ब्रह्मानन्द सहोदरा’ कविता चाहे जितनी कल्पना की उड़ान ले, उसका स्थायी निवास हमेशा धरती होती है । कविता का देशकाल भी धरती का देशकाल ही होता है । कविता के ‘स्थूल की सूक्ष्म अभिव्यक्ति’ होने के मूल में भी यही भाव निहित है । कविता की ऐसी अभिव्यक्ति में देश और काल यात्रा करते हैं । इस यात्रा में कवि खुद भी एक यात्री होता है – संवेदना के ज्वार में और अनुभूति की अभिव्यक्ति में बाहर से भीतर तथा भीतर से बाहर का यात्री । इस यात्रा में कवि की दृष्टि तथा अनुभूति की बड़ी भूमिका होती है : जितनी सूक्ष्म दृष्टि और अनुभूति की गहराई, उतनी ही दीप्त कविता । कविता में यह दीप्ति कवि के अपने परिवेश तथा देश काल के साथ संवेदनात्मक जुड़ाव से आती है । इसलिए यह कहना सर्वथा उचित है कि कविता कवि की दृष्टि, अनुभूति, संवेदना तथा सामाजिक परिवेश और देश काल की उपज होती है ।
“जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि” उक्ति भी कवि की सूक्ष्म अंतर्दृष्टि, अनुभूति तथा कल्पना के सामर्थ्य की ओर इशारा करती है । अन्यथा कविता हमेशा महान के ही गुण गाती और साधारण उसके पास फटक भी नहीं पाता, जबकि अधिकतर मामलों में कविता साधारण की असाधारण अभिव्यक्ति होती है । उसकी अंतर्वस्तु जन साधारण से एवं उसके जीवन से सम्बद्ध होती है । कवि इसी साधारण को अपनी कल्पना की कूँची तथा कला-कौशल के रंग-रोगन से असाधारण बनाता है । तुलसी के राम की महानता इसमें नहीं है कि वे प्रतापी सम्राट दशरथ के पुत्र हैं; बल्कि इस बात में है कि वे राज्य के उत्तराधिकारी होने के बावजूद अयोध्या से निष्कासन के राज्यादेश का प्रतिकार नहीं, पालन करते हैं । शीत-घाम-वर्षा झेलते हुए वन में खाक छानते हैं । पत्नी के अपहरण का दुख सहते हैं और राज्य की सहायता लिए बगैर व्यापक वनवासी जन समुदाय को एकजुट कर परम शक्तिशाली लंकापति रावण से युद्ध करने का साहस करते हैं एवं उसे परास्त कर पत्नी को मुक्त कराने की मिसाल कायम करते हैं । पुनरपि, राम जीती हुई लंका का राजा बनने की लिप्सा से मुक्त रहते हुए उसे विभीषण को सौंप कर अपने लोगों के बीच लौट आने का आदर्श स्थापित करते हैं । तुलसी की इस राम कथा ने सदियों से भारत के जन मानस में ही नहीं, एक तरह से पूरे एशिया महादेश में और भारतवंशियों के अधिवास वाली तीसरी दुनिया की लोक चेतना में निरंकुश सत्ता के पराभव तथा साधारण की अपराजेयता के प्रति विश्वास की ऐसी गाथा रची है, जिसका कोई सानी नहीं । प्रागैतिहासिक राम कथा का सच चाहे जो हो, तुलसी के राम की जो व्यथा है, उसके व्यापक बोध और प्रभाव से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा जा सकता । तथापि राम के व्यवहार में कहीं ओछापन नहीं है । घोर व्यथा के क्षणों में राम के मन में दुख की अन्य यादें भी जागती हैं तो राजमहल के सुख और वैभव भी याद आते हैं और साथ में जानकी से पहली मुलाकात और अनुराग के अंकुरण की मधुर स्मृतियाँ भी । इन निजी स्मृति-छवियों के बीच वन-प्रांतर के अन्य प्राणियों के दुख तथा संघर्ष की झलक भी मिलती है, जो व्यक्ति और समाज तथा प्रकृति के बीच अन्योन्याश्रय संबंध का द्योतक है । इसके बावजूद, व्यथित राम का परहित और मर्यादा सिक्त उदात्त व्यवहार; साथ ही अजेय रावण को परास्त करने का पराक्रम – कितना राम का है और कितना कवि-कल्पना, बताने की जरूरत नहीं । इस राम कथा का महत्त्व तब अपरिमित हो जाता है, जब ‘संतन कहाँ सीकरी सों काम’ वाले इसके रचना-काल का ध्यान आता है। कविता में देश काल ऐसे ही अवतरित होता है और समाज को सजग एवं प्राणवंत करता है ।
आधुनिक जीवन जैसे-जैसे जटिल हुआ, इसकी विडंबनाएँ भी बड़ी होती गयीं । कविता में इसकी अभिव्यक्ति स्वाभाविक थी । कवियों ने इसे काव्य-विषय बनाने में कोताही भी नहीं की । हमारे समय के वरिष्ठ कवि विनोद कुमार शुक्ल, राजेश जोशी और मदन कश्यप की पीढ़ी ने ही नहीं, बाद के कवि अनिल विभाकर, पंकज चतुर्वेदी, अनामिका, देवयानी भारद्वाज और बाबुषा कोहली तक ने इसे काव्य-विषय बनाया । हालांकि इसमें भी सतह पर ‘जाकी रही भावना जैसी’ देखी गई, फिर भी कविताओं में विडंबना का स्फोट लगभग एक जैसा हुआ। कवि अनिल विभाकर के यहाँ यह स्फोट सीधे महानायक राम और सीता को अपना उपजीव्य बनाता है । उनकी ‘मिथिला और अयोध्या’ शीर्षक कविता इस मायने में गौरतलब है । सामान्य शब्द संयोजन और विचार प्रधान शैली में रची गई यह कविता दो छोटे-छोटे खंडों में है । किन्तु , सामान्य की विशिष्टता क्या होती है, यह कविता से गुजरते पाठक को जल्दी ही समझ में आ जाती है । सच्ची अनुभूति एवं संवेदना में पगी कविता का आस्वाद और रसबोध कितना निर्मल तथा नीर-क्षीर-विवेकी होता है, इसे समझने के लिए कविता के दूसरे भाग की चंद पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं :- “यह कोई मिथक नहीं / सच है / कि राजसिंहासन पर बैठेगी / जब सिर्फ राजा की संतान / तब नहीं होगी जगह / जानकी के लिए राजमहल में / राजमहल से तब तो उनका / सिर्फ निर्वासन होगा / उन्हें देनी होगी अग्निपरीक्षा / और फिर समा जाना होगा धरती में।” –
‘शिखर में आग’, जिज्ञासा प्रकाशन, फ्रेजर रोड, पटना-1, प्रथम संस्करण :1996, पृष्ठ-15 ।
