पढियार उषाबेन नानसिंह, पीएचडी शोधार्थी, श्री गोविंद गुरु यूनिवर्सिटी, गोधरा, गुजरात, JAYAMBEHLL@GMAIL.COM MO : 7778006564
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शिक्षा शब्द बहुत अच्छा है सुनने से ही मन को बहुत आराम मिलता है । मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक कुछ ना कुछ शिक्षा मिलती रहती है।जीवन के हर पहलू में हमें कुछ ना कुछ शिक्षा मिलती रहती है। जब से हमारा जन्म होतु तब हमारी माता के द्वारा अच्छे संस्कारों का सिंचन होता है। वहां से ही हमारी शिक्षा की शुरुआत हो जाती है। फिर हम जब बड़े होते हैं स्कूल में जाने लगते हैं तब हमें अपने गुरुओं के द्वारा ज्ञान की प्राप्ति होती है वह ज्ञान ही हमारे जीवन का मूल आधार बनता है। वहां से ही हमारे सही जीवन की शुरुआत होती है जो गुरु के द्वारा सही शिक्षा प्राप्त हो, तो हम जीवन की हर मुसीबतों का सामना करके अपनी मंजिल तक अपना ध्येय प्राप्त कर सकते हैं। ऐसे ही जब हम साहित्य भी पढ़ते हैं उनके द्वारा भी हमें कुछ ना कुछ सीखने को जानने को मिलता है इसलिए मैंने काशीनाथ सिंह के संस्मरण को पढ़ते-पढ़ते जीवन उपयोगी काफी सारी बातों को पढा ,वह मुझे बहुत अच्छी लगी है। और वह संस्मरण पढ़ते -पढ़ते हमारे आसपास का अभी का जो माहौल है वह उसमें देखने को मिलता है जैसे-जैसे में पढ़ती जाती हूं उस संस्मरण के जरिए हमारे आसपास समाज ,स्कूल कॉलेज ,परिवार ,दांपत्य जीवन और संतान को द्वारा मिला गया सुख-दुख काफी सारी बातें काशीनाथ सिंह के संस्मरणों मैं देखने को मिलता है।
काशीनाथ सिंह के तीन संस्मरण है। ‘याद हो कि न याद हो’, ‘ घर का जोगी जोगड़ा ‘, और ‘अच्छे दिन पाछे गए’। लेकिन मैंने यहां दो ही संस्मरण के बारे में जिक्र किया है ‘याद हो कि न याद हो’, ‘ घर का जोगी जोगड़ा ‘। काशीनाथ सिंह ने अपने संस्मरणों का विषय उन लोगों को बनाया जो उनकी स्मृति में गहरे पैठ गए हैं। विषय की विविधता जितनी काशी काशी के संस्मरण में देखने को मिलती है उतनी कहा भी देखने को नहीं मिलती। लेखक अपने गुरुजनों – समकालीन साहित्य मित्रों के साथ -साथ अपने प्रिय शिष्यों को भी उतनी आत्मीयता के साथ अपने संस्मरण में याद किया है और अपने आसपास के सामान्य लोगों का भी अपने लेखन के द्वारा अपने संस्मरणों में प्रस्तुत किया है।
काशीनाथ सिंह का ‘ याद हो कि न याद हो ‘संस्मरण में ‘ होलकर हाउस ‘ में हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में जो लिखा है उनके द्वारा काफी सारा सीखने को मिलता है। जब हजारी प्रसाद द्विवेदी रेक्टर बनते हैं,तब ‘ होलकर हाउस’में जाते ही सबसे पहले पंडित जी की हंसी छीन ली। उसके बाद उनका स्वभाव कैसा हो जाता है, कुर्सी मिलने से इंसान कैसा बन जाता है वह बनना नहीं चाहता लेकिन बनना पड़ता है ऐसे ही आज अच्छे लोगों को भी गलत काम तो नहीं करना होता,लेकिन समय और संजोग अनुसार उस व्यक्ति को बनना पड़ता है । जब विद्यार्थियों के बीच में दंगा प्रसाद होता है तब हजार प्रसाद द्विवेदी को सब पता है सीधे-साधे विद्यार्थियों को मारपीट हो रही है लेकिन वह कुछ नहीं कर पा रहे । इसकी वजह से काशीनाथ सिंह सभी विद्यार्थियों के प्रिय होने के बावजूद सब विद्यार्थी नाराज हो जाते हैं। काशीनाथ सिंह यह सब देखते हैं तब हजारी प्रसाद द्विवेदी को कहते की अभी भी समय है। आप छोड़ क्यों नहीं देते हैं? तब काशीनाथ की नजर पंडित जी के सिर के ऊपर दीवार में टॅंगी दफ्ती पर गया । उस पर भोजपुरी में छंद लिखा था :
