कभी-कभी उसे लगता था कि आज के समय के लिए वह उपयुक्त नहीं है। ईमानदारी और सच्चाई का दामन थामे रखने के कारण उसने बहुतों को असंतुष्ट किया है, अनेकों ने उसे अमित्र कर दिया है। एकबार एक चर्चित कवि के काव्य-संग्रह की उसने निष्पक्ष समीक्षा कर दी थी। कुछ काव्य दोषों को बताकर उसने कवि का ध्यान आकृष्ट किया था। उसे लगा था कि कवि अपनी कमियों को दूर करेंगे, परंतु उस कवि ने उससे ही दूरी बना ली। फेसबुक पर एक मित्र के पोस्ट पर की गयी आलोचनात्मक टिप्पणी उसे रास नहीं आयी और अनुशासनात्मक कार्रवाई के तहत दल से निकाले गये नेता की तरह उसने अपनी मित्र-सूची से उसे बाहर कर दिया। सबसे अधिक ताज्जुब तो उसे अपने बाल-सखा एवं घनिष्ठ मित्र प्रोफेसर अजय कुमार के आचरण पर हुआ था। दोनों ने साथ-साथ पढ़ाई करते हुए एम.ए. की परीक्षा पास की थी। पढ़ाई में अजय हमेशा उससे अठारह-उन्नीस ही रहता था, परंतु वह अत्यंत जुगाड़ू था। एम. ए. में उनके आठ पत्र थे। परीक्षा के पूर्व उसके एक सहपाठी ने उससे पूछा था, “सारे पत्रों की तैयारी हो गयी?”
उसने कहा था, “हाॅं, आठों पत्रों की तैयारी हो गयी है।”
तब उसने हॅंसते हुए पूछा था, “नाइन्थ पेपर तैयार किया कि नहीं?” उसने आश्चर्य से पूछा था, “नाइन्थ पेपर! यह कैसा पत्र है?” उसने मुस्कुराते हुए कहा था, “इसे एक्स्ट्रा पेपर कहते हैं। यह यूनिवर्सिटी है। यहाॅं इस पेपर का महत्व सर्वाधिक है। बिना इस पेपर की तैयारी के टॉप कर पाना मुश्किल है।”
एम.ए. का परीक्षाफल घोषित होने पर वह नाइन्थ पेपर का राज जान पाया था। अजय टॉप कर गया था। उसका स्थान दूसरा था। कुछ मित्रों ने उसे चैलेंज करने के लिए उकसाया था, परंतु मित्रता की खातिर उसने मना कर दिया था। टॉप करने के कारण अजय को एक कॉलेज में प्राध्यापक के रूप में उससे पहले नौकरी मिल गयी थी। अपने उन्हीं विशिष्ट गुणों के कारण उसने तुरंत पी-एच.डी.भी कर ली। झटाझट सीढ़ियाॅं फाॅंदते हुए वह विश्वविद्यालय में पहुॅंच गया और प्रोफेसर भी बन गया। तब-तक वह अपने कॉलेज में नियमित पदोन्नति पाते हुए एसोसिएट प्रोफेसर ही बन पाया था।
एकदिन उसे अजय का फोन आया, “मेरे निर्देशन में पी-एच.डी. के लिए एक शोध-प्रबंध प्रस्तुत किया गया है। परीक्षक के रूप में मैंने तुम्हारा नाम दे दिया है। तुम्हारे पास विश्वविद्यालय से इस बाबत पत्र आएगा। तुम अविलंब अपनी स्वीकृति दे देना। शोध-प्रबंध मिलने पर जितनी जल्दी हो सके, अपनी रिपोर्ट भेज देना।”
उसने अजय को अपनी सहमति दे दी थी। बाद में विश्वविद्यालय से आये पत्र के उत्तर में अपनी स्वीकृति भी दे दी थी। शोध-प्रबंध आने पर मित्र के आग्रह का मान रखने के लिए अपना जरूरी काम छोड़कर पहले सारी थीसिस पढ़ डाली, परंतु वह यह देखकर हैरान रह गया कि थीसिस का शीर्षक से कोई मेल नहीं था। ऐसा लगता था कि थीसिस मिलते-जुलते किसी और विषय पर कभी किसी के लिए लिखी गयी होगी और बाद में शोधार्थी का पंजीकृत शीर्षक लगाकर उसे प्रस्तुत कर दिया गया होगा। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। उसने फोन पर अजय को सारी बातें बतायीं। पहले तो वह इस बात पर अड़ा रहा कि ऐसा नहीं हो सकता है। उस थीसिस पर उसने अपना प्रमाण-पत्र दिया है। विभागाध्यक्ष ने उसे फारवर्ड किया है। उसपर बाकायदा सेमिनार हुआ था, वीडियोग्राफी भी हुई थी। सारे रेकार्ड्स हैं। वह गलत हो ही नहीं सकती है। जब उसने पूछा कि क्या तुमने थीसिस को पूरा पढ़ा था, तो वह थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला, “पढ़ना क्या था, शोधार्थी ने काफी परिश्रम से उसे लिखा है।”
वह बोला, “तुम पहले एकबार थीसिस को पूरा पढ़ लो, फिर बताना कि क्या मैं गलत बोल रहा हूॅं।”
अजय ने कहा, “इस थीसिस की एक प्रति अमुक विश्वविद्यालय के हिंदी-विभागाध्यक्ष प्रोफेसर सुरेन्द्रनाथ के पास गयी थी। तुम्हें तो पता ही होगा कि वे कितनी बड़ी हस्ती हैं। उनकी रिपोर्ट आ गयी है। क्या उन्होंने बिना पढ़े रिपोर्ट दी होगी?”