यूँ , यह कविता सवाल करती शुरू होती है और शुरुआत में ही अपने पाठक / श्रोता को चौकन्ना कर देती है । कविता आगे बढ़ती है और सवालों के अक्स भी । सवाल भी बड़े बुनियादी और मानीखेज हैं । वे सीधे हमारे मिथक को चुनौती देते हैं, हमें चौकाते हैं और तर्क तथा विवेक के तकाजे से हमें निरुत्तर कर सोचने पर मजबूर करते हैं । कविता की पंक्तियाँ देखिए :- “जब राजा ने चलाया हल / तभी क्यों पैदा हुई सीता / सदियों से चला रहे हैं हल / हमारे किसान / मगर आज तक / किसी वैदेही का जन्म नहीं हुआ / धरती की कोख से जन्मी थी सीता ? /………../ राजा जनक का राज्य मिथिला / बहती है / आज भी / वहां एक से एक वेगवती नदियां / सुनते हैं / सूखा पड़ा था वहां / हम तो जानते हैं / हमेशा बाढ़ से / तबाह होती है मिथिला / ‘पग-पग पोखर माछ-मखान’ वाली मिथिला। /………/ खैर, मान लिया / मिथिला में सूखा पड़ा था / हल चलाया था राजा जनक ने / अजन्मा नहीं थी सीता / फिर भी खेत और खीर का रिश्ता है / अयोध्या और मिथिला में / खेत में हुई जानकी / खेत से पैदा हुई खीर / और खीर से पैदा हुए राम / जय सियाराम !” – उपरिवत , पृष्ठ : 14-15 ।
सुधी पाठक गौर करेंगे कि सवालों से बुनी गई यह कविता अपने अंत पर आकर कमाल का तंज करती है । तंज भी ऐसा-वैसा नहीं है । करोड़ों भारतीयों की श्रद्धा का केंद्र ‘जय सियाराम’ यहाँ अपना ही ‘इंटरफेस’ बदलकर आस्था को आईना दिखाने लगता है । हालांकि कविता सुनते हुए अथवा पढ़ते हुए श्रोता / पाठक जैसे ही इस ‘जय सियाराम’ तक पहुँचता है, उसकी हँसी फूट पड़ती है और मुग्ध मन ‘वाह’ कह उठता है । मगर अगले ही क्षण वह इस काव्य प्रयोग में छिपे तंज को लेकर गंभीर हो जाता है । मतलब यह कि कवि ने अपने मिथकों और विश्वासों पर सवाल खड़े करने में जिस नफासत से ‘जय सियाराम’ का उपयोग किया है, वह काबिले तारीफ है। भारत के गँवई जीवन से परिचित लोग जानते हैं कि गाँवों में किसानों की आपसी बातचीत में किसी-किसी प्रकरण की चर्चा करते-करते अंत में ऐसे ही ‘जय सियाराम’ या ‘नारायण-नारायण’ अथवा ‘बम-बम भोले’ बोल उठना आम होता है । असल में यह बोल संबंधित प्रकरण की हवा निकालने के लिए व्यंग्य होता है । हालांकि व्यंग्य अथवा तंज कसने का मतलब हमेशा खिल्ली उड़ाना या उपहास करना ही नहीं होता । तंज अपने कटाक्ष से भूलों और भ्रमों के निवारण में सहायक भी होता है । कवि इसी अर्थ में कीमियागर होता है । वह अपनी काव्य रचना से हमेशा हमें आनंद विभोर ही नहीं करता, वह अपने शब्दों और भावों के रसायन से समाज के मर्ज का इलाज भी करता है। इस अर्थ में अनिल विभाकर नागर बोध के बरअक्स ग्राम्य बोध के कवि हैं ।
सामंती समाज के अपने उसूल होते हैं और उसकी व्यवस्था का एक निर्धारित नियति-चक्र होता है। चीजें उसी के अनुरूप घटित होती हैं । प्रस्तुत कविता में कवि इसी नियति-चक्र को ललकारता है, जब वह कहता है :– “जब राजा बनेगा किसान / तभी जन्म लेगी सीता / और तभी जगह होगी / राजमहल में उनके लिए / तब फटेगी नहीं / स्वर्ग बन जायेगी धरती ।” – उपरिवत , पृष्ठ – 15 ।
किन्तु गौर करने की बात यह है कि यही कथ्य जब विमर्शवादी कविता का आधार बनता है, तो सतह पर विचार का दबाव प्रबल हो जाता है । फलस्वरूप काव्यानुभूति और काव्य संवेदना एक बँधे-बँधाए फ्रेम में ढलकर नया रूप और तेवर अख्तियार कर लेती है । फिर कविता तो बनती है, मगर वह काव्यमयता और प्रभविष्णुता की दृष्टि से एक भिन्न किस्म का आस्वाद कराती है । ऐसी कविता वक्तृता प्रधान हो जाती है और वक्तृता प्रधान कविता के सपाट होने का खतरा रहता है । उदाहरण के लिए निम्नलिखित कवितांश देखा जा सकता है:– “सत्ता की राजनीति में सीता / बार-बार होती रही निर्वासित / और वाल्मीकि के आश्रम में पाती रही शरण / राम के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े स्वतंत्र घूमते रहे / लव-कुश लौट-लौट कर जाते हैं / अयोध्या के राजमहल / सीता आज भी धरती के गर्भ में समा जाती है !” – ‘सीता आज भी धरती के गर्भ में समा जाती है’ – देवयानी भारद्वाज । (सौजन्य : कविता कोश )
कविता का भी अपना एक पक्ष होता है और वह साफ तौर पर प्रतिपक्ष का होता है । यद्यपि कविता अपनी लय और संरचना में कोमलकांत पदावली होती है, तथापि कविता का पक्ष तब उजागर होता है, जब वह (कविता) अपनी उदात्तावस्था में विचार में रूपांतरित होती है । कदाचित् इसीलिए कविता लोक चित्त को पसंद आती है । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसीलिए काव्य में लोक मंगल की साधना का विमर्श रचा है । ‘मिथिला और अयोध्या’ शीर्षक कविता की व्यंजना भी यही इंगित करती है ।
कवि सर्जक होता है । समानांतर सर्जक । ‘कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभू’ । कवि काव्य-सृजन में जिस कथ्य को आधार बनाता है, उसमें विचार मूल्यवान होता है । इसलिए कविता में विचार की बड़ी भूमिका होती है । किन्तु भूलना नहीं चाहिए कि विचार की भी अपनी राजनीति होती है, जो दिखने में भले तटस्थ लगे, परंतु होती नहीं है । न्यायप्रियता उसकी नीति होती है और जुल्म का प्रतिकार उसका स्वभाव । अनिल की कविता में ललकार है, तो जुल्म के प्रतिकार में तीव्र से तीव्रतर होता स्वर भी है । इस स्वर में गूँजता सवाल इतना मौलिक है कि उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता । उनकी ‘पंछी और आकाश’ शीर्षक कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :– “आखिर ऐसा क्यों हो गया आकाश ? आकाश / अब निर्विघ्न क्यों नहीं रहा ? पंछी की जगह / आकाश में / क्यों उड़ने लगे हैं बमवर्षक / जेट, रॉकेट और प्रक्षेपास्त्र ? क्यों दौड़ने लगी है बिजली ? और सिर्फ पंछी नहीं – / हर आदमी के आकाश पर / क्यों उत्पन्न हो गया है यह खतरा ?” – ‘शिखर में आग’, पृष्ठ – 41 ।
