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Lahak Digital > Blog > Literature > लवलेश दत्त की लघुकथाएँ
Literature

लवलेश दत्त की लघुकथाएँ

admin
Last updated: 2023/07/19 at 3:35 PM
admin
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18 Min Read
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1. मंदिर की घंटियाँ

रात के लगभग साढ़े नौ बज रहे थे। रोशनी कम थी ऊपर से कोहरा भी था। उस सड़क पर लोगों का आना-जाना बहुत कम होता था। एक तरह से सन्नाटा ही पसरा रहता था। वह नशे में धुत्त उस सड़क पर बढ़ रहा था कि सामने एक लड़की बेसब्री से किसी का इंतजार करती हुई दिखाई दी। उसके मन में उठा, “वाह आज तो मज़ा आ गया… शराब अन्दर है और शबाब बाहर…” सोचते हुए वह आगे बढ़ने लगा। कोहरे के कारण स्पष्ट देख पाना मुश्किल हो रहा था लेकिन जैसे-तैसे वह उस लड़की के पास तक पहुँचा ही था कि लड़की बोल पड़ी, “क्या पापा…आज फिर पी आए…याद नहीं आज मेरे साथ मंदिर जाना था…आपका जन्मदिन है…” उसके कानों में यह शब्द पड़ते ही उसका सारा नशा उतर गया। उसने तुरन्त उस लड़की की ओर देखा। नज़रें मिलते ही वह लड़की माफी माँगते हुए बोली, “ओह…सॉरी अंकल…मुझे लगा मेरे पापा हैं…आई एम सॉरी…” “कोई बात नहीं बेटी…” कहकर अपने आपको कोसते हुए वह वापस लौटने लगा। सड़क के सन्नाटे में अब उसे मंदिर की घंटियाँ सुनाई पड़ रही थीं।

Contents
1. मंदिर की घंटियाँ2. स्टेटस3. दीवारें4. मिट्टी तो मिट्टी है5. रंगे हुए6. सीढ़ियाँ