प्रोफेसर सुरेन्द्रनाथ के बारे में उसने सुन रखा था।
रुपया और औरत उनकी बहुत बड़ी कमजोरी है। इनके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। सही को गलत और गलत को सही करना उनके बाऍं हाथ का खेल है। उसने कहा, “मैं उनकी तरह नहीं हूॅं। मैं थीसिस लौटा देता हूॅं। या तो थीसिस के अनुरूप शीर्षक दिलवाओ या शोधार्थी को शीर्षक के अनुरूप शोध-प्रबंध प्रस्तुत करने को कहो।”
“भाई देखो, अभी इतना समय नहीं है। तीन-चार माह के बाद हमारे विश्वविद्यालय से प्राध्यापकों की वैकेंसी आनेवाली है। जिन्होंने नेट या सेट नहीं किया है, उनके लिए बस इसी बार तक पी-एच.डी. के आधार पर आवेदन करने की छूट दी जाएगी। तुम रिपोर्ट में सिर्फ इतना लिख दो कि शोधार्थी को बिना लिखित परीक्षा के सिर्फ मौखिकी के आधार पर पी-एच.डी. हेतु उपाधि दी जा सकती है। बाकी मैं देख लूॅंगा। शोधार्थी का कल्याण हो जाएगा। वह तुम्हारा कोटि-कोटि आभार मानेगा।”
उसने कहा, “तुम्हें पता नहीं कि यू.जी.सी. ने शीघ्र एक जाॅंच आयोग बनाकर समस्त विश्वविद्यालयों के गत दस वर्षों के शोध-प्रबंधों का पुनर्परीक्षण करवाने का मन बना लिया है? अगर ऐसा हुआ तो उस शोधार्थी की डिग्री तो रद्द होगी ही, तुमलोग भी फॅंसोगे और मेरी प्रतिष्ठा तो जाएगी ही। शायद नौकरी भी चली जाएगी।”
“कुछ नहीं होनेवाला है,” अजय ने कहा, “यह मैं भी कई वर्षों से सुन रहा हूॅं। सब आई वॉश है। इस हम्माम में
यू.जी.सी.के अनेक अधिकारी भी नंगे हैं।”
“लेकिन मैं नंगा होना नहीं चाहता। मैं थीसिस वापस कर दूॅंगा।”
“ठहरो-ठहरो, एकबार डिग्री मिल जाने के बाद यह थीसिस विश्वविद्यालय में कहीं दिखाई नहीं देगी। अगर जाॅंच कमिटी आयेगी भी , तो उनके सामने शीर्षक के अनुरूप नयी थीसिस लिखवाकर प्रस्तुत कर दिया जाएगा। तुम चिंता बिलकुल नहीं करो। किसी पर कोई ऑंच नहीं आएगी। मैंने अनेक थीसिसों का परीक्षण किया है। अनेक विश्वविद्यालयों में एक्सट्रनल बनकर जाता हूॅं। सब जगह कमोबेश यही हाल है। बकलोल-से-बकलोल शोधार्थियों को डिग्री मिल जाती है। तुम ठंडे दिमाग से कम-से-कम एक सप्ताह सोचो, फिर कोई निर्णय लेना,” यह कहकर उसने फोन काट दिया।
एक सप्ताह का अर्थ उसे दो दिनों बाद तब समझ में आया, जब शोधार्थी खुद उसके घर में अजय का पत्र और एक लिफाफा लेकर आया। पत्र पढ़कर उसने शोधार्थी से पूछा, “लिफाफे में क्या है?”
