रोज की तरह आज भी बीरसूलहाट में मर्दों की अपेक्षा औरत खरीदारों का हुजूम और ऊपर से साइकिल, रिक्शा तथा ठेला-गाड़ियों की आवाजाही बदस्तूर जारी था। यहाँ सस्ता और टिकाऊ माल बेचने की गारंटी देने वाले दुकानदारों के कंठ से भाँति-भाँति प्रलोभन के स्वर गुंजित हो रहे थे।
ठीक इसी समय, एक लाल रंग की बाइक पर चढ़कर दो किशोर भीड़ में जबरन घुसने लगे। इनकी सूरत पर छाई मुर्दनी को देखकर लग रहा था कि या तो इन्होंने अपनी बाइक से कोई एक्सीडेंट किया है या फिर सिर पर हेलमेट न होने के कारण ये पुलिस वालों से बचकर भाग रहे हैं।
ख़ुदा खैर करे, बाइक लिये भीड़ में घुसने के क्रम में हाट के ठीक मुहाने पर अपनी डाला सजाकर बैठे एक दुकानदार के पाँजर में बाइक के हैंडल से जबरदस्त चोट लगी। चोट खाकर वह एकदम से तिलमिला उठा।
‘ओ हो! चोट लग गई?’ – उसे मछियाता देख एक राहगीर के मुँह से सहानुभूति के शब्द अनायास निकल पड़े।
‘तेरा बाप का का जाता है बे ? – दुकानदार, राहगीर पर गुर्राया।
बेवजह ‘बाप’ को बीच में पड़ता देख राहगीर की त्योरियाँ चढ़ गईं। छूटते ही बोल पड़ा –
‘तेरा मा का ….. !
इसके आगे कि राहगीर के मुँह से बिरादर के लिए कुछ और चुटिले शब्द निकलते, दुकानदार दुकान की डाला के पीछे दुबक गया।
सुरेश शाॅ
(कथाकार)
9330885217