2. स्टेटस

कभी वह घर की बालकनी से बाहर मैदान देखता तो कभी पार्क में लगे झूलों को देखता और उसकी आँखें नम हो जातीं। उसे लगता कि वह पार्क के झूलों पर अपने दोस्तों के साथ खूब उछल-कूद कर रहा है। मैदान में खूब दूर तक दौड़ रहा है और सारे दोस्त उसका पीछा कर रहे हैं। आज उसे यह सब बार बार याद आ रहा था। उदास मन से वह अपने कमरे में वाली पन्द्रह तारीख पर नज़र पड़ते ही वह सिहर उठा। घबराहट से उसका गला सूखने लगा। उसका शरीर ठंडा पड़ने लगा। उसे कमजोरी सी महसूस होने लगी। वह अपने बिस्तर पर लेट गया। उसने मन ही मन भगवान को याद किया और आँखें बन्द करके हाथ जोड़कर मन ही मन कुछ कहने लगा, ‘हे भगवान, मैं प्रामिस करता हूँ कि खूब पढ़ूँगा, बाहर खेलने भी नहीं जाऊँगा, जो मम्मी पापा कहेंगे मानूँगा। बस पापा मुझे हास्टल न भेजें। मम्मी से तो मैं कह दूँगा लेकिन पापा… हे भगवान, मुझे पापा से कहने की हिम्मत देना।’ ऐसा सोचते-सोचते वह सो गया।
बारह साल के बंटी की आठवीं का परीक्षाफल बहुत संतोषजनक नहीं रहा था हालाँकि उसने बहुत मेहनत की लेकिन फिर भी वह बहुत कम अंकों से पास हुआ था जिससे उसके पापा सुनील मिश्रा नाराज थे और उसे हास्टल भेजने की तैयारी कर रहे थे। उन्होंने नैनीताल के किसी हास्टल में उसके एडमिशन की बात कर ली थी। लगभग सारी तैयारियाँ हो चुकीं थीं और आनेवाली पन्द्रह तारीख को उसे लेकर नैनीताल जाने वाले थे। बंटी को जब से यह बात पता चली है उसका खाना-पीना, खेलना-कूदना, टीवी देखना आदि सब बंद हो गया वह मन ही मन अत्यन्त दुखी था क्योंकि वह हास्टल जाना नहीं चाहता था। उसने कई बार पापा से कहने की कोशिश की लेकिन उनके डर की वजह से वह कुछ नहीं बोल पा रहा था। उसके हॉस्टल जाने की बात को लेकर मम्मी पापा में बहुत बहस भी हो चुकी थी। मम्मी ने तो समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन पापा मान ही नहीं रहे थे। पता नहीं क्यों पापा को लगता था कि उसे हॉस्टल में पढ़ाने से सोसायटी में उनका स्टेटस ऊँचा हो जाएगा।
पापा की आवाज़ से उसकी नींद खुली। अपने कमरे के दरवाजे से उसने देखा कि पापा कुछ सामान लाए हैं और मम्मी से उस सामान को बंटी के लिए पैक करने को कह रहे हैं। वह दौड़कर पापा से लिपट गया और फूट-फूट कर रोने लगा। पापा ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए रोने का कारण पूछा। बंटी ने बड़ी हिम्मत करके रोते-रोते हास्टल न जाने की बात कह दी और कई-कई बार प्रामिस भी कर लिया कि वह यहीं रहकर खूब पढ़ेगा, उनकी सारी बातें मानेगा, बस उसे हास्टल न भेजें। पापा ने कोई उत्तर नहीं दिया। मम्मी ने उसे प्यार से समझाने की कोशिश की लेकिन वह फिर अपने कमरे में चला गया।
पापा-मम्मी बैठे हुए शाम की चाय पी रहे थे कि डोरवेल बजी। दरवाजा खोलकर देखा कि उनकी ही बिल्डिंग में रहने वाले शर्मा जी घबराते हुए बोले, “मिश्रा जी, गजब हो गया। अभी-अभी सोनू के हास्टल से खबर आई है कि खेलते हुए वह गिर गया और उसे गंभीर चोटें आई हैं। मुझे हास्टल बुलाया है। आप फ्लैट की चाबियाँ रख लीजिए मैं तुरन्त निकल रहा हूँ। पता नहीं मेरा सोनू किस हाल में होगा? मैं उसे अपने साथ ले आऊँगा…नहीं रखूँगा अब हास्टल में…” कहते हुए शर्मा जी ने चाबियाँ उन्हें थमाईं और वापस मुड़ गए। सुनील और उनकी पत्नी दोनों हतप्रभ रह गए और एकदूसरे का मुँह ताकने लगे। उन्हें लगा कि यह घटना शर्मा जी के साथ नहीं बल्कि उनके साथ घटी है। दोनों बंटी के कमरे में आए। बंटी अपने बिस्तर पर सिकुड़ा हुआ पड़ा था और सोते हुए भी सुबक रहा था। मम्मी ने उसे गले लगा लिया। बंटी की आँख खुल गई। पापा मम्मी को सामने देख एक पल के लिए वह घबरा गया। पापा ने मुस्कुराते हुए उसके सिर पर हाथ फेरा और कहा “बंटी अब तो तू नाइंथ क्यास में आ गया और अभी भी छोटे बच्चों की तरह रोता है। अच्छा यह बता कि कल से स्कूल कैसे जाएगा बस से या अपनी नयी साइकिल से?” बंटी ने आश्चर्य और प्रसन्नता साथ पापा की ओर देखा। पापा की आँखों में नमी दिखाई दे रही थी।