का मउज से धूनत रहलीं
कवन कुमुरखी जागल ,
धुनकी छोड़ के धनुका वेसलीन
पहिलै गोली लागल।
‘ पंडित जी !जो आपने लिखा है ? मैंने पूछा।
वे हॅंसे, बोले ,’ नहीं। एक धुनिया का कहां हुआ है और इसकी अपनी कहानी है। यह कि एक धुनिया था। रूई धुनता था और मौज- मस्ती से रहता था। खाने-पीने, परिवार चलाने भर को मिल जाता था ।न किसी बात का गम और न कोई चिन्ता।उन्हीं दिनों एक देश के शत्रु राजा ने उसके देश पर हमला किया । फौज में भर्ती शुरू हो गई । धुनिया ने सोचा – यही मौका है । अनुभव भी है धुनकी चलाने का । जब मैं यह धुनकी चला सकता हूं तो यह धुनकी भी चला सकता हूं। रुई धुन सकता हूं तो दुश्मन भी धुन सकता हूं।
वह यह सब कुछ सोचकर सेना में भर्ती हो गया और संयोग देखो कि लड़ाई के मोर्चे पर जो पहली गोली चली ,वह उसी को लगी ।
सब इस संस्मरण में देखने को मिलता है। पहले तो हजारी प्रसाद द्विवेदी बहुत अच्छे इंसान होते हैं लेकिन सभी को साथ में लेकर चलना पड़ता है इसलिए उनको भी जैसा मोहल् मिलता है वह वैसा बन जाते है ।
काशीनाथ सिंह’ नागानंदचरितम वल्द अस्सी चौराहा ‘ नागानंद के बारे में लिखा है कि -“न गाॅंव ,न जमीन , न नौकरी, ना आय का कोई साधन ; और वह नौजवान योग्यता के बावजूद काम के लिए दर-दर भटक रहा हो, कभी प्राइमरी में काम चलाऊ अस्थायी मास्टरी कर रहा हो, कभी ट्यूशन के लिए दौड़ रहा हो! वह आधुनिक से आधुनिक साहित्य पढ़ना चाहता है – देशी भी ,विदेशी भी ,लेकिन पास में किताबें नहीं है ! वह समकालीन पत्रिकाएं पढ़ना चाहता है लेकिन जेब में पैसे नहीं! उसे चाय और पान की लत है जिन्हें वह लोगों की गालियों ,डांट फटकारों और अपमान के एवज में पीता- खाता है चेहरे पर कोई शिकन नहीं ,अपनी कंगाली का रोना नहीं!
वह खुद बड़ा लेखक बनना चाहता है, लेकिन एक कवि के लिए खाद पानी बनकर रह जाता है। “(2) इस नागानंद के पात्र के बारे में सोचते हैं तो पता चलता है कि आज के युग में हर विद्यार्थी के पास सब सुविधा है लेकिन पढ़ना नहीं चाहता। बस मोबाइल के पीछे ही पड़ा रहता है। कोई भी पुस्तक चाहिए तो वह इंटरनेट के माध्यम से पढ़ सकता है लेकिन अभी के युग में विद्यार्थी को पढ़ना पसंद ही नहीं।
‘याद हो कि न याद हो ‘ में त्रिलोचन का पात्र बहुत ही अच्छा है उनके जीवन द्वारा हमें काफी सारी सीखने को मिलता है । ऐसा इंसान कभी भी देखने को नहीं मिलता । काशीनाथ लिखते हैं कि -“बनारस में रहते हुए मैंने कभी उसे रिक्शे में नहीं देखा ज्ञात आगे पर नहीं देखा स्कूटर या कार में नहीं देखा ,देखा तो अधिक से अधिक किसी युवा लेखक की साईकिल के डंडे पर। ” (3)
त्रिलोचन के पास कुछ न होने बावजूद कभी किसी को कहां नहीं उसने –
“- इन दिनों बड़ी तंगी में कट रहे हैं।