रूस – यूक्रेन, चीन – ताइवान, चीन – भारत, चीन – अमेरिका, तुर्की – स्वीडन और अफगानिस्तान एवं पाकिस्तान के मौजूदा हालात के मद्देनजर ’90 के दशक में लिखी इस कविता की प्रासंगिकता समझी जा सकती है । वैसे, युद्ध के विरुद्ध कविता करना कवियों में लोकप्रिय रहा है । हिंदी कविता में इसकी बड़ी समृद्ध परंपरा मिलती है । अनिल के यहाँ भी युद्ध विरोधी कविताएँ हैं । परंतु अनिल का कवि सिर्फ विरोध करने के लिए युद्ध विरोधी कविता नहीं लिखता । वह युद्ध-विरोध को एक तार्किक परिणति देता है और युद्ध के पीछे की गुत्थियों को खोलने का प्रयास करता है । उसका मानना है कि नेतृत्वकारी शक्तियों ने जब कभी प्रेम और संवेदना का साथ छोड़ा, युद्ध का अघट घट कर रहा । इस युद्ध ने मनुष्यता का और हमारी सभ्यता का बड़ा अपकार किया है, बड़ा विनाश किया है । इसलिए इतिहास की इस सीख को हमेशा याद रखा जाना चाहिए कि सही रास्ता प्रेम का है, न कि युद्ध का । कवि की ‘मथुरा का रास्ता’ शीर्षक कविता यही सिखाती है और इसलिए कोई दो दशक पहले लिखी गई यह कविता आज भी प्रासंगिक है । कविता 5 बंद में छोटी-बड़ी कुल तेईस पंक्तियों की है । काव्य-अभिप्राय समझने के लिए इस कविता का अवलोकन करना उचित होगा । इसलिए पूरी कविता प्रस्तुत है :–
“मथुरा का रास्ता अलग है और कुरुक्षेत्र का अलग / कुरुक्षेत्र में नहीं रह सकती राधा / वह रहेगी तो मथुरा में या वृंदावन में /………./ कृष्ण भी अब नहीं जाते कुरुक्षेत्र / जो जाते हैं वृंदावन और मथुरा / वह नहीं जाना चाहते कुरुक्षेत्र / कुरुक्षेत्र भी नहीं बनने देना चाहते वे मथुरा और वृंदावन को /………../ भले ही हुआ हो वहां धर्म युद्ध / कृष्ण ने भले ही गई हो वहां गीता / बावजूद इसके तीर्थ नहीं बन पाया कुरुक्षेत्र / वह तो सिर्फ इतिहास बनकर रह गया / तीर्थ बनने के लिए जरूरी है राधा का होना /…………/ सच तो यह है कि / चाहे मथुरा हो या वृंदावन / कहीं भी अकेले नहीं रहते कृष्ण / वे जब भी अकेले हुए / या तो महाभारत हुआ / या बनी युद्ध की पृष्ठभूमि /…………./ महाभारत में साथ नहीं होती राधा / राधा के बगैर नहीं रह सकते कृष्ण / इसीलिए पूज्य है राधा / इसीलिए पूज्य हैं कृष्ण / रुक्मिणी तो सिर्फ इतिहास बन कर रह गयी ।” – ‘सच कहने के लिए’, प्रकाशन संस्थान, दयानंद मार्ग, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002, प्रथम संस्करण : 2006, पृष्ठ -15 ।
आचार्य रुद्रट ने ‘काव्यालंकार’ में कविता के लिए ‘शक्तिर्व्युत्पत्तिरभ्यासः’ अर्थात् प्रतिभा, कल्पना और अभ्यास को जरूरी बताया है । वैसे भी कविता के फूल हमेशा कल्पना की जमीन पर खिलते हैं । अनिल की कविता के फूल कल्पना की जमीन पर खिलकर उसे बहुरंगी बनाते हैं । इसीलिए उनकी कविता में आसमान का शून्य नहीं, धरती का यथार्थ मिलता है और यह यथार्थ अपने पूरे परिवेश के साथ आता है । स्वर्ग की चाह कहीं है भी तो कल्पना के आसमानी स्वर्ग की चाह बिल्कुल नहीं । हमारी धरती ही स्वर्ग है । कवि के स्वर्ग में जिन चीजों का होना लाजिमी है, वे इसी धरती की हैं । ‘स्वर्ग’ शीर्षक कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ कवि के स्वर्ग का बोध कराती हैं :-
“न तो करघे, न कपास, न सूत / न खुरपी, न कुदाल / न ढिबरी, न लालटेन / न ढोल, न शहनाई / खोमचे, लोखर-नहरनी / छेनी-हथौड़े कुछ भी तो नहीं है आसमान में /…………../ न बया के लिए तिनके / न गौरैया के लिए धान / न तितली के लिए फूल / न अलाव के लिए लकड़ियां / स्वर्ग के लिए जरूरी है इन चीजों का होना।” – उपरिवत, पृष्ठ -10 ।
स्पष्ट है कि अनिल के कवि को धरती बहुत प्रिय है । वे कल्पना के आसमान में उड़ते तो हैं, पर अपने पाँव धरती से उखड़ने भी नहीं देते । अकारण नहीं उन्होंने धरती को विषय बनाकर कई कविताएँ लिखी हैं, जैसे– ‘यह धरती’, ‘बची रहे धरती’, ‘खेत’, ‘खजुरबाना’, ‘घर की जरूरत’, ‘रेत पर ठहरी लहरें’ आदि-इत्यादि । कवि ने इन कविताओं में धरती का सौन्दर्य, धरती का वैभव और ऐश्वर्य उद्घाटित किया है । साथ ही धरती के स्वस्थ एवं सुरक्षित रहने का महत्त्व निरूपित किया है । धरती के साथ मनमानी और खिलवाड़ करने वाले लोगों के लिए चेतावनी भी हैं ये कविताएँ कि खबरदार ! समय रहते चेत जाएं तथा धरती के साथ विवेकपूर्ण व्यवहार करें, नहीं तो बर्बाद होना तय है । इसीलिए ‘बची रहे धरती’ शीर्षक कविता चेतावनी के लहजे में शुरू होती है और आखिर तक यही शैली बरकरार रहती है। छोटे-छोटे छह बंद की इस कविता में कवि धरती के रत्नदात्री स्वभाव का उल्लेख करते हुए विकास के नाम पर प्रकृति के विरुद्ध आधुनिक मनुष्य की अंधाधुंध कार्रवाइयों को लेकर आगाह करता है, जिसे समझने और तदनुसार आचरण करने की जरूरत है । कविता का एक अंश गौरतलब है :– “बूझिए अपनी ताकत / पहचानिए अपनी हदें / मत कीजिए तबाही का पुख्ता इंतजाम / अंतरिक्ष में बना लीजिए / चाहे जितने स्टेशन / पांवों के नीचे जरूर होनी चाहिए जमीन / नहीं कर सकते कुदरत से ज्यादा करिश्मा / नहीं बना सकते एक पृथ्वी / ………… / कितने नृशंस हो गये हम / कितने हतभाग्य / उसके गर्भ में डालते हैं परमाणु / करते हैं कई-कई विस्फोट” – उपरिवत, पृष्ठ : 13-14 ।
अनिल मूलतः जीवन-राग के कवि हैं । उनका व्यापक जीवनानुभव उनके जीवन-राग का संवर्द्धन करता है । इसलिए उनकी कविताएँ सुहाती हैं और अपील करती हैं । वैसे, कविता का सुहाना और अपील करना दो अलग-अलग बातें हैं । जरूरी नहीं कि जो कविता मन को अच्छी लगे, सुहाए; वह अपील भी करे । सुहाना एक निष्क्रिय भाव है, जबकि अपील में प्रेरित करने और लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ने का आह्वान होता है । कवि की ‘बातचीत’ शीर्षक कविता में यह आह्वान लोकमंगल के निमित्त रैदास एवं कबीर बनने की हाँक कैसे बन जाता है, इसे निम्नलिखित पंक्तियों में देखा जा सकता है :—
