुद को देखने लगते हैं! फिर निर्लिप्त रहना संभव नहीं रह जाता।
ऋतु अपने में संपृक्त चुपचाप बैठी हुई थी। ठीक जैसे आधी-तूफान के बाद का कोई शांत दिन! उसके आसपास सब कुछ- धूप, हवा- ठहरी हुई-सी थी। निर्निमेष आँखों की दृष्टि में गहरे ताल-सा पसरा सन्नाटा… मैं एक अजानी तकलीफ से भर गया था- ऐसा क्यों होता है किसी-किसी के साथ! मगर मुंह से बस इतना ही कह पाया था- मतलबी! बेवफा…
इना ऋतु के व्हील चेयर को धकेलती हुई कमरे की ओर लौटते हुये थकी-सी आवाज में बोली थी- हमें इस तरह जजमेंटल नहीं होना चाहिए! जिस पर गुजरती है वही समझ सकता है…
“क्या समझना चाहिए?… कि साथ सिर्फ सुख में होता है, दुख की नियति बस अकेले होने में है? रिश्ता निभाने का होता है इना, यह बोल भर नहीं!”
“मर जाना आसान नहीं होता, किसी और के साथ, किसी और की मौत! इंसान जीना चाहता है, जीने की कोशिश को गलत मत कहो…” कहते-कहते इना चुप हो गई थी और चलती रही थी। ऋतु के सामने अक्सर इना ऐसी कोई बात नहीं करती। कहती है ऋतु अपसेट हो जाती है। मैंने देखा था ऋतु छंटे हुये नाखूनों से अपने हाथ का एक भरता हुआ जख्म कुरेदने की कोशिश कर रही थी।
उस दिन मैं माँ को घर ले आया था। माँ के आते ही सोया हुआ-सा घर जैसे जाग उठा था। मैं भी! जाने कितने दिनों के बाद! जब घर की औरत बीमार होती है, पूरा घर बीमार दिखता है। उसमें रौनक नहीं होती। माँ के कदमों को पहचान कर जैसे सारा घर पल भर में स्पंदित हो उठा था।
घर लौट कर सबसे पहले माँ के सितार पर पड़ी धूल झाड़ी थी फिर उनके भगवान जी के आगे दीया जलाया था। माँ अपने भगवान जी का अंधेरा पड़ा कमरा देखती तो दुखी हो जाती। वैसे माँ से कहा था, अपने भगवान को बोल दो, दीया-बत्ती, फूल, मिठाई चाहिए तो तुम्हें ठीक रखें। बार-बार अस्पताल ना भेज दिया करें। मुस्कराते हुये माँ की आँखें भीग गई थीं। हाथ जोड़ते हुये मुझसे कहा था, तू प्रार्थना किया कर, भगवान जी तेरी सुनेंगे।
सारे पर्दे हटा कर माँ को बाल्कनी में बिताया था और उनके लिए चाय बना लायी थी। माँ बहुत खुश दिख रही थी, सामने के गुलमोहर पर रहनेवाली गिलहरी को मूँगफली खिलाई थी। यह गिलहरी माँ से खूब हिली-मिली हुई है, उनकी हथेली पर बैठ कर खाती है। बागान का दायां हिस्सा झड़े हुये गुलमोहर से लाल है। माँ को गुलमोहर बहुत पसंद। यह पेड़ काटने नहीं देती। कहती थी, फूल भी कचरा होते हैं क्या! कुदरत का बिछाया जाजिम है! अस्पताल से लौटते हुये हमारा छोटा-सा कॉटेज दूर से सचमुच गुलमोहर के कालीन पर सजा दिख रहा था। नजर पड़ते ही माँ के चेहरे की रंगत लौट आई थी।
उस रात मेरा मन किया था, माँ के पास, उनके बिस्तर पर सोऊँ पहले की तरह, मगर संकोच वश कह नहीं पाया था। माँ हँसती, उँगलियों से मेरे सर के बाल बिखरा कर कहती, क्यों, अब भी डर लगता है मेरे छह फुट के बेटे को? मैं जगी हूँ, डर लगे तो आवाज देना। वह नहीं जानती, उनके आँचल में मुंह ढँक कर सोने में कितना सुरकक्षित महसूस होता है, कैसी नींद आती है! कह नहीं पाया था उनसे, तुम्हारे आँचल की छांव के बाहर बहुत धूप है माँ…!