– हो सके तो कोई काम धंधा दिलाओ।
– बीवी को होली पर साड़ी चाहिए काई बंदोबस्त करो।
– बेटा मनमानी कर रहा है ,मेरी नहीं सुनता।
– मेरा कुर्ता चिथड़ा हो गया है ,पाजामा तार-तार हो गया है, चप्पल टूट गई है, सर्दी हो गई है, बुखार आ गया है ,सिरदर्द हो रहा है, पड़ोस में स्कूटर खरीद ली ,बीवी बीमार है और मुंह फुलाए है आदि -आदि। (4) ऐसी कोई भी शिकायत त्रिलोचन के मुंह से सुनने को नहीं मिली है ।त्रिलोचन के व्यक्तित्व से पता चलता है कि व्यक्ति अपने पास कुछ भी नहीं हो कर भी कितनी आसान तरीके से जीवन बिता सकता है ।किसी को पता ही नहीं चलता कि उसके जीवन में क्या-क्या उलझन है ,बस अपनी मस्ती मैं ही अपने जीवन का आनंद लेता हैं।
काशीनाथ सिंह का दूसरा संस्मरण है’ ‘ घर का जोगी जोगड़ा ‘ यह संस्मरण उन्होंने अपने बड़े भाई नामवरसिह के बारे में लिखा है । बहुत ही अच्छा संस्मरण है। इनमें काशीनाथ सिंह ने नामवर सिह के पारिवारिक जीवन के बारे में लिखा है । नामवर सिंह का एक लड़का -एक लड़की थी। बेटे का नाम विजय था और बेटीका नाम गीता था।नामवर सिंह को अपनी बेटी के प्रति बहुत लगाव था। सारी खुशियां वह अपनी बेटी में ही ढूंढते थे।उनका दांपत्य जीवन में सिर्फ अकेले ही बिताते थे पत्नी के साथ ज्यादा तालमेल नहीं था। उनकी पत्नी अपनी मर्जी का ही करती थी। बेटे की सगाई अपने ही मित्र की लड़की के साथ करते हैं क्योंकि उनके मित्र का स्वभाव बहुत अच्छा था इसलिए वह ज्यादा खुश थे कि मेरे मित्र के जैसे ही उनकी बेटी में संस्कार होंगे। लेकिन शादी होने के बाद पता चला अपनी बहू के स्वभाव के बारे में, तब वह बहुत दुखी होते हैं यथा- “सहते ही बने ,कहते न बने, मन ही मन पीर पिरैबा करे ।उधर तो महीने में कम से कम एक बार तो चले ही आते थे सपत्नीक।शाम को दुलारे से खबर मिलती थी कि सुबह से ही आए हुए हैं ससुराल में ।रात को यहॉं सोने आऍंगे लोग। कभी-कभी सुबह आए ,सामान फेंका और निकल गए नहा- धोकर ससुराल। यह घर नहीं ‘ रेस्ट हाउस ‘ है उन लोगों का। सुबह मेरा नाश्ता हो जाता है तब वे सोकर उठते हैं। मैं उन लोगों को घर में रहते हुए नहीं ,आते -जाते ही देखता हूं. तुम्हें याद होगा ,हमारे गांव पर कहा करते थे औरपिताजी ने भी कहा था कि शादियॉं दो तरह की कभी नहीं करनी चाहिए -बहुत जान पहचान की और पड़ोस के गांव की ।ईश्वर की कृपा से यहॉं दोनों एक साथ मिल गए हैं । “(5) क्योंकि बेटे की नौकरी दूसरी जगह लगी थी जब भी छुट्टियां लेकर आता था रहता तो था यहां सिर्फ सोने के लिए बाकी का समय अपने ससुराल में ही बिताता था। वह सब देखते थे लेकिन कुछ बोल नहीं पाते थे क्योंकि उनकी बहू अपने मित्र की ही बेटी थी। इसे हमें पता चलता है कि कभी भी अपने जान-पहचान वाले कीलड़की नहीं लानी चाहिए। क्योंकि हम फिर बाद में कुछ बोल भी नहीं सकते।