“पूरे विश्व का है कबीर का करघा / किसी एक की नहीं है रैदास की रांपी / खोजो इन्हें /……………/ इस रक्तपाती समय में / लोकमंगल के लिए जरूरी है / रैदास और कबीर बनना ।” ‘अंतरिक्षसुता’, अनन्य प्रकाशन, ई-17, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32, प्रथम संस्करण : 2022, पृष्ठ : 67-68 ।
हालांकि ‘बातचीत’ इस कविता का शीर्षक भर है । कविता बातचीत से बिल्कुल अलग, गहन और गंभीर बात कहती है । वह सधे शब्दों में जीवन की वास्तविकताओं की ओर इशारा करती है । कविता का मूल स्वर लोक मंगल की कामना है, जिसमें सभी के उत्थान और कल्याण का भाव अंतर्निहित है । लोक के उत्थान की कामना में जड़ विचारों के त्याग और आपसी भाईचारे का संदेश देती यह कविता स्थावर से जंगम और स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा कराती है । पंक्तियाँ देखें :– “रांपी चलाते और भजन गाते-गाते / दीपक से बाती हो गये रैदास / कारघा चलता था कबीर का / और झरते थे उससे निर्गुण / करघे से कबीर ने बुनी चादर झीनी-झीनी / जाते समय रख दी उसे भी जस की तस / कभी मैली नहीं हुई उनकी चादर / बुनकर और पनही बनाने वाले ने देखी / चोंच में तिनका दबाये चिड़िया / कहा – निर्माण गीत गाये बिना नहीं होता निर्वाण” – उपरिवत, पृष्ठ : 68 ।
अनिल की एक कविता ‘पहचान’ शीर्षक से है । यह ‘अंतरिक्षसुता’ संकलन की पहली कविता है । यह भारत के सांस्कृतिक और साभ्यतिक पहचान का विमर्श रचती एक जानदार कविता है । राजनीति और उसके जादू में आराम-हराम किए बैठे लोगों की खबर लेती यह कविता बिना किसी भूमिका के एक सामान्य और बेलाग कथन से आरंभ होती है । कथन कुछ इस तरह है :– “देश की पहचान दिल्ली नहीं / देश की पहचान तो वाराणसी है / देश की पहचान गया और बोधगया है / देश की पहचान आगरा और मथुरा है / अमृतसर, अजमेर शरीफ और पुष्कर हैं देश की पहचान” – उपरिवत, पृष्ठ : 9 ।
जाहिर है, कविता अपने इस कथन के द्वारा चौंकाती है और जो कुछ कहती है, उसमें राजनीति को बेमतलब महत्त्व देने का निषेध है । कविता आगे राजधानी दिल्ली के व्याज से देश के विभिन्न स्थानों के मूल्य तथा महत्त्व का स्मरण कराती है । साथ ही देश की सभ्यता, संस्कृति, इतिहास और शैक्षिक गरिमा को पहचानने तथा उनपर अभिमान करने की वकालत करती है । चार बंद और सामान्य, सरल कथन शैली की इस कविता में देश की असल पहचान– मजदूर और किसान को जिस तरह याद किया गया है, वह कवि की वर्णन-शैली तथा प्रतिबद्धता का द्योतक है । पंक्तियाँ देखें :– “ देश की पहचान हल की मूठ थामे / मजदूर और किसान हैं / जो दिल्ली की हरकतों से हैरान हैं / दिल्ली की हरकतें देश की पहचान नहीं हो सकतीं” – उपरिवत, पृष्ठ : 9 ।
उल्लेखनीय है कि इस कथन के लहजे में जो व्यंग्य है और राजनीति के चरित्र पर जो सवाल खड़ा किया गया है, वह कम शब्दों में बहुत कुछ कहता है । इसमें स्वहित से ऊपर उठकर परहित, विशेषकर मजदूर और किसान की जो चिंता है, वह कवि को उसकी मध्य वर्गीय चेतना से भिन्न किसान चेतना से जोड़ती है । कवि ने इस कविता में झूठ का पर्दाफाश करते हुए हमारी ‘आस्था-पीठों’ को आईना दिखाने का भी बड़ा काम किया है । कविता इसी अर्थ और संदर्भ में बदलाव की हुंकार बनकर लोक का कंठहार बनती है ।
अनिल विभाकर मौन विरोध के मुखर कवि हैं । इनका अनुभव-संसार व्यापक और बहु वस्तुस्पर्शी है । जिन वस्तुओं और भावों को तुच्छ, रद्दी तथा साधारण समझकर अक्सर लोग नजरअंदाज कर देते हैं, अनिल का कवि उन्हें अपना काव्य-विषय बनाकर धन्य कर देता है । उनकी घड़ी, हत्था, केंचुल, मोमबत्ती, लाठी, सिक्के, रत्ती, फूस, नुस्खा, आंगन आदि कविताएँ ऐसी ही कविताएँ हैं । कवि में बस्तर, कलाहांडी, बिकने का जश्न, परंपरा, लोकशिल्पी आदि को लेकर सघन और रागात्मक अनुभूतियाँ मिलती हैं । इनपर लिखी कविताएँ विरल कविताएँ हैं । ये कविताएँ जीवन के तकाजों के बरअक्स जीवनानुभव से सीख लेती, विचार प्रधान कविताएँ है । वैसे भी, अनिल कविता में वर्णन के बजाय विचार को तरजीह देते और किसी विचार को स्थापित करने के बजाय वैचारिक संघर्ष को अभिव्यक्त करने का उद्यम करते कवि हैं । इस उद्यम में वे निरपेक्ष नहीं रहते । व्यापक जन-गण की हित-चिंता करते हैं । ‘नुस्खा’ शीर्षक कविता में इसे देखा जा सकता है । इसमें कवि शासक वर्ग के चरित्र के पर्दाफाश के लिए किसी उलटबाँसी के शिल्प में नहीं, वरन दो टूक शब्दों में अपनी बात कहता है, जिसका राजनीतिक स्वर तल्ख है और संदेश की व्यंजना मुँह चिढ़ाती है । कविता की कुछ पंक्तियाँ देखें :— “यदि राज करना है बेफिक्र होकर / तो दुनिया को बांटो / जितने हिस्से में चाहो बांटो / सड़कों को बांटो / गलियों को बांटो / पगडंडियों को बांटो / घरों को बांटो / दिलों को बांटो / समाज को बांटो / शहरों को बांटो / गांवों को बांटो / इसी तरह पूरी दुनिया को बांटो / जहां तक हो सके बांटो…” – उपरिवत, पृष्ठ : 23-24 ।
अनिल को कदाचित् आधुनिक जीवन की विडम्बनाएँ परेशान करती हैं । वे भारतीय लोकतंत्र की विडंबनाओं से भी विचलित होते हैं । इसलिए वे अपनी परेशानी और व्यथा को कविता में वक्तृता की हद तक ले जाने से भी गुरेज नहीं करते। तभी वे चुनावी मौसम में नेताओं की किसिंम-किसिम की पैंतरेबाजी और चालाकियों की खबर ले पाते हैं । यह बात दीगर है कि राजनीतिक कविताएँ प्रायः वाचाल, वाक् पटु और वक्तव्य प्रधान होती हैं । यद्यपि कविता भी आपद् धर्म में वक्तव्य बनती है। किंतु बड़ी कविता राजनीति की बिसात पर वक्तव्य से ज्यादा व्यंग्य बनकर अपने को सार्थक और सिद्ध करती है । धूमिल की कविताएँ ऐसी ही हैं ।