उसने सकुचाते हुए कहा, “सर, इसमें बीस हजार रुपए हैं।”
“यह किसलिए?”
“सुरेन्द्रनाथ सर को दिया था इसीलिए अजय सर ने आपको भी देने को कहा है।”
उसकी इच्छा हुई कि उसे एक तमाचा जड़े और धक्के मारकर घर से निकाल दे। परंतु अपने गुस्से को काबू में रखकर उसने पूछा, “शोध-प्रबंध आपने स्वयं लिखा है?”
“नहीं, अजय सर ने लिखा है।”
“टंकित भी उसने करवाया होगा?”
“जी।”
“कितने पैसे दिए?”
“एक लाख।”
“आप क्या करते हैं?”
“एक स्कूल में पढ़ाता हूॅं।”
“शिक्षक होकर आप इस तरह का गलत काम करेंगे, तो विद्यार्थियों को क्या शिक्षा देंगे?”
वह चुप रहा। महत्वाकांक्षा से पीड़ित उस शोधार्थी पर उसे दया आने लगी। वह समझ गया कि अजय ने उसे बेवकूफ बनाया है। अगर शोधार्थी ने शोध-प्रबंध स्वयं लिखा होता, तो हो सकता है वह स्तरीय नहीं होता, परंतु इस तरह फर्जी तो नहीं होता। अजय ने उससे पैसे तो पूरे ले लिये होंगे, पर मिलते-जुलते विषय वाले किसी पुराने शोध-प्रबंध को टंकित करवाकर उसके पंजीकृत शीर्षक के साथ उसे प्रस्तुत करवा दिया होगा। उसने शोधार्थी से कहा, “पैसे आप ले जाइए। अजय सर को दे दीजिएगा एवं कह दीजिएगा कि दो-तीन दिनों में मैं रिपोर्ट भेज दूॅंगा।”
तीन दिनों के बाद उसने रिपोर्ट एवं थीसिस विश्वविद्यालय के परीक्षा-नियंत्रक के पास रजिस्टर्ड डाक द्वारा भेज दी। लगभग दस दिनों के बाद अजय का फोन आया। वह बहुत गुस्से में था। उसने कहा, “अगर तुम्हें रिपोर्ट निगेटिव ही देनी थी तो सीधे-सीधे नकार देते।
यह लिखने की क्या जरूरत थी कि शोध विषय के अनुरूप नहीं है। शोधार्थी या तो शीर्षक के अनुरूप शोध-प्रबंध प्रस्तुत करे या शोध-प्रबंध के अनुरूप शीर्षक में सुधार करे।”
उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। रिपोर्ट गोपनीय थी। “तुम्हें कैसे पता चला?” उसने पूछा।
अजय ने कहा, “परीक्षा-नियंत्रक मेरा मित्र है। उसने कहा है कि अभी भी समय है। अनुकूल रिपोर्ट आ जाने पर वे पुरानी रिपोर्ट के स्थान पर उसे लगा देंगे।”
उसने कहा, “मित्र मुझे क्षमा करो। मुझसे यह पाप न करवाओ।”
अजय ने बमककर कहा, “तुम मुझे मित्र कह रहे हो, लेकिन यह नहीं जानते कि मित्रता सिर्फ की नहीं जाती, निभायी भी जाती है।” फिर आवाज को थोड़ा धीमा करते हुए कहा, “आज सत्य हरिश्चन्द्र का युग नहीं है। मेरी मानो, थोड़ा एडजस्ट करके चलो। बहुत फायदे में रहोगे।”
“क्षमा करना, मुझे गलत रास्ते पर चलकर फायदा नहीं लेना है।”
“भाड़ में जाओ। आज से हमारी मित्रता खत्म,” कहकर उसने फोन काट दिया।
करीब दो माह के बाद उसके ह्वाट्सएप पर एक समाचार पत्र की कतरन की एक तस्वीर आयी। उसमें उस शोधार्थी के फोटो के साथ यह सूचना छपी थी कि उस शोधार्थी को उसी विश्वविद्यालय से उसी विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि मिली है। ह्वाट्सएप नंबर अजय का नहीं था। निश्चित रूप से अजय ने शोधार्थी को कहकर उस तक यह सूचना पहुॅंचायी है कि इस दुनिया में बिकने वाले बहुत हैं। तू नहीं और सही।
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*डा. पंकज साहा
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी-विभाग,
खड़गपुर कॉलेज, खड़गपुर -721305
(पश्चिम बंगाल)
मोबाइल संख्या: 9434894190
पंकज साहा की कहानी : * तू नहीं और सही *
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