3. दीवारें

“खाना लेकर टाइम पर आ जाना। कल की तरह कहीं स्कूल की दीवारें मत निहारते रहना। दूकान पर बहुत काम होता है” कहकर रामचरन ने साइकिल निकाली और पैडल मारते हुए आगे बढ़ गया।
राजू का मन दूकान पर जाने का नहीं करता था वह तो चाहता था कि खूब पढ़ाई करे और पढ़लिखकर बड़ा आदमी बने। उसके सारे दोस्त किसी न किसी स्कूल में पढ़ते थे। घर से दूकान के रास्ते में छोटा-सा एक स्कूल है। उसे वहाँ की रंगीन दीवारें बहुत अच्छी लगती हैं। किसी पर गोल मटोल लाल-लाल टमाटर बना है तो किसी पर लौकी। किसी पर खरगोश बना है तो किसी पर भालू। उसे यह देखना मजेदार लगता है कि टमाटर, लौकी, खरगोश और भालू यह सब इन्सानों की तरह स्कूल की ड्रेस पहने हुए और बस्ता लिए हुए स्कूल जा रहे हैं। वह दूकान जाते हुए रोज वहाँ की दीवारें देखता है। एक दिन तो स्कूल की मास्टरनी ने उसे अन्दर बुलाया था लेकिन वह डर के मारे भाग गया।
आज भी राजू स्कूल की दीवारें देखता हुआ दूकान पहुँचा। पिताजी ने तीन चार रंगबिरंगी साइकिलों के पहिए खोल रखे थे। उसे देखते ही बोले, “चल फटाफट पंक्चर चेक कर।” राजू ने खाने का टिफिन अन्दर रखा और पंक्चर जोड़ने में लग गया। उसने देखा कि उसकी ही उम्र के बच्चे स्कूल की ड्रेस पहने हुए हैं। उनकी पीठ पर रंगीन बस्ते टँगे हुए हैं। उन सबके पास रंगबिरंगी पानी की बोतले हैं। वे कुछ जोड़ रहे हैं लेकिन हर बार गलती कर देते हैं। उन्हें देखते हुए पंक्चर जोड़ने में निपुण राजू के हाथ धीमे हो गए और उसने मुँह जबानी ही उनके जोड़ का सही-सही उत्तर दे दिया। यह देखकर बच्चे बहुत खुश हुए लेकिन पिताजी ने एक चपत लगाकर हाथ जल्दी चलाने को कहा।
शाम को पिता के साथ वह लौटते हुए वह बोला, “बाबू, मुझे भी पढ़ने भेजो ना…मैं भी पढ़ूँगा…मुझे उस रंगीन दीवारों वाले स्कूल में भेज दो…वहाँ ज्यादा पैसे नहीं लगेंगे।” “ठीक है, भेज दूँगा…कुछ दिन रुक जा…” रामचरन लापरवाही से उत्तर देकर बीड़ी फूँकता हुआ आगे बढ़ता रहता।
अगले दिन सुबह सुबह घर में शोर मचने पर उसकी आँख खुली तो उसने देखा कि ऊँची दूकान वाले गुप्ता जी रामचरन को बुरी तरह फटकार रहे हैं। रामचरन उनसे विनती कर रहा है कि उसने अब तक तीन हजार रूपये ही उधार लिए पाँच नहीं। और वह तीन हजार वह थोड़े-थोड़े करके लौटा दिए हैं। गुप्ता जी अपनी डायरी उसे दिखाते हुए बोले, “अगर यकीन नहीं है तो ले खुद ही हिसाब जोड़ ले।” लेकिन रामचरन को पढ़ना आता ही नहीं है जो वो समझता, तभी उसे ध्यान आया कि राजू को जोड़ना आता है, रामचरन ने तुरन्त राजू को आवाज़ दी और गुप्ता जी से डायरी राजू को दिखाने को कहा। गुप्ता जी ने उपेक्षा की दृष्टि से उसे देखते हुए डायरी उसके आगे रख दी। राजू ने बहुत ध्यान से देखा और अँगुलियों पर कुछ जोड़ते हुए बता दिया कि कुल तीन हजार रूपये ही लिए हैं जो उसने लौटा दिये। गुप्ता जी का चेहरा मलिन हो उठा। उनकी चाल कामयाब नहीं हुई और वे पैर पटकते हुए वापस चले गये। बेटे की काबिलियत पर रामचरन की आँखें भर आईं। उसने राजू को सीने से लगा लिया और कहा “चल स्कूल वाली मास्टरनी से बात करने चलते हैं। स्कूल खुल गया होगा।”