भूमंडलीकरण के बाद चीजें काफी बदली हैं । खबरिया चैनलों की ‘ब्रेकिंग न्यूज’ और सोशल मीडिया के दौर में तत्काल और त्वरित का चलन आज की वस्तुगत सच्चाई है । बाजारवाद की माया ऐसी है कि उसकी गिरफ्त से कोई बचा नहीं है । खबरों में रहना भी एक शगल बन गया है और इस शगल ने अपने तईं पवित्र को भी प्रदूषित कर दिया है । अनिल की ‘मोमबत्तियां’ शीर्षक कविता इसी प्रवृत्ति की खबर लेती एक पठनीय कविता है । कवि फैशनपरस्तों द्वारा आंदोलन जैसे पवित्र कर्म को शगल बनाने और उसे कर्मकांड में तब्दील कर दिए जाने से हतप्रभ है । इसलिए वह आजकल के आंदोलनों के अल्पजीवी होने की तुलना मोमबत्ती से करता है और लिखता है : —“सड़कों पर नारे लगाने वालों को / पसंद है मोमबत्तियां / वे जानते हैं मशाल थामने से कुछ नहीं होगा / वे समझते हैं मोमबत्तियां जितनी अधिक बिकेंगी / सेठ उतना ही खुश होगा / सेठ की खुशी के लिए इंडिया गेट पर / जलाते हैं लाखों मोमबत्तियां इसीलिए” – उपरिवत, पृष्ठ- 30 ।
कहने की आवश्यकता नहीं कि यह कविता आजकल के आंदोलनों की अल्पजीविता पर सवाल खड़े करती है । कविता सवाल आंदोलनकारियों की सुविधापरस्ती को लेकर भी उठाती है । कविता आंदोलन के चिरपरिचित प्रतीक मशाल के संबंध में आंदोलनकारियों की समझ और मोमबत्ती जलाने के पीछे निहित सुविधा-भाव पर भी सवाल करती है । ऐसे में कविता के मद्धम स्वर में भी तंज की प्रधानता अकारण नहीं है । यह कविता अपनी शैली और शिल्प में एक तरह से ‘खबर लेती और खबरदार करती’ कविता है । काश ! यह कविता सपाट नहीं होती । राजनीति को अंतर्वस्तु बनाती कविता ऊपर से सपाट होकर भी कितना असरदार हो सकती है, इसे समझने के लिए धूमिल को पढ़ना होगा । धूमिल ऐसे ही धूमिल नहीं थे । वे बड़े ठाठ के कवि हैं । वे ठेठ शब्दों और अपने अंदाज से जो कह देते हैं, उसे कोई दूसरा नहीं कह पाया । प्रसंगवश उनकी प्रसिद्ध कविता ‘पटकथा’ की निम्न पंक्तियाँ बरबस याद आती हैं — “एक ‘पूँजीवादी’ दिमाग है / जो परिवर्तन तो चाहता है / मगर आहिस्ता-आहिस्ता / कुछ इस तरह कि चीजों की शालीनता बनी रहे / कुछ इस तरह कि काँख भी ढकी रहे / और विरोध में उठे हुए हाथ की / मुट्ठी भी तनी रहे… ।” – ‘संसद से सड़क तक’, पृष्ठ : 126 – 127 ।
अनिल बाजारवाद की चकाचौंध और आधुनिक फैशनपरस्ती को मनुष्यता के लिए अच्छा विकास नहीं मानते । इसलिए इन पर वह पैनी निगाह रखते हैं । उनकी पैनी निगाह में आशंका है और तंज भी । उनकी ‘फिक्र’ शीर्षक कविता में कुछ इसी तरह का भाव मिलता है । कविता की पंक्तियाँ हैं :– “वे बेहद फिक्रमंद हैं / उन्हें फिक्र है तो सिर्फ कुत्तों की / लड़ते हैं उनके अधिकार के लिए / बात होती है जब आदमी के अधिकार की / खींच लेते हैं झट से पीछे अपने कदम / वे नहीं करते कभी आदमी की कोई फिक्र /…… / यह है इस समय की महान वैश्विक सभ्यता / जिसमें गैर जरूरी है / आदमी की फिक्र करना ।” ‘अंतरिक्षसुता’, पृष्ठ : 32-33 । फैशन और बाजारवाद की माया में लिप्त मनुष्य के मनुष्य विरोधी आचरण पर कटाक्ष करती यह कविता दरअसल कुत्तों की फिक्र नहीं, आदमी की फिक्र करती है और विसंगति व्याज से आदमी की आदमीयत पर सवाल खड़े करती है ।
कविता कवि की संवेदना और अनुभूति की संश्लिष्ट अभिव्यक्ति होती है । संवेदना और अनुभूति वायवीय नहीं, इसी जीवन और जगत् की उपज होती हैं । कवि के सृजन की महत्ता इस रूप में भी आँकी जाती है कि उसने अपनी संवेदनात्मक अनुभूति से जो कुछ रचा है, वह घिसे-पिटे ढर्रे का है या लीक से हटकर कुछ नया है । अनिल की ‘लाठी’ , ‘पुरखौती’, ‘गिनती’, ‘सिक्के’, ‘बिकने का जश्न’, ‘लोकशिल्पी’ आदि कविताएँ लीक से हटकर सुंदर कविताएँ हैं । इस शृंखला में ‘लाठी’ एक विचार कविता होते हुए भी प्यारी कविता है, जबकि ‘पुरखौती’ कविता अत्यंत मार्मिक है, जिसे उद्दीप्त संवेदना से ही हृदयंगम किया जा सकता है । इसी तरह की कविता है ‘गिनती’ । बाजारवाद के नियंत्रक शक्ति के रूप में उभरने तक भारतीय ग्राम्य जीवन में प्रचलित किसानी गिनती के तरीके जैसे मामूली विषय के वर्णन से शुरू होती इस कविता की अंतर्वस्तु गहन और आधुनिक बोध की है । यह व्यक्ति और समाज के उत्थान में बाधक आस्था पर एक तरह से प्रहार करती कविता है । यह प्रकारांतर से तर्क और बुद्धि की महत्ता को समझने और उस पर आचरण करने की सीख देती कविता है । पोंगापंथ एवं कट्टरता को व्यक्ति और समाज के लिए दुखदायी बताती यह कविता बेहद मामूली तरीके से आरंभ होती है । पंक्तियाँ देखिए :— “उनकी गिनती शुरू होती थी दो से / एक का मान तो था मगर संख्या नहीं / देसी तराजू और देसी बाट थे उनके / गिनती की अपनी परंपरा / जो बाजार से अलग थी / तौलते थे अनाज, गला-पाती / तो एक की जगह बोलते थे राम / रामे राम से शुरू होती थी गिनती / जब दूसरी बार जोखते थे तब गिनते थे दो / इसके बाद तीन, चार, पांच…. / इस तरह आगे बढ़ता था क्रम उनकी गिनती का” — उपरिवत, पृष्ठ : 65 ।
बाजार और व्यवसाय के लिए सच्चाई बड़ा मायने रखती है । किन्तु आधुनिक बाजार मुनाफा कमाने के लिए कैसे-कैसे हथकंडे अपना रहा है तथा सच और हिसाब-किताब को भी कैसे धोखा दे रहा है, इस पर करारा व्यंग्य है यह कविता । यह कविता इस समझ को भी खूबसूरती से समझाती है कि बाजारवाद सच और पक्के ईमान को भी कैसे लोभ की दलदल में ले जाकर बेईमान बना दे रहा है । यह छोटी-सी कविता ईश्वरीय आस्था पर भी चोट करती है । याद रहे, वैचारिक परिपक्वता के लिए अनेकांतवाद की सहायक भूमिका को कोई नकार नहीं सकता । परंतु अनेकांतवाद जैसे ही आस्था में रूपांतरित होता है, वितंडावाद शुरू हो जाता है ।