उस रात जाने कैसा सपना देख मैं डर कर जाग गया था और आदतन माँ को पुकारा था, मगर माँ ने जवाब नहीं दिया था! मैं तत्क्षण समझ गया था, माँ मर गई! जीते जी वह मेरी पुकार पर आवाज ना दे यह संभव नहीं था।
जो दुख में जीने के आदि होते हैं वह सुख में मर जाते हैं, कुछ इसी तरह! उस दिन कहा भी था माँ ने एक बार, एकांत! आज मैं बहुत खुश हूँ बेटा! डर लग रहा… माँ का डर मेरा भी डर था, उन्हें उस वक्त बता नहीं पाया था। सालों बाद सब कुछ इतना अच्छा-अच्छा लग रहा था। माँ से पूछ-पूछ कर मैंने उनका फेवरिट मशरूम सूप बनाया था, बहुत मना करने पर भी माँ ने जिद्द करके राजमा बनाया था। कहा था, तू मदद कर, करछुल चला, बस मना मत कर। बैठ-बैठ कर बीमार हो गई। उस दिन सारी दोपहर साथ बैठ कर हमने बचपन का अल्बम देखा था, पुराने गीत सुने थे… इतने दिनों बाद घर में माँ का होना, खूब उजला धूप भरा दिन, हवा, गुलमोहर… सब कुछ बचपन जैसा, सुंदर परिकथा, जिंदा ख्वाब…
माँ के जाने के दूसरे दिन सारे पर्दे हटा कर घर में उजाला किया था, गिलहरी को मूँगफली खिलाई थी और माँ के ठाकुरजी के आगे दीया जलाया था। अब माँ को चिर दिन ऐसे ही रहना था मेरे पास…
कुछ दिनों बाद रिहेविलेटेशन सेंटर गया था। इस बीच इना के कई फोन आए थे, मैंने लिया नहीं था। मुझे देख इना ने जाने कैसी आवाज में कहा था, लगा तुम भी चले गए… मैंने उसकी आवाज में शिकायत ढूँढने की कोशिश की थी- चला जाता मगर मेरे जाने की कोई जगह नहीं…
उस दिन ऋतु मुझे देख कर मुस्कराई थी। एक उजली, ऊष्मा भरी मुस्कराहट! मुझे अच्छा लगा था, यूं किसी के इंतजार में होना… माँ के बाद लग रहा था, कहीं नहीं रह गया हूँ, बेघर हो गया हूँ मैं। इंसान कहीं से हमेशा बच्चा ही रहता है शायद, हर रिश्ते मे गोद ढूँढता है अपने लिए। दुनिया की अल्टीमेट सुरक्षा यही है, जानता है!
