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Lahak Digital > Blog > Literature > सुरेंद्र स्निग्ध की कविताएं
Literature

सुरेंद्र स्निग्ध की कविताएं

admin
Last updated: 2023/07/13 at 11:14 AM
admin
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8 Min Read
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अगस्त के बादल

ऊँची
विशाल
हरी-भरी पहाड़ियों के
चौड़े कंधे पर
शरारती बच्चों की तरह
लदे हुए हैं
अगस्त के बादल

Contents
अगस्त के बादलकर ले मौत-प्रतीक्षा जहाँ कोई दोस्त नहीं होकोसी क्षेत्र की एक लोक-गाथा सुनकरकोसी क्षेत्र के एक लोक गीत को सुनकरकवि परिचय

दूध से भरे
भारी थन से
या चाँदनी से लबालब कटोरे से
छलक-छलक रहे हैं
अगस्त के बादल

मेरे मन मस्तिष्क में
तुम्हारी याद की तरह सघन
और बरस जाने को आकुल
आतुर
घिर रहे हैं
मन मिजाज पर
अगस्त के बादल।

कर ले मौत-प्रतीक्षा

क्यों पैदा कर दी तुमने
एक बार पुनः जीने की इच्छा
मेरे जीवन की विशाल बंजर
जमीन पर
तुम उग आई हो
बनकर खूबसूरत फूल

तुम्हारे प्यार के विशाल
घने वृक्ष के नीचे
अपने उत्तप्त जीवन में
मैंने पा लिया है शीतल छाँह
बैठूँगा कुछ देर
इसी घनी शीतल छाँह के नीचे
कहूँगा अपनी मौत से भी
कर ले कुछ देर प्रतीक्षा
अपनी प्रेमिका की बाँहों से हटने की
अभी एकदम नहीं है इच्छा।
इनकी नन्हीं सांसों से
अलग करने को अपनी सांसों को
अभी नहीं है इच्छा!

 जहाँ कोई दोस्त नहीं हो

क्या रहना ऐसी जगह
जहाँ कोई दोस्त नहीं हो
नहीं हो कोई हालचाल पूछने वाला

ऐसी जगह क्या रहना
जहाँ दुख की घड़ियों में
कोई प्यार से सर न सहला दे
बीमारी की हालत में
गर्म कलाई अपने हाथ में न ले ले
खुशियों के क्षणों में
अपनों की आंखें
नन्हें पंछियों की तरह
पर न फैलाने लगें

क्या रहना ऐसी जगह
जहाँ कोई मित्र यह नहीं पूछे
आपके किचन में आज क्या बन रहा है?
दूध नहीं है?
कोई बात नहीं
भाभी को कहिये
नींबू की चाय ही पिलायें

ऐसी जगह क्या रहना
जहाँ के लोग कुछ भी मतलब नहीं रखते
कि अन्याय के खिलाफ
लड़ने वाली जुझारू जनता
कहाँ मर-कट रही है
कहाँ कर रही है विकसित
अपना संघर्ष

क्या रहना ऐसी जगह।

कोसी क्षेत्र की एक लोक-गाथा सुनकर

चरवाहा

पिछले चालीस हजार वर्षों से
अपनी गायों को लेकर
कहाँ-कहाँ नहीं गया मैं
किन-किन जंगलों
पहाड़ियों, दर्राओं
नदियों और झरनों के समीप
नहीं पहुँचा हूँ मैं

इन गायों के भारी थनों से
फूटते हैं दूध के झरने
खिलती है एक नैसर्गिक
दूधिया रोशनी
नहा जाती है सम्पूर्ण धरित्री

जब-जब बछड़े
हुमक कर पीते हैं दूध
वत्सला बन जाती है पृथ्वी
रचने लगती है नये-नये छन्द
छितरा जाता है
सम्पूर्ण ब्रह्मांड में
ममत्व का अलौकिक रूप

जब भी रंभाती है
ये गायें
दहल जाती है पूरी प्रकृति
दुलारती हैं नवजात बछड़े को
धरती के सातों समुद्र
मचल-मचल उठते हैं

आज इस हरे-भरे जंगल में
विपदा में पड़ी हैं गायें
मौत खड़ी है सामने
धरकर भूखी बाघिन का रूप

चौकन्नी हैं गायें
प्यार के सुरक्षित घेरों में
समेट रही हैं एक साथ
रंभा रही हैं एक साथ
पुकार रही हैं मुझे
पुकार रही हैं
सदियों साथ चले
चरवाहे को

जिस तरह
नदियों से मिलने के लिए
ऊफनती हैं बरसाती जल-धाराएँ
हवाओं में घुल जाने के लिए
जैसे पसरती है खशबू
जीवन के सम्पूर्ण आवेग के साथ
मैं दौड़ता हूँ गायों के बीच

आज मैं दूँगा सत की परीक्षा
लौटेगी नहीं एक भूखी माँ बाघिन
मैं स्वयं बनूँगा
उसका आहार
और एक क्षण को
रुक जायेगी पृथ्वी की गति
सूरज और चाँद और सितारे
क्षण भर के लिए हो जायेंगे निस्तेज
ब्रह्मांड की संपूर्ण गतियों के साथ
रुक जाएगी
मेरे हृदय की गति
मरूँगा
वीर वीसु राउत की तरह