अनिल विभाकर की चंद बड़े मे’यार की कविताओं में ‘सिक्के’ शीर्षक कविता उल्लेखनीय है । महज छोटी-बड़ी 28 पंक्तियों की यह कविता ऊपर-ऊपर से कवि के दैनंदिन अनुभव एवं अनुभूति की अभिव्यक्ति लगती है । इस कविता में कवि सिक्कों के असली-नकली रूप की बात करता है, उनके मूल्य के मुकाबले बोझ लगते वजन की बात करता है और आधुनिक समय में ‘गूगल पे’, ‘पेटीएम’ जैसे विनिमय के बदले स्वरूप में सिक्कों की उपादेयता पर विचार करता है । इसी विचार प्रवाह में कवि कहता है — “वैसे, सिक्के बड़े हों, छोटे हों या खोटे / इन्हें अब कोई रखना नहीं चाहता / कौन ढोये इनका बोझ / लोगों के लिए अब बोझ बनते जा रहे हैं सिक्के” – उपरिवत, पृष्ठ : 64 ।
ध्यातव्य है कि इस कविता में सिक्के का प्रयोग केवल अभिधा रूप में ही नहीं हुआ है । सिक्के का अभिधार्थ लेने से कविता का अर्थ ग्रहण बाधित होता है और विचार की सातत्यता भी खंडित होती है । कवि ने कविता में सिक्के का प्रयोग मुहावरा-रूप में भी किया है । इस तरह सिक्के के प्रसंग में अभिधा और व्यंजना का सम्मिलित प्रयोग इस कविता को अर्थगुंफित और विशिष्ट बनाता है । कविता आरंभ ही होती है सिक्के के मुहावरेदार प्रयोग से । यह प्रयोग कविता को अर्थगर्भित ही नहीं मुकम्मल राजनीतिक कविता भी बनाता है । अकारण नहीं कवि को लिखना पड़ा — “सिक्के नकली हैं मगर चमक रहे हैं बाजार में / सिक्के असली हैं मगर स्याह हो गये / खोटे सिक्के ही लोगों को असली लगते हैं आजकल / लगते हैं लोगों को भरोसेमंद / जहां देखो, हर जगह जम जाता है उनका सिक्का” – उपरिवत, पृष्ठ : 63 । इन पंक्तियों में सिक्के का मुहावरा-रूप में प्रयोग हुआ है । किन्तु अभिव्यक्ति सरल है । इसलिए अर्थ-निरूपण में समस्या नहीं होती । कविता में आगे की पंक्तियों में कवि आजकल के चकाचौंध पसंद राजनीतिकों पर करारा व्यंग्य करता है । कवि के शब्द हैं — “जमाना है चमक-दमक का / चलन में रहने के लिए जरूरी है चमक-दमक / पूर्वज कहते थे, भेष से मिलती है भीख ” – उपरिवत, पृष्ठ : 64 ।
कहना न होगा कि यह कविता नकली और असली सिक्कों के वर्णन तथा ‘भेष से भीख’ के व्याज से ऐसे लोगों को वरेण्य मानती है, जो प्रायः परदे के पीछे रहते हैं तथा कथनी एवं करनी की एकरूपता में यकीन करते हैं। कविता की व्यंजना में वे तमाम लोग शामिल हैं, जो चमक-दमक से दूर रहना पसंद करते हैं, संत स्वभाव के होते हैं और कबीर की तरह खरा बोलते हैं । ये आम और खास दोनों तरह के लोग हैं । इन्हीं लोगों की अभ्यर्थना है यह कविता । किसान चेतना ऐसी ही समष्टि चेतना होती है । कविता अपनी व्यंजना में ऐसे ही चकित करती है ।
कवि अपनी दृष्टि और संवेदना से साधारण को भी असाधारण बना देता है । कविता इसी साधारण की असाधारण अभिव्यक्ति होती है । हमारे समय के सजग कवि अनिल विभाकर जब रत्ती को काव्य-विषय बनाते हैं, तो प्रकारांतर से वे प्रकृति की तुच्छ समझी जाने वाली वस्तुओं की उपादेयता के समानांतर मनुष्य के मिथ्या अहंकार और आचरण की असंगति पर तंज करते हैं । वे लिखते हैं :– “बाट पीतल के हों, चाहे पत्थर या लोहे के / सभी के सभी हैं कृत्रिम / अकेली रत्ती ही है ऐसी / जो है कुदरती / जहरीले भले हैं, / पर भरोसेमंद हैं इसके दाने / यह भरोसा ही तो है / कि रत्ती के भाव अब भी बिकते हैं रतन / रतन तोलने के काम अब भी आती है रत्ती / जहरीली जरूर है मगर आदमी से कम” – उपरिवत , पृष्ठ : 73-74 ।
अनिल जीवन को संपूर्णता में देखते हैं और समाज को इसी नजरिये से आँकते हैं । फलतः वे किसी भी व्यक्ति, वस्तु या स्थान को महत्वहीन नहीं मानते । यही कारण है कि उन्होंने मिथिला, अयोध्या, मथुरा और दिल्ली तथा चाँद पर कविता लिखी है तो बस्तर और कलाहांडी पर भी । उनकी ‘नियमराजा’ और ‘कर्माबाई’ शीर्षक कविताएँ भी इसी शृंखला में आती हैं । हमारे हाशिये के समाज की विशिष्टता और गरिमा को रेखांकित करती ये कविताएँ हिंदी की उपलब्धि कही जा सकती हैं । ‘बस्तर’ कविता में बस्तर के लोक और संस्कृति पर हो रहे चौतरफा हमले की व्यथा है । साथ ही इसमें बस्तर के स्वाभाविक एवं नैसर्गिक जीवन को हर हाल में बचाए रखने की आकांक्षा भी। इसी तरह ‘कलाहांडी’ कविता वहाँ की नैसर्गिक एवं कलात्मक विशेषताओं, उसके नृत्य, गायन, उर्वर खेती, सुभग लोक आदि का बखान करती है और ‘कालाहांडी’ की जानी-पहचानी दुनिया से इतर उसके कलाहांडी होने, यानी विशिष्ट होने का एक मार्मिक प्रतिपक्ष रचती है । ‘नियमराजा’ कवि के व्यापक अनुभव संसार का बोध कराती एक मार्मिक कविता है । यह बाहर से अभिधा और अंदर से व्यंजना करती बेहद मुखर कविता है । कवि की इसी कोटि की एक अर्थ गर्भित कविता है ‘अंतरिक्षसुता’ । इस कविता में कवि ने पृथ्वी के लिए अंतरिक्षसुता, व्योमनंदिनी, गगनजाता जैसे पदों का प्रयोग किया है और धरती के द्वारा अपने गति-धर्म में निरत रहने को उदात्त भाव से चित्रित किया है । कुछ पंक्तियाँ देखें — “इस प्रस्थान का कोई अंत नहीं / इसमें नहीं है कहीं अर्द्धविराम / यह प्रस्थान है पृथ्वी की यात्रा का / …… / इसके पास हैं जीवन की ढेर सारी प्रेमकथाएं / कई-कई सभ्यताएं / जब-जब भी आती हैं विभीषिकाएं / शुरू कर देती हैं यह पुनर्पाठ पुनर्जन्म का” — उपरिवत, पृष्ठ : 56 ।