ऋतु के सोने के बाद इना बोली थी, लगभग फुसफुसाते हुये, सुजीत ने अल्टीमेटम दिया है, सात दिन के भीतर लौटूँ वरना… आगे कुछ कहना शायद मुश्किल हो गया था उसके लिए, अपनी मुसी साड़ी मसलती खिड़की के बाहर देखती बैठी रह गई थी। फिर काँपती आवाज में एक समय कहा था, जैसे क्न्फेस कर रही हो- आज ऋतु बहुत परेशान कर रही थी, मैंने पागल हो कर कहा उससे, वह मर क्यों नहीं जाती! कह कर सिसकने लगी थी- आई डीड नॉट मीन दैट रियाली… मैंने सोती हुई ऋतु को देखा था, उसकी बंद आँखों की कोर से आसूँ बह कर तकिये के दोनों तरफ जज्ब हो रहे थे, पलकों के पीछे पुतलियाँ काँप रही थीं।
उस एक क्षण में कुछ घटा था मुझमें। आँखों के सामने बिछे दुख के घने अंधकार में माँ के ठाकुरजी का जलता दीया नजर आया था। बिना सोचे-समझे कहा था, तुम चली जाओ, ऋतु के पास मैं रहूँगा! कहने के बाद मैं खुद सन्नाटे में आ गया था। इना तो देर तक कुछ बोल ही नहीं पाई थी। उसकी आँखों में दुनिया भर का विस्मय था! मगर उससे ज्यादा विस्मित मैं था! किसी परिस्थिति विशेष में हम किस तरह रिएक्ट करेंगे यह हमें खुद पता नहीं होता। अपने ही व्यवहार से हैरत में पड़ जाते हैं।
जाने से पहले इना ने कहा था वह जल्द से जल्द लौटेगी। उसने कई एटीएम कार्ड, दस्तखत किए हुये चेक और कैश दिये थे। कहा था, माता-पिता की सारी जायदाद हम दोनों बहनों के लिए ही है। पैसों की कोई चिंता नहीं। मैं मुस्कराया था, एक अजनबी पर इतना यकीन? वह भी मुस्करायी थी- सच कहो तो यकीन करने के सिवा हमारे पास कोई विकल्प भी नहीं…
इना के जाने के बाद जिस दिन ऋतु से मिलने गया था, उसके तेवर बदले हुये थे। जीभ को रगड़ दे-दे कर बोली थी, तुम भी चले जाओ! शायद वह रात भर रोती रही थी। फिजिओ थेरापिस्ट ने कहा था, ना उसने लिखा था, ना एक्सरसाइज़ किया था। दवाई लेते हुये भी बहुत हंगामा किया था। उस सारी रात बारिश हुई थी। बगीचे में हर तरफ गुलमोहर के फूल बिखरे पड़े थे।
मैं ऋतु को बाहर ले आया था। इना ने बताया था, दूसरे स्ट्रोक से पहले ऋतु फिजिओ के द्वारा बहुत हद तक चलने-फिरने लगी थी। जुबान पर भी कोई प्रभाव नहीं था मगर दूसरे स्ट्रोक से उसके बोलने की क्षमता पर बहुत बुरा असर पड़ा। कई महीने तो बोल ही नहीं पाई। वायां पैर लगभग बेकार हो गया। डॉक्टर ने बताया था, कितना रिकवर कर पाएगी कहना मुश्किल। पेसेंट में कोई इच्छा शक्ति नहीं। किसी मामले में कोपरेट नहीं करती। सी इज इन डिप्रेशन!
बाहर ला कर मैं ऋतु से कहता, देखो, कितना खूबसूरत दिन है! उजली धूप है! मगर वह व्हील चेयर पर सर झुकाये बैठी रहती, गोद पर रखे अपने हाथों को निष्पलक देखते हुये। कभी घबरा कर मुझसे चिपट जाती और हकला कर बोलती- यह अंधा कुआं… इतना अंधेरा… मुझे डर लगता है! तो कभी अपने बाल नोचने लगती- मैं किसी काम की नहीं, मुझे कूड़े में फेंक दो…
उसे बहलाने की, खुश रखने की मेरी सारी कोशिशें व्यर्थ जा रही थीं। इस बात से मुझमें धीरे-धीरे खींज और हताशा-सी भरती जा रही थी। रविवार, शनिवार के अलावा अब मैं दफ्तर के बाद भी अक्सर आ जाता था। शाम की ट्राफिक में एक-डेढ़ घंटे की लंबी ड्राइव करके थका-हारा आता और उस उदास से कमरे में अनमन बैठी ऋतु को देखता बैठा रहता। घंटों इसी तरह बीत जाते। कई बार सोचता, मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ!
