घर निकाला कर दिया अब पूछते क्या हाल है।
बे निवाला कर दिया अब पूछते क्या हाल है।।
आशियाने के लिए झेले न क्या- क्या क्या कहूँ।
तुमने ताले जड़ दिए अब पूछते क्या हाल है। ।
पसीने की कमाई थी कम सही खुश खूब थे।
चैन सारा छीन कर अब पूछते क्या हाल है।।
लोग अपने हैं सभी कैसे कहूँ सब गैर हैं।
स्वार्थ में नजरें बदल अब पूछते क्या हाल है।।
जिंदगी में हर समय होता कहाँ है एक सा।
दिन हमारे मंद हैं अब पूछते क्या हाल है।।
कब पलट जाएँ सितारे भाग्य के किसको पता।
जलने वाले मुझी से अब पूछते क्या हाल है।।
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हो सके तो पतनशीलों को सहारा दीजिए।
आम को भी खास जैसा ही पुकारा कीजिए।।
ताल देकर दूसरों को लड़ाना आसान है ।
कभी तो अच्छाइयों का भी इशारा कीजिए।।
बहुत है आसान यदि अपराध करना मानते ।
भरे कचरे दिल के अपने को बुहारा कीजिए।।
किसी का भी छीनना कितना मुनासिब है भला।
है जो अपना खास उस पर ही गुजारा कीजिए।।
साँस जब- तक चल रही निर्भय तमाशा कर लिए।
फिर कहाँ मौका मिलेगा जो दुबारा कीजिए।।
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उजले दिखते लेकिन कितने रंग बदलते हैं।
पल-पल अपने हित में साथी संग बदलते हैं।।
बाने में क्या रखा, सोच में लोच चाहिए होना,
भले दवा का नाम न हो पर मोच बात में होना।।
अपने हिस्से की खातिर कुछ भी अवैध ना माने,
वही सही है कर्णधार जो लहरों को पहचाने।।
आम-खास के अंतर को थोड़ा उसका कर देखें,
बात-बात पर अपने खूँटे के पगहे को देखें।।
गीदड़ भी चमचों की खातिर बाघ बना फिर सकता,
कहाँ लिखा है कर्मठ जन कुछ नहीं झूठ कह सकता।।
चलो,चलो ऐसे महान की सब आरती उतारें
पथभ्रष्टों की उस कतार में गिन कर खूब सँवारे।।++++++++++++++++++++
मृत्यु जैसी यातना कितनी सहेगा आदमी।
लोग तो बहरे हुए किसको कहेगा आदमी।।
घिरे दीवारों मे घर होता महज बकवास है।
हो नहीँ सद्भाव जिसमे क्यों रहेगा आदमी ।।
जहाँ चूल्हा प्रेम से जलता सभी के योग से।
वही सच्चा घर जहाँ जी भर हँसेगा आदमी।।
जलन , ईर्ष्या द्वेष हैं दुख के कटीले अगम-पथ।
आमरण इस नव नरक में खुद बहेगा आदमी।।
कलह की कुंजी कलत्र मनीषियों ने कहा है।
वही काली वही दुर्गा नत रहेगा आदमी।। ***************************
सम्मोहित हो कुछ पल मिलना प्यार न कह।
दीवारों से घिरी जगह घर- वार न कह।।
खुदगर्जी मे सबसे अच्छा जो लगता।
भला भले हो सकता लेकिन यार न कह। ।
पास बैठकर मीठी बातें जो करते।
उनकी बातों का सच है आधार, न कह।।
ऊँचे- ऊँचे टीले पर बैठे लोगो।
हँसकर रोने वालों का व्यापार न कह। ।
भीड़ खुली आँखों से सब कुछ देख रही।
कोरे आश्वासन को अब उपहार न कह।।
जीने की शैली में अब बदलाव करें।
दिखता नहीं कहीं कोई आसार न कह।।
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अभी छाँह है धूप नहीं ,उस पार चलो
बैठें क्षण भर करें बात दो-चार ,चलो।
सन्नाटे के जीवन के अनगढ़ किस्से।
सुनें , सुनाएँ और करें गुलजार चलो।।
बीते दिन की चर्चाओं में भी कुछ है।
नयी खुशी का हो सकता आधार चलो।।
मन के तार जुड़े रह जाएँ अच्छा है।
कहीं प्रेम मत हो जाए व्यापार चलो।।
सपने बड़े सलोने होते हों शायद।
वर्तमान में कर लें हम साकार चलो।।
सीधी बातों में मन खुब बहलता है।
अपनेपन को कह तो लें आभार चलो।।
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डॉ. रामकृष्ण, गया, बिहार