4. मिट्टी तो मिट्टी है

“काउंटर पर बिल पे करके जितनी जल्दी हो सके डेडबॉडी ले जाइए” यह वाक्य उसके कानों के रास्ते से दिमाग पर हथौड़ों की तरह प्रहार कर रहा था। घबराहट के कारण उसके शरीर में कंपन हो रहा था। गला सूख रहा था होंठों पर पपड़ी जैसा कड़ापन आ रहा था। ‘बिल पे कहाँ से करूँ? जो कुछ था वह तो इलाज में लगा दिया…अब डेडबॉडी लेने के लिए…’ सोच-सोचकर उसका दिमाग खराब हो रहा था, ‘एक तो अपने शहर से इतनी दूर हूँ। वह भी इतने बड़े और अनजान शहर में। कहाँ से लाऊँगा पैसे?’ उसने नजर उठाकर चारों तरफ देखा। साफ-सुथरे कपडों में नर्सें, कंपाउंडर यहाँ-वहाँ चहलकदमी कर रहे हैं। साफ सुथरी दीवारों पर सुन्दर-सुन्दर कलात्मक बल्ब रोशनी बिखेर रहे हैं। हर ओर से उसकी नजरों घूमती हुई, अस्पताल की लॉबी में बैठे लोगों पर पड़ीं। अधिकांश मरीजों के साथ आए रिश्तेदार थे। लगभग सबकी निगाहें बड़ी सी टीवी की ओर लगीं थीं। उसने एक-एक कर सबके चेहरों पर नजर डाली, सबके चेहरे भावशून्य थे। उसे लगा कि इस दुनिया में किसी को किसी से मतलब नहीं है। सब अपनी ही दुनिया में मस्त हैं। वह खुद को बहुत असहाय और अकेला महसूस करने लगा। ज्यादा सोचने के कारण उसके दिमाग में थकावट महसूस हो रही थी। वह लाबी में ही एक स्टील की बैंच पर बैठ गया। उसने देखा कि अस्पताल में अब ऐसी बैंचें पड़ने लगी हैं जिनपर कोई लेट नहीं सकता और बैठे-बैठे कूल्हे दर्द करने लगेंगे। उसने अपने बचपन की याद आई जब अस्पतालों में गद्देदार बैंचें हुआ करती थीं। ताकि मरीज आराम से बैठ सकें, हालात ज्यादा खराब होने पर लेट भी सकें। उसने आँखें मूँद लीँ, ‘बिल पे करके डेडबॉडी ले जाइए’ जैसे किसी ने फिर उसके दिमाग में हथौड़ा मार दिया। वह सकपका कर उठ गया। सामने लगे टीवी पर चैनल बदल चुका था। एक महात्मा प्रवचन कर रहे थे, “सबकुछ जीते जी की माया है। आँख बन्द हुई तो सब खत्म, सब मिट्टी। सारे रिश्ते-नाते जीवन के साथ हैं। मृत्यु होते ही सब नाते-रिश्ते खत्म। सारे रिश्ते शरीर में प्राण रहने तक हैं। जहाँ शरीर से प्राण निकले और शरीर मिट्टी हुआ, रिश्तेनाते भी खत्म हो जाते हैं। मिट्टी हुए शरीर से किसी का कोई नाता नहीं। कोई पिता, पति, पुत्र, माँ कुछ नहीं केवल मिट्टी। और मिट्टी का क्या कहीं फेंक दो, जला दो, पानी में बहा दो, मिट्टी तो मिट्टी है उसे कुछ पता नहीं चलता कि उसके साथ क्या हो रहा है? कौन है कौन नहीं? फिर तो उसे जल्दी से जल्दी मिट्टी में मिलाने की चिन्ता इस दुनिया को रहती है।” महात्मा की बातें सुनकर उसके चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान आ गयी उसने सोचा, ‘अब वह मेरा बाप कहाँ रहा? मिट्टी हो गया।’ वह एकदम उठा और अस्पताल के बाहर निकल गया। अब उसके दिमाग में महात्मा जी का प्रवचन चल रहा था, ‘मिट्टी तो मिट्टी है…मिट्टी को क्या पता कि उसके साथ कौन है? कौन नहीं?’ इसी बीच उसके मोबाइल की घंटी बजी। उसने देखा अस्पताल से फोन था। उसने मोबाइल स्विच ऑफ किया और तेजी से रेलवे स्टेशन की ओर बढ़ गया।