जाने कितने दिन बीत गए थे उसका कुछ भी बोले या रेस्पान्स दिये! एक समय के बाद उसके प्रेमी विनय, जिसके सिर्फ नाम से परिचित था और जिसके बारे में इना से सुना भर था, की मनःस्थिति को एक हद तक समझने लगा था मैं। देह के साथ प्यार भी मर सकता है, एक रूटीन- ऐसी ऊब और एकरसता से भरा, धीरे-धीरे प्रेम की सारी ऊर्जा सोख उसे बोझिल और काहिल बना सकता है। सच ही कहा गया है- प्रेम चंद्रमा के समान होता है, जिस दिन उसका बढ़ना रुक जाएगा, घटना शुरू हो जाएगा… ठहरी चीजें मर जाती है, सड़ने लगती है- ठहरे पानी की तरह, कुछ इसी तरह…
इना कहती थी, लोगों ने प्यार को मिथ बना दिया है। वह भगवान नहीं, नश्वर मनुष्य के मन की एक भावना मात्र है; उसी की तरह जीता है और मरता है। हाँ कभी किसी के भीतर कुछ ज्यादा! बाकी यहाँ कुछ भी हमेशा के लिए नहीं। देह मिट्टी बनती है तो मन धुआँ…
कई बार बैठे-बैठे मैं जैसे विनय बन जाता। कल्पना करता, कभी मैं सामने बैठी इस प्रस्तर की प्रतिमा जैसी औरत से प्यार करता था। मेरे रोम-रोम में उसका प्यार जिंदा था, धड़कता था दिल की तरह। मगर आज वह एक चिड़िया उड़े पिंजरे की तरह खाली है, जिस्म के खांके में भरा धू-धू करता शून्य… मेरी हर बात, इच्छायें, मान-मनुहार उससे टकरा कर निरुत्तर रह जाता है, लौट आता है मुझ तक बैरंग चिट्ठी की तरह! वह सपाट दीवार-सी बैठी रहती है, हर तरह से निर्विकार, अपने में संपृक्त! मेरे भीतर उसके साझे के सपने धीरे-धीरे जर्द पड़ कर झड़ने लगे हैं।
अस्पताल का बीमार माहौल, दवाई-सी महकती सुबह-शाम, अजनबी बन गई ऋतु… प्रेम का यूं खुद के भीतर शनैः-शनैः मरते जाना और उसके लिए कुछ ना कर पाना वास्तव में एक ग्लानिकर अनुभव हो सकता है। अब समझता हूँ, विनय की शर्म, अपराधबोध… मृत्यु, किसी की भी हो, ऐसे ही विवश कर देती है। फिर प्यार का मरना तो कभी भी जायज नहीं समझा गया। उसे हर हाल में जीना होता है!
ना जाने क्यों, बीते कुछ दिनों में उस अंधकार भरे कमरे ने मेरा उजाले के प्रति आशक्ति बढ़ा दिया था। मुर्दा चेहरा, खाली आँखें, दवाई से महकती हवा- सब जैसे मेरे गहरे तक उतर कर मुझे अवसाद की मटमैली धुंध में डुबोती जा रही थी। लंबी, ढँकी वारादरी के पार फैला धूप भरा बगीचा, हरे-भरे कुंज, चिड़ियों का कलरव… मुझे सब बेतरह लुभाते। सड़क पर कॉलेज की लड़कियों का हँसता-खिलखिलाता तितलियों-सा रंगीन झुंड निकलता तो मैं उन्हें दूर तक जाते हुये देखता रहता। उनकी निश्चिंत जवानी से ईर्ष्या होती। लगता यह ज़िंदगी कितना पक्षपात करती है। किसी को बेपनाह खुशी, सुकून, बेफिक्री और किसी को कुछ भी नहीं!
माँ के चले जाने ने मुझे जैसे झिंझोड़ कर जगाया था। जीवन की क्षणभंगुरता का एकदम से बोध हुआ था। मुड़ कर देखा तो जीने के नाम पर एक बड़ा शून्य दिखा और कुछ नहीं! दिन-रात, सुबह-शाम… बस बीते, जीया कुछ नहीं! अब समझने लगा हूँ कि हर चीज की भरपाई हो सकती है, मगर खोये वक्त की नहीं। यह गया तो बस गया…
तो अब लौटना चाहता हूँ जिंदगी की ओर लेकिन यह भी जानता हूँ, ऋतु का जो हाथ अनायास मेरे हाथ में आ गया है, उसे छुड़ा कर नहीं जा सकता! वह मेरे आश्रय में थी! सच, खुद से की गई लड़ाई सबसे मुश्किल होती है! किसी के लिए छत बनना आसान कहाँ होता है, सारे आकाश को झेलना पड़ता है!
