आई.टी.एम. वि.वि. ग्वालियर ‘इबारत’ कार्यक्रम में.
सुबह 10 बजे वक़ार सिद्दीक़ी साहब का फोन आया कहा-
“जीके, क्या 11 बजे तक गाड़ी लेकर आ सकते हो?”
मैंने कहा – “कहाँ सर?”
वो बोले – “होटल सेन्ट्रल पार्क, निदा फ़ाज़ली नें बुलाया है”
मैं- “उड़कर आ रहा हूं सर, उड़कर ! ”
रास्ते में याद आया ….
वक़ार साहब और जीके शुक्ला आदि दोस्तों नें कुछ अंश देकर उन्हें बॉम्बे (मुम्बई) भेजा पर मायानगरी की चकाचौंध से घबरा कर लौट आये. उनका पूरा परिवार पाकिस्तान चला गया लेकिन निदा नें जाने से इंकार कर यहीं रहने का फैसला किया.
वक़ार साहब ने बताया कि निदा के परिवार से उनके आत्मीय ताल्लुक़ रहे थे. अकेले निदा साहब को रिश्ते में भाई, वक़ार साहब और दोस्तों को अपने फ़न पर भरोसा था कि ‘रंग लायेगी हमारी फ़ाक़ामस्ती एक दिन.’
एक बार फिर वक़ार साहब और दोस्तों नें निदा फ़ाज़ली को प्रेरित कर बम्बई रवाना किया.
इस बार बम्बई नें उनके इस्तक़बाल में बाहें फैला दीं.
और फिर कुछ ही समय में उन्होंने शायरी की दुनिया में और फ़िल्मी गीतों में बेहद मक़बूलियत हासिल की.
(जैसा वक़ार साहब नें बताया)
वक़ार साहब घर के बाहर ही इन्तज़ार करते मिले.
होटल सेन्ट्रल पार्क (ग्वालियर) पहुंच कर हमने रूम न. ‘205’ की बेल बजाई. अन्दर से आवाज़ आई – “आ जाइये”
द्वार खोल कर देखा तो दरबार सजा था.
डबल बैड पर निदा साहब आजू-बाजू कुछ तकियों से टिके बैठे थे. दूसरे छोर पर कुर्सी पर प्रख्यातआई सर्जन डॉ अरविंद दुबे जो बेहद ज़हीन हैं बैठे थे. दूसरी कुर्सी पर नये नकोर और निदा सर के प्रिय शायर मदनमोहन मिश्रा ‘दानिश’ ‘बा अदब ‘ ‘बा मुलाहिजा’ के साथ बैठे थे.
मेरे पीछे वक़ार साहब को देख निदा साहब नें – “आइये.. आइये..” कह कर अपने पास ही बिठा लिया. वक़ार साहब नें कहा कि “ये प्रोफेसर सक्सेना हैं, आपकी शायरी के जानकार और मुरीद”, उन्होंने मुझे डबलबेड पर बैठने को कहा.
एक कमरे में तीन शायर और एक्टिविस्ट साथ देख कर मेरी चुपचाप खिसकने की इच्छा हुई, पर निदा साहब से मिलने के लोभ में बैठा रहा.
करीब आधा घंटे तक वह बात करते रहे, मैं मुँह सिये मन ही मन ‘राग दरबारी’ की तर्ज़ पर ‘भुन भुनाने’ लगा. हमारे यहाँ प्रतिरोध और प्रतिकार की जगह लोग भुन भुनाने लगे हैं, तभी किसी प्रसंग वश निदा साहब ने नरेश सक्सेना का ज़िक्र किया और कहा कि वह अच्छी कविताएं लिख रहे हैं. “उनकी पर्यावरण पर लिखी कविता मुझे बहुत पसंद है पर याद नहीं आ रही..”
मैंने फ़ौरन कहा- “जी, मुझे याद है वह कविता”
और फिर वह कविता सुना दी जो इस तरह थी –
“अंतिम समय जब कोई नहीं जाएगा साथ
एक वृक्ष जाएगा
अपनी गौरैयों-गिलहरियों से बिछुड़कर
साथ जाएगा एक वृक्ष
अग्नि में प्रवेश करेगा वही मुझ से पहले
‘कितनी लकड़ी लगेगी’
शमशान की टालवाला पूछेगा
ग़रीब से ग़रीब भी सात मन तो लेता ही है
लिखता हूं अंतिम इच्छाओं में
कि बिजली के दाहघर में हो मेरा संस्कार
ताकि मेरे बाद
एक बेटे और एक बेटी के साथ
एक वृक्ष भी बचा रहे संसार में ”
अब पहली बार निदा साहब नें मुझे दिलचस्पी से देखा. कहा-
“अच्छा, क्या आप नरेश जी को जानते है?”