5. रंगे हुए

‘इस बार कोई रंग नहीं केवल सफेदी। पूरे घर में हर ओर केवल सफेद पेंट। सफेद पेंट के बहुत फायदे हैं, एक तो हर समय चमक बनी रहती है। मच्छर-मक्खी नहीं होते, हल्की-सी भी रोशनी पर्याप्त होती है और अलग-अलग रंग के पर्दे, सोफे के कवर और चादरों से मैचिंग का भी झंझट भी नहीं। सबसे बड़ी बात सफेद रंग शांति का प्रतीक है…’, यही सब सोचते हुए वह पेंट की दुकान तक पहुंच गया और अपनी इच्छा दुकानदार को जताई। दुकानदार ने मुस्कुराती हुई दृष्टि से उसे देखा, पान की पीक थूकी और बोला, “भाई साहब! अब सफेद रंग का जमाना गया। अब तो हरा, नारंगी और नीला रंग चल रहा है। केसरिया रंग की तो डिमांड सबसे ज्यादा है। अब गुलाबी, धानी या पीले रंग को कोई नहीं पूछता और आप सफेद रंग की बात कर रहे हैं। वह देखिए सामने वाली बिल्डिंग में किसी भी फ्लैट का रंग सफेद नहीं है,” दुकानदार ने बिल्डिंग की ओर इशारा किया। उसने मुड़कर देखा तो बिल्डिंग के सारे फ्लैट अलग-अलग रंगों के नज़र आए। यहाँ तक कि आसपास के सभी लोग अलग-अलग रंगों से रंगे हुए दिखाई दे रहे थे। उसने अपनी आंखों पर चढ़े चश्मे को अच्छी तरह साफ किया और फिर से देखा तो आसपास के पेड़ भी हरे न होकर अलग-अलग रंगों में रंगे नज़र आने लगे। आश्चर्य से आँखे फाड़े वह दुकानदार की ओर मुड़ा और उसे देखकर चौंक गया। दुकानदार कई रंगों से रंगा था लेकिन सफेद रंग नदारद था।

6. सीढ़ियाँ

“पापा! दादा जी वापस नहीं चलेंगे क्या?”

“नहीं…यह उनका हॉस्टल है, वह अब यहीं रहेंगे।” उसने वद्धाश्रम की सीढ़ियाँ उतरते हुए बहुत गंभीरता से अपने आठ वर्षीय बेटे को उत्तर दिया।

“पर पापा, इस हॉस्टल में क्यों? क्या वह अब भी पढ़ाई करेंगे?” बेटे ने फिर पूछा।

“उनकी एज के लोग ऐसे ही हॉस्टल में रहते हैं” उसने कहा।

“अरे पापा…यदि दादा जी को पढ़ाई ही करनी है तो अपने घर के पास वाले स्कूल में उनका नाम लिखवा दीजिए ना। जब आप मुझे छोड़ने जाएँ तो उन्हें भी स्कूल छोड़ दीजिएगा।” कुछ रुककर उसने फिर पूछा, “हॉस्टल में उनकी देखभाल कौन करेगा? और फिर मेरा होमवर्क पूरा कौन कराएगा? और हाँ पापा…जब आप और मम्मी कहीं बाहर जाएँगे तो मेरा और दीदी का ध्यान कौन रखेगा? हमें स्कूल से कौन लाएगा?”

“देखा जाएगा…” सीढ़ियाँ उतरते हुए उसने कहा ही था कि अचानक उसका संतुलन बिगड़ा और वह मुँह के बल गिरते-गिरते बचा। इससे पहले कि वह सँभल पाता खिड़की से देखते हुए उसके पिता जोर से चिल्लाए, “सँभलकर बेटा, कहीं गिर न जाना।”

पिता की आवाज़ सुनकर उसके कदम ठिठक गए। अगले ही पल वह तेजी से आश्रम की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।

———–

डॉ. लवलेश दत्त, बरेली, उत्तरप्रदेश

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