ऋतु का खुद को नोंचना-खसोटना जारी था। कई बार उसे पट्टियों से बांध कर रखना पड़ता। खाना देखते ही जबड़े भींच लेती, दवाई थूक देती। कुछ बोलने पर देर तक रोती रहती और गोंगिया कर बोलती, मुझे कोई नहीं चाहिए, तुम, तुम सब भी चले जाओ! डॉक्टर ने कहा था- डेयर इज़ नो फाइट इन हर, नो वील टू लीव… हर बीतते दिन के साथ मेरे लिए सब कुछ मुश्किल होता जा रहा था। इना का फिलहाल लौटना संभव नहीं था। फोन पर बार-बार माफी मांगती रहती।
उस दिन भी ऋतु वायलेंट हो रही थी। सुबह आ कर देखा था, उसने पूरा कमरा सर पर उठा रखा था था। फर्श पर दवाई, खाना बिखरा पड़ा था, चेहरे पर खरोंच के निशान, लगातार चिल्लाए जा रही थी। तीन-चार नर्स उसे सम्हालने की कोशिश में हैरान हुई जा रही थी।
मैंने सब से कहा था, वहाँ से चली जाय। सबके जाने के बाद मैंने घुटनों के बल जमीन पर बैठ कर धीरे-धीरे ऋतु के चेहरे पर बिखरे बाल हटाये थे और उसके दोनों हाथ पकड़ कर धीरे-से कहा था, लगभग फुसफुसाते हुये, ऋतु! मैं तुमसे प्यार करता हूँ! ऋतु रोते हुये एकदम से चुप हो गई थी और अपनी लाल, सूजी आँखों से मुझे देखा था, गहरी हैरत से भर कर। मैंने उसकी आँखों में आँखें डाल कर फिर अपनी बात दुहराई थी- हाँ ऋतु! मैं तुमसे सचमुच प्यार करता हूँ…
ऋतु के चेहरे की दहक, तनाव, माथे के बीचोबीच चमकती नस धीरे-धीरे सहज हो आई थी। मेरे हाथ की मुट्ठी में बंद उसका हाथ भी ढीला पड़ गया था। उसने देर तक मुझे ध्यान से देखा था फिर काँपते होंठों से पूछा था- क्या? मैंने उसके सूखे होंठों को चूमते हुये फिर अपनी बात दुहराई थी। इस बार और भी स्पष्ट आवाज में। सुन कर ऋतु ने अचानक अपनी आँखें झुका ली थी और शांत हो कर कहा था- पानी!
मैंने उसे पानी पिलाया था, नर्स से कमरा साफ करवाया था और उसका चेहरा धुला कर उसे व्हील चेयर पर कमरे से बाहर ले आया था। मैं जो-जो कह रहा था, इस बीच वह सब कुछ चुपचाप करती चली गई थी, बिना किसी ना-नुकूर के। किसी अच्छी, अनुशासित बच्ची की तरह। जवाब में किसी पुरस्कार की तरह मैं उसे ‘आई लव यू’ कहता रहा था, बार-बार! मुंह से कुछ भी कहे बिना वह हर दूसरे क्षण मेरी ओर अपेक्षा से भर कर देखती और ‘आई लव यू’ सुन कर आँख झुका लेती।
उस दिन रविवार था। सुबह से पास के गिरजे का घंटा लगातार बज रहा था। सुबह की प्रार्थना के बाद लोग समूह में निकल रहे थे। मोड़ के पास, पीपल से कुछ दूर हट कर काले, ग्रे सूट में सजे जवान लड़के ग्रुप में खड़े आपस में हंसी-मज़ाक कर रहे थे। उनके चेहरों पर ‘कनफेशन’ के बाद का इत्मीनान था। उन्हीं के पास गोल घेरे में खड़ी औरतों के तरुण चेहरे भी उनके रेशमी कपड़ों की तरह चमक रहे थे। उनकी बात, टुकड़े-टुकड़े हंसी की आवाज रह-रह कर यहाँ तक सुनाई पड़ रही थी। चर्च की दीवार से लगे गुलमोहर के ऊंचे, पुराने दरख्त के नीचे की जमीन झड़े हुये फूलों से लाल थी।