मैंने कहा – “हाँ, वह आपकी तरह अक्सर आते है.आपकी तरह ग्वालियर और यहां के लोगों से प्यार करतें हैं, उन्हें भी प्रतिष्ठित जन कवि मुकुटबिहारी सरोज सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है. मेरे मार्गदर्शन में एक छात्र उन पर शोध कर रहा है.”
इस बीच मुझे याद आया कि बशीर बद्र साहब और शहरयार साहब से उनकी पसंदीदा ग़ज़ल पूछ कर मात खा चुका था और मैंने भी ‘तीसरी कसम’ खाई थी की , किसी बड़े शायर से यह नहीं पूछूंगा. पर चलने से पहले मुझे खुजली के कीड़े नें काटा और मैंने निदा साहब से कहा-
“सर, मुझे आपके बहुत से शेर याद है, पर एक ग़ज़ल मेरे दिल में घर किये हुए है, उस पर आपकी राय चाहता हूँ”
अपनी घुमा कर कही बात से में ख़ुश हुआ
उन्होंने कहा- “बताएं”
मैंने कहा –
‘मुँह की बात सुने हर कोई
दिल के दर्द को जाने कौन”
मुझे रोक कर निदा साहब नें कहा मेरी इस ग़ज़ल की रेंज बहुत विस्तृत भी है और गहरी भी है. इसके पहले शेर में ‘ लम्हों नें ख़ता की सदियों नें सजा पाई ‘ का कांसेप्ट है. इस ग़ज़ल को लिख कर सुकून मिला.
मैं गदगद, मेरा काम हो गया था !!
जिस महफिल में तीन शायर निदा फ़ाज़ली, वक़ार सिद्दीक़ी और मदन मोहन ‘दानिश’ हों और एक मास्टर मैं
और एक मरीज से
‘तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है’. कहने वाले सर्जन, और एक्टिविस्ट हों वहाँ ग़ालिब की ‘इक गुना बेखुदी की जगह दस गुना नेखुदी’ में होना स्वाभाविक है.
निदा साहब नें वक़ार सिद्दीक़ी से ‘इबारत ‘ में ज़रुर आने का कह बहुत प्यार से द्वार तक छोड़ा.
मैने वक़ार साहब को घर छोड़ कर शुक्रिया अदा किया कि उन्होंने मेरे प्रिय शायर से मुझे मिलवाया.
अब मेरी पसंदीदा ग़ज़ल पर बात …
‘ शायर सदी से गुज़रता है.’
टाइम स्पेस है.
अतीत का त्रासद
दृश्य बिम्ब.
राही मासूम रज़ा के उपन्यास पर बना मेरी पसंद का सर्व श्रेष्ठ सीरियल ‘नीम का पेड़ ‘ का
थीम साँग जो गहरे से जुड़ा है.(जगजीत सिंह).
मैं इसे रूह से महसूस करता हूं. बाकी आप बताएं.
पेश है मेरी पसंदीदा ग़ज़ल –
“मुँह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन.
आवाज़ों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन.
सदियों सदियों वही तमाशा रस्ता रस्ता लम्बी खोज,
लेकिन जब हम मिल जाते हैं खो जाता है जाने कौन.
वो मेरी परछाईं है या मैं उस का आईना हूँ,
मेरे ही घर में रहता है मुझ जैसा ही जाने कौन.
जाने क्या क्या बोल रहा था सरहद प्यार किताबें ख़ून,
कल मेरी नींदों में छुप कर जाग रहा था जाने कौन.
किरन किरन अलसाता सूरज पलक पलक खुलती नींदें,
धीमे धीमे बिखर रहा है ज़र्रा ज़र्रा जाने कौन.
मुँह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन…”
#निदाफ़ाज़ली #नरेशसक्सेना
डॉ. गोपाल किशोर सक्सेना