यह कविता एक तरह से पृथ्वी का यात्रा रूपक है । इसमें जीवन का निर्माण और ध्वंस है, परंपरा और प्रकृति है, मिथक और सभ्यताएं हैं तथा पर्यावरण असंतुलन और परमाणु युद्ध की विभीषिका आदि बहुत कुछ हैं । मनुष्य के अनय और अनाचार से घायल पृथ्वी की अकूत सहनशीलता और उसकी अविराम यात्रा का यह खूबसूरत रूपक हमें आधुनिक सभ्यता के अंतर्विरोध के प्रति सचेत करता है तथा दुष्परिणाम के प्रति खबरदार । कविता का संदेश है कि धरती अपनी धुरी पर अहर्निश घूमती रहती है तो इसलिए कि यह जीवनदायिनी है । किन्तु इसका यह मतलब नहीं कि हम मनुष्य इसके साथ निरंतर मनमानी और अपघात करते रहें । धरती के मौसम में इधर तेजी से हो रहे बदलाव का संकेत बहुत साफ है, जिसे नजरअंदाज करना हाराकीरी करना होगा । इसलिए कवि जलवायु परिवर्तन जैसी दिनानुदिन विकराल होती जा रही वैश्विक समस्या के दुष्परिणाम से चिंतित है और इसके सुधारात्मक उपायों के प्रति संवेदनशील भी । अकारण नहीं कवि अपनी ‘निर्भरता’ शीर्षक कविता में, जो बहुत पहले की लिखी है, शायद इस शताब्दी के आरंभिक किसी वर्ष की लिखी हुई, सामूहिकता का बखान करता है और व्यक्ति-जीवन में उसकी कामना करता है । यह कविता आमफ़हम वर्णन के जरिये चीजों और समस्त चराचर प्रकृति की परस्पर संबद्धता को जिस तरह से प्रस्तुत करती है, वह प्रभावित तो करती ही है, कवि की सूक्ष्म पर्यवेक्षण दृष्टि को लेकर चकित भी करती है । कविता के अंत तक आते-आते कवि की पर्यावरण-चिंता जब उजागर होती है तो पाठक को ठहर कर सोचने पर मजबूर होना पड़ता है । पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं – “बचा लीजिए अपनी नदी / उसका पारदर्शी जल / बोलने दीजिए आईने को सब कुछ सच-सच / अपने आपको जानने के लिए जरूरी है इन सब का होना ।” – ‘सच कहने के लिए’ , पृष्ठ – 25 ।
निश्चय ही ये कविताएँ अन्य बातों के साथ-साथ इस बात की भी ताईद करती हैं कि अनिल विभाकर केवल मामूली चीजों तथा स्थानीयता पर ही नजर टिकाए रखने वाले कवि नहीं हैं; बल्कि वे एक आधुनिक, परिपक्व और दृष्टि संपन्न कवि हैं ।
विगत तीन दशक से भी ज्यादा समय से कविता लिख रहे अनिल विभाकर असल में किसान चेतना के कवि हैं । किसान चेतना सादगी, आचरणगत शुद्धता, प्रेम और बेफिक्री तथा अपने विचार पर कायम रहने की चेतना है । किसान को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं ? समाज उसके अवदान को मानता है या नहीं तथा उसे यथोचित श्रेय देता है या नहीं ? कवि अनिल विभाकर साहित्य का महत्तर मूल्य जीवन के प्रति उसके नजरिये में और चीजों के साथ उसके सलूक में आँकते हैं, न कि किसी गुटबंदी या मोर्चेबंदी में । वे भारतीय किसान की भाँति इस बात से जरा भी विचलित नहीं लगते कि उनके प्रति साहित्य की राजनीति का सलूक क्या रहा । इसलिए अनिल का कवि एक ठीये पर रुक कर कुछ गढ़ते रहने के बजाय अपने सहज बोध एवं सृजन से अपनी राह चलने में आनंद लेता है । उनकी कविता ‘एकला चलो’ की राह पर चलते हुए अपनी राह की अनुरागी कविता है । वे साहित्य के प्रचलित प्रत्ययों और समीकरणों से भिन्न अपनी राह मस्त-मगन चलने वाले सर्जक हैं । यद्यपि इस तरह के सृजन में आनंद तो होता है, तथापि रचनाशीलता की मुख्य धारा से कट जाने और अलग-थलग पड़ने के खतरे भी होते हैं । मगर अनिल को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता ।
अनिल इस अर्थ में भी किसान चेतना के कवि हैं कि वे सिर्फ सवाल उछालना ही अपने कर्तव्य की इति श्री नहीं समझते । उनका सर्जक मन अपने सवालों से परिवर्तनकामी वातावरण बनाना चाहता है और फिर हमारी दुनिया में बदलाव लाना चाहता है । बदलाव, जो लोकहित में हो और जो उन्नयनकारी हो । इसके लिए कवि किसी विचारधारा का अनुगामी बनने के बजाय स्वायत्त राह अपनाता है । वह कविता में विचार थोपने के बदले चीजों और स्थितियों को सार्वजनीन बनाने और इस तरह लोक में बदलाव का मानस तैयार करने का उद्यम करता है । इस उद्यम में कवि किसी को भी बख्शना नहीं चाहता, न किसी उदारता का शिकार होना चाहता है । तभी वह ‘लाल केकड़े’ जैसी कविता रचता है तो ‘हत्था’ जैसी सर्वथा नयी कल्पना और अनूठे बिम्ब की कविता भी । ‘लाल केकड़े’ हमारी व्यवस्था के विडंबना-बोध की शुद्ध राजनीतिक कविता है । इस कविता में सत्ता के तिकड़म के आगे जनता के बार-बार छले जाने तथा चुनाव के प्रहसन बन जाने की व्यंजना है । कविता का एक बंद देखें :- “हम उन्हें हरा नहीं पाये / जिन्हें वोट नहीं दिया वे जीत गये / लंबे समय से कुर्सी पर बैठे-बैठे वे लाल हो गये / लाल केकड़े की तरह विशिष्ट / हम ठहरे काले और धूसर रंग के” – उपरिवत, पृष्ठ – 25 ।
मालूम हो कि राजनीतिक कविताओं के सपाट होने का खतरा रहता है । यह कविता भी ऐसी ही है । किन्तु जैसा कि ऊपर कहा गया है, कविता का स्थायी स्वर प्रतिपक्ष का स्वर होता है और अपने समय एवं समाज से जुड़ा कवि ऐसे स्वर की कविता लिखने का खतरा मोल लेता है ।
चाँद मनुष्य का आदिम सहयात्री रहा है । मनुष्य ने अपने सुख और दुख – दोनों ही स्थितियों में चाँद को आलंबन बनाकर खूब सारी कल्पनाएँ की हैं और कवियों ने ढेर सारी कविताएँ । आधुनिक हिंदी कविता भी इससे अछूती नहीं है । ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’, ‘चाँद की वर्तनी’, ‘चाँद की आदतें’, ‘चाँद पर नाव’ आदि कवि-कल्पना की एक-से-एक सुंदर कविताएँ हैं । परंतु चाँद को लेकर अनिल की ‘हत्था’ बिल्कुल ही भिन्न तरह की कविता है, जिसे नजंदाज करना आज के वैश्विक हालात और विडंबनाओं तथा हत्यारी साजिशों से मुँह मोड़ना होगा । कविता वर्णन से शुरू होती है, विचार की खबर लेती है और विधेयात्मक कथन में समाप्त होती है । कविता का विधेयात्मक कथन कवि के काव्य-अभिप्राय को समझने की कुंजी है । इसलिए पहले उसे ही देखा जाय :– “बचपन बचेगा तभी बचेगी दुनिया / दुनिया बचेगी तो उगेगा दूज का चांद भी / और ईदी भी मिलेगी बच्चों को / बच्चे खिलखिलायेंगे तो उनके हाथों में होंगे / हवाई जहाज और रेलगाड़ी के खिलौने / खिलौने मिट्टी के हों या काठ के / बच्चे खेलेंगे मिल-बैठकर उनसे चंदामामा के साथ / चंदामामा आयेंगे बच्चों के लिए सोने की कटोरी में लेकर दूध-भात / खेलते-खाते-खिलखिलाते बच्चों को देख उमग उठेगी धरती / और वह स्वर्ग बन जायेगी / हथियारों से फिर कभी नहीं खेलेंगे बच्चे।”– उपरिवत, पृष्ठ -16 ।