ऋतु का रक्त शून्य चेहरा आज सुबह की धूप में कितना उजला लग रहा था! मोम की गुड़िया-सी! गालों की ऊंची हड्डी पर रंगों की दो बूंदें क्या मेरी आँखों का भ्रम था! मैंने शायद आज पहली बार उसे इतने ध्यान से देखा था। वह मेरी ओर देखने से बच रही थी। ऐसा करते हुये मुझे वह कोई किशोरी लड़की-सी मासूम लगी थी।
उस दिन ना जाने क्या सोच कर मैं अपनी कविता की डायरी घर से उठा लाया था। चाहता था ऋतु को कुछ कविताए पढ़ कर सुनाऊँ। इना ने बताया था, ऋतु पेंटर थी, उसे साहित्य का भी बहुत शौक था। उस क्षण मन में एक अजीब-सा ख्याल आया था कि जब ऋतु को यहाँ से छुट्टी मिल जाएगी, उसे अपने घर ले जाऊंगा और अपनी किताबों से भरी लाइब्रेरी दिखाऊँगा। डायरी खोल ऋतु से पूछा था, कुछ कवितायें पढ़ना चाहता हूँ, सुनोगी? उसने चुपचाप हाँ में सर हिलाया था।
मैंने उसे एक के बाद एक, कई प्रेम कवितायें पढ़ कर सुनाई थी, जॉन कूपर की ‘आई वाना बी योर्स…’, इ इ क्युमिंग्स की ‘आई कैरी योर हार्ट वीथ मी…’ सेक्सपियर के सोनेट की कुछ पंक्तियां- लव डस नॉट चेंज ऑर फेड… सुनते हुये ऋतु अचानक अपना चेहरा दोनों हाथों से ढँक कर सुबकने लगी थी- झूठ! प्यार बदलता है और खत्म भी हो जाता है…
मैंने उसे कुछ देर रोने दिया था और फिर धीरे से उसका चेहरा अपनी ओर किया था- इसी बात की शिकायत है तुम्हें ऋतु? उसने बहुत मुश्किल से रुक-रुक कर कहा था, प्यार ना रह जाने की कोई क्या शिकायत करे, मगर प्यार रहा नहीं, यह क्यों नहीं बताया?
“यह कोई किस मुंह से बताए…” मेरी बात सुन उसका सुबकना तेज हो गया था- पहले मेरा बेटा, फिर विनय… कोई कितना बर्दास्त करे! उसकी असपष्ट-सी बातों को समझने के लिए मुझे बहुत कोशिश करनी पड़ रही थी। वह कहे जा रही थी, मैंने यकीन किया था… उसके भरोसे… फिर यकायक रुक कर बोली थी, जाते हुये उसने मुझे बताया नहीं, उसने वादा किया था… मैंने रुमाल से उसके आसूं पोंछे थे- जाने दो ऋतु, वह बस इंसान है! उसे जीने दो…
इसके बाद भी वह रोती रही थी, जाने कितनी देर तक। मैंने उसे रोने दिया था। शायद यह जरूरी था। न जाने कब से भीतर जमे इन आसुओं ने ही उसे पत्थर का बना दिया था। बहुत रो चुकने के बाद जब वह चुप हुई थी, अचानक सेमल की रुई-सी हल्की-फुल्की लगी थी।
वह सारा दिन सपने की तरह बीता था। हम धूप ढलने तक बगीचे में रहे थे। जाने कितनी और क्या-क्या बातें करते हुये। ऋतु कोशिश करते हुये हाँफ जा रही थी मगर लगातार बोल रही थी। कितना कुछ था उसके पास सुनने-सुनाने के लिए! लग रहा था अंदर युगों से बंधी पड़ी किसी नदी का बांध आज एकदम से टूट गया है। बांध कोई मेरे भीतर भी टूटा था। मुझे पता नहीं था किसी खाली मकान-सी निसंग, उदास इंसान के पास भी इतना कुछ होता है देने के लिए! उसे देने के भ्रम में मैंने खुद बहुत कुछ बटोरा था उससे, समृद्ध हुआ था।