गायों के थनों से
स्वतः प्रस्फुटित दुग्ध-धार
और आँखों से ढलके आँसुओं के साथ
कोसी नदी की उफनती जल-धारा के संग
बह जाएगा
बचा-खुचा, क्षत-विक्षत मेरा शव

पृथ्वी पुनः हो जायेगी गतिशील
दिक्-दिगंत तक फैल जायेंगी हरियालियाँ
कभी सूखेंगे नहीं आँसू, रुकेगा नहीं दूध
ममता और करुणा की बेली लहराती रहेगी
लहराता रहूँगा युगों तक ध्वज की तरह
मैं-विसु राउत।

कोसी क्षेत्र के एक लोक गीत को सुनकर

ब्रह्माण्ड की रचना

कई हजार वर्षों के बाद
माँ को आई है हल्की सी नींद

शांत रहिए
चुप रहिए
बनाए रखिए निस्तब्धता

निस्तब्धता को करिए
और भी निस्तब्ध

एक तिनका भी अगर खिसका
एक हरी घास ने भी अगर ली
हल्की सी साँस
टूट जाएगी माँ की नींद
स्फटिक से भी अधिक पारदर्शी
और आबदार माँ की नींद

सूरज को कहिए
कुछ दिनों के लिए त्याग दें ऊष्मा
कहिए पृथ्वी को
स्थगित रखें कुछ दिन
धूरी पर घूमना
जितनी नई कलियाँ हैं वृंत पर
हल्के से तोड़ लीजिए
चटकेंगी तो चटक जाएगी
माँ की नींद
ओस की बूँदों को कहिए
पत्तों पर गिरने के पल
न करें कोई आवाज

चर-अचर शांत रहिए

हजारों वर्षों के बाद
माँ की पलकों में
उतरी नींद को
कृपया तोड़िए नहीं

ब्रह्माण्ड को रचते-गढ़ते
थक गयी है माँ
थोड़ा विश्राम दीजिए।

———-

कवि परिचय

नाम- सुरेंद्र स्निग्ध
राज्य- बिहार
जन्म- 5 जून 1952 ई० में पूर्णिया जिले के सुदूर एक ठेठ देहात ‘सिंघियान’ में। शिक्षा पटना विश्वविद्यालय से। पटना विश्वविद्यालय में अध्यापन। 2015 में हिंदी विभाग, पटना विश्वविद्यलय के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त। प्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मी एवं लेखक संगठनकर्ता के रूप में भी पहचान। नव जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा, बिहार तथा जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्यों में एक। कई विवादास्पद मुद्दों पर अपनी स्पष्ट मान्यताओं के साथ आम पाठकों के बीच निरंतर उपस्थिति।
मूलतः कवि। उपन्यास और कई आलोचनात्मक गद्य रचनाएँ प्रकाशित तथा बहुचर्चित। ‘गांव-घर’ ‘भारती’ ‘नई संस्कृति’, ‘प्रगतिशील समाज’(कहानी विशेषांक) ‘उन्नयन’ के बहुचर्चित बिहार कवितांक का संपादन।

निधन- 18 दिसंबर 2017
पुरस्कार- ‘बनारसी प्रसाद भोजपुरी’ सम्मान, ‘बिहार राष्ट्रभाषा सम्मान’ 2017

कविता-संग्रह-
छह कविता-संग्रह प्रकाशित।

1. पके धान की गंध(1992), साहित्य संसद, नई दिल्ली
2. कई-कई यात्राएँ(2000), पुस्तक भवन, नई दिल्ली
3. अग्नि की इस लपट से कैसे बचाऊँ कोमल कविता(2005), नई संस्कृति प्रकाशन
4. रचते-गढ़ते(2008), किताब महल, इलाहाबाद
5. मा कॉमरेड और दोस्त(2014),विजया बुक्स, दिल्ली
6. संघर्ष के एस्ट्रोटर्फ पर(2016), अभिधा प्रकाशन, मुज़फ्फरपुर

गद्य रचनाएँ-

1. जागत नीद न कीजै (टिप्पणियों का संग्रह),2008, सुधा प्रकाशन, पटना
2. सबद सबद बहु अंतरा( टिप्पणियों का संग्रह), 2000, राजदीप प्रकाशन , नई दिल्ली
3. नयी कविताः नया परिदृश्य(आलोचना पुस्तक),2007, किताब महल प्रकाशन
4. प्रपद्यवाद और केसरी कुमार(आलोचना पुस्तक), बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से

उपन्यास-

1. छाड़न(2005), पुस्तक भवन, नई दिल्ली से प्रथम संस्करण, बाद में किताब महल, इलाहबाद से
2. मरणोपरांत एक अपूर्ण उपन्यास ’कथांतर‘ पत्रिका के जुलाई 2018 अंक में
‘उस द्वीप की रूपक कथा’ नाम से प्रकाशित।
संपादित पुस्तक-
1. फणीश्वरनाथ रेणु : पहचान और परख, 2018, राजदीप प्रकाशन, नई दिल्ली

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