बेटा (विजय)अपनी मां को बुलाता है उनके साथ रहने के लिए तब नामवर सिंह काशीनाथ सिंह को कहते हैं कि -” उन्हें अपने बेटे के लिए दादी की नहीं ,आया की जरूरत थी ।”(6) नामवर सिंह कै पता चल ही जाता की वह अपनी मॉं को नहीं बुला रहा है लेकिन एक आया के काम के बुला रहा है। यहां से कितने लोग विदेश जाते हैं वहां जाकर कुछ समय के बाद अपने माता-पिता को बुलाते हैं माता-पिता भी इतने खुश हो जाते है की हमारे लड़का -लड़की ने हमको विदेश बुलाया है लेकिन वहॉं जाकर उनको पता चलता है की अपने बच्चों को संभालने के लिए वह लोगों हमें ने बुलाया हैं तब बहुत दुख होता है यही इस संस्मरण में काशीनाथ सिंह ने अपने बड़े भैया के जीवन में भी ऐसे ही कुछ प्रसंगों को याद करते हुए अपने संस्मरण के द्वारा दिखाया है कि हर जगह ऐसा ही होता है।
नामवर सिंह की नौकरी चले जाने के बाद वह किसी के पास से पैसे नहीं लेते थे ।जो भी अपने पास था उससे चलाते थे ,बहुत ही स्वाभिमानी व्यक्ति थे।
एक दिन काशीनाथ सिंह ने नामवर सिंह की जेब में एक रुपए का सिक्का डाल दिया। ज्यादा इसलिए काशीनाथ सिंह ने इसलिए नहीं डाला कि उनको पता चल जाएगा। लेकिन शाम को रोज की तरह बाहर जाने के लिए उन्होंने कुर्ता पहना तो मुझे आवाज दी- “उन्होंने रुपया का सिक्का दिखाकर पूछा – ‘ यह इस जेब में कैसे आया?’
कुछ देर खड़े होकर मुझे देखते हुए फिर कहते हैं – ” सुनो! मुझे रोज केवल चार आने की जरूरत पड़ती है। दो आने पान के लिए और दो आने चाय के लिए । गोदौलिया लिया पैदल आता -जाता हूॅं।और उतने पैसे कम से कम साल- दो- साल के लिए मेरे पास ।मेरे लिए ना तुम्हें चिंता करने की जरूरत है, न राम जी को। तुम लोग घर देखो और वहां भी जरूरत हो तो मुझसे कहो। ” मेरे पास इतने पैसे है कि अभी अपना खर्चा निकाल सकता हूं।
जब नामवर सिंह चुनाव हारने के बाद घर आते हैं उसी दिन उनके कमरे में चटाई पर बैठकर चाय पीते थे तब काशीनाथ सिंह की मां आई कहने लगी – ‘ बचवा, चार -पाॅंच चम्मच गांव के लिए भी ले देना है ! ‘
‘ काहे ‘ मैंने पूछा।
‘ अरे चुनाव में अब की रमलोचन गया तो खाते समय चम्मच मत बैठा। चम्मच था नहीं, कहां से देती? घर की इज्जत चली गई!
‘ तब भैया चाय में चीनी मिलाते हुए कहा -‘ तुम भी क्या बात करती हो मां? अब घर की इज्जत आकर चम्मच -भर रह गई है!’
थोड़ी देर बाद बोले- ‘चीनी में जैसे कुछ मिला हुआ है। जितना भी डालो, चाय मीठी ही नहीं होती।’
‘ हर चीज में मिलावट है, क्या कीजिएगा ? ‘ मैंने कहा।
‘ ठीक कहते हो। अब तो शुद्ध मुर्ख भी नहीं मिलते। “(7)
इस तरह काशीनाथ सिंह के संस्मरण काफी सारा जीवन की उपयोगी शिक्षा मिलती है जैसे-जैसे संस्मरण पढ़ते हैं सब हमारी आंखों के सामने दिखाई देता है ,महसूस करते हैं। यह सब लिखे हुए संस्मरण उन्होंने स्वयं महसूस करके उस व्यक्तियों के बारे में लिखा है जिसके साथ वह नजदीक रहे हैं और इतनी आत्मीयता भी थी जिसके लिए वह उनके सारे अच्छे बुरे दिन के बारे में भी लिखा है। जिसके के द्वारा हमें काफी कुछ सीखने को मिलता है।
संदर्भ सूची
(1) याद हो कि न याद हो, काशीनाथ सिंह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली , पृष्ठ. 26.27 (2) वहीं पृष्ठ.51
(3) वहीं पृष्ठ.33
(4) वहीं पृष्ठ.35
(5) घर का जोगी जोगड़ा, काशीनाथ सिंह, राजकमल प्रकाशन, तीसरा संस्करण
2017,नई दिल्ली, पृष्ठ.98
(6) वहीं, पृष्ठ.98
(7) वहीं,पृष्ठ.28,29