उस दिन उसे बिस्तर पर लिटा कर आते हुये मैंने उसका माथा चूम कर कहा था- सुनो, यकीन करो कि प्यार होता है और अगर यह झूठ भी है तो दुनिया का सबसे खूबसूरत झूठ है…
सुन कर ऋतु मुस्कराई थी- मैं अच्छा होना चाहती हूँ! जीना चाहती हूँ एकांत, बस तुम… “मैं रहूँगा, हमेशा…” उसकी आँखों में सीधे देखते हुये मैंने कहा था। उस समय हल्की रोशनी में उसकी गहरी नश्वार आँखों में प्रतिबिम्बित मुझे मेरा अपना चेहरा ही बहुत भला लगा था।
दूसरे दिन सुबह रिहेविलीटेशन सेंटर से फोन आया था, ऋतु मर गई! जाने क्यों, सुन कर मुझे हैरानी नहीं हुई थी। कल हम दोनों ही इतने खुश थे… उस समय लंदन में रात के लगभग दो बजे थे जब मैंने इना को फोन लगाया था। इना गहरी नींद से उठ कर आई थी। ऋतु की खबर सुन वह देर तक कुछ बोल नहीं पाई थी, सकते की-सी हाल्ट में चुप रह गई थी।
एक समय बाद मैंने ही उससे कहा था, जानती हो इना, कल ही मैंने उससे कहा था कि मैं उससे प्यार करता हूँ… एक लंबी चुप्पी के बाद इना की आवाज फोन पर थरथराई थी, कुछ गुस्से से भरी-सी- तुमने उससे झूठ… मैंने उसकी बात बीच में ही काट दी थी- मैं उसे इस सच्चाई से बचाना चाहता था इना कि अब कभी प्यार उसके जीवन में लौट नहीं सकता। यह बेरहम सच उसे जीने नहीं दे रहा था…।
”और अब? तुम्हारे इस झूठ ने उसे जिंदा कर दिया? इना की आवाज में अब ना कोई सवाल था ना तल्खी। उसके भीतर सच्चाई अपनी पूरी भयावहता के साथ उतरने लगी थी शायद। वह बस रो पड़ना चाहती थी अब।
“ना सही मगर एक भयावह सच के साथ जीने से अच्छा है एक खूबसूरत झूठ के साथ मर जाना! मैंने आखिरी बार कहा था उससे, यकीन करो कि प्यार होता है और अगर यह झूठ भी है तो दुनिया का सबसे खूबसूरत झूठ है!” इना ने सुन कर इस बार कुछ भी नहीं कहा था, शायद अपनी रुलाई रोकने की कोशिश में थी। मैंने कहा था, आ रही हो ना? उसने सुबकते हुये कहा था, हाँ।
फोन रखते-रखते मैं एक पल के लिए ठिठक गया था और अजनबी-सी आवाज में कहा था, सुनो, यह सच है कि कल मैंने ऋतु से झूठ कहा था कि मैं उससे प्यार करता हूँ, मगर आज तुमसे कह रहा हूँ, मैं सचमुच ऋतु से प्यार करता हूँ… सुन कर इना हिलक-हिलक कर रो पड़ी थी- उसने जीवन भर प्यार का रस्ता देखा… फिर खुद को समेट कर ठंडी आवाज में बोली, तुम झूठे हो! झूठ बोल रहे हो!
“नहीं इना! मैं बिल्कुल सच बोल रहा हूँ, मुझे भी कहाँ पता था… कहते-कहते मैं फोन ले कर बिस्तर पर ढह पड़ा था- जहां सब कुछ खत्म हो जाता है, प्यार ठीक वही से शुरू होता है। उसके घटने का कोई वक्त तय नहीं… इना फोन के दूसरी तरफ अब फिर फफक-फफक कर रोने लगी थी- तुम झूठे हो, तुम झूठ बोल रहे हो, वही- दुनिया का सबसे खूबसूरत झूठ! मैंने उसे कोई जवाब नहीं दिया था इस बार, देने का कोई अर्थ भी नहीं था। बस मन ही मन कहा था- काश तुम समझ पाती, यह दुनिया का सबसे खूबसूरत सच है! मेरा इकलौता सच…
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जयश्री रॉय, गोवा