उपर्युक्त साफ और सपाट काव्य-कथन में ऐसा कुछ नहीं है, जिसकी चर्चा की जाए । किन्तु इस कथन की भावभूमि पर कविता कुछ ऐसे दृश्य-विधान करती है, जिनकी उपेक्षा कतई नहीं की जा सकती । इसलिए ‘हत्था’ शीर्षक कविता पर विचार करना उचित होगा । इस कविता की अनुभूति जटिल है और बिम्ब-विधान के माध्यम से कविता जो यथार्थ चित्रित करती है, उसकी तीन मुख्य छवियाँ हैं । कविता की ये छवियाँ भिन्न और परस्पर असंबद्ध हैं । इन छवियों के माध्यम से कवि ने वैचारिकता, अराजकता तथा आतंकवाद को एक ही पैमाने से आँकने की जो चेष्टा की है, उसकी तार्किक संगति बिल्कुल नहीं बनती है । बहरहाल, कवि ने इस कविता में जिन तीन चित्रों को उकेरा है, उनमें पहला दूज के चाँद में हत्था लगाकर उसे हँसिया बना देने की कवि-कल्पना है । यह कल्पना सर्वथा नयी और प्रशंसनीय है । मगर, काश ! कवि ने इस अछूती कल्पना को अपने खाते में रखा होता, जिसमें दूज का चाँद बेंट लगने के बाद धरती पर उतरा होता और सीधे किसान की मुट्ठियों में बँधकर धान-गेहूँ की बालियाँ काट रहा होता । कल्पना करें तो यह दृश्य कितना सुभग और अप्रतिम होता । परंतु ऐसा नहीं है । दूसरा चित्र चाँदनी रात में आसमान में कुछ रक्ताभ केतुधारियों के डफली बजाकर रोटी उगने के कोरस गान का है, जिसकी परिणति मोहभंग एवं निराशा में होती है और तीसरा चित्र धरती पर आतंकवाद के पनपने, फैलने तथा बच्चों तक को मरजीवा बनाने का है । इस तरह इस कविता में कवि ने एक स्वप्न, एक फैंटेसी बुनने का प्रयास किया है । कविता के ये विचारणीय चित्र द्रष्टव्य हैं :–
(1) “ देखा नहीं गया उनसे दूज का चांद / भाया नहीं चांद ईद का /
कैसे लोग हैं वे / नहीं रुचता उन्हें शुक्ल पक्ष /
आसमान में उगा महीन-चांद / तो लगा दिया उसमें हत्था !”
/ ……………………./
“बेंट लगते ही चांद हो गया धारदार /
अब वह न तो दूज का चांद रहा / न ईद का /
हथियार देख भला कोई कैसे हो सकता है आह्लादित !”
/……………………/
(2) “ जब से बना यह मयंकास्त्र /
तभी से होने लगी जुबानबंदी की बातें
पूनम की एक मखमली संदली रात
कुछ रक्ताभ केतुधारी डफली बजा-बजा
गाने लगे आसमान में रोटी उगने का कोरस
बच्चों ने निहारा आसमान / तो उन्हें न रोटी दिखी / न उनके प्यारे चंदामामा ”
(3) “चिंता की बात यह कि चांद में जब से लगा है हत्था
धरती पर दिखने लगे हथियारों के जखीरे
बच्चे खेलने लगे खिलौने की जगह हथियारों से ” — उपरिवत, पृष्ठ : 14 – 16 ।
निस्संदेह ‘हत्था’ शीर्षक यह कविता भी राजनीतिक कविता है और चाँद को हँसिया और हथियार के प्रतीक के तौर पर चित्रित करना कवि की अनूठी कल्पना है । हालांकि सभी जानते हैं कि हँसिया और हथियार का यथार्थ एक नहीं होता, इसलिए दोनों को एक ही नजर से देखना और अति कल्पना के सहारे कविता बुनना तर्क संगत नहीं है । इसे सही भी नहींं माना जा सकता। यह ठीक है कि आजकल बच्चों का बचपन तरह-तरह से छीना जा रहा है । वजहें कई हैं । गरीबी की मार, उनपर अभिभावकों की दमित इच्छाओं का आरोपण, अनैतिक कार्य कराने का अमानुषिक जोर-जुल्म, मरजीवा बनाने की हैवानियत आदि कई वजहें । तथापि इन काव्य चित्रों के कार्य-कारण को एक धरातल पर रखना और एक ही पैमाने से आँकना औचित्य विचार की दृष्टि से भी ठीक नहीं है । कविता में सरलीकरण की यह तर्क-रचना ऊहापोह, भ्रम, संशय तथा घालमेल पैदा करती है । इसलिए यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि कवि अनिल विभाकर अपनी अन्य कविताओं से भिन्न इस कविता में नायाब कल्पना तथा कुछ खूबसूरत बिम्ब-विधान करने के बावजूद, कोई साफ, तार्किक एवं औचित्यपूर्ण विचार उपस्थित करने में विफल हो गए हैं ।
बावजूद इसके, अनिल की श्रम, समझ और प्रकृति के विभिन्न अवयव एवं उपादान पर केंद्रित ढेर सारी कविताएँ इतनी प्यारी हैं और जीवन राग से लबालब हैं कि उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती । वैसे भी, किसान की इच्छा और आकांक्षा इतनी सीमित और परिमित होती है कि उसके लिए छोटी-छोटी चीजों की बड़ी अहमियत होती है । हल, फाल, कुदाल, खुरपी, छेनी, हथौड़ा, लालटेन, खाद-बीज, मौसम आदि किसान के जीवन में बड़ा महत्त्व रखते हैं । अनिल की कविता में ये चीजें अहरह आती हैं और अपने सुंदर एवं सर्जनात्मक रूप में मिलती हैं । कविताएँ भी स्फीति-दोष से मुक्त हैं । कविताओं के कथ्य, मुहावरे, विन्यास आदि सरल और सादगीपूर्ण हैं, कुछ-कुछ वैसा ही, जैसा किसान का जीवन होता है, उसकी बोली-बानी होती है और उसका आचरण एवं व्यवहार होता है । इसलिए यह कहना उचित है कि अनिल विभाकर किसान चेतना के कवि हैं, जिसका सर्वश्रेष्ठ निदर्शन उनकी जीवन की रागात्मक अनुभूति वाली कविताओं में मिलता है । उनकी कविताओं में व्याप्त किसान चेतना का स्वर उनके जीवन राग का ही घनीभूत स्वर और विस